और यह स्त्री -पक्षधर हिन्दी समाज है ( !)

(  हिन्दी के एक प्रोफेसर और हिन्दी के आलोचक , जिन्हें प्रतिष्ठित  देवी शंकर अवस्थी सम्मान हासिल है , के द्वारा अपनी पत्नी की पिटाई का वीडियो मीडिया में  वायरल होने पर स्वाभाविक    सी प्रतिक्रया हुई . फेसबुक पर भी इस प्रसंग में सक्रियता रही. हमेशा की तरह इस मसले पर भी आपसी          संबंध निर्णायक भूमिका में आने लगे . दृश्य  चर्चित ‘ छिनाल प्रकरण’ और ‘ खुर्शीद प्रकरण’ से बहुत अलग      नहीं थे. यहाँ भी तर्कों -कुतर्को की बाढ़ आई , अपने से भिन्न मत रखने वाले के खिलाफ गाली और                  अवमानना की हद तक बातचीत हुई.  स्त्रीकाल के पाठकों के लिए फेसबुक पर इस सन्दर्भ में सक्रियता के        कुछ प्रसंग. इस प्रस्तुति में . अशोक आजमी , अनिता मिश्रा , अरविंद शेष , गीता श्री , अभिषेक श्रीवास्तव  शायक आलोक और मजदूर झा के फेसबुक वाल पर चली बातचीत को शामिल किया गया है.    )

पत्नी की पिटाई करता बी एच यू प्रोफ़ेसर

अशोक आजमी ( अशोक पांडे ) की फेसबुक वाल पर हुई बहस , अशोक जी की टिपण्णी से शुरू हुई : 

अशोक आजमी : डा कृष्णमोहन प्रकरण पर युवा कथाकार चन्दन पांडे ने अपने ब्लॉग नई बात पर एक टिप्पणी लिखी है. मैं नहीं जानता कि उस वीडियो में दिख रहे पिटाई के दृश्य को कैसे जस्टिफाई किया जा सकता है? हाँ यह ज़रूर मानता हूँ कि प्रेम हो जाने, तलाक़ या अलगाव में ऐसा कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है..पर पिटाई!  खैर चन्दन की बात पढ़िए और फिर ख़ुद ही फैसला लीजिये : ( चन्दन पांडे ने अपने ब्लॉग पर डा कृष्ण मोहन का बचाव किया है . जिसे इस सिसिलेवार बातचीत के ठीक नीचे पढ़ा जा सकता है.)

अमलेन्दु उपाध्याय : चंदन पांडे ने जो लिखा है, वह घटना के चित्र देखते ही पहली नज़र में मेरे दिमाग़ में गया था। अब चंदन ने घटना के पीछे की पूरी कहानी भी बता दी है।……

अशोक आजमी : फिर भी क्या कृष्णमोहन का व्यवहार आपको सही लग रहा है?  भाई मामला तो पब्लिक में है ही। मैंने कल भी और आज भी उचित क़ानूनी कार्यवाही की मांग की है। कृष्णमोहन जी की पत्नी का बयान भी है टी वी पर। चन्दन कृष्णमोहन के मित्र हैं। उनकी रायल्टी का मामला भी उठा चुके हैं जब फेसबुक पर थे तो उनके बयान को भी एक तरफ़ा क्यों न माना जाए?

गीता श्री : घरेलू कलह, अलगाव, झगड़े ये सब होते हैं, पर इस तरह रोड पर सबके सामने पत्नी की पिटाई करेंगे और उसके बाद मनुष्य होने का दर्जा भी चाहिए, संभव नहीं. मारपीट सामने दिखाई दे रही है, हमारा रिएक्शन उस मार पिटाई को देख कर उपजा है. लोग क्या चाहते हैं, हम चुप रहें. सरेआम पिटाई होते देख कर भी उसे सच न मानें? आप लड़ाई को घर के अंदर निपटाएं. पत्नी के साथ सड़क पर ऐसा व्यवहार करेंगे तो निंदा तो होगी , चाहे इसे मीडिया ट्रायल कहें या कुछ और. आप कानून तोड़े और उस पर बात हो तो ये मीडिया ट्रायल, वाह. अशोक, इसीलिए मैंने कहा था, खुद लोग टीवी देखें और रिएक्ट करें. मैं तो चुप रहूंगी.

गीता श्री : अशोक, इस मर्दवादी समाज से मुझे कोई उम्मीद नहीं. मैं इसीलिए अपने पोस्ट में नाम नहीं लेती किसी का पर जो सामने दिखेगा, उस पर बात होगी, कौन रोक लेगा. शशि थरुर का मीडिया ट्रायल बंद करिए पहले, या जितने अपराधी हैं, रेपिस्ट हैं, जब तक अपराधी साबित नहीं होते, उन पर बात करना यहां बंद करिए. वो मीडिया ट्रायल नहीं है क्या? अपने परिचितो के साथ हो तो मीडिया ट्रायल और गैरो के साथ हो तो बड़े शुभचिंतक बन कर उभरना चाहते हैं लोग. दोहरे मानदंड समझ में आ जाते हैं. अपना पक्ष हमेशा स्पष्ट रखना चाहिए, नहीं तो शामत किसी के घर का दरवाजा खटखटा सकती है.

रश्मि मुन्द्रा माहेश्वरी :अमलेंदु जी का कमेंट पढ़कर बेहद हैरानी हो रही है। घटना के पीछे की पूरी कहानी बता दी है, अमलेंदु जी, आप भी बहुत जल्दी निष्कर्ष पर पहुंच गए हैं। खैर किसी भी स्थिति में मारपीट तो बेहद निंदनीय है ही। इसका बचाव किसी भी तरह से नहीं किया जा सकता। हरगिज नहीं…
मनोरमा सिंह : नहीं उनका व्यवहार बिल्कुल सही नहीं था बल्कि अगर ये अलग रहने और अदालत में तलाक का केस फ़ाइल होने के बाद उनकी पत्नी के जबरदस्ती घर में घुसने का मामला था तो उन्हें भी तुरंत पुलिस की मदद लेनी चाहिए थी, विडिओ फुटेज उनके कपड़े फट जाने के बाद से है जाहिर है कुछ जबरदस्ती उनके साथ भी हुई होगी अब ये साफ़ नहीं है उनकी पत्नी ने खुद के डिफेन्स में उनके कपडे फाड़े या उकसाने के लिए , जहाँ तक प्रेम की बात है तो ये दो लोगों का निजी मामला है कोई किसी से जबरदस्ती प्रेम नहीं करवा सकता ये भी उतना ही बड़ा सच है !

अमलेन्दु उपाध्याय : व्यवहार को हम अभी कैसे तय कर सकते हैं जब तक कि वस्तु स्थिति सामने न आए ?

रमाकांत राय : जब किसी मोहन जी को मालूम था कि मीडिया इसी ताक में है तो उन्हें पुलिस की मदद लेनी चाहिए थी। सड़क पर जो वे घसीट रहे हैं धक्का दे रहे हैं तो उसे कैसे जस्टिफाई करेंगे।
यह भी पूछा जाना चाहिए कि शिल्पी जी वहां क्या कर रही थी और उनका बेटा किस हैसियत से धक्का देकर निकाल रहा था। मीडिया ट्रायल कहकर इसे हल्का न करें प्लीज।

अम्लेन्दु उपाध्याय  : संदेह इसलिए है कि मीडिया साथ में क्यों गया था ? मतलब व्यूह रचना पहले से तैयार की गई थी। बाकी किसके किससे संबंध हैं, इस पर कोई टिप्पणी नहीं।
रश्मी मुन्द्रा माहेश्वरी : व्यवहार को हम अभी कैसे तय कर सकते हैं जब तक कि वस्तु स्थिति सामने न आए ?……………..लेकिन आपके पूर्वाग्रह तो आपने अपने पहले कमेंट में बयां कर ही दिए हैं। अमलेंदु जी, आपके कमेंट से स्पष्ट है कि चंदन जी ने जो कुछ अपने दोस्त के बचाव में लिखा है, उससे आपके सामने पूरी कहानी सामने ही आ गई है..

गीता श्री : रमाकांत जी की बात से सहमत हूं. जो चीजें साफ साफ दिख रही हैं, उससे कैसे इनकार कर सकते हैं ? हम गलत हो सकते हैं, जो दिख रहा है, वह क्या है? दो लोग मिल कर क्रूर तरीके से एक औरत को सड़क पर घसीट रहे हैं, मार रहे हैं और धक्का दे रहे हैं. क्या है ये सब???

अमलेन्दु उपाध्याय : जी रश्मि जी, बिल्कुल, चंदन ने कृष्णमोहन जी का पक्ष सामने रखा है, उससे सहमत होना या न होना आपका या मेरा विवेक है। जहां तक पूर्वाग्रह की बात है तो मेरा नहीं, आपकी बातों में झलक रहा है। मेरी आदत है मैं किसी भी घटना को केवल आंखों या कानों से ग्रहण नहीं करता। इसलिए किसी भी इल्जाम को प्रथम दृष्टया कतई स्वीकार नहीं कर सकता…

रश्मि..: चंदन पांडे ने जो लिखा है, वह घटना के चित्र देखते ही पहली नज़र में मेरे दिमाग़ में गया था। अब चंदन ने घटना के पीछे की पूरी कहानी भी बता दी है।……आपके इस कमेंट के बाद यदि आप मुझे पूर्वाग्रह युक्त बताते हैं तो , है आपको..

अम्लेन्दु : महोदया, मेरा पूर्वाग्रह इसलिए नहीं है क्योंकि मैं कृष्णमोहन जी से उतना ही परिचित हूँ जितना आपसे। न मेरी उनसे किसी बिजनेस में साझेदारी है न किसी आंदोलन वगैरह में। लेकिन आप कृष्णमोहन जी को फांसी देने को तैयार लग रही हैं।

अशोक : जी, शिल्पी अगर उनके घर में हैं तो हैसियत पूछने का हक किसी को भी नहीं. न वह बच्ची हैं, न कृष्णमोहन. अगर वे साथ रहना चाहें तो इसमें ग़लत मेरी नज़र में कुछ नहीं. यह आप किस आधार पर कह रहे हैं कि वह लड़का शिल्पी जी का है? मेरी जानकारी में यह ग़लत सूचना है आपके पास.

रश्मि : अमलेंदु जी, आपको मुगालता है कि मेरा परिचय यकीनन किसी से कम और किसी से ज्यादा है। आखिरी लाइन में फिर आपका एक और पूर्वाग्रह सामने आ गया है। तैयार लग रही हैं, आप विवेक का इस्तेमाल करके महज इतना भर बता दीजिए कि मेरी किस बात से आपको लग गया कि उन्हें मैं फांसी देने के लिए तैयार बैठी हूं??…उल्टा आप उनके बचाव के लिए कमर कसे बैठे हैं….!!!

अशोक :  और अमलेन्दु जी, इसे व्यक्तिगत लड़ाई में क्या बदलना दोस्तों. जो है सब सामने दिख रहा है. अपनी अपनी नज़र…

रमाकंत : मैंने कृष्ण मोहन जी के बेटे की बात की है शिल्पी जी के नहीं।
दूसरे, अगर तलाक नहीं हुआ है तो उनका रहना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। बाकी आप समझ रहे हैं कि शिल्पी वहां क्यों थीं?

अनिता मिश्रा : मुझे पता था जी कि कल तक कुछ तर्क खोज लिए जायेंगे जिससे प्रोफ़ेसर साहेब का आसन विचलित ना हो। मैंने माना वो स्त्री बेहद बुरी थी पर उसको इस तरह लात घूंसों से सड़क पर पीटना। और विरोध करने वाले से कहना दूसरा पक्ष देखो ।जब सब सड़क पर है मामला तब निजी कहाँ रहा।और माफ़ करिए वीडियो में उनकी क्रूरता देख के जिसे उन्हें महान मानना हो माने।मै नहीं मान सकती।दुनिया की सबसे दुश्चरित्र और दुष्ट औरत पर भी क्यों हाथ उठाना कानून किसलिए है।

अशोक : रमाकांत जी, मेरे लिए यह नैतिकता का मामला नहीं है. कौन किसके साथ रहे, कानून से परे भी मेरे लिए यह पर्सनल च्वायस और म्यूचुअल अंडरस्टैंडिंग का मामला है. मेरी सारी आपत्ति उस हिंसक घटना से है. जैसा कि मनोरमा जी ने कहा किसी भी हाल में हिंसा की जगह पुलिस का आप्शन चुनना चाहिए था. तमाशा तो बन ही गया है. बनियान फटना कोई बम फटना नहीं है और वह पूरी घटना देखते हुए कहीं नहीं लगता कि कृष्णमोहन आत्मरक्षा में यह सब कर रहे हैं…इसीलिए यह निंदनीय घटना है. इसकी सज़ा मिलनी चाहिए.

रमाकांत : मैं जबाब में बातें कह रहा था। मैं भी इसे मानता हूँ कि कृष्णमोहन और उनके बेटे का किया कृत्य किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता।

उपाध्याय प्रतिभा : स्त्री होना ही निर्दोष होने की निशानी नहीं है. तलाक की अर्जी के रहते साथ रहने की जिद के पीछे की मंशा शातिराना ही हो सकती है.

रमाकांत :  और विवाह विच्छेद से पहले यह कानूनन जुर्म है जिसे कृष्णमोहन जी कर रहे थे।

अशोक : मैं सहमत हूँ. लेकिन फिर भी पिटाई को और उस व्यवहार को जस्टिफाई नहीं कर सकता.

गीताश्री : मुझे भी अंदेशा था अनिता, इसीलिए मैंने बिना नाम लिए पोस्ट लिखा था. बचाव पक्ष यहां बहुत कैलकुलेटिव ढंग से उतरे हैं. हमारा कोई स्वार्थ नहीं. हमने जो देखा, उस पर प्रतिक्रिया दी. उनकी लड़ाई पुरानी है, पर लड़ाई की नौबत के पीछे जो बेवफाई है, उस पर कोई बात नहीं करता. एक प्रेम कथा का यह दुखद अंत सड़क पर लात घूंसो के साथ…और हम कुछ कहें को प्रो. साब के शान के खिलाफ. उनके दोस्त तिलमिला रहे हैं. और चोट खाई औरत.. जिसने कभी नौकरी नहीं की और पूरा जीवन इनके पीछे लगा दिया, उसे उम्र के इस ढलान पर क्या मिला? हमें पीड़ा होगी और हम बोलेंगे चाहे आप इसे मीडिया ट्रायल कहें. तब तो बिगाड़ के डर से इमान की बात न कहें हम…

अशोक : रमाकांत जी, जार्ज फर्नांडीज जीवन भर पत्नी के साथ नहीं किसी और महिला के साथ रहे, ऐसे पचास उदाहरण है. प्रेम जबरदस्ती नहीं हो सकता. वह बयान भी सुनिए कृष्णमोहन जी की पत्नी का (उनका नाम नहीं याद मुझे) जिसमें वह कहती हैं, जीवन भर तलाक़ नहीं दूँगी. तो उचित वह बयान भी नहीं है.
खैर वह मेरे लिए अभी बहस का मुद्दा नहीं.

अशोक : मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि प्रेम विवाह, कामरेडरी के इतने वर्षों बाद रिश्ता इतना कटु कैसे हो सकता है? क्या शान्ति से दो लोग रह नहीं सकते तो अलग भी नहीं हो सकते?

रमाकांत : और यह मारपीट नई नहीं है। उनको जानने वाले जानते हैं कि वे पहले भी घरेलू हिंसा में संलग्न रहे हैं। यह सबके सामने ऐसे आया है।

अशोक : दिक्कत यही है कि आप इसे नैतिकता के किसी शुद्धतावादी पैमाने पर देख रहे हैं, मैं नहीं. मैं इस आधार पर न जार्ज को ग़लत ठहराता हूँ न ही गुजरात की वर्तमान मुख्यमंत्री को. दिग्विजय सिंह का तो खैर केस ही अलग है. जीवन भर अविवाहित रहकर भी डा कॉल की पत्नी से रिश्ता निभाने वाले अटल बिहारी बाजपेयी से भी मुझे कोई दिक्कत नहीं.मेरी दिक्कत हिंसा और उत्पीडन से है. और प्लीज़ बहस को भटकाइए मत.

श्रुति कुमुद : आप सब पहले ही फैसला ले चुके हैं इसलिए देख कर भी नहीं देखते. मामला पिटाई का नहीं है. मामला घर में जबरिया घुसने का है और न घुसने देने का है. जब दो जने अलग अलग रहने का फैसला किया है तो वो जबरिया क्यों घुसना चाह रही हैं ?

रश्मि : मुझे नहीं लगता कि यहां कोई भी केवल और केवल उसी दृश्य को सच्चाई मान रहा है। हां, हम इतना जरूर कह रहे हैं कि पीछे भले ही दोनों ही पक्षों की सही गलत स्थितियां हों, , फिर भी जो सामने है, वो तो यकीनन बेहद निंदनीय है।

दुनिया भर में ७० % से अधिक महिलाओं ने अपने जीवन में वैवाहिक हिंसा को किसी न किसी रूप में झेला है

अशोक : एकदम रश्मि जी, यही कह रहा हूँ तबसे.

गीता श्री : जबरिया घुसेंगी तो मारपीट करेंगे? पुलिस को बुलाएं, घर के अंदर बात करें, सड़क पर लाकर मारेंगे और धक्का देंगे, घसीटेंगे, छड़ी लेकर खदेड़ेंगे?

श्रुति : यह तर्क आपका बेहद सही है गीता जी. जबरिया घुसने वालों की पहले आरती उतारिये, लेकिन उसे कोई दोष मत दीजिए.

रश्मि : पुलिस को बुलाएं, घर के अंदर बात करें vs आरती उतारें, वाह क्या तुलना है…!!!

श्रुति : वाह क्या समझ है कि घर से बाहर निकालने को मारपीट कहा जाए !!

अशोक : खुदा करें कि आपको कभी यह आरती न झेलनी पड़े श्रुति जी. अगर वह वीडियो आपको हिंसक नहीं लगता तो आपकी आँखों पर ज़रूर को मोटा पर्दा है.धन्यवाद रश्मि जी.

उपाध्याय प्रतिभा : बेशक कृष्णमोहन की हरकत निंदनीय है, इसके लिए प्रोफ़ेसर महोदय पर कार्यवाही होनी चाहिए. लेकिन यह स्थिति आई क्यों? तलाक का केस होते हुए घर में स्वयम घुसने की ज़रूरत क्यों आ पड़ी?
जैसे खुर्शीद अनवर के मामले में एक प्रश्न ही समस्या का मूल है कि वह लड़की किसी अनजान के घर पर अकेले क्यों रुकी , ठीक वैसे ही यहाँ प्रश्न है कि तलाक का केस चल रहा है , तो प्रोफ़ेसर साहब के घर क्यों जाया गया? चन्दन पांडे द्वारा दी गई इस जानकारी से पहिले क्या मिडिया ने यह बताया कि उनका तलाक का मामला चल रहा है? क्या किसी मामले में पुलिस तुरंत आ जाती है?

अरविन्द शेष : किसी भी दलील पर कोई अगर उस महिला को उस तरह पीटे-घसीटे जाने का समर्थन या बचाव कर रहा है, तो उसके दिमागी विकास पर तरस खाना चाहिए। उस खास आपराधिक घटना (पीटते-घसीटते हुए घर से बाहर फेंकने) के प्रत्यक्ष होने के बावजूद अगर कोई इस घटना की “पृष्ठभूमि” की व्याख्या परोस रहा है तो जाने-अनजाने वह एक अपराध और आपराधिक प्रवृत्ति की हिमायत और उसका बचाव कर रहा है।अपने ऊपर ऐसा कोई भी हमला किसी भी महिला को किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं करनी चाहिए। वरना पहले एक ऐसी संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था बनाइए जिसमें एक स्त्री भी ऐसे मामलों में “बराबर” का व्यवहार करे! अपने पति से दिक्कत होने पर उसे ऐसे ही पीटे, घसीटे और लतियाते हुए घर से बाहर फेंके। और ऐसा करते हुए वह उतनी ही सहज रहे, जितना वह कथित बुद्धिजीवी और उसके झंडाबरदार दिख रहे हैं…!

अशोक : क्या आप कहेंगे कि मारपीट नहीं हुई? वह हुई है और मेरे लिए निंदनीय है दो पुरुषों का लाठी डंडा लिए एक महिला को पीटना।

अरविन्द शेष : ज्यादा अफसोसनाक यह है कि इस बहाने फिर महिलाओं और दलितों-वंचितों के हक की रक्षा के लिए बने कानूनों के दुरुपयोग का राग अलापा जा रहा है…!

श्रुति : अरविन्द जी, दिमागी विकास जैसे मुहावरों से बचना चाहिए. आपको नहीं लगता कि बिना पढ़े बात करना भी दिमागी विकास वाले मुहावरे की श्रेणी में आता है. या क्या यह मूर्खता की श्रेणी में नहीं आता कि जब लेखक दो बार इस बात की दुहाई दे कि वह न्याय का पक्षधर है फिर भी हम इसलिए तड़प रहे हैं क्योंकि उसने किसी का पक्ष लिखा. तो क्या यह मान लिया जाए कि आज के बाद जितने भी अपराध होन्गे, उसमें “तथा कथित” अपराधी का पक्ष लिखना गलत होगा !! वाह ! यह सिर्फ कोई मूर्ख ही कहेगा कि वो प्रस्तुत वीडियो की निन्दा नहीं कर रहा. यह तो मानी हुई बात है. पर आपका और अन्य साथियों का यह तर्क गजब है कि किसी भी कार्रवाई के लिए वह वीडियो अंतिम सत्य मान लिया जाए.

श्रुति : आलेख में साफ तौर पर लिखा है कि अधिकारियों ने यह बात अप्रतक्ष्य तौर पर स्वीकारी है.
अरविन्द शेष : मैंने उस महिला को उस तरह पीटे-घसीटे जाने का समर्थन या ऐसा करने वालों का बचाव करने वालों पर सवाल उठाया है। अगर कोई उस महिला को इस तरह पीटे-घसीटे जाने और घर से बाहर फेंके जाने को गलत मानता है तो उसे मेरी बात से कोई परेशानी नहीं होगी। हमारे सामने पीटने-घसीटने और घर से बाहर फेंके जाने का संदर्भ है और मैं हर हाल में उसकी निंदा करता हूं, उसकी पृष्ठभूमि चाहे जो हो..

गीता श्री : कुमुद जी, पहली बार यहां इतनी सक्रिय दिखाई दे रही हैं, साथियो, कोई बड़ी वजह है कि वे इस तेवर और भाषा में बात कर रही है. मुझे अफसोस है कि वे लगातार बचाव के लिए गलत दलील देती जा रही हैं. अच्छा ये है कि वे मेरी लिस्ट में नहीं हैं, न कभी होंगी. उनका हर तर्क लचर और उनके बनारस कनेक्शन की ओर संकेत करता है. दुखद.

( यह वाद -प्रतिवाद और भी लंबा है , इसमें वे लोग भी शामिल हैं , जो खुर्शीद प्रकरण में उनके बचाव में गाली गलौच कर रहे थे .  यहाँ संक्षिप्त प्रस्तुति है )

कथाकार चन्दन पांडे के द्वारा उनके ब्लॉग पर कृष्ण मोहन का बचाव : 


मीडिया के शिकार होते जा रहे डॉ. कृष्णमोहन के मामले का सच 

डॉ. कृष्णमोहन और किरण का मुद्दा स्त्री-पुरुष के साथ दो इंसानों का भी है. सीमित समझ की पतित मीडिया ने इसे पीड़ित स्त्री बनाम प्रताड़क पुरुष बना दिया है. यहाँ तक कि प्रशासन भी मक्कार मीडिया के दबाव में कार्र्वाई करने की बात, अप्रत्यक्ष तौर पर, स्वीकार रहा है. इससे शायद ही किसी को गुरेज होगा कि सबको न्याय मिले पर ऐसा भी क्या भय खाना कि आप दूसरे की गर्दन देकर अपनी गर्दन बचाएँ.
ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि सच सामने हो.
यह बात दुहरा देना चाहता हूँ ( ताकि लोग “कौआ कान ले के भागा” वाले अन्दाज में हमला न करें ) कि किसी भी मामले में न्याय ही अंतिम पैमाना होना चाहिए और हम सब उसकी तरफ हैं जो निर्दोष है पर इसका क्या अर्थ कि हम मामले को जाने भी नहीं ? तो आखिर यह फैसला कैसे होगा कि कौन निर्दोष है और कौन दोषी ?
मामला यह है कि इनके बीच अलगाव/ तलाक से सम्बन्धित मुकद्मा न्यायालय में है. किरण घोषित तौर Krishna Mohan से अलग रहती है. इस बाबत उनके बीच समझौता भी हुआ था कि तलाक होने तक वो दोनों अलग रहेंगे. एक निश्चित माहवार भत्ता भी तय हुआ था. कोई भी यह समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि जब अलग रहना तय हुआ है तो क्यों किरण बार बार घर में प्रवेश करने की जुगत लगाती रहती हैं ?
यह कई मर्तबा हो चुका है जब किरण ने मीडिया के सह-प्रायोजन में कृष्णमोहन के घर के सामने धरना प्रदर्शन या घर में भीतर जाने की कोशिश की हैं. ध्यान रहे कि मामला जब अदालत में है तो मेरी समझ के बाहर यह है कि जबरिया घर में घुसने की कोशिश को क्या कहा जाए ? अगर कोई ‘हिडेन अजेंडा’ न होता तो किरण को मीडिया और पुलिस के लाव-लश्कर के साथ घर में घुसने की कोशिश का कोई मतलब नहीं था. कायदे से उन्हें न्यायालय के निर्णय का इंतजार करना चाहिए. सस्ते सिनेमा के अलावा यह कहीं भी सम्भव नहीं दिखता कि तलाक की अर्जी भी पड़ी रहे और साथ साथ रहा भी जाए. यह भी ध्यातव्य हो कि किरण अपना सारा सामान घर से लेकर बहुत समय पहले ही जा चुकी हैं. अगर उन्हें कोई सुबहा है तो उन्हें पुलिस में शिकायत दर्ज करानी चाहिए. लोमड़ी मीडिया को थानेदार बनाने का शगल गलत है.मानवाधिकार व्यक्ति के, भी, होते हैं, सिर्फ समूह के ही नहीं.
घर से अलग रहने का निर्णय लेने के बाद, अदालत की कार्र्वाई के दरमियान, घर में घुसने की कोशिश क्या इस कदर निर्दोष है ? वो भी तब जब आप पहले से ही अलग रह रहें हों. या क्या भारतीय व्यव्स्था ने ठान लिया है कि दो ही छोर पर रहना नसीब है, एक छोर जिसमें आप स्त्री को इंसान भी न समझे और दूसरा छोर यह कि स्त्री होना ही निर्दोष होने की निशानी हो.
जिस वीडियो का हवाला मन्द-बुद्धिजीवी, मीडिया और साथी, दे रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि आखिर उस विडियो में कृष्णमोहन के कपड़े फटे हुए हैं. और कोई भी समझ सकता है कि वह वीडियो घर में घुसने की जिद और न घुसने देने की जद्दोजहद की है. यह सारा मामला उन्हें उकसाने के लिए प्रायोजित किया गया था. आखिर वही मीडिया इस बात का जबाव क्यों नहीं देता कि जब अलग रहना तय हुआ था तो किरण वहाँ क्या कर रही थीं ? अगर उन्हें शक था तो क्या उन्हें कानूनी मदद नहीं लेनी चाहिए थी ? घर में घुसकर तमाशा करना भी एक नीयत हो सकती है. वरना जहाँ प्रेम विवाह रहा हो, वहाँ ब्याह के इतने वर्षों बाद दहेज उत्पीड़न के तहत मामला दर्ज करना साफ नीयत का मामला नहीं है.
उस वीडियो को बनाने वालों से यह क्यों न पूछा जाए कि जिस स्त्री के पक्ष में तुम वीडियो उतार रहे हो, अगर – तुम्हारे अनुसार – उस पर जुल्म हो रहा था तो तुम कैमरा पकड़ने की बजाय उस स्त्री को बचा भी तो सकते थे.
अभी जो आतंकवादी मीडिया को समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं उन्हें ध्यान देना चाहिए कि पिछले दिनों इस मीडिया ने खुर्शीद अनवर का क्या किया. बाजार की पतलून के पिछले हिस्से से गिरा यह मीडिया स्त्री-पुरुष मामलों में इतना एकतरफा होता है कि इसके सामने आप अपनी बात भी नहीं रख सकते.
मैं इन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ. अपनी इस उम्र तक मैं जितने भी लोगों से मिला हूँ उसमें शायद ही कोई मिला हो जो कृष्णमोहन के स्तर का हो. गज़ब के इंसान हैं. मैने देखा है कि इंसान तो इंसान अपने कुत्ते की मामूली बीमारी तक में वे अन्दर से परेशान हो उठते हैं. घर के सभी सदस्यों का ख्याल रखना कोई उनसे सीखे. ऐसे में टुकड़े टुकड़े खबरों से किसी को परेशान किया जाता हुआ देखना दु:खद है.और इतनी तो इल्तिजा कर सकता हूँ कि पुलिस अपनी किसी भी कार्र्वाई में मीडिया के दबाव को कारण न बनाए.

महिलाओं को संबोधित कर गाली देने वाले हिन्दी वि वि के पूर्व कुलपति विभूति राय के खिलाफ प्रदर्शन

अनिता मिश्रा  अपनी वाल पर : बेरहमी से अपनी पत्नी की पिटाई करके घर से निकालते ये जनाब कोई साघारण व्यक्ति नहीं हैं। ये जाने कितनी डिग्रियां ले चुके नामचीन प्रोफेसर और लेखक हैं। ये प्रतीक भर हैं उस समाज के जो बौद्धिक होकर भी सिर्फ ” मर्द ” ही बना रहता है। इनके अंदर के सामंती मर्द की ताकत सिर्फ स्त्री पर निकलती है। कितने सेमीनारों में, किताबों में स्त्री समानता पर ना जाने क्या -बोला होगा पर मेरी नज़र में इनका सारा ज्ञान ”गोबर” है और किताबें ”कूड़ा” अगर ये इतनी तमीज नहीं सीख पाये कि एक स्त्री के साथ कैसे पेश आया जाता है। वैसे कई किस्से सुन कर मैं इस गलतफहमी से बाहर आ चुकी हूँ कि लेखक या आर्टिस्ट संवेदनशील व्यक्ति होता हैं।
( अगर ये फोटो बाहर ना आते और ये महिला डोमेस्टिक वायलेंस का केस करती तब तमाम इनके जैसे इनके पक्ष में कहते कि कानून का दुरूपयोग कर रहीं है स्त्रियां )

गीता श्री की वाल पर कथाकारों की अपील :
हम हिंसा का प्रतिरोध करते हैं।

हम इक्कीसवीं सदी के तकनीकि युक्त अत्याधुनिक समय में जी रहे हैं लेकिन लगता है जैसे सदियों पूर्व की तरह आज भी, स्त्री को सामाजिक रूप से इंसान समझने या इंसानी बराबरी में देखना तक गवारा नहीं है । स्त्री के लिए समानाधिकार और न्याय आज भी किसी अनसुलझी पहेली की तरह है तब आधुनिकीकरण की बातें सुनना या कहना ठीक “दिल बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है” की तरह ही लगता है। स्त्रियों के मानसिक, शारीरिक, और दैहिक उत्पीड़न की ख़बरें सुनने या पढ़ने से शायद ही कोई व्यक्ति या वक्त अछूता रहता हो।
तभी आलोचक कृष्ण मोहन द्वारा अपनी पत्नी के रूप में एक स्त्री के साथ किये गए अमानवीय और हिंसा की घटना को भी इससे इतर नहीं देखा जा सकता। पति-पत्नी या स्त्री-पुरुष के बीच वैचारिक मतभेद, आंशिक विवाद या बहस एक सहज स्वाभाविक इंसानी प्रक्रिया है लेकिन उसकी परिणति का स्त्री हिंसा तक पहुंचना बेहद निंदनीय और शर्मनाक है। यहाँ हमारा काम किरण जी और कृष्ण मोहन के बीच हुए विवाद पर चर्चा करके किसी भी व्यक्ति के निजी और व्यक्तिगत जीवन में दखल देने का नहीं है और न ही यह जांचने और फैसला करने का कि किसकी कितनी और क्या ग़लती थी । यह जानने, जांचने और फैसला सुनाने का काम क़ानून का है, हमारा नहीं।
यहाँ हमारा मकसद उस क्रूरतम अमानवीय प्रवृति की भर्तसना करना है जो पुरुष द्वारा की जाने वाली स्त्री हिंसा के रूप में समाज में देखने को मिलती रही है। देखने के लिए भले ही यह महज़ शारीरिक हिंसा हो किन्तु गहरे और बड़े संदर्भों में ऐसे सभी कृत्य, डरा धमका कर, स्त्री को सामाजिक समानाधिकार और न्याय से वंचित रखने की परोक्ष कोशिश हैं। इसलिए भी न केवल हमें बल्कि दुनिया के हर जिम्मेदार व संवेदनशील व्यक्ति को ऐसी प्रवृतियों और अमानवीय कृत्यों की न केवल निंदा करनी चाहिए बल्कि इनके खिलाफ आवाज़ उठाकर खुद के जिन्दा होने का सुबूत भी देना चाहिए।
किरण जी के साथ हुई यह समाज की पहली घटना नहीं है। ऐसी घटनाएं लगभग हर रोज ही असंख्य शिक्षित-अशिक्षित स्त्रियों के साथ घरों में या सार्वजनिक जगहों पर घटित होती हैं किन्तु कतिपय कारणों से प्रकाश में नहीं आ पातीं। हालिया घटना के वस्तुगत यह वक्तव्य उन तमाम पीड़ित महिलाओं के पक्ष में हमारी आवाज़ है। तब ज़ाहिर है यहाँ हमारा उद्देश्य कृष्ण मोहन को सार्वजनिक रूप से अपमानित करना या व्यक्तिगत रूप से विरोध करना नहीं है । यह विरोध उस प्रवृति से है जो कृष्ण मोहन जी ने पत्नी किरण जी के लिए अपनाई जो सामाजिक रूप से अशोभनीय है।
जबकि हर विवाद और समस्या का समाधान आपसी संवाद और न्यायायिक रूप से भारतीय संविधान में अंतर्निहित है। बावजूद इसके महिलाओं के प्रति होने वाले ऐसे घिनौने और अमानवीय कृत्यों का हम सामूहिक रूप से एक स्वर में विरोध करते हैं तथा किरण जी और अनेक ऐसी पीड़ित स्त्रियों के लिए न्यायायिक इन्साफ़ और सामाजिक सम्मान की मांग करते हैं।

अभिवादन के साथ
कथाकार समूह

सत्यनारायण पटेल, अमिताभ राय, एम.हनीफ. मदार, सूरज प्रकाश, गीता श्री, तेजेन्दर शर्मा, कविता, सुभाष चन्द कुशवाह, आकांक्षा पारे काशिव, जयश्री राय, विभा रानी, मनोज कुलकर्णी, बहादुर पटेल, चरण सिंह पथिक, भागचन्द गुर्जर, संदीप मील, कैलाश वानखेड़े, आशीष मेहता, संजय वर्मा, प्रेरणा पांडे, विपिन चौधरी, योगेन्द्र आहुजा, कात्यायनी, सत्यम, जीवेश चौबे, तरुण भटनागर, यामिनि सोनवने, अनिता चौधरी, ममता सिंह, युनूस ख़ान, हिमांशु पंड्या, रोहिणी जी, राकेश बिहारी, प्रज्ञा पांडेय

हिन्दी जगत की एक प्रतिक्रया : संयोग अच्छा है कि अभियुक्त कृष्ण मोहन न तो कहीं किसी संस्थान के हेड हैं और न नियुक्तियां करने -करवाने , पैनल में जाने वाले प्रोफ़ेसर . नहीं तो  हिन्दी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति द्वारा महिलाओं को गाली देने के बाद विरोध और हस्ताक्षर करने वालों का हस्र यह समाज देख चुका है !

अरविन्द शेष  अपनी वाल पर : एक पत्नी-पति के बीच तलाक की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई, संपत्ति संबंधी विवाद (पति की संपत्ति में महिला का अधिकार) का कानूनी तौर पर निपटारा नहीं हुआ… और हम यह मूर्खाना सवाल उठाने में लगे हैं कि वह महिला पति के घर में गई क्यों..! यह सवाल जितना सामाजिक-संवैधानिक अधिकारों के सामंती दमन के “पुरुषार्थ” का है, उससे ज्यादा इसके मूल का है, जहां पितृसत्तात्मक मर्दाना कुंठा के बूते स्त्री पर शासन, उसे गुलाम बनाए रखने की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था रची जाती है। फिर अगर उस लाचार “मर्द” ने पत्नी के हंगामे से “मजबूर” होकर उसे पीटा-घसीटा और घर से बाहर फेंका तो वह महिला किस बात से कथित हंगामा करने पर मजबूर हुई? पीटने-घसीटने और घर से बाहर फेंकने के लिए “वजह है” महिला का हंगामा, और महिला ने अगर हंगामा किया, तो उसकी वजह? उसे नहीं खोजेंगे? प्रगतिशीलता का पाखंड ओढ़ा जाता है तो हम इसी तरह के दोहरे पैमानों की सौदागरी करते हैं। और किसी भी स्त्री के पास इस व्यवस्था से लड़ने के लिए अगर पुरुष-सत्ता के बरक्स बराबर के तौर-तरीके होते तो वह किसी कथित “सुनियोजित” तरीके का इस्तेमाल नहीं करती। पहले हम बराबरी की वह व्यवस्था तैयार करें, फिर स्त्री के खिलाफ चिचियाएं कि तुमने “युद्ध” में फलां तरीके क्यों अपनाए, चिलां का सहारा क्यों लिया…! इसके अलावा, जब उसके पति के घर में जाने को ही उसके उस तरह पीटते-घसीटते हुए बाहर फेंक दिए जाने की वजह के तौर पर पेश किया जाएगा तो फिर स्त्री के भी कानूनी-सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों का सवाल उठेगा। एक सवाल यह है कि अगर कोई महिला दूसरी शादी कर लेती है और गुजारा भत्ता का दावा भी करती है, तब हम वीर-बहादुरों का स्टैंड क्या होगा? इसी लोकेशन से यह भी पूछा जाएगा कि अगर तलाक की प्रक्रिया अधूरी है तब किसी पुरुष को अपनी पत्नी को अपने घर से बाहर फेंकने के लिए पीटने-घसीटने का अधिकार किसने दिया? कथित सहजीवन से किसी को दिक्कत नहीं है। लेकिन अगर यह किसी के अधिकारों का दमन करके चलता है तो दमित व्यक्ति को विरोध करने का अधिकार है। उस विरोध का स्वरूप क्या होगा, यह हम नहीं तय करेंगे।
और हमारे जैसे लोग जो क्रांति और प्रगतिशीलता का परदा अपने थोबड़े पर टांगे फिरते हैं, अगर शासक और शासित, दमनकर्ता और दमित की पहचान नहीं कर पाते, उस व्यवस्था की परतों को जानबूझ कर ढके रहते हैं, तो ऐसा हमें घोषित तौर पर करना चाहिए कि हम असल में कूढ़मगज दक्षिणपंथी सामाजिक सत्ताधारी मर्द हैं जो अपने हर पाखंड से एक सामंती मर्दाना व्यवस्था को खाद-पानी पहुंचाते हैं, मजबूत करते हैं।

अभिषेक श्रीवास्तव अपनी वाल पर  कौन कहता है कि हिंदी साहित्यं के आलोचकों को मीडिया नहीं पूछता? शर्त ये है कि आलोचना दमदार होनी चाहिए… बौद्धिकता और विवेक से मुक्तन एकदम फिजि़कल… डायरेक्ट .

शायक आलोक : ” देखिये विभूति जी .. आपने जो छिनाल कहा तो उसके लिए हम आपका सार्वजनिक अपमान या व्यक्तिगत विरोध नहीं करना चाहते .. वो क्या है कि हम काहे आप से सींग टकरायें .. हे हे हे .. है कि नहीं .. हम तो बस इस प्रवृति का विरोध करते हैं ” ..

…………………एक सच यह भी…….
हिंदी वालों महानुभावों .. अपने शब्दजाल से दुनिया को बेवकूफ बनाना बंद करो.. रीढ़ की हड्डी चाहिए होती है सही को सही और गलत को साफ़ साफ़ गलत कहने के लिए .. वहां स्पष्टीकरण नहीं होता .. लानतें भेजता हूँ तुम्हें .. शर्मसार किया तुम लोगों ने मुझे ..

सन्दर्भ : कृष्ण मोहन को हिंदी वालों की फेसबुक चिट्टी ..
**विभूति प्रकरण को याद किया मैंने हायपोथेतिकल संवाद के साथ

मजदूर झा अपनी वाल पर : डॉ. कृष्णमोहन का सच चाहे जो भी हो, जिस तरह से उन्होने अपनी पत्नी को सरे-आम पीटा है, इसकी वकालत करना वहशी समाज का समर्थक होना है। चन्दन पांडे ने जिस चालाकी के साथ उनकी वकालत की है, आश्चर्य से कम नहीं है। मैं उनसे कहना चाहूँगा कि आप निर्दोष और दोषी की तलाश जिस लोकतान्त्रिक ढांचे में रहकर करना चाहते हैं, उनका पीटना क्या इसी लोकतान्त्रिक अधिकार के दायरे में आता है? आपने कहा कि दोनों के बीच तलाक का फैसला होना है, भत्ता बंद इसलिए किया गया क्योंकि वो ज्यादा पैसे मांगने लगी… समूची घटना को आपने घटिया पुरुष मानसिकता के नज़रिए से देखा है। ये तलाक देने कि कोई उम्र-सीमा होनी चाहिए कि नहीं? एक परिवार में पढ़ने-लिखने का मौका या अन्य सुविधाएं पुरुष को पहले दी जाती है, वह उन सुविधाओं के दम पर व्यवस्थित होता है, तब जाकर उसे अपने लेबल के लोग ज्यादा पसंद आते हैं, तलाक कि प्रक्रिया डॉ. कृष्णमोहन जी के उम्र में ऐसे ही शुरू होता है, फिर जब आपकी पत्नी या घर वाले आपको बनाने में लगे होने के कारण किसी लायक नहीं बचते हैं, तब आप उनको तलाक देते हैं या किनारा कर लेते हैं। ये कौन सा न्याय है चन्दन बाबू? जब गुजारा भत्ता आप दे रहे थे, तो अचानक बंद क्यों कर दिया. ‘और ज्यादा मांगने लगी’ तो आपने बंद ही कर दिया। यह तर्क बेवकूफ़ों को भी बेवकूफ बनाने में कारगर साबित नहीं होगा। मामला जब कोर्ट में था, जब तलाक की पूरी प्रक्रिया समाप्त नहीं हुई थी तब आपने किस अधिकार से अपनी प्रेमिका को अपने घर में रहने दिया या रख लिया। और यहीं मैं आपको यह भी बताना चाहूँगा कि जब तक यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती कानूनन आपकी पत्नी उस घर में आ जा सकती है। चलिये यहाँ तक भी ठीक है अब आप ये बताइये कि—आपने मारा क्यों, घसीटा क्यों?? आ गए न अपने फूहड़ मर्दानगी की औक़ात पे। और चन्दन बाबू, जितनी संभावना इस बात की है कि महिला ने धक्का-मूक्की में उनका बनियान फाड़ा तो क्या इस बात की संभावना नहीं है कि–बचाव या मार खाती एक महिला की स्वाभाविक प्रतिक्रिया में ऐसा हुआ हो? खैर, छोड़िए मैं तो आप जैसे लोगों से इस बात के लिए भी तैयार रहता हूँ कि दामिनी प्रकरण में, ईंट, छड़ इस्तेमाल करने वाला बलात्कारी सज्जन आपका कोई संबंधी नहीं निकला नहीं तो माशाअल्लाह आपके तर्क देखने लायक होते और उन गरिमामयी तर्कों को शेयर करते हमारे दूसरे कहानीकार मनोज पांडे क्या खूब जँचते…. ख़ैर, खेमेबाज़ कहानीकारों की अंतिम परिणति यही होती है।