हम चार दशक पीछे चले गए हैं :

आयडवा और पी यू सी एल की  अपील

( याद होगा कि महिला आंदोलनों की वजह से महिलाओं के खिलाफ उत्पीडन को लेकर क़ानून सख्त हुए थे, कुछ कानूनों में अभी तक बदलाव हो
रहे हैं. लेकिन ये सारे बदलाव और पुरुष के द्वारा महिला के खिलाफ हिंसा को
रोकने के लिए बने / बनाए जा रहे सख्त क़ानून निरीह ( !) पुरुषों की एक ऐसी
जमात पैदा करते हैं , जो इन कानूनों के माध्यम से पुरुषों की प्रताड़ना के
तर्क और शोर –शराबे के साथ उपस्थित होते हैं. न्यायपालिका में बैठा पुरुष
इस बार इन शोर –शाराबो से खासे प्रभावित होकर बेहद मर्दवादी भाषा में दिशा
निर्देश लेकर आया है. उच्चतम न्यायालय के न्याधीश चन्द्रमौली कुमार प्रसाद
और पिनाकी चन्द्र घोष ने ये निर्देश अर्नेश कुमार बनाम बिहार सरकार के
मामले में दिये हैं  . ऐसी सोच इस मानसिकता से पैदा होती है कि ‘महिलाओं पर
पुरुषों के द्वारा थोड़ी बहुत हिंसा जायज है’  . आज जब दहेज़ मौतों की संख्या नेशनल क्राइम ब्यूरो के २०१० के आंकड़े के अनुसार ८३९१ है , यानी हर ९० मिनट में एक दहेज़ ह्त्या हो जाती है , तब इसमें सजा का दर निरंतर घटता जा रहा है , २०१२ के १४.८% सजा के मुकाबले २०१३ में ११. ९१ % मामलो में सजा हुई . बहुत से मामले तो पुलिस , कोर्ट –कचहरी के अमानवीय रुख के कारण थानों तक पहुंचते ही नहीं हैं. सेंटर फॉर सोशल रीसर्च के एक अध्ययन के अनुसार ४९८ (अ) के  ३० सैम्पल मामलों में से एक भी ऐसा मामला नहीं था , जिसमें सिर्फ इस धारा के कारण सजा हुई हो. जबकि इसमें से अनेक मामलों में केस दर्ज करने के पूर्व तक महिलायें  कम से कम ३ सालों से शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न सहती रही हैं, इनमें से मात्र ६.५% मामले ही फर्जी थे. तो इतने कम मामलों के लिए न्यायालयों में बैठा पुरुष चिंतित है , बल्कि क्रोधित है . २००३ में ही सरकार की एक समिति ने इस धारा को समझौते के योग्य ( Compoundable ) बनाने की सिफारिश की थी . २०१० में उच्चतम न्यायालय ने ४९८ ( अ ) में संशोधन के निर्देश दिए , ताकि इसका बेजा इस्तेमाल रुक सके, २०१२ में लॉ कमीशन ऑफ इण्डिया ने भी ऐसी ही संस्तुति की. और अब यह ताजा निर्णय. इस निर्णय के खिलाफ पी यु सी एल और आल इंडिया डेमोक्रेटिक असोसिएशन (  आयडवा ) ने आक्रोश जाहिर करते हुए अपील जारी की है. पटना में स्त्री अधिकार कार्यकर्ता इकट्ठे हो रहे हैं   / संजीव चन्दन )


