कविता विकास पेशे से अध्यापिका हैं , धनवाद में रहती हैं। एक काव्य संग्रह ‘लक्ष्य’ प्रकाशित। संपर्क : 09431320288 ,kavitavikas28@gmail.com
१. धूरि
अब कोई तुम्हे अबला कहे
तो बतला देना कि कैसे
उस दिन ज्वर में तपते हुए
तुम्हारी आँख क्या लग गई कि
गृहस्थी की गाड़ी रुक गयी
अस्त – व्यस्त हो गया माहौल
पता नहीं तुम्हे अबला समझने वाले
कद्देवार मर्द यह
समझ भी पाये या नहीं कि
तुम परिवार की धूरि हो।
तुम्हारी पसंद – नापसंद को दरकिनार कर
कोई कौड़ियों की मोल तुम्हे बेच दे
तो प्रतिकार करना
कुलटा कहने वाले लोग
चंद दिनों में तुम्हारी अहमियत
समझ जायेंगे।
और हाँ ,पैसों की थैली फेंक कर
एक रात की दुल्हन तुम्हे बनाने वाले
वेश्या कहते थे न ,
अब उनकी पैसों की थैली
उनपर ही फेंककर जतला देना कि
उन्होंने अपनी आत्मा गिरवी रखी है
तुमने नहीं ,तुम तो प्राणवायु हो
जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं।
२. बोंसाई
मैं कोई बोंसाई का पौध नहीं
जिसकी जड़ों को काट कर
शाखाओं – प्रशाखाओं को छाँट कर
एक गमले में रोप दिया ।
मैं तो मैं हूँ ।
बेटी ,बहन और पत्नी के रिश्तों का
निर्वहन करती हुई भी
एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हूँ ।
अपना एक वजूद है
एक ठोस ज़मीनी सतह हूँ
जिस पर काल के झंझावातों ने
कम विनाश नहीं रचा।
फिर भी सुनहरी किरणों वाला सूर्य
हर दिन उगता है ।
हवाएँ सुरमयी संगीत बिखेरती हैं
नव पल्लवन को मैं उल्लसित रहती हूँ ।
मेरे अंतर को चीर कर देखो
गर्म लावा प्रवहित है ।
जब भी मेरे वजूद को ललकारा
मैं ज्वालामुखी बन जाती हूँ ।
नहीं बनती मैं बेवज़ह बर्बादी का सबब
लेकिन मेरी कोमलता कायरता नहीं है ।
बंधी है इसमें एक कूल की मर्यादा
और आँगन की किलकारियों का अविरल प्रवाह ।
कुम्हार के चाक सा सुगढ़ निर्माण
लिखा है मेरी हथेलियों में
फिर भला क्यूँकर इनसे हो विनाश ?
अपने सर्ग का उपहार
बस यही माँगू मैं
कि बढ़ने दो मुझे वट सा विस्तृत ।
मेरी छांव से ना कर गुरेज
प्रकृति ,प्राणी ,प्रयास
मैं ही तो हूँ ।
बोंसाई के बगल में
अपनी पौध लहरा कर
सामंजस्य कैसे कर पाओगे तुम ?
दो एक विशाल आयाम मुझे
और अगर नहीं दे पाए
तो मेरे आकाश को ना बाँधो
उड़ने दो मुझे स्वतः
जैसे नील गगन में उड़ता जाता है
पक्षी क्षितिज के पार ।