स्त्री-शक्ति की भूमिका से उठते कई सवाल

सुधा अरोडा


सुधा अरोडा सुप्रसिद्ध कथाकार और विचारक हैं. सम्पर्क : 1702 , सॉलिटेअर , डेल्फी के सामने , हीरानंदानी गार्डेन्स , पवई , मुंबई – 400 076
फोन – 022 4005 7872 / 097574 94505 / 090043 87272.

( राम का मुखौटा पहने — समाज, सत्ता, धर्म और खाप के कितने रावण! )

( आज से हिन्दुओं का पर्व ‘ नवरात्र’ प्रारम्भ  हो गया  है. इसके सन्दर्भ से कथाकार और स्त्री -अधिकार के  संघर्ष  में हमेशा तत्पर रहने वाली सुधा अरोड़ा अपना मत रख रही हैं – हिन्दू मिथों को छेड़े बिना , उनके अंतर्पाठ से मिथकों में अन्तर्निहित पितृसत्ता की पड़ताल कर रही हैं )

सीता की त्रासदी तमाम महिमामंडनों के बावजूद वैसी ही बनी हुई है और हमारे समाज के व्यवहार से कहीं न कहीं रिस-रिसकर बाहर आती रहती है। वह रावण की जबर्दस्ती का ही शिकार नहीं हुई बल्कि मर्यादा और प्रजा प्रेम के नाम पर राम की ज्यादती का भी शिकार हुई। समर्पण की पराकाष्ठा को छूते हुये उसने राजमहल की जगह जंगल का रास्ता चुना और शक की सुइयों से बिंधकर अग्नि-परीक्षा दी। क्रूरता के चरम का शिकार होकर वह जंगल में छोड़ दी गई और यातना के सीमांत पर पहुंच कर उसने धरती में समा जाने का निर्णय लिया। आज पारिवारिक ढांचे में स्त्री की दशा देखकर इनमें से कई सच्चाइयां  हमारे सामने तैर जाती हैं। लोग रावण का पुतला फूंकने की खुशी में यह भूल जाते हैं कि सीता का अपराधी केवल रावण ही नहीं है।
सीता हर जगह लड़ रही है और रावण अनेक रूपों में संक्रमित हो चुका है – प्रेमी, पति, पिता या भाई – वह कहीं भी हो सकता है। समाज, सत्ता, धर्म और खाप के न जाने कितने रावण हैं जो राम का मुखौटा पहने, महलों से लेकर झोपडों तक में, आसन जमाये बैठे हैं. वे आज मिथक से निकल कर हमारे रोजमर्रा के जीवन में पैठ रहे हैं.”

विजयादशमी को सालों से बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता रहा है ।  राम इस कथानक के नायक हैं और विजय का सेहरा उन्हीं के सिर माथे है । मिथक की ही बात करें तो क्या राम की विजय सिर्फ उन्हीं की विजय है ? क्या सीता की दृढ़ता, पार्वती (शक्ति) के वरदान की कोई भूमिका नहीं है ? क्या राम के संघर्ष और जीत में स्त्री-शक्ति की कोई भागीदारी नहीं थी ? आखिर क्यों हमारे पौराणिक आख्यानों में शक्ति-पूजा की परंपरा है ? क्यों हर संघर्ष से पहले देवी-पूजा का विधान है ? समय चाहे कितना भी बदल जाए, अंतिम विजय सिर्फ सद्शक्ति की मदद से ही मिल सकती है। यह सिर्फ रामकथा का ही सच नहीं है, आधुनिक युग का भी सच है।

जीवन के हर तरह के संघर्ष में जीत तब ही निश्चित हो पाती है, जब स्त्री किसी-न-किसी रूप में साथ हो चाहे स्त्री का मां रूप हो, बहन, पत्नी, बेटी या फिर दोस्त । पुरुष की शक्ति का स्रोत ही स्त्री है । जीवन के रोजमर्रा से जुड़ी घटनाओं में पुरुष की शक्ति के तौर पर कोई-न-कोई स्त्री खड़ी मिलती है। कुछ रचना हो, कहीं लड़ना हो, कहीं जीतना हो… स्त्री का वजूद पुरुष की मदद, संबल और सहयोग के लिए हुआ ही करता है । सामान्य सा तथ्य  है कि जिस पुरूष को अर्थ उपार्जन के कारण हम घर का कर्णधार मानते रहे, क्या। उसके बाहर जाकर कमाने के पीछे उसकी अनुपस्थिति में घर के बडे बुजुर्गो, बच्चों और समूचे घर की देखभाल करती स्त्रीे का कोई योगदान नहीं रहा ? यह बात अलग है कि उसे इसका श्रेय कभी दिया नहीं गया । संपत्ति का हकदार उसे कभी माना नहीं गया ।

जैसे जैसे समय बीतता गया, न सिर्फ़  इस शक्ति को अनदेखा किया गया, उसके मायने भी बदल गये । उसे पुरुष सत्ता ने सचमुच देवी की तरह ऊंचे आसन पर प्रतिमा की तरह स्थापित कर दिया और प्रतिमाएं मूक बधिर होती हैं, वे मंदिरों और पूजा पंडालों में सजी धजी ही भली लगती हैं, तभी वे पूजा अर्चना की पात्र बनती हैं। घर में अष्टभुजा बनकर सारे दायित्व निबाहती, सारी परंपराओं को अपने कंधों पर ढोतीं और बेटी, बहन और पत्नी बनकर सारी आचार संहिताओं का पालन करती स्त्री जब आंखें मूंद लेती थीं तो उसके सच्चरित्र, कुलशीला होने के बखान उसके परिवार और आस पड़ोस में किये जाते। इसी में उसके होने की सार्थकता मान ली गयी !

सदियों से स्त्री ने अपनी शक्ति को सिर्फ अपने पति और परिवार की उन्नति और विकास के लिये बनाए रखा। सिर्फ सौ साल पहले का समय देखें, स्त्रियों के नाम के साथ देवी या रानी लगाने का प्रचलन था। वे घर को घर बनातीं और घर की शोभा बढाती अपने-अपने देवता की देवियां थीं।  हर कहीं सहयोगी की भूमिका में — मौन, शांत और अन्तत: अनंत में विलीन… सब कुछ सहज गति से चल रहा था । सहयोग करती, सहती और चुप रहती स्त्री समाज को अपने अनुकूल लग रही थी। देवी की तरह प्रतिष्ठित कर उससे मानवी होने के सारे अधिकार और श्रेय छीन लिए गए। घर के किसी हिस्से में देवी प्रतिमा को पूरी साज-सज्जा के साथ स्थापित करने के बाद पूजा-अर्चना तक ही शक्ति-पूजा का सिलसिला चलता रहा। मुश्किल तब शुरू हुई जब स्त्री ने अपनी शक्ति को हथियार बनाया, अपने नैसर्गिक गुणों को अपनी ताकत में रूपांतरित किया और मुखर हुई। शिक्षा और जागरूकता ने स्त्री को सवाल करना सिखाया और उन्हीं सवालों ने एक तरफ स्त्री को अपनी शक्ति का अहसास कराया तो दूसरी तरफ पुरुष सत्ता को चुनौती की आहट सुनाई पडी । अब तक स्त्री ‘देवी-स्वरूप’ होकर खुश थी, लेकिन जैसे ही उसने सवाल उठाए, अधिकार मांगे, सत्ता की लडाई शुरू हो गई । सामाजिक संतुलन गड़बड़ाया और स्त्री का दोहरा संघर्ष शुरू हो गया। एक पुरुष के संघर्ष के साथ, दूसरा अपने वजूद के लिए ।

रामकथा को बुराई पर अच्छाई की जीत की तरह पढ़ने, देखने और मानने का प्रचलन है। बदलते समय के साथ उसमें नयापन ढूँढना एक गंभीर मसला है। खासतौर पर जब इसका अंतर्निहित सत्य आज के समय में स्त्रियों और दूसरे हाशियाई समुदायों के साथ उसके सम्बन्धों की नवीन व्याख्या हो। संस्कृति में भावना का पारंपरिक रूप तभी तक सुरक्षित होता है जब तक उसपर बाज़ार और आधुनिकता का नकारात्मक प्रभाव न हो। भारत में आज मिथकों और महाकाव्यों को लेकर जो एक विश्लेाषणात्मनक रवैया बन गया है वह दरअसल परंपरागत मान्यताओं को लेकर एकांगी पाठ रचता रहा है। वर्चस्व और आदर्श की पुरानी मूल्यव्यवस्था को भावनात्मक समर्पण इस हद तक जायज बनाता है कि प्रमुख चरित्रों के निजी दुख और यातनायेँ उनकी ‘‘लार्जर दैन लाइफ’’ इमेज के पीछे छिप जाते हैं। लोग उन पात्रों के साथ इतने एकात्म हो जाते हैं कि अपने जीवन में भी वैसा ही कुछ चाहते हैं। पुरुष बेशक राम की जगह कन्हैया हो जाये लेकिन पत्नी तो उसे सीता जैसी ही चाहिए। स्वयं वह कितनी ही गोपिकाओं के साथ रास रचाता रहे पर पत्नी के रूप में उसे कोई गोपी नहीं चाहिये। पत्नी  के लिये सीता वाला मानक ही मान्य है ।

रामकथा मौलिक रूप से स्त्रियों की केन्द्रीयता का आख्यान है हालांकि रावण जैसे महायोद्धा और राम जैसे सूझ-बूझ वाले चरित्र के टकराव को ही इसका मूल घटक माना जाता है। इस घटक के अतिरिक्त एक और घटक हम आसानी से देख लेते हैं और वह है स्त्री के साथ इन दोनों पक्षों का रवैया। जिस पक्ष में स्त्री का सम्मान है, वही विजयी है और उसी को आदर्श माना जाता है । राम का पक्ष इन्हीं कारणों से अलग और श्रेष्ठ हो जाता है। रावण का सारा ऐश्वार्य और ज्ञान इसीलिए क्षीण होता दिखता है क्योंकि वह एक स्त्री का अपहरण करने और जबरन उसे अपने पास रखने का अपराधी है। लोक में किसी स्त्री के साथ यह रवैया त्याणज्य  रवैया है। चाहे महल सोने का हो और चांदी के थाल में ही कोई क्यों न खाये लेकिन किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसे अपने अधिकार या दबाव में रखना एक  कुत्सित और घटिया कर्म माना जाता है। कहीं न कहीं लोक के अवचेतन में यह बात गहरे पैठी है इसलिये उसकी सारी सहानुभूति मर्यादा पुरूषोत्तम  राम के साथ है।

दरअसल रामकथा को भारतीय सामाजिक संरचना और पारिवारिक संस्कृति के साथ उसकी आर्थिक संरचनाओं के बरअक्स देखना बहुत जरूरी है और इन सब में स्त्री हमेशा एक ऐसे पायदान पर रही है जहां उसका जीवन-संघर्ष घनीभूत और जटिल रहा है । इस प्रक्रिया में उसकी आत्मा पर कितना भी बड़ा बोझ हो और कितना ही उसे जूझना पडा हो, पूरी तरह से पति के प्रति समर्पण ही उसका सत्य रहा है । कौशल्या, सुमित्रा, सीता, उर्मिला, मंदोदरी, तारा आदि ऐसी ही स्त्रियाँ हैं। सीता का चरित्र इनमें सबसे विराट है। वह न केवल बाहर निकली बल्कि सौ दुख सहने के बावजूद उसने अग्निपरीक्षा दी और गर्भकाल में बेवजह जंगल में छोड़ दी गई। इन सबके बावजूद उसने राम की वंशबेल को बढ़ाया और संतान को योग्य  बनाया। सीता एकमात्र ऐसा चरित्र है, जिसने सबकुछ सहन करके पितृसत्ता की जड़ों को सबसे अधिक मज़बूत किया। एक सहनशीला पत्नी का इससे शानदार उदाहरण पूरी दुनिया  में नहीं मिलेगा। भारत में रोजगार और विस्थापन का शिकार निम्नवर्ग हो या देश-विदेश में दौलत का अंबार खड़े करते व्यापारी या फिर अपनी रंगरेलियों में मस्त सामंती मानसिकता वाला पूंजीपति, सबके लिए सीता ही सबसे अनुकूल और ज़रूरी पात्र है। सीता ही उस हजार कमियों से निजात दिलाकर उसकी प्रतिष्ठाे बरकरार रखने के लिए अपने जीवन को होम कर सकती है। कैसी विडम्बना है कि जीवनभर प्रेम के लिए यहाँ-वहाँ भटकने वाले को भी राधा जैसी प्रेमिल स्त्री नहीं चाहिए। सीता इसलिए सदियों से एक चाहत और आदर्श का प्रतिरूप है क्योंकि वह पुरुष के सभी गलत निर्णयों को बिना सवाल किये स्वीकार लेती है।

सीता की त्रासदी तमाम महिमामंडनों के बावजूद वैसी ही बनी हुई है और हमारे समाज के व्यवहार से कहीं न कहीं रिस-रिसकर बाहर आती रहती है। वह रावण की जबर्दस्ती का ही शिकार नहीं हुई बल्कि मर्यादा और प्रजा प्रेम के नाम पर राम की ज्यादती का भी शिकार हुई। समर्पण की पराकाष्ठा को छूते हुये उसने राजमहल की जगह जंगल का रास्ता चुना और शक की सुइयों से बिंधकर अग्नि-परीक्षा दी। क्रूरता के चरम का शिकार होकर वह जंगल में छोड़ दी गई और यातना के सीमांत पर पहुंच कर उसने धरती में समा जाने का निर्णय लिया। आज पारिवारिक ढांचे में स्त्री की दशा देखकर इनमें से कई सच्चााइयाँ हमारे सामने तैर जाती हैं। लोग रावण का पुतला फूंकने की खुशी में यह भूल जाते हैं कि सीता का अपराधी केवल रावण ही नहीं है।

सीता हर जगह लड़ रही है और रावण अनेक रूपों में संक्रमित हो चुका है – प्रेमी, पति, पिता या भाई – वह कहीं भी हो सकता है। समाज, सत्ता, धर्म और खाप के न जाने कितने रावण हैं जो राम का मुखौटा पहने, महलों से लेकर झोपडों तक में, आसन जमाये बैठे हैं। वे आज मिथक से निकल कर हमारे रोजमर्रा के जीवन में पैठ रहे हैं ।

जाहिर है स्त्री की भूमिका भी बदली है और स्वरूप भी। अब सीता बेवजह अग्नि-परीक्षा देने के लिए तैयार नहीं है, धोबी के लांछन से वह घर छोडने से इनकार करती है। स्त्री मुखर हुई है,उसकी शक्ति ज्यादा धारदार हुई है, तो उसके संघर्ष भी गहन और लंबे होंगे। यूं स्त्री सदियों से संघर्षरत है — सीता रावण से और द्रोपदी दुर्योधन-दु:शासन से। आज भी उसका संघर्ष थमा नहीं है। वह संघर्ष कर रही है, पुरुषों के मोर्चे पर पुरुषों के साथ और अपने मोर्चे पर पुरुषवादी स्त्रियों के साथ भी ।

वक्त के बदलने के साथ संघर्ष का स्वरूप भी बहुत कुछ बदल गया है। बस नहीं बदला तो स्त्रीं के संघर्ष की प्रकृति। सीता ने रावण से संघर्ष किया, लेकिन राम के अन्याय को सहा। आज की स्त्री रावण से भी संघर्ष कर रही है और राम के अन्याय से भी। संघर्ष दोहरा तिहरा नहीं, चहुंमुखा है और लंबा भी। यह बहुत जल्दी  समाप्त  होने वाला नहीं है। यह चल रहा है और आगे भी चलेगा। सकारात्मक उर्जा , शक्ति , प्रकृतिगत लचीलेपन और दूरदर्शिता से स्त्री  स्थितियों को बदल पाने में सक्षम होगी। किसी भी प्रगतिशील समाज के विकास और उन्नदति के लिये यह जरूरी भी है।

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles