स्पीड ब्रेकर / कहानी

डा .कौशल पंवार


कौशल पंवार दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में संस्कृत पढाती हैं. उनसे उनके मोबाइल न.  09999439709 पर सम्पर्क किया जा सकता है.

  (  राष्ट्रवादी स्वच्छता अभियान के बीच कौशल पंवार की यह कहानी पढी   जानी चाहिए .)

 हम आने वाले दिनों में आजादी की ६८वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं. आज ठीक स्वतंत्रता दिवस के दो दिन पहले उसे ये अहसास एक बार फिर से हुआ कि हम शायद आज भी गुलाम हैं और ये गुलामी देश से बाहर के लोगों की नहीं है बल्कि देश में रहने वाली उन ब्राह्मणवादी ताकतों से हैं जो कभी नहीं चाहती कि इस देश में रहने वाले ये दलित आजादी के बरसों बाद भी उनसे आजादी का सुख हासिल कर पायें. क्या ये समुदाय जो इसी समाज का भी अंग है, कभी इस ब्राह्मणवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पायेगा. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जी ने इस देश का संविधान बनाकर हमे समता का हक दिया. हमें वे सभी अधिकार दिये जो मानवतावादी मूल्यों की दरकार रखते हैं. लेकिन ककीकत में तो आज भी हमारे साथ वही गुलामों जैसा व्यवहार किया जा रहा है. जिसके लिए हमें उदाहरण ढूँढने की आवश्यकता नही है. ये दिन – प्रति दिन की घटनायें हैं जिसका सामना हमें आये दिन भूगतना पड़ता है. दलितों में भी दलित, समाज का सबसे निचला पायदान, जो चौतरफा शोषण का हर दिन शिकार होता है. ऐसे ढ़ेरों सवाल नीना को कौचट रहे थे और उसके सामने राक्षस के समान मुंह बाये उसे निगलने के लिए तैयार थे. सोचते-सोचते कब उसकी गाड़ी आगे वाली गाड़ी से टकरा गयी, उसे पता नहीं चला, वो तो भला हो सीट-बैल्ट का जिसने उसे कसकर बांध रखा था वरना तो आज उसका सिर स्टेरिंग से टकराते-तकराते बचा था. आगे वाली गाड़ी का ड्राइवर चिखने-चिल्लाने लगा. वैसे भी उसकी कार मंहगी थी, जो उसकी टूटी-फूटी उड़नखटौला से तो एकदम चकाचक थी जैसे कि अभी-अभी शोरूम से निकाली गयी हो. उसने अपनी सीट बैल्ट खोली, दरवाजा खोला और गाड़ी से उतर गयी. ड्राइवर अपनी ही धुन में चिल्लाए जा रहा था. उसने उसे कई बार सॉरी बोला पर उसने नीना की तरफ कोई ध्यान ही नहीं दिया. उसकी कार का ज्यादा नुकसान भी नहीं हुआ था, बस गाड़ी के पिछले हिस्से के बोनट पर थोड़ा सा स्क्रैच पड़ गया था. हां, नीना की नजर में तो वह थोड़ा ही था पर उनके लिए तो जैसे उनकी प्रेस्टीज़ पर छींटे पड़ गये थे.

गाड़ी का मालिक पिछली सीट पर बैठा हुआ अभी तक चुपचाप से तमाशा देख रहा था, उसने बड़े रुआब से गाड़ी का शीशा नीचे किया और उसे ऊपर से नीचे तक घूरा. एक बार तो नीना उसकी काले चश्में से झांकती नशीली आंखों से सहम सी गयी पर तुरंत ही उसने अपने आपको सम्भाल लिया. उसने सोचा भइया कहकर माफी मांग लेती हूं. परन्तु तुरंत ही उसने इस ख्याल को परे धकेल दिया. आजकल के आदमी भइया कहने से चिड़ जाते हैं. सो उसने अपनी भारी सी वाणी मे मिठास घोलते हुए माफी मांगी और हकलाते हुए कहा- “वो मैं थोड़ा आगे की ओर देख रही थी, आपकी गाड़ी को एक गाड़ी ओवरटेक करते हुए गुजरी थी, इसी देखा-देखी मे मेरी गाड़ी आपकी गाड़ी से टकरा गयी.” उसने बड़ी शालीनता से कहा. मालिक ने खा जाने वाली नजरों से ड्राइवर को देखा और आंखों से गाड़ी चलाने का ईशारा किया. वह बैठा और गाड़ी को पूरी रफ़्तार से मानों सबको रौंदता हुआ आगे निकल गया. नीना को लगा जैसे ये कार मालिक नीना के पूरे अस्तित्व को कुचल कर आगे निकल गया. उसने एक लम्बी सी गहरी सांस ली और अपने उड़नखटौले में आकर कहीं अतीत के पन्ने फिर से उकरने लगी, मानों किसी अध्याय का पन्ना पलट रही हो.

वह जिस कालेज में पढ़ाती थी. दिल्ली विश्वविद्यालय का एक जाना माना कालेज था. जाना-माना इसलिए क्योंकि इसमे पढ़ाने वाले अध्यापकों का एक बड़ा ग्रुप प्रगतिशील विचारों वाला माना और जाना जाता था और कई मामलों में यह था भी. नीना के कालेज के स्टाफरूम में चाय बनाने वाला रोशन कई दिनों से छुटी पर गया था जिस कारण से अध्यापकों को चाय समय पर नहीं मिल पा रही थी. सभी परेशान थे. प्राचार्य महोदय ने इस के लिए किसी को डयूटी नहीं लगाई थी. जब वह छुटी से वापिस आया तो उसे भी प्रशासनिक दफतर मे ही रख लिया गया. चाय को कैंटीन से ही मंगाकर पीने का अध्यापकों के लिए प्रबंध कर दिया गया. जिससे चाय केवल निश्चित समय पर ही मिल पाती थी. इससे सभी अध्यापकों को बड़ी परेशानी हो रही थी. हालांकि नीना तो चाय पीती नहीं थी.

इस पूरी समस्या का समाधान था कि इस बारे में प्राचार्य जी से बात की जाये. एक दिन कुछ अध्यापक मिलकर प्राचार्य जी के पास गये. उसमे नीना भी शामिल थी. उस ग्रुप में उसके अलावा कोई और महिला अध्यापक नहीं थी. सबने प्राचार्य जी से इस बारे में बात की और नान टिचिंग स्टाफ में से चाय के लिए किसी को नियुक्त करने के लिए कहा. प्राचार्य को ये पता ही नहीं था कि स्टाफरूम में कोई चाय बनाकर देने वाला है ही नहीं जबकि इसके लिए सभी अध्यापक मिलकर पैसा देते थे. स्टाफ असोसियेशन के माध्यम से ये पैसा दिया जाता था जो हर महीने सभी अध्यापकों की तनख्वाह में से काटा जाता था. नान टिचिंग स्टाफ की डयूटी ए.ओ. सविता शर्मा ही लगाती थी. सविता शर्मा का पूरे कालेज में अच्छे रुआबदार महिला के तौर पर स्थान था. वैसे रूआब हो या न हो पर वह इस बात का हमेशा ध्यान रखती थी कि सभी उससे डरे. वही सभी नानटिंचिग स्टाफ के बारे में निर्णय करती थी कि कौन किस ब्लाक में काम करेगा. उसकी सत्ता का अपना दायरा था और अपनी ही सोच थी.

 
अध्यापकों ने प्राचार्य से इस बारे में बात की और चाय बनाने के लिए एक महिला को रखने के लिए कहा जो उसी स्टाफ में से थी. यह उनका सुझाव था या योजना थी ? नीना को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी,  लेकिन अचानक नाम लेकर बोलने से उसे अटपटा जरूर लगा पर तब उसने सोचा कि सीनियर टिचर ये बात कह रहे थे तो जरूर सोच-समझकर ही कहा होगा. वह चुप थी और सबकी बातें सुन रही थी. ग्रुप के एक सिनियर अध्यापक ने प्राचार्य से कहा कि- “ओबीसी फंड में से दो सफाईकर्मी की पोस्ट बनती है, आप उसकी नयुक्ति की प्रक्रिया जारी करें, क्योंकि यहां पर ये स्टाफ कम है.” जैसे ही ये प्रसंग आया तो उसे घबराहट सी होने लगी कि आगे बात का रुख पता नहीं किस ओर होगा? वैसे भी इस काम के लिए तो १००% आरक्षण हमारी ही जाति का होता है जिसे बांटने का काम न तो कोई दलित करता है और न ही गैर दलित. खैर गैर दलित तो क्यों करना चाहेगा ? पर कोई दलित भी इसे नहीं करना चाहता सिवाय एक समुदाय के. वह एकदम दम साधे बैठी थी. उसके लिए ये बात ही अनायास ढ़ंग से उठायी गयी थी. उसने सोचा कि वे सब तो चाय की ही बात करने आये थे. इसके अलावा और भी बातें होगी, इसकी जानकारी नीना को नहीं थी कि कुछ और बातें भी नोटिस में लायी जानी है. वैसे भी वह तो क्लास लेकर स्टाफरूम में आयी ही थी कि सब ने कहा कि आप भी चले, चाय वाले के बारे में प्राचार्य से जवाब-तलब करना है. और वह चली आयी थी. पर बात तो कुछ और भी थी जो उसके वहां पहुंचने पर ही पता चली थी. उसे समझ नहीं आया कि इसमें उसे ही क्यों बुलाया गया था. शायद जानबुझकर या अनजाने में ? या कुछ और था………………..?

प्राचार्य ने हां कर दी थी और आदेश भी दिया था उन सबके ही सामने? दूसरी बात शुरू हुई थी कि प्राचार्य जी चाय वाले को स्टाफरूम के लिए नियुक्त करें. उन सबके बीच में बहुत ही सुलझे हुए सीनियर अध्यापक प्रो. एस.एन. भारद्वाज जी थे, जो प्रगतिशील विचारधारा के हिमायती भी थे और समय समय पर सही बातों का समर्थन भी करते रहते थे. उन्होंने कहा कि “सुनेरी को चाय बनाने के लिए स्टाफरूम में  डयूटी लगा दो.” तुरंत सबने जवाब दिया कि, “वो” जो हमारे यहां सफाईकर्मी है? सबने हां में हां मिलायी. प्राचार्य ने बैल बजायी और उन्हें भी आफिस में बुलाया लिया गया. सभी उनकी आंखों में आंखे डालकर ऐसे देख रहे थे जैसे वो कोई दूसरी ही दुनियां से आया हुआ जीव हो. नीना को वहां बैठे हुए ऐसा अहसास हो रहा था कि मानों इस सभ्य कहे जाने वाले समाज (?) में आज उसकी और सुनेरी की पेशी लग रही हो, जैसे आज दोनों की अग्नि परीक्षा ली जा रही हो, सुनेरी से बात करके और नीना को खामोश करके!