पी यू सी एल की पहल

भारतीय दंड संहिता की धारा  498 (अ) – दहेज कानून , के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्याधीश चन्द्रमौली कुमार प्रसाद और पिनाकी चन्द्र घोष के न्यायिक निर्णय पर गौर करें . यह निर्णय उन्होंने अर्नेश कुमार बनाम बिहार सरकार के मामले में दिया है . य़ह एक खतरनाक निर्णय है , जो हमें 4 दशक पीछे धकेल देता है. यह निर्णय न सिर्फ दहेज की धारा 498 ( अ ) तक या दहेज निवारण कानून ( Dowry Prohibition Act) की धारा चार तक ही सीमित है बल्कि यह सात सालों तक की सजा वाले प्रावधान के दूसरे अपराधों को भी अपने दायरे में लेता है. जरूरत है कि बिहार सरकार से  इस निर्णय में सुधार के लिए आवेदन करने ( curative
petition) के लिए हम आग्रह  करें. संयोग से बिहार सरकार एन डी ए के भागीदार पर्टियों की सरकार नहीं है , इसलिए हमें इससे सम्वाद बनाने में मुश्किल भी नहीं होगी . इसके अलावा हमें भारतीय महिला आयोग को भी समझाना होगा कि उनके हस्तक्षेप की भी जरूरत है.

न्यायिक निर्णय के पहलू

जहां तक दंड संहिता 498 ( अ) का सवाल है , इसके तहत कोई गिरफ्तारी अब नहीं होगी. न्यायालय के निर्देश ई क़ॆ अनुसार, ‘ गिरफ्तार न करने के निर्णय को केस दर्ज होने के दो सप्ताह के अन्दर स्थानीय मजिस्ट्रेट को केस की कापी के साथ भेजना होगा , जिसकी अवधि  पुलिस अधिक्षक  के द्वारा लिखित कारणों के साथ  बढाई जा सकती है.’ इसका मतलब है कि यदि पुलिस दो सप्ताह के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि गिरफ्तारी जरूरी है , उसे मजिस्ट्रेट से अनुमति लेनी होगी. इस तरह एक संज्ञेय अपराध असंज्ञेय अपराध में तब्दिल हो जाता है और इस तरह यह गिरफ्तारियों को हतोत्साहित करता है .

निर्देश के बिन्दु  जे अनुसार ‘ निर्देशों के अनुपालन में कोताही करने पर  सम्बन्धित पुलिस अधिकारी विभागीय कारवाई का पात्र होगा और वह न्यायालय की अवज्ञा के लिए सजा का भी पात्र होगा, जो सम्बन्धित उच्च न्यायालय के द्वारा निर्धारित होगी.’ इस प्रकार के प्रावधान के बाद पुलिस क्योंकर कोई कारवाई करना चाहेगी.  हमें वास्तव में यह कहना चाहिए कि सी आर पी सी की धारा 41 ( जो पुलिस को गिरफ्तार करने की शक्ति देती है ) को ही सी आर पी सी से समाप्त कर देना चाहिए और किसी की भी गिरफ्तारी पर रोक लगनी चाहिए. क्योंकि यदि आप घरेलू हिंसा के मामले में एक अपवाद पैदा कर रहे हैं , तो इसे सबके लिए कर दो, खासकर माओवाद और आतंकवाद के नाम पर होने वाली गिरफ्तारियों के मामले में . यहां जो यह प्रावधान किया गया है कि दो सप्ताह में मजिस्ट्रेट को यह सूचित करना है कि कोई गिरफ्तारी नहीं होगी , यह पुलिस को गिद्ध की तरह झपट्टा मारने की व्यव्स्था देता है कि किसी को भी ,  सौ प्रतिशत विकलांग साइ बाबा  जैसों को उनके कालेज से, या जो देश के विभिन्न जेलों में बन्द हैं उन्हें उनके घरों से उठा ले जाये.
मैं सही मायने में गुस्से में हूं , यह निर्णय आपराध –कानूनों की समाप्ति  है.

हमलोग अपने वकीलों से सलाह ले रहे हैं कि आखिर यह हुआ क्या है , इसका क्या असर है और इसके अनुरूप ह्म अपने बयान जारी करेंगे .

न्यायालीय निर्णय के कुछ अंश :

‘ कुछ वर्षों में वैवाहिक-विवादों के मामले अभूतपूर्व रूप से बढे हैं. इस देश में विवाह संस्था को बहुत आदर प्राप्त है. भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ( अ ) की व्यवस्था स्त्रियों का उसके पति और रिश्तेदारों के द्वारा होने वाले उत्पीडन के खतरे को कम करने के घोषित उद्देश्य से की गई थी.  यह एक तथ्य है कि 498 ( अ ) एक संज्ञेय और गैर जमानती अपराध है , जिसने इसे उन दोहरे प्रभाव वाले प्रावधानों में मह्त्वपूर्ण बना दिया है , जिनका अस्ंतुष्ट पत्नियों द्वारा एक हथियार की तरह इस्तेमाल होता है , न कि अपनी रक्षा के प्रावधान की तरह. उत्पीडन का सबसे आसान तरीका है कि पति और उसके रिश्तेदारों को इस प्रावधान के तहत गिरफ्तार करवा दिया जाय. कई मामलों में पति के बिस्तर पकड चुके दादा , दादियों और दशकों से विदेशों में रह रही बहनों, तक की गिरफ्तारी हुई है. गृह मंत्रालय के  नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्युरो  के 2012 के आंकडों के अनुसार 2012 में 1,97,762 लोग 498 ( अ ) के तहत गिरफ्तार किये गये हैं , जो 2011 की तुलना में 9.4% अधिक है. इनमें एक चौथाई महिलायें गिरफ्तार हुई हैं , जो यह बतलाता है कि पतियों की मातायें और बहनें बडी तत्परता से उनके गिरफ्तारी के जाल में फंसाई गई हैं . यह संख्या भारतीय दंड संहिता के तहत हुई कुल गिरफ्तारियों की 6% है. यह भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धारओं में हुए अपराधों का 4.5% है , जो चोरी और घायल करने के अपराधों से भी ज्यादा है.  इस धारा के तहत चार्जशीट दाखिल होने के मामले में यह शिखर पर  है ( 93.6% ), जबकि 15% ही इसमें दोषी ठहराये जाते हैं, सभी मामलों मे न्यूनतम है. इसके 3,72,706 मामले अभी विचाराधीन हैं , जिसमें से 3,17,000 मामलों में दोषमुक्ति का निर्णय ही सम्भाव्य है.’

‘ हिरासत की शक्ति बहुत संगीन है . यह व्यक्ति की स्वतन्त्रता को प्रभावित करता है और इसका इस्तेमाल बहुत ही सजगता से होना चाहिए. हमारा अनुभव कहता है की इसका प्रयोग उतनी गंभीरता के साथ नहीं होता है, इसके लिए  जितनी गंभीरता की जरूरत है. कई मामलों में हिरासत बहुत ही सतही और लापरवाह तरीके से एक रूटीन की तरह की जाती है. इसके पहले कि कोइ मजिस्ट्रेट सी आर पी सी की धारा १६७ के तहत गिरफ्तारियों को अधिकृत करे , उसे पूरी तरह संतुष्ट हो लेना चाहिए कि जो गिरफ्तारी हुई है , वह क़ानून के दायरे में है और व्यक्ति के संवैधानिक अधिकार सुनिश्चित कर लिए गए हैं. यदि पुलिस अधिकारी के द्वारा की गई गिरफ्तारी सी आर पी सी की धारा ४१ के प्रावधानों को पूरी नहीं करती है , तो मजिस्ट्रेट बाध्य है कि वह गिरफ्तारी को अधिकृत न करे और अभियुक्त को मुक्त कर दे. दूसरे शब्दों में , जब एक अभियुक्त मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाता है , तब पुलिस अधिकारी , जिसने उसे गिरफ्तार किया है , को उसकी गिरफ्तारी के तथ्य ,  कारण और गिरफ्तारी के निष्कर्ष को रखना होगा और मजिस्ट्रेट को तब संतुष्ट होना होगा की गिरफ्तारी के जो कारण बताये गए हैं , वे पर्याप्त हैं , तभी वह उसे अधिकृत कर सकेगा. इसके पहले कि हिरासत के लिए  मजिस्ट्रेट अनुमति दे , उसे अपनी संतुष्टि के आधार को रिकार्ड पर रखना होगा , भले ही संक्षिप्त , लेकिन यह संतुष्टि उसके आदेश में प्रतिबिंबित होने चाहिए. इसे पुलिस अधिकारी के अनुमान पर आधारित नहीं होना चाहिए. उदाहरण के लिए , यदि पुलिस अधिकारी को यह लगता है कि अभियुक्त को आगे किसी अपराध करने से रोकने के लिए , या समुचित जांच के लिए या साक्ष्यों से छेड़छाड़ की आशंका को रोकने के लिए  गिरफ्तारी जरूरी है , तो उसे मजिस्ट्रेट के सामने उसके तथ्य , उसके कारण और कागजात पेश करने होंगे, जिनके आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा है. मजिस्ट्रेट इसके पहले किगिरफ्तारी को अधिकृत करे , उन सबको पढ़ना होगा और अपनी संतुष्टि को रिकार्ड में लाने के बाद ही उसे अनुमति देनी होगी.  यदि कोइ संदिग्ध मजिस्ट्रेट के पास लाया जाता है , हिरासत की स्वीकृति के लिए , तो मजिस्ट्रेट को यह देख लेना चाहिए कि गिरफ्तारी के ख़ास कारण रिकार्ड पर रखे गए हैं की नहीं, और यदि रखे गए हैं , तो वे कारण प्रथम दृष्टया प्रासंगिक हैं , और यह भी कि पुलिस अधिकारी के द्वारा एक तार्किक निष्कर्ष दिया गया है कि संदर्भित कोइ कारण गिरफ्तारी की जरूरत को पुष्ट करता है. कम से कम इतनी न्यायिक समीक्षा एक मजिस्ट्रेट जरूर करे.’

तथाकथित गैरजरूरी गिरफ्तारियो और लापरवाह तथा यांत्रिक हिरासत को रोकने के लिए न्यायालय ने निम्नलिखित निर्देश दिए हैं.
क़  ) सभी राज्य सरकारों अपने पुलिस अधिकारियों को निर्देशित करें की वे  498 ( अ ) के तहत मामले रजिस्टर किये जाने के बाद  स्वतः गिरफ्तारियां न करें , बल्कि वे पहले उपर्युक्त मापदंड, जो सी आर पी सी की धारा ४१ से स्पष्ट हैं, के तहत संतुष्ट हो लें.
ख )   सभी पुलिस अधिकारियों को चेक लिस्ट दिए जाएँ, जिनमें धारा ४१ ( १) और (२) की उपधाराएं उल्लिखित हों.
ग )  पुलिस अधिकारी आगे की हिरासत के लिए मजिस्ट्रेट के सामने अभियुक्त को ले जाने के पहले पूरी तरह  भरे गए चेकलिस्ट और गिरफ्तारी के आधार और कागजात को पेश करेगा.
घ )  मजिस्ट्रेट हिरासत को अधिकृत करने के पहले पुलिस अधिकारी के द्वारा पेश किये रिपोर्ट को पढ़े और संतुष्ट होने पर ही हिरासत को अधिकृत करे.
च )    गिरफ्तार न करने के निर्णय को केस दर्ज होने के दो सप्ताह के अन्दर स्थानीय मजिस्ट्रेट को केस की कापी के साथ भेजना होगा , जिसकी अवधि  पुलिस अधीक्षक  के द्वारा लिखित कारणों के साथ  बढाई जा सकती है.’
छ  )  सी आर पी सी की धारा ४१ के तहत अभियुक्त को उपस्थित होने की नोटिस केस दर्ज होने के दो सप्ताह के भीतर दी जाय , जिसकी अवधि  पुलिस अधिक्षक  के द्वारा लिखित कारणों के साथ  बढाई जा सकती है.
ज )  निर्देशों के अनुपालन में कोताही करने पर  सम्बन्धित पुलिस अधिकारी विभागीय कारवाई का पात्र होगा  और वह न्यायालय की अवज्ञा के लिए सजा का भी पात्र होगा, जो सम्बन्धित उच्च न्यायालय के द्वारा निर्धारित होगी.
झ )  हिरासत को बिना कारण रिकार्ड किये हुए अधिकृत करने पर संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट सम्बंधित उच्च न्यायालय के द्वारा विभागीय कारवाई का पात्र  होगा.
ट  ) हमलोग यह भी यहीं सुनिश्चित कर दें कि उपर्युक्त निर्देश सिर्फ भारतीय दंड संहिता की धारा  ४९८ (अ) के या दहेज़ निवारण क़ानून की धारा ४ के तहत ही सिर्फ लागू नहीं होगा, बल्कि यह उन मामलों पर भी लागू होगा जिनमें सजा का प्रावधान ७ साल का है , या जिनमें सजा ७ साल तक बढ़ाई जा सकती है, बिना आर्थिक दंड  के या आर्थिक दंड  के साथ
ठ ) हमलोग यह निर्देशित करते हैं की इस निर्णय की कॉपी सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक तथा सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरल को अग्रसारित किये जाएँ ताकि इसका आगे प्रसार हो सके और इसका पालन सुनिश्चित किया जा सके.

