सुशांत सुप्रिय की कविताएं

सुशांत सुप्रिय


सुशांत सुप्रिय कथाकार, कवि और अनुवादक हैं. अब तक दो कथा-संग्रह ‘हत्यारे’ (२०१०) तथा ‘हे राम’ (२०१२) और एक काव्य-संग्रह ‘ एक बूँद यह भी ‘ ( 2014) प्रकाशित हो चुके हैं। अनुवाद की एक पुस्तक ‘ विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ ‘ प्रकाशनाधीन है ।संपर्क: 09868511282 / 08512070086

( बेचैन कर देने वाली सुशांत सुप्रिय की इन कविताओं  को कवि के इस आत्मकथ्य के साथ पढ़ें  .”कविता मेरा  ऑक्सीजन है । कविता मेरे रक्त में है , मज्जा में है । यह मेरी धमनियों में बहती है । यह मेरी हर साँस में समायी है । यह मेरे जीवन को अर्थ देती है । यह मेरी आत्मा को ख़ुशी देती है । मुझमें कविता है , इसलिए मैं हूँ । मेरे लिए लेखन एक तड़प है, धुन है , जुनून है । कविता लिखना मेरे लिए व्यक्तिगत स्तर पर ख़ुद को टूटने, ढहने , बिखरने से बचाना है । लेकिन सामाजिक स्तर पर मेरे लिए कविता लिखना अपने समय के अँधेरों से जूझने का माध्यम है , हथियार है , मशाल है ताकि मैं प्रकाश की ओर जाने का कोई मार्ग ढूँढ़ सकूँ । ”)

1.       बच्ची

हम एजेंसी से
एक बच्ची
घर ले कर आए हैं

वह सीधी-सादी सहमी-सी
आदिवासी बच्ची है

वह सुबह से रात तक
जो हम कहते हैं
चुपचाप करती है

वह हमारे बच्चे की
देखभाल करती है
जब उसका मन
ख़ुद दूध पीने का होता है
वह हमारे बच्चे को
दूध पिला रही होती है
जब हम सब
खा चुके होते हैं
उसके बाद
वह सबसे अंत में
बासी बचा-खुचा
खा रही होती है

उसके गाँव में
फ्रिज या टी. वी. नहीं है
वह पहले कभी
मोटर कार में
नहीं बैठी
उसने पहले कभी
गैस का चूल्ह
नहीं जलाया

जब उसे
हमारी कोई बात
समझ में नहीं आती
तो हम उसे
‘ मोरोन ‘ कहते हैं
उसका ‘ आई. क्यू. ‘
शून्य मानते हैं

हमारा बच्चा भी
अक्सर उसे
डाँट देता है
हम उसकी बोली
उसके रहन-सहन
उसके तौर-तरीक़ों का
मज़ाक़ उड़ाते हैं

दूर कहीं
उसके गाँव में
उसके माँ-बाप
तपेदिक से मर गए थे
उसका मुँहबोला  ‘ भाई ‘
उसे घुमाने के बहाने
दिल्ली लाया था
उसकी महीने भर की कमाई
एजेंसी ले जाती है

आप यह जान कर
क्या कीजिएगा कि वह
झारखंड की है
बंगाल की
आसाम की
या छत्तीसगढ़ की

क्या इतना काफ़ी नहीं है कि
हम एजेंसी से
एक बच्ची
घर ले कर आए हैं
वह हमसे
टाॅफ़ी या ग़ुब्बारे
नहीं माँगती है
वह हमारे बच्चे की तरह
स्कूल नहीं जाती है

वह सीधी-सादी सहमी -सी
आदिवासी बच्ची
सुबह से रात तक
चुपचाप हमारा सारा काम
करती है
और कभी-कभी
रात में सोते समय
न जाने किसे याद करके
रो लेती है

२ . कामगार औरतें

कामगार औरतों के
स्तनों में
पर्याप्त दूध नहीं उतरता
मुरझाए फूल-से
मिट्टी में लोटते रहते हैं
उनके नंगे बच्चे
उनके पूनम का चाँद
झुलसी रोटी-सा होता है
उनकी दिशाओं में
भरा होता है
एक मूक हाहाकार
उनके सभी भगवान्
पत्थर हो गए होते हैं
ख़ामोश दीये-सा जलता है
उनका प्रवासी तन-मन

फ़्लाइ-ओवरों से ले कर
गगनचुम्बी इमारतों तक के
बनने में लगा होता है
उनकी मेहनत का
हरा अंकुर
उपले-सा दमकती हैं वे
स्वयं विस्थापित हो कर

हालाँकि टी. वी. चैनलों पर
सीधा प्रसारण होता है
केवल विश्व-सुंदरियों की
कैट-वाक का
पर उस से भी
कहीं ज़्यादा सुंदर होती है
कामगार औरतों की
थकी चाल

3.  माँ

इस धरती पर
अपने शहर में मैं
एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में
एक छोटे-से शब्द-सा आया था

वह उपन्यास
एक ऊँचा पहाड़ था
मैं जिसकी तलहटी में बसा
एक छोटा-सा गाँव था

वह उपन्यास
एक लम्बी नदी था
मैं जिसके बीच में स्थित
एक सिमटा हुआ द्वीप था

वह उपन्यास
पूजा के समय बजता हुआ
एक ओजस्वी शंख था
मैं जिसकी गूँजती ध्वनि-तरंग का
हज़ारवाँ हिस्सा था

आशीष की पेंटिंग

वह उपन्यास
एक रोशन सितारा था
मैं जिसकी कक्षा में घूमता हुआ
एक नन्हा-सा ग्रह था

हालाँकि वह उपन्यास
विधाता की लेखनी से उपजी
एक सशक्त रचना थी
आलोचकों ने उसे
कभी नहीं सराहा
जीवन के इतिहास में
उसका उल्लेख तक नहीं हुआ

आख़िर क्या वजह है कि
हम और आप
जिन उपन्यासों के
शब्द बन कर
इस धरती पर आए
उन उपन्यासों को
कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला?

4..जो काल्पनिक कहानी नहीं है ‘ की कथा

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं थी
कथा में मेमनों की खाल में भेड़िये थे
उपदेशकों के चोलों में अपराधी थे
दिखाई देने के पीछे छिपी
उनकी काली मुस्कुराहटें थीं
सुनाई देने से दूर
उनकी बदबूदार गुर्राहटें थीं

इसके बाद जो कथा थी, वह असल में केवल व्यथा थी
इस में दुर्दांत हत्यारे थे, मुखौटे थे,
छल-कपट था और पीड़ित बेचारे थे
जालसाज़ियाँ थीं, मक्कारियाँ थीं,
दोगलापन था, अत्याचार था
और अपराध करके साफ़
बच निकलने का सफल जुगाड़ था

इसके बाद कुछ निंदा-प्रस्ताव थे,
मानव-श्रृंखलाएँ थीं, मौन-व्रत था
और मोमबत्तियाँ जला कर
किए गए विरोध-प्रदर्शन थे
लेकिन यह सब बेहद श्लथ था

कहानी के कथानक से
मूल्य और आदर्श ग़ायब थे
कहीं-कहीं विस्मय-बोधक चिह्न
और बाक़ी जगहों पर
अनगिनत प्रश्न-वाचक चिह्न थे
पात्र थे जिनके चेहरे ग़ायब थे
पोशाकें थीं जो असलियत को छिपाती थीं

यह जो ‘ काल्पनिक कहानी नहीं थी ‘
इसके अंत में
सब कुछ ठीक हो जाने का
एक विराट् भ्रम था
यही इस समूची कथा को
वह निरर्थक अर्थ देता था
जो इस युग का अपार श्रम था

कथा में एक भ्रष्ट से समय की
भयावह गूँज थी
जो इसे समकालीन बनाती थी

जो भी इस डरावनी गूँज को सुन कर
अपने कान बंद करने की कोशिश करता था
वही पत्थर बन जाता था …

5 . कुछ समुदाय हुआ करते हैं

कुछ समुदाय हुआ करते हैं
जिनमें जब भी कोई बोलता है
‘ हक़ ‘ से मिलता-जुलता कोई शब्द
उसकी ज़ुबान काट ली जाती है
जिनमें जब भी कोई अपने अधिकार माँगने
उठ खड़ा होता है
उसे ज़िंदा जला दिया जाता है

आशीष की पेंटिंग

कुछ समुदाय हुआ करते हैं
जिनके श्रम के नमक से
स्वादिष्ट बनता है औरों का जीवन
किंतु जिनके हिस्से की मलाई
खा जाते हैं
कुल और वर्ण की श्रेष्ठता के
स्वयंभू ठेकेदार कुछ अभिजात्य वर्ग

सबसे बदहाल, सबसे ग़रीब
सबसे अनपढ़ , सबसे अधिक
लुटे-पिटे करोड़ों लोगों वाले
कुछ समुदाय हुआ करते हैं
जिन्हें भूखे-नंगे रखने की साज़िश में
लगी रहती है एक पूरी व्यवस्था

वे समुदाय
जिनमें जन्म लेते हैं बाबा साहेब अंबेडकर
महात्मा फुले और असंख्य महापुरुष
किंतु फिर भी जिनमें जन्म लेने वाले
करोड़ों लोग अभिशप्त होते हैं
अपने समय के खैरलाँजी या मिर्चपुर की
बलि चढ़ जाने को

वे समुदाय
जो दफ़्न हैं
शॉपिंग माॅल्स और मंदिरों की नींवों में
जो सबसे क़रीब होते हैं मिट्टी के
जिनकी देह और आत्मा से आती है
यहाँ के मूल बाशिंदे होने की महक
जिनके श्रम को कभी पुल, कभी नाव-सा
इस्तेमाल करती रहती है
एक कृतध्न व्यवस्था
किंतु जिन्हें दूसरे दर्ज़े का नागरिक
बना कर रखने के षड्यंत्र में
लिप्त रहता है पूरा समाज

आँसू, ख़ून और पसीने से सने
वे समुदाय माँगते हैं
अपने अँधेरे समय से
अपने हिस्से की धूप
अपने हिस्से की हवा
अपने हिस्से का आकाश
अपने हिस्से का पानी
किंतु उन एकलव्यों के
काट लिए जाते हैं अंगूठे
धूर्त द्रोणाचार्यों के द्वारा

वे समुदाय
जिनके युवकों को यदि
हो जाता है प्रेम
समुदाय के बाहर की युवतियों से
तो सभ्यता और संस्कृति का दंभ भरने वाली
असभ्य सामंती महापंचायतों के मठाधीश
उन्हें दे देते हैं मृत्यु-दंड

वे समुदाय
जिन से छीन लिए जाते हैं
उनके जंगल, उनकी नदियाँ , उनके पहाड़
जिनके अधिकारों को रौंदता चला जाता है
कुल-शील-वर्ण के ठेकेदारों का तेज़ाबी आर्तनाद

वे समुदाय जो होते हैं
अपने ही देश के भूगोल में विस्थापित
अपने ही देश के इतिहास से बेदख़ल
अपने ही देश के वर्तमान में निषिद्ध
किंतु टूटती उल्काओं की मद्धिम रोशनी में
जो फिर भी देखते हैं सपने
विकल मन और उत्पीड़ित तन के बावजूद
जिन की उपेक्षित मिट्टी में से भी
निरंतर उगते रहते हैं सूरजमुखी

सुनो द्रोणाचार्यो
हालाँकि तुम विजेता हो अभी
सभी मठों पर तैनात हैं
तुम्हारे खूँख्वार भेड़िए
लेकिन उस अपराजेय इच्छा-शक्ति का दमन
नहीं कर सकोगे तुम
जो इन समुदायों की पूँजी रही है सदियों से
जहाँ जन्म लेने वाले हर बच्चे की
आनुवंशिकी में दर्ज है
अन्याय और शोषण के विरुद्ध
प्रतिरोध की ताक़त

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ISSN 2394-093X
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