सुनेरी से प्राचार्य ने पूछा कि “क्या तुम चाय बनाने का काम कर लोगी?” मै………? इस प्रश्न पर अवाक थी जैसे कि उनसे पूछा जा रहा हो कि “तुम चाय बनाकर क्या करोगी, तुम्हें तो झाड़ू ही ठीक तरह से लगाना आता होगा.” पर सुनकर उन्होंने जवाब दिया कि “मैं बना लूंगी पर दोनों काम मैं नहीं करूंगी, आप मेरी डयूटी एक ही काम के लिए लगाना.” नीना उनके जवाब से संतुष्ट थी कि उन्होंने अपनी बात ठीक तरह से रखी, प्राचार्य जी की आंखों में आंखे डालकर. उसमें नीना को स्वाभिमान की झलक दिखायी दे रही थी. नीना ने उनकी ओर देखा और उन्होंने भी उसकी आंखों ही आंखों में बहुत कुछ कह दिया था. आज न सिर्फ उसकी और सुनेरी की ही परीक्षा थी बल्कि उन सब अध्यापकों की भी परीक्षा थी जो अपने आपको समाजवादी और प्रगतिशील विचारधारा वाले समझते थे. जो ये कहते नहीं थकते थे कि हम इस गैर बराबरी का समर्थन नहीं करते और जाति-पांति और छुआछूत पर विश्वास नहीं करते.

प्राचार्य ने सुनेरी का जवाब सुनकर सबकी तरफ देखते हुए, एक लम्बी सांस लेते हुए कहा कि ठीक है आज के बाद सुनेरी स्टाफरूम में अपनी डयूटी करेगी. उन्होंने तुरंत बैल बजायी और अपने पी.ए. को समझा दिया कि सुनेरी की डयूटी कल से स्टाफरूम में चाय बनाने के लिए लगा दी जाये. इतना सुनते ही पी.ए. ने सुनेरी को उपर से नीचे काईयां नजरों से घूरते हुए प्राचार्य  से कहा कि- “दो-तीन दिन लग जायेंगे फेर-बदल करने में, उसके बाद इन्हें वहां पर भेज देंगे.” ऐसा कहते हुए नीना को उसे देखकर लग रहा था कि ये पी.ए. इस बात को पचा नहीं पा रहा था कि कोई सफाईकर्मी अध्यापकों को चाय बनाकर पिलाये. फिर भी वह इस बात से बहुत खुश थी कि चलो किसी एक को तो इस काम से छुटकारा मिला. लेकिन उसका दिमाग अब भी ये मानने के लिए तैयार नहीं था कि एक सफाईकर्मी के हाथों से सभी अध्यापक चाय पीने के लिए तैयार कैसे हो जायेंगे? जो महिलायें उस पर ही ताना मारते हुए जरा भी नहीं झिझकती थी वे सुनेरी के हाथों से चाय कैसे पी सकेगी. उनकी मानसिकता नीना अच्छी तरह से समझती थी पर वे सब उसके सामने कभी कुछ नहीं कहती थीं. परन्तु पीठ पीछे कोई कसर बाकी नहीं छोड़ती थीं. अपनी सारी दिमागी बीमारियां उगल देती थी एक दूसरे के सामने. जो किसी न किसी माध्यम से उस तक पंहुच ही जाती थी. वह भी इस बात का ऐसा करारा जवाब देती थी कि किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि कोई पीठ पीछे भी उसके बारे में कुछ कहने का साहस जुटा सके? इसलिए उसके मन में कई सवाल घूम रहे थे पर दिल कालेज की हाईयेस्ट ओथोरिटी के जवाब से कहीं न कहीं संतुष्ट था. सुनेरी ने उसकी ओर देखा और हल्के से मुस्करा दिया. जैसे वह अपने इस अहसान के लिए उसका शुक्रिया अदा कर रही हो. उसने भरपूर निगाह उनके दमकते हुए चेहरे पर डाली और अपार संतुष्टि को देखकर वह प्रसन्न हुई.

तीन-चार दिन ऐसे ही गुजर गये थे. स्टाफरूम में धीरज शर्मा नाम का व्यक्ति चाय बनाकर पिलाता रहा था जो न तो चाय ठीक ढ़ंग से पिला सकता था और नहीं ही किसी की सुनता था. चलता भी ऐसे जैसे पैरों में कील लगी हों. इतनी देर में वह चाय पूछता था कि मांगने वाला खुद-उठकर चाय बनाकर पी ले. उसके अंदर धीरज कूट-कूट कर इतना भरा था जो उससे सम्भाले नहीं सम्भलता था. पर फिर भी उसे ही रखा हुआ था जिससे कोई भी संतुष्ट नहीं था. नीना जब स्टाफरूम में आई तो उसे देखकर उसे कोफ़्त सी हुई. एक झुंझलाहट के साथ वह स्टाफरूम से उठकर बाहर निकल गयी. उसे समझ नहीं आया किससे अपनी बात का जवाब मांगे. वह लाइब्रेरी की तरफ गयी तो सुनेरी सामने ही झाड़ू हाथ में लिए दिखायी दी. उसे देखकर नीना को अपना पूरा अतीत सामने खड़ा दिखाई दिया, अपनी हालत पर उसे रोने का मन हुआ पर उसने अपनी पलकों से आंसू बाहर नहीं आने दिये. खैर, उसने अपने आपको कंट्रोल किया और एक लम्बी सांस खींचकर वह सुनेरी की ओर बढ़ गयी.

दूर से ही सुनेरी भी नम आंखों से उसे ही देख रही थी. उसने उनकी ओर देखा और सवालिया निगाह से उनकी और मुंह उठाया कि क्या हुआ ? वह भी उसके बिना बोले ही समझ गयी थी. उन दोनों का दर्द एक ही जो था. उन्होंने उसे लाइब्रेरी से बाहर की ओर आने का ईशारा किया. वह आ गयी थी. आसपास बहुत से छात्र-छात्राएं इधर-उधर बैठे थे. उसका मन किया कि उसे बाहों में भर ले और खूब रोए. इस व्यवस्था ने उन दोनों को ही सदियों का संताप दिया था जो हर रास्ते पर रोड़े अटकाता रहता था पर वे दोनों ही मजबूर थे, वे ऐसा कुछ नहीं कर सकते थे जो इस व्यवस्था को बदल सके. दोनों की अपनी ही सीमायें थी. नीना ने पूछा तो सुनेरी ने आंखों में पानी भरकर कहा कि, “आप लोगों के जाने के बाद मुझे सविता शर्मा ने सबके सामने अपने आफिस में बुलाया था. पी.ए. भी वहीं था. स्टाफ के सारे लोग वहां पहले से ही मोजूद थे. मुझे कहा कि तुम स्टाफरूम में अपनी डयूटी लगवाना चाहती हो? मेरे होते हुए तुम्हारी डयूटी वहां स्टाफरूम में जिंदगी भर नहीं लगेगी. तुम सिर्फ और सिर्फ सफाई का काम ही करोगी जो तुमारी डयूटी है और जिसके लिए तुम्हें नौकरी पर रखा गया है. झाडू के अलावा दूसरा कोई ओर काम सोचना भी नहीं. तुम्हें इस कालेज में कोई भी दूसरा काम सिवाय, झाड़ू लगाने के, नहीं दिया जा सकता. मैं तुम्हें कभी दूसरा काम नहीं करने दूंगी, समझी तुम ? चाहे तुम किसी को भी अपनी सिफारिस लगाने के लिए बुला लो. मै नहीं करने दूंगी. इतना कहकर उसने वहां से बाहर निकाल दिया.”

सुनकर नीना का सिर चकरा गया था. सुनेरी भागकर लाइब्रेरी से कुर्सी लेकर आयी और उसे उस पर बिठाया दिया. थोड़ा सा बैठने के बाद नीना ने अपनी पानी की बोतल निकाली और उससे खूब सारा पानी पी लिया मानों पानी के साथ-साथ उसने अपना सारा दर्द, पीड़ा, तकलीफ सब अपने अंदर उढ़ेल लिया था. सुनेरी ने बताना जारी रखा. उन्होंने कहा कि “मