मनीषा जैन की कवितायें

मनीषा जैन


मनीषा जैन की कविताएं विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. एक कविता संग्रह ‘ रोज गूंथती हूँ पहाड़’ प्रकाशित है . मनीषा रेखा चित्रकार भी हैं . संपर्क:22manishajain@gmail.com

( मनीषा जैन की कवितायें . रेखाचित्र गुलज़ार हुसैन के . )

1.    मकड़ी का जाला

बिलकुल सटीक जगह पर
बांध दिया गया हमें
घर नाम के कोने से

मकड़ी के जाले की तरह
बार बार पूरते रहते हैं हम
अपना संसार जाले की मानिदं

और तोड़ते रहते हैं हम
अपने ही पैरो की जंजीरें
और इसी मकड़ी के जाले के बीचों बीच
मर जाते हैं हम मकड़ी की तरह

उन्हीं सात फेरों की जंजीरों में बंधे हुए हम
सुखाते रहते है
तुम्हारे दफतर जाने के बाद
तुम्हारे गीले तौलिए

और संगवाते रहते हैं तुम्हारे कमरे
ताकि शाम को जब तुम आओ
तुम्हारी सब चीजें अपने स्थान पर मिलें
बाॅस की डाट खा कर आए तुम
कुछ शांत रह सको
अपना गुस्सा मुझ पर ना निकालो

गर्मागरम बनाते रहे तुम्हारी रसोई
गर्म गर्म फुलके खिलाते रहे तुम्हें
जिससे तुम सो सको
सारी रात चैन की नींद


जिससे अगली सुबह तुम
तैयार हो सको तुम
अगले दिन दफतर के लिए

और अगले दिन मैं फिर
मकड़ी की तरह
नये जालों का ताना बाना बुन सकूं

और कदम बढ़ाती रहूं
अपनी बढ़ती उम्र के साथ
इसे ही अपनी नियति मानकर
बढ़ती रहूं मृत्यु की ओर
धीरे धीरे धीरे।

२.   क्या तुम भूल पाओगे

तुम थक कर आए हो घर
क्या तुम उस स्त्री को भूल पाओगे?
जो अपने हाथों से सजाती है
तुम्हारे सपनीले घर
क्या तुम्हारी आंखें
उसे ढ़ूंढती हैं
जो बिछाती थी पलकें
तुम्हारे इंतजार में
क्या तुमने कभी उन आंखों में झांका
जिनमें तुम्हारी ही तस्वीर बसती है
तुम यह देख कर हैरान हो जाओगे
वह स्त्री जब भी आईना देखती थी
तुम ही नज़र आते थे आईने में उसे
अब जब तुम थक कर घर आओगे
फिर उसे ना पाओगे
तब तुम क्या उसे कभी भूल पाओगें।

३.     वह स्त्री

वह स्त्री
बना रही है चूल्हा
जगा रही है
पेट की आग
छान रही है
अपनी मुश्किलें
मिला रही है
प्रेम के मसाले
छोंक रही है
जीवन में गरमाई
ऐसे ही मिश्रण से
बनायेगी गर्म घर
प्रेम की सौंधी खुशबू
वाले       घर।

४.   साल के अंत में

साल के नए दिन
वह स्त्री
धो रही है बर्तन
बुहार रही है फर्श

इस साल होली पर
वह स्त्री
रसोई में खेल रही है
मसालों से होली
बना रही है रंगबिरंगी सब्जियां
गूंथ रही है परात भर चून
थपक रही है सैंकड़ो पूरियां
पकायेगी उन्हें
पसीने के घी में
सूरज की कढ़ाही में

इस वर्ष तीज पर
वह स्त्री
ढ़ो रही है गारा, मिट्टी, ईंट
घिस रही है एडि़यां
सजा रही है जीवन की महावर
अपने पैरो पर
चमका रही है
जीवन के आईने में अपना चेहरा

इस वर्ष राखी पर
वह स्त्री
बांध रही है पेड़ को राखी
नाप रही है संघर्ष की लम्बाई

इस वर्ष दिवाली पर
उस स्त्री का घर
बह गया बाढ़ में
बैठी है सड़क मुहाने पर
कैसे जला पायेगी घर में दिया

साल के अंत में
वह स्त्री
पूछ रही है माचिस का पता।

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles