सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ आगे आये महिला संगठन

दहेज़ कानूनों के दुरुपयोग को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय के खिलाफ चारो ओर आक्रोश है . आज पटना में भी ८ महिला संगठनो ने सर्वोच्च न्यायालय से इस पर पुनर्विचार की अपील की है और बिहार सरकार से भी अपील की है कि वह सर्वोच्च न्यायालय में एक पुनर्विचार याचिका दाखिल करे .

क्या है पूरा फैसला :  पढने के लिए क्लिक करें ; अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य 

फैसले के मुख्य बिंदु को हिंदी में पढ़ने के लिए क्लिक करें : हम चार दशक पीछे चले गए हैं 

महिला संगठनो की अपील :

माननीय सर्वोच्च न्यालय का 498(A) से संबंधित फैसला चिंताजनक

महिला आंदोलन के लंबे संघर्ष का नतीजा था कि महिला उत्पीडन के खिलाफ सख्तकानून बने, इन्ही कानूनों में था 498(A). पर 2 जुलाई 2014 को 498(A) सेसंबंधित जो फैसला माननीय सर्वोच्च न्यालय ने दिया वह महिलाओं के आंदोलनके  दशकों के संघर्ष के लिए एक बड़ा धक्का है. यह फैसला ऐसे वक्त में आया जब दहेज विरोधी आन्दोलन की एक नेत्री सत्य रानी चड्ढा अब हमारे बीच नहीं रहीं. सत्य रानी चड्ढा का संघर्ष उनकी बेटी के लिए न्याय से शुरू हुआ. जिसकी ह्त्या दहेज के लिए 1979 में की गयी, और दिल्ली उच्च न्यायालय से उन्हें 2013 में न्याय प्राप्त हुआ जब उनके दामाद को दोषी पाया गया.

इस सन्दर्भ में आज 8 महिला एवं सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों की बैठक हुई जिसमें यह चिंता व्यक्त की गयी की 2 जुलाई 2014 को ‘अर्नेश कुमार बनाम बिहार सरकार’ के मामले में जो फैसला माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दिया उस से महिलाओं को न्याय पाने में अब अधिक कठिनाई का सामना करना पडेगा क्यूंकि यह आदेश सिर्फ इस वाद तक सीमित नहीं बल्कि इस का असर हर महिला उत्पीडन के मामले पर होगा. इसका अनुपालन न होने पर माननीय सर्वोच्च न्यालय की अवमानना का मामला दर्ज होगा.

दुखद यह है की जिस तरह की भाषा का इस्तमाल इस आदेश में किया गया है वह हिंसा का सामना कर रही महिलाओं को नीचा दिखाता है. उदाहरण के लिए आदेश में कहा गया है कि 498(A) को “असंतुष्ट पत्नियों” द्वारा एक “हथियार” के रूप में इस्तमाल किया जा रहा है. साथ ही यह आदेश एक संज्ञेय अपराध को गैर-संज्ञेय अपराध बनाने की दिशा में एक कदम है. यह गौरतलब है कि आपराधिक दंड संहिता की धारा 41 (A) के हम सब पक्षधर हैं क्यूंकि यह सुनिश्चित करता है की कोई भी गिरफ्तारी बिना सोचे समझे नहीं की जानी चाहिए और यही आदेश के बिंदु 1 से 4 में दिया गया है हमारी आपत्ति  बिंदु 5 से है जिस से यह कानून संज्ञेय से लगभग असंज्ञेय हो जाता है और यह पुलिस की गिरफ्तारी करने की ताकत को छीन लेता है. न्यायालय
को एक संज्ञेय अपराध को असंज्ञेय बनाने का अधिकार नहीं है ऐसा करना लोक सभा का अधिकार है.

माननीय सर्वोच्च न्यालय के फैसले में उन लोगों के लिए चिंता व्यक्त की गयी है जिन्हें 498(A) के झूठे मामलों में गिरफ्तारी का असम्मान सहना पड़ा, हम भी ऐसे मामलों में सहानुभूति रखते हैं, पर साथ ही यह पूछना चाहते हैं कि क्या इस सदर्भ में एक वैज्ञानिक शोध की आवश्यकता माननीय सर्वोच्च न्यालय को नहीं लगती? क्या कुछ व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर हिंसा की शिकार हज़ारों महिलाओं को सिर्फ “असंतुष्ट पत्नियां” कह कर उचित न्याय से वंचित रखा जाएगा? इस सन्दर्भ में हम सभी प्रतिनिधि मांग करते हैं कि :

.             माननीय सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे
२.             बिहार सरकार इस निर्णय में “review petition” सर्वोच्च न्यायालय में दायर करे

सुधा वर्घीज़ (नारी गुंजन), निवेदिता, शरद, अनिता मिश्रा (बिहार महिला समाज), अमृता भूषनण (लायंस क्लब), शशि यादव, अनीता सिन्हा (ऐपवा), संजू सिंह (महिला हेल्पलाइन), सुधा (शक्तिवर्धिनी), मोना (रंगकर्मी), कामायनी (NAPM)आदि के द्वारा जारी इस अपील के साथ यह निर्णय भी लिया गया है कि महिलाओं का एक प्रतिनिधि मंडल इस मसाले पर बिहार सरकार से बात करेगा. इस फैसले की सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ताओं ने भी आलोचना की है .

फैसले पर अरविंद जैन के द्वारा  वृहद्  आलोचनात्मक टिप्पणी को पढ़ने के लिए क्लिक करें : न्याय व्यवस्था में दहेज़ का नासूर