आपहुदरी : रमणिका गुप्ता की आत्मकथा : तीसरी किस्त

रमणिका गुप्ता


रमणिका गुप्ता स्त्री इतिहास की एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं . वे आदिवासी और स्त्रीवादी मुद्दों के प्रति सक्रिय रही हैं . ‘युद्धरत आम आदमी’ की सम्पादक रमणिका गुप्ता स्वयं कथाकार , विचारक और कवयित्री हैं . आदिवासी साहित्य और संस्कृति तथा स्त्री -साहित्य की कई किताबें इन्होने संपादित की है. संपर्क :मोबाइल न. 9312039505.



 ( हम यहाँ रमणिका गुप्ता की शीघ्र प्रकाश्य आत्मकथा सीरीज ‘ आपहुदरी’ के एक
अंश किश्तों में प्रकाशित कर रहे हैं. रमणिका जी के जीवन के महत्वपूर्ण
हिस्से धनवाद में बीते , जहां वे खुदमुख्तार स्त्री बनीं, ट्रेड यूनियन की
सक्रियता से लेकर बिहार विधान परिषद् में उनकी भूमिका के तय होने का शहर है
यह. ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ से कोयलानगरी की राजनीति को समझने वाली हमारी
पीढी को यहाँ स्त्री की आँख से धनबाद से लेकर राज्य और राष्ट्रीय राजनीति
के गैंग्स्टर मिजाज को समझने में मदद मिलेगी, और यह भी समझने में कि यदि
कोइ स्त्री इन पगडंडियों पर चलने के निर्णय से उतरी तो उसे किन संघर्षों से
गुजरना पड़ता रहा है , अपमान और  पुरुष वासना की अंधी गलियाँ उसे स्त्री
होने का   अहसास बार -बार दिलाती हैं. उसे स्थानीय छुटभैय्ये नेताओं से
लेकर मंत्री , मुख्यमंत्री , राष्ट्रपति तक स्त्री होने की उसकी औकात बताते
रहे हैं . ६० -७० के दशक से राजनीति के गलियारे आज भी शायद बहुत बदले नहीं
हैं. इस आत्मकथा में अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत बना लेनी की कहानी है
और ‘ हां या ना कहने के चुनाव’ की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष की भी कहानी
है. इस जीवन -कथा की स्त्री उत्पीडित है, लेकिन हर घटना में अनिवार्यतः
नहीं.   इस आत्मकथा के कुछ प्रसंग आउटलुक के लिए रमणिका जी के साक्षात्कार
में पहले व्यक्त हो चुके हैं.  )

तीसरी किस्त के बारे में :पीछे दो किश्तों में हम ६० सत्तर के दशक में कोयला नगरी से चल रही बिहार की खूनी और धनबल आधारित राजनीति ,तत्कालीन मुख्यमंत्री के बी सहाय से से लेकर स्थानीय नेताओं की कामुकता के बारे में पढ़ चुके हैं . इस किश्त  में भारत के राष्ट्रपति बने नीलम संजीव रेड्डी सहित पुरुष नेताओं की आक्रामक लम्पटता की कथा है , जिसकी लेखिका खुद भुक्तभोगी बनीं बिहार की तत्कालीन जातिवादी राजनीति के दाँव पेंच का विवरण है , जिसमें मुख्य खिलाड़ी , भूमिहार , राजपूत, ब्राहमण और कायस्थ नेता थे .रमणिका गुप्ता की आत्मकथा के इन अंशों में बिहार की राजनीति के ऐतिहासिक दस्तावेज हैं एक स्त्री के नजरिये से . इन्हें पिछले दो  किश्तों के साथ पढ़ें)

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पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ,जिनके बारे में लेखिका का कहना है कि वे नंग धडंग किसी  महिला के सामने खड़े हो जाते थे. लेखिका के अनुसार शायद  उनके  इन्हीं व्यवहारों के कारण रेड्डी को इंदिरा गांधी राष्ट्रपति बनाना नहीं चाहती थीं

राजनीति में समझौता या व्यभिचार ज्यादा चलता है और बलात्कार कम। समझौते की परिस्थितियाँ बदलने पर भी कभी-कभी अपवाद-स्वरूप बलात्कार का रूप ले लेती हैं। मैंने स्वयं कई महिलाओं को आमंत्रण देते सुना है। उनके पतियों को बाहर पहरे पर बैठे भी देखा है। ऐसी स्थिति में यह व्यापार बन जाता है, जिसमें लाभ और हानि दोनों होते हैं। इनमें महिला का पति पुरुष पार्टनर स्वयं अपनी पत्नी के विकास की सीढ़ी बनने का रोल अदा करता है। वह अपना स्वार्थ पत्नी के माध्यम से सिद्ध करता है।

राजनीति में औरतों के साथ दिक्कत तब होती है जब उसकी राजनीतिक जरूरत खत्म होने पर उसकी उपेक्षा शुरू हो जाती है। कोई दूसरी उसकी जगह ले लेती है। इस उपेक्षा का सैक्स से ज्यादा संबंध नहीं होता। राजनीतिक पुरुष राजनीति में नई आई महिलाओं को सेक्स का शिकार बनाते हैं लेकिन वे अधिकांश  पुरानी महिलाएं, सब अवरोधों के बावजूद अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं और मोर्चे पर डटी रहती हैं इन स्त्री  कार्यकर्ताओं या नेताओं की अस्मिता को स्वीकृति मिल जाती है। अस्मिता केे नकारे जाने पर ही राजनीतिक महिलाएं क्षुब्ध होती हैं और झगड़े बढ़ते हैं। पुरुषों के विभिन्न गुट ऐसे समय उस महिला को अपना मोहरा बनाकर अपनी  शत्रुता सधाते हैं, विरोधियों का भयादोहन करते हैं या अपनी गोटी फिट करते हैं। शुरू के दिनों में ही यदि कोई औरत अपनी अस्मिता को कायम रखे तो दिक्कतें कम आती हैं। अस्मिता-हीन औरत की राजनीति में वेश्याओं से भी अधिक दुर्दशा  होती है। शुरू में हर औरत एक रुतबा पाती है लेकिन फिर उस पर सौदेबाजी शुरू हो जाती है। हाँ, अगर वह किसी नेता की पत्नी, बहन, माँ या रखैल हो, तो बाकी मित्र या नेता उसके साथ दूसरा व्यवहार करते हैं अन्यथा उसे किसी पुरुष के समान आड़े हाथों लिया तो जाता ही है, साथ ही औरत होने के नाते उसके चरित्र-हनन् की मुहिम,बे सिर-पैर के आरोप और भयादोहन की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है। उसकी कमजोरियों का लाभ भी वे उठाते हैं।

खैर! मैं भटक गई थी। मुख्यमंत्री का पत्र लेकर मैं राजा बाबू के पास गई। वे मेरी प्रशंसा  पहले ही सुन चुके थे,‘‘बहुत अच्छा बोलती हो, मुख्यमंत्री बता रहे थे। आज ही तुम्हें बी.पी.सी.सी का सदस्य मनोनीत करने का पत्र दे दूँगा। तुम मिलती रहा करो।’’ उन्होंने हाथ पकड़कर स्नेहपूर्वक मुझे अपने पास बैठाते हुए कहा।
फिर अचानक उनके कमरे का दरवाजा बंद हो गया। मैंने एक असफल कोशिश  की अपने को बचाने की, पर शायद यह कोशिश तीव्र नहीं रही होगी! शायद मुझे सुख के अहसास के साथ-साथ उनकी आँखों में स्नेह-भरा एक सक्षम सहारा भी झांकता दिखा होगा। यह एक दूसरा सुरक्षा कवच था। एक बिहार का शीर्ष  नेता मुख्यमंत्री और दूसरा बिहार कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष। एक कायस्थ और एक ब्राह्मण। वे दोनों मेरे समक्ष ,दिलीप और एक भूमिहार डी.एस.पी. जो मुझे प्रायः तंग करते थे, के खिलाफ वे एक बड़ी, बहुत बड़ी ढाल बन कर मुझे मेरे संरक्षक के रूप में सामने खड़े नज़र आने लगे थे।

 मैंने अपनी राजनीतिक-यात्रा शुरू कर दी। तमिल भाषा की कुछ जानकारी होने के कारण मुख्यमंत्री का संदेश  दिल्ली वाले अध्यक्ष यानी कामराज नादार तक पहुँचाना भी मेरे काम में शुमार कर दिया गया था।
जयपुर में कांग्रेस का सम्मेलन था। मैं बी.पी.सी.सी. की तरफ से गई थी। तिथियां याद नहीं हैं। उन दिनों इन्दिरा गांधी केंद्र में मंत्री  थीं। यशपाल कपूर उनके सेक्रेटरी होते थे। उनसे मेरी मुलाकात हो चुकी थी। वे भी मुझे तरजीह देते थे। उस सम्मेलन के दौरान उन्होंने मुझसे कहा था,‘‘रमणिका, युवाओं का जमाना आने वाला है। देखो, आगे-आगे क्या होता है। इन्दिरा जी के हाथ में बागडोर होगी। सभी युवाओं का यही सपना है। यही सपना दिखाओ कार्यकर्ताओं को।’’

इंदिरा गांधी उन वर्षों में ताकतवर नेता के रूप में उभर रही थीं

राजनीति की गहरी और गंभीर गहन योजना में शीर्ष स्तर पर राजदां बनने पर मैं  बहुत खुश  थी। यशपाल कपूर मेरे मित्र बन गए थेे। वे युवा थे, हैंडसम और स्मार्ट भी और राजनीति में मुझे आगे बढ़ाने में मददगार भी। कांग्रेस में दिल्ली की राजनीति में वे मेरे संरक्षक थे। उन दिनों राजनीति में आई स्त्रियों से राजनेताओं की मित्रता का अर्थ था,दैहिक मित्रता, जो एक साथ कईयों से हो सकती थी। फिल्म उद्योग में भी यही अनिवार्य माना जाता था। दोनों में लक्ष्य सत्ता ही था.एक राजनैतिक सत्ता दूसरी आर्थिक सत्ता दोनों में ‘जन’ महत्वपूर्ण था जननेता-जननेत्री , जनप्रिय अभिनता या जनप्रिय-अभिनेत्री। दोनों लोकप्रियता का रास्ता हैं। दोनों में प्रसिद्धि    है। दोनों में स्त्री  के लिए यौन आकर्षण  और अभिव्यक्ति की शक्ति जरूरी है। एक का हथियार राजनीति है तो दूसरे का हथियार कला। खैर!

सम्मेलन में मन्त्राीगण दो घोड़ों की गाड़ी में मंच से रेस्ट-हाउस आया-जाया करते थे। मुझे तमिल आती थी, इसलिए दक्षिण के प्रतिनिधि और मंत्री  मुझसे अघिक घुल-मिल जाते थे। श्री संजीव रेड्डी उन दिनों केबिनेट स्तर के केंद्रीय मंत्री  थे। मैं बोलने के लिए मंच पर अपनी चिट देने गई तो उन्होंने मुझे मंच पर ही बैठने को कहा। मैं तुरंत अपनी नज़रों में बड़ी हो गई। उस पूरे सेशन  में उन्होंने मुझे मंच पर बिठाए रखा। एक नई कार्यकर्ता के लिए तो यह बड़ी बात थी। बिहार की बड़ी-बड़ी हस्तियां नीचे प्रतिनिधियों के साथ पंडाल में बैठी थीं और मैं मंच पर। लेकिन इसके पीछे की मंशा  मुझे मालूम नहीं थी। मैं उनसे यदाकदा तमिल में बात करती रही। हालाॅकि वे तेलगू-भाषी  थे पर वे तमिल समझते थे। उन दिनों हर दक्षिण वाले को ‘मद्रासी’ कहने का प्रचलन था। उन्होंने मुझे उस सत्र के खत्म होने पर मंच के पीछे घोड़ों वाले रथ के पास आने को कहा। अपने सेक्रेटरी से कहकर उन्होंने मुझे मंच का पास दिलवा दिया। लंच ब्रेक होने पर सब उठे। मैं भी पीछे गई, जहाँ उन्होंने मुझे रथ पर बैठा लिया। घोड़ा-गाड़ी में मैं और मंत्री ! मैं बड़ी शान  से उनके साथ जा रही थी। वे रास्ते भर मेरी प्रशंसा  करते गए। मुझे घर में हर रोज़ बुरा कहलाने के सिवा और कुछ सुनने को नहीं  मिलता था। प्रशंसा  के पुल बंधते देखकर मैं उन पुलों पर दौड़ने को तैयार हो गई थी। इसीलिए जब हम रेस्ट हाउस पहुँचे तो वे मुझे अपने साथ कमरे में लिवा ले गए। मुझे कमरे में बिठाकर वे बाथरूम चले गए। मैं सोच रही थी कि शायद यद अभी खाना-वाना मंगवाएंगे। बड़ी जोर से भूख लगी थी। प्रतिनिधियों का निवास-स्थान वहाँ से बहुत दूर था। हम हर रोज़ वहाँ बस से जाते-आते थे। पंडाल में मैंने खाना नहीं खाया था। मैं उनके आने के इंतजार में ही थी कि वे पूरी तरह नंगे होकर कमरे में आ गए। मंत्रियों के कमरे के दरवाज़े ओड़के भी हों तो कोई खोलने की हिम्मत नहीं करता। खुले भी हों तो कोई झांकने की ज़ुर्रत नहीं करता और न ही जरूरत समझता है, चूंकि सभी मंत्रियों की आदतों से परिचित होते हैं।

” मैं न बाहर जा सकती थी, न बैठी रह सकती थी। मैं एकाएक उठ खड़ी हुई, हतप्रभ थी मैं। मंत्री  जी कहने लगे कहने लगे,‘‘तुम्हारा मुख्यमंत्राी तो उस नर्स को भेजता है मेरे पास अपनी राजनीति ठीक करने के लिए। तुम भी क्या उन्हीं की तरफ से कुछ कहना चाहती हो।’’मैंने नकारते हुए कहा,‘‘ऐसा कोई काम मुझे आपके लिए सौंपा नहीं गया है। मैं तो बस अध्यक्ष जी जब बिहार आते हैं तो उनके भाषण  को हिन्दी में अनुवाद कर देती हूँ,या दिल्ली आती हूँ तो उनसे मिलकर मुख्यमंत्री जी का कोई संदेश  हुआ तो तमिल में समझा देती हूँ। अध्यक्ष जी तो मेरे साथ एकदम पितावत बुजुर्गों जैसा व्यवहार करते हैं।’’इस पर वे बिना बोले वहीं कालीन पर लेट गए। जो बीता वह तो बीता ही, पर बड़ी वितृष्णा हुई मुझे। तुरंत उठकर उन्होंने कपडे़ पहने और अपने पी.ए. को बुलाकर गाड़ी में मुझे पंडाल छोड़ देने को कहा। उस विशाल महल जैसे भवन में वहाँ और कोई नहीं था। मेरा विरोध किसी काम का नहीं हो सकता था,बस मैंने एक ही निश्चय  किया कि ‘‘दोबारा ऐसा मौका उन्हें नहीं हथियाने दूँगी।’’ बाद में वे राष्ट्रपति  भी बने।

के कामराज बीच में, वे तब पहली महिला प्रधानमंत्री को गूंगी गुड़िया मानने वालों में से एक थे

मुझे लगता है देश  के सर्वोपरि राष्ट्रपति  पद के चुनाव में इन्दिरा जी ने उनका विरोध संभवतः उनके ऐसे ही व्यवहार के कारण किया होगा। वे काफी उद्दंड थे। बाद में मैंने यह भी पाया कि कुछ लोगों को छोड़कर दक्षिण के कतिपय नेतागण प्रायः सेक्स के अधिक भूखे होते हैं। उनमें नफ़ासत या संवेदना कुछ नहीं होती। हालांकि राष्ट्रीय  अध्यक्ष इसमें अपवाद थे। शायद तथाकथित निम्न तबके से उच्च स्तर पर पहुँचे व्यक्ति को अपना अतीत अधिक याद रहता है। वह अपने या अपने समाज की औरतों  पर भी ऐसी जबरदस्तियां झेलता रहा होता है, इसलिए वह अधिक संवेदनशील  होता है। वैसे आगे चल कर मैंने इसके विपरीत अनुभव भी झेले।शाम  को मैं टैक्सी लेकर यशपाल कपूर से मिली और उन्हें पूरी घटना बताई। वे काफी नाराज़ दिखे। उन्होंने कुछ करने का आश्वासन  भी दिया। मुझे औरतों के प्रति ऐसे घटिया ढंग का नज़रिया रखना या व्यवहार करना बहुत अख़र रहा था, इसलिए मैंने ऐसे लोगों का विरोध करने की मन में एक गांठ बांध ली। इस सम्मेलन में नेहरू जी और शास्त्री जी दोनों आए थे। नन्दा जी और जगजीवन बाबू, उनकी पुत्री  मीरा कुमार भी थीं। मैं उन विशिष्ट  हस्तियों की मुरीद (फैन) थी। आजादी की लड़ाई के ये प्रतीक थे और हम सब उनके अनन्य भक्त। तब इन्दिरा गांधी उतने उफ़ान पर नहीं थीं।

संविद सरकारों का चलन

देश  की राजनीति ने 1967 में एक और पलटा खाया और पूरे भारत में कांग्रेस के एक छत्र राज को धक्का लगा। पहले तो कांग्रेसी लोग अपने में ही लड़कर अपनी ही सरकारों का नेतृत्व  बदलते थे और बदलाव की प्रक्रिया को अपने तक ही सीमित रखते थे। कैबिनेट के ममंत्री  बदल जाते थे, मुख्यमंत्री बदल जाते थे पर नीतियां नहीं बदलती थी। पर सन् 67 में जनता ने बिहार को बदल डाला और संविद सरकार की नींव डाल दी। इससे पहले गुजरात में भी हलचल शुरू  हुई थी और वहाँ भी कांग्रेस और जनसंघ में अदला-बदली होनी शुरू हो गई थी लेकिन बिहार ने पासा ही पलट दिया था। भले ही यह पासा ज्यादा दिन नहीं चला और विधायको की खरीद बिक्री से संविद सरकारेें भी गिरती-उठती रही पर व्यवस्थापक नये बनने लगे थे। मायाबाबू की तूती इतनी बोली छात्रों के कंधों पर चड़कर कि बिहार का राज पलट गया।

कुछ दिनों बाद के. बी. सहाय मुख्यमंत्री रहते हुए भी अपने क्षेत्रा में चुनाव हार गऐ। चुनाव-प्रचार में मोरारजी भाई धनबाद आए तो मंच पर मुख्यमंत्राी के.बी.सहाय भी साथ आये। मैं भी थी। छात्रों ने उन्हें (मुख्यमंत्री को) बोलने नहीं दिया। वे पत्थर चलाने लगे थे। एक छात्रा नेता की मृत्यु  पुलिस की गोली से हो गई थी। पूरे बिहार में महामाया बाबू के ‘जिगर के टुकड़े’ विद्रोह पर उतारू हो गए थे। वे कांग्रेस पार्टी की सभाएं नहीं होने दे रहे थे। उस दिन धनबाद में मोरारजी भाई ने मंच से ही छात्रों और जनता को संबोधित करते हुए कहा,‘‘मैं जानता हूँ यह पथराव मुझ पर नहीं बल्कि मुख्यमंत्राी पर है, इसलिए मेरी बात तो सुनिए।’’ मंच पर मुख्यमंत्राी भी मौजूद थे। मोरारजी भाई की अपील सुनते ही उनका चेहरा मुरझा-सा गया। मुझे भी मोरारजी भाई का इस तरह अपने ही दल के नेता ही नहीं, मुख्यमंत्री को जलील करना अच्छा नहीं लगा। मेरी राय में उन्हें भी भाषण  नहीं देना चाहिए था। पर चुनाव था,वोट जरूरी होते हैं। राजनीति में मान-अपमान या प्रतिष्ठा  नहीं। मैंने एक बार मुख्यमंत्री  की तरफ देखा, वे मुस्करा दिए, बस! आदर्शवाद  राजनीति में नहीं चलता, अवसरवाद चलता है,मैंने यह उस दिन जाना। जनता ने मोरारजी भाई की बात तो उस दिन सुन ली, पर कांग्रेस को बुरी तरह हरा दिया। दरअसल उस चुनाव में जनता ने अवसरवाद को हरा दिया था।

कांग्रस में रहते हुए जब भी मैं बी.पी.सी.सी. की मीटिंग या कांग्रस के किसी कार्यक्रम में जाती तो बिहार के हरदेव सिंह और शर्मा (एम.एल.सी) मुझे प्रायः तंग किया करते थे। इन पर बाबू सत्येन्द्र नारायण सिंह (जो बाद में कुछ अर्से के लिए बिहार के मुख्यमंत्री  भी बने)  का वरद हस्त भी था। दरअसल बाबू सत्येन्द्र नारायण सिंह अपने पिटा  के विपरीत विशुद्ध  जातीय राजनीति करने लगे थे। वे सारी शक्ति भूमिहारों के विरूद्ध मोर्चा खड़ा करने में लगाते थे। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण  सिंह, जिन्होंने , काफी अर्से तक बिहार में राज किया अपने पीछे भूमिहार नेतृृत्व की एक लंबी फेहरिस्त छोड़ गये थे। इसमें  महेश  बाबू, लल्तेश्वर शाही और कृष्णकांत सिंह  सिंह, तारकेश्वरी तथा बी.पी.सिन्हा आदि कई कांग्रेस के  जनप्रिय/शक्तिषाली नेता थे। उन्होंने अपने-अपने शक्ति केन्द्र भी कायम कर लिये थे। सत्येन्द्र बाबू के पास उनके समकक्ष राजपूत नेतृत्व नहीं उभरा था। सब राजपूत लोग उन्हीं का मुंह ताकते थे। इसलिए वे प्रायः कायस्थों से समझौता करके राजनैतिक सौदेबाजी किया करते थे।

राजनीति में आयी औरतो को कांग्रेस के छुटभैये नेता प्रायः तंग किया करते थे ओर कभी-कभी व्लैकमेल भी मैंने हरदेव सिंह की शिकायत सुश्री मुखर्जी, जो बाद में श्रीमती बैनर्जी बनीं और जो कांग्रेस महिला कोष्ठ  की अध्यक्षा थीं, से भी की। उन्होंने कहा, ‘ऐसा सब तो राजनीति में होता ही रहता है। यह सब इन्दिरा जी को भी झेलना पड़ा है।’ इसी उत्तर की प्रतिक्रिया में मैंने कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र दे दिया, जिसकी प्रति मैंने यशपाल  कपूर को भी भेज दी। मैं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में आ गई । भोला प्रसाद सिंह, जो छोटे लोहिया के नाम से जाने जाते थे मुझे धनबाद आकर मिले। उन्होंने ही मुझे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में आने का अग्रह किया। वे मुझे हवाई जहाज से पटना भी ले गए । वहीं पर उन्होंने प्रेस कांफ्रेस बुलाकर मेरे कांग्रेस से त्यागपत्र देने की और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में आने की खबर प्रसारित कर दी। यहाँ से षशुरू होती है मेरे राजनैतिक संघर्षों  की यात्रा।

अभी तक मैं एक गृहिणी , एक कवियत्री और एक समाजसेविका थी, जो राजनैतिक मामलों में सामाजिक कार्यक्रमों के लिए तांक-झांक करती थी। ऐसे कांग्रस का टिकट लेने के लिए मैं भी दिल्ली जा धमकी थी और कृष्णकान्त  जी के धर पर पैरवी के लिए डेरा जमा लिया था। लेकिन, कृष्णकांत  जी को छोड़कर बाकी सभी राजनैतिक संरक्षकों ने मुझे छला। मुख्यमंत्री के.बी.सहाय ने मुझे आश्वस्त  किया था कि धनबाद से टिकट के लिए मेरा नाम राज्य की तरफ से सिफारिश  कर भेज दिया गया है। उन्होंने यह भी बताया था कि ‘धनबाद से एक राजपूत महिला का नाम भी सतीन्दर बाबू के दबाब के चलते भेजा जा रहा है इसलिए मुझे उन्होंने अध्यक्ष कामराज जी से मिलने दिल्ली जाने को कहा।’ कृष्णकांत  सिंह मेरे समर्थन में थे यानि भूमिहार लौबी मेरा समर्थन कर रही थी.  बी.पी सिंन्हा को छोड़कर। मैं कामराज नादर और उत्तर प्रदेश  के तत्कालीन मुख्यमंत्री सी.बी.गुप्ता से भी मिली। उन दोनों ने मुझे आश्वस्त  किया यदि बिहार की लिस्ट में मेरा नाम होगा तो वो मेरा समर्थन करेंगे।

जब नामों की सूचि घोषित  हुई तो उसमें मेरा नाम नहीं था। मैं सीधे कामराज नादर के पास पहुँची और कहा, ‘मेरा नाम तो सूचि में नहीं है।’ उन्होंने तामिल में कहा,‘नान रमणिका-रमणिका सोलले लिस्ट ले रमणिका पेर न वरले (मैंने कई बार रमणिका-रमणिका नाम सुझाया लेकिन लिस्ट में रमणिका नाम ही नहीं था।) ’। इसके बाद मैंने के.बी.सहाय से मिलना ही बन्द कर दिया। मैं समझ गई यह लोग जो कहते हैं करते नहीं। हालाकि इस चुनाव में काग्रेस का पलड़ा पलट गया था और संविद सरकार बन गई थी पर मैं सविद सरकार के टूटने तक कांग्रेस में ही रही। संविद सरकार टूटने के बाद ही मैं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में गई और सीधे छात्रो की राजनीति शुरू कर दी।

राजनीति के शक्तिशाली पितृसत्ताक गढ़ को तोड़ने की कवायद जारी है

नया चैप्टर बनाना है।

भोला बाबू ने मुझे बहुत ही आदर व स्नेह दिया। वे पिछड़ों  की राजनीति करते थे.। वे युवाओं में बहुत प्रिय थे। दोबारा फिर संविद सरकार बनी तो उन्होंने मेरी छात्रों की माँग को पूरा कराने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया और मेरी धनबाद में राजनैतिक नेता की छवि उभरने लगी। पार्टी में भी मेरी पूछ होने लगी और कर्पूरी जी तथा प्रणव चटर्जी ,जो संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे ,ने भी मेरा नोटिस लेना शुरू किया। उन दिनों गया से एक भगवती देवी भुइयां विधायक हुआ करती थी। उनका क्षेत्र छतरा के प्रतापपुर प्रखंड से सटा हुआ था जहाँ से उपेन्द्र वर्मा कभी सांसद तो कभी विधायक का चुनाव लड़ा करते थे. कांगेस के तापेश्वर देव और राजा रामगढ़ के उम्मीदवार के खिलाफ।

संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में भी अगले-पिछले की काफी गुटबाजी चलती थी। अगड़ों का नेतृत्व  रामानन्द तिवारी करते थे और वो अपने पांव छुआंने के लिए कार्यकर्ताओं के आगे अपने पांव पसार दिया करते थे। लेकिन एक बात तो माननी होगी कि युवा राजा यादवेन्द्र सिंह ने स्त्रियों  के साथ न्याय किया है। पंजाब जैसा राज्य और उसमें भी राज भूपेन्दर सिंह की रियासत , पटियाला जहाँ ज्यादा औरतें ,  रखना स्टेटस का सिंबल था और शक्तिशाली लोग एक से ज्यादा औरतें रखने की होड़ लगाते थे। वहाँ उसने अपने पिता के शक्ति  केन्द्र से निकली औरतों को अपने कर्मचारियों, जर्नलों, कर्नलों या उनके मनचाहे पुरूषों के साथ जाने दिया। यह  लीक से हटकर था।

सर्वविदित है कि पंजाब में औरतों की हमेशा  कमी रही है और निम्न जातियों में खासकर, जाटों में किसी लड़के का ब्याह होना कठिन ही नहीं होता था, बल्कि चार-चार बेटों को घर में बड़े बेटे से ब्याह कर आयी औरत से ही काम चलाना पड़ता था। गरीब लोग कुँवारे ही रह जाते थे। महाराजा या बड़े अधिकारी आर्थिक व राजनैतिक तौर से शक्तिशाली होने के कारण कई औरतों को रख लेते थे जबकि गरीब, जाट व गूजर जिसमें फौज के सिपाही भी शामिल होते थे। औरत के लिए भी तरसते थे। वहाँ युवा राजा ने सबको एक-एक औरत दे दी।

( आगे भी जारी )