आयडवा का बयान
आयडवा उच्चतम न्यायालय के द्वारा दहेज़ उत्पीडन के मामले में की गई टिप्पणी (मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ ) के प्रति गंभीर दुःख और निराशा व्यक्त करती है. न्यायालयों को यह पूरा अधिकार है की वह किसी ख़ास केस में ख़ास आदेश पारित करे, जबकि इसका कोइ कारण नहीं है कि वे आदेश सभी दहेज़ उत्पीड़नों के मामले में लागू हों, और अनुपालन न होने की स्थिति में न्यायालय की अवमानना की धमकी के साथ उन्हें अनिवार्य  किया जाय.
खैर , यह हमारा अनुभव है कि कई राज्यों में पहले से ही दिशानिर्देश हैं कि ४९८ ( अ ) , दहेज़ , के मामले कैसे देखे जाएँ. वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को पहले से ही गिरफ्तारी करने या न करने के कारण ऍफ़ आ आर दर्ज होने के बाद लिखने होते हैं , जो न्यायालय के द्वारा समीक्षा के विषय होते हैं. प्रायः गिरफ्तारियां पुलिस के द्वारा पर्याप्त छानबीन के बाद ही की जाती हैं. इसलिए हमारा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश स्थितियों की समझ के आधार पर नहीं है, और यह जमीनी सच्चाई के प्रति नासमझी को अभिव्यक्त करता है.
हमलोग इस बात से भी व्यथित हैं कि माननीय न्यायालय ने यह टिप्पणी की है की ४९८ (अ) असंस्तुष्ट पत्नियों के दवारा हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है. इस तरह की भाषा,  हिंसा की शिकार स्त्रियों को नीचा दिखाती है और देश के उच्चतम न्यायालय को यह शोभा नहीं देती है, जिससे हम मानवाधिकारों की रक्षा की उम्मीद करते हैं.  हम भयभीत हैं कि यह उन प्रतिगामी शक्तियों की मदद करेगी , जो पहले से ही इस धारा को कमजोर करने , जमानती और आपसी समाधान के योग्य बनाने के लिए दवाब बना रही हैं.

यद्यपि न्यायालय ने गिरफ्तार लोगों के अपमानित होने पर अपनी चिंता जाहिर की है , हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि हजारो महिलाएं, जो प्रतिदिन शारीरिक और मानसिक हिंसा के कारण रोज –रोज अपमान और शर्म से गुजरती हैं.प्रायः सभी अध्ययन यही कहते हैं कि उनमें से बहुत कम ही पुलिस थानों तक पहुँच पाती हैं, और उनसे भी कम न्यायालयों से न्याय प्राप्त कर पाती हैं. हम माननीय न्यायाधीशों से अनुरोध करते हैं कि वे अपने आदेश पर पुनर्विचार करें, खासकर पुलिस थानों के यथार्थ को देखते हुए, जो यह बतलाते हैं कि देश भर में महिलाओं के खिलाफ बढ़ाते अपराध का कारण ४९८ ( अ) का बेजा इस्तेमाल नहीं है, बल्कि इनका इस्तेमाल ही नहीं हो पाना है.

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ISSN 2394-093X
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