सुधा उपाध्याय की कवितायें

सुधा उपाध्याय

सुधा उपाध्याय महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं। इनके दो कविता संग्रह -‘इसलिए कहूँगी मैं’और
‘बोलती चुप्पी’- प्रकाशित हो चुके हैं। एक आलोचना पुस्तक भी प्रकाशित है। संपर्क : sudhaupadhyaya@gmail.com

1. युद्धरत औरत

सुबह सवेरे
एक बनावटी मुस्कान पहने निकलती है घर से
बार-बार मुखौटे बदलते थक जाती है
कृत्रिम हंसी, खुश्क आंखें और खोखले मन
आतंकित करते हैं
तब भी विशिष्टों में नहीं रच पच पाती
थकी हुई वापस लौटती है अपनी दुनिया में
जहां राह देख रहे हैं
जाने कब से भूखे बच्चे,
बिखरा घर, उलझी आलमारी
दूध राशन सब्जी की खरीदारी
करती युद्धरत औरत
डांट डपटकर सुला देती है बच्चों को
पड़ जाती है निढाल बिस्तर पर
ताकि कल फिर जिरहबख्तर के साथ
निकल सके घर से।

     2.  नहीं फेंक सकती

तुम अकसर कहते हो मुझे
अव्यवस्थित
कर चुके हो शिकायत
संग्रह भावना की
पर क्या करूं
मैं नहीं फेंक सकती जिए हुए
किसी पल को कुड़ेदान में
चाहे वो बच्चों के बनाए सुंदर कार्ड हों
उनके तुतलाते हस्ताक्षर,

रंगीन ड्राइंग
क्लासरूम नोट्स
यूं ही कागज के ठोंगे पर लिखी कोई कविता
डायरी का कोई पन्ना
कहीं से मिल गई कोई अच्छी शायरी
या फिर चिंदियों में
तुम्हारे तमाम प्यारे संबोधनों का इतिहास
हर ब्यौरा सुरक्षित रखा है मन के कोने में
फिर भी उसे दुलराने के लिए
उसका बाहर होना भी
उतना ही जरूरी है

4.   क्यों करती हो वाद-विवाद

क्यों करती हो वाद-विवाद
बैठती हो स्त्री विमर्श लेकर
जबकि लुभाते हैं तुम्हें
पुरुषतंत्र के सारे सौंदर्य उपमान
सौंदर्य प्रसाधन, सौंदर्य सूचक संबोधन
जबकि वे क्षीण करते हैं
तुम्हारे स्त्रीत्व को
हत्यारे हैं भीतरी सुंदरता के
घातक हैं प्रतिशोध के लिए।
फिर क्यों करती हो वाद-विवाद।

5.    बोनजई

तुमने आँगन से खोदकर
मुझे लगा दिया सुंदर गमले में
फिर सजा लिया घर के ड्राइंग रूम में
हर आने जाने वाला बड़ी हसरत से देखता है
और धीरे-धीरे मैं बोनज़ई में तब्दील हो गई
मौसम ने करवट ली
मुझमें लगे फल फूल ने तुम्हें फिर डराया
अबकी तुमने उखाड़ फेंका घूरे पर
आओ देखकर जाओ
यहां मेरी जड़ें और फैल गईं हैं

6.       कूबत

चट्टानों को तोड़ देने का हौंसला
तूफानों को चीरकर निकलने का साहस
शहर भर की भेदती निगाहों से बचती
अंधेरों से लड़ने की कूबत
औरत तूने कहां से जुटाई
ये आईना जो दरक गया था कभी का
इसे फिर कहां से उठा लाई

7.    खानाबदोश औरतें

सावधान ….
इक्कीसवीं सदी की खानाबदोश औरतें
तलाश रहीं हैं घर
सुना है वो अब किसी की नहीं सुनतीं
चीख चीख कर दर्ज करा रही हैं सारे प्रतिरोध
जिनका पहला प्रेम ही बना आखिरी दुःख
उन्नींदी अलमस्ती और
बहुत सारी नींद की गोलियों के बीच
तलाश विहीन वे साथी जो दोस्त बन सकें
आज नहीं करतीं वे घर के स्वामी का इंतज़ार
सहना चुपचाप रहना कल की बात होगी
जाग गयी हैं खानाबदोश औरतें
अब वे किस्मत को दोष नहीं देतीं
बेटियां जनमते जनमते कठुवा गयी हैं

8.       अक्षत

सुनो मैंने आज भी सहेज कर रखा है
वह सबकुछ जो अम्मा ने थमाई थी
घर छोर कर आते हुए
तुम्हारे लिए अगाध विश्वास
सच्ची चाहत ,धुले पूछे विचार
संवेदनशील गीत ,कोयल की कुहुक
बुलबुलों की उड़ान ,ताज़े फूलों की महक
तितली के रंग ,इतर की शीशी
कुछ कढाई वाले रुमाल
सोचती हूँ हवाई उड़ान भरते भरते
जब तुम थक जाओगे
मैं इसी खुरदुरी ज़मीन पर तुम्हे फिर मिल जाउंगी
जहाँ हम घंटों पसरे रहते थे मन गीला किये हुए
वे सब धरोहर दे दूँगी ख़ुशी से वे तुम्हारे ही थे
अक्षत तुम्हारे ही रहेंगे ….

9. मौसम

मुझपर फब्ती है
जेठ की दुपहरी
पूस की रात
बरसात की उमस
सबकुछ जीती हूं एक साथ
क्यों कि मौसम ऐसे ही करवट लेता है।

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ISSN 2394-093X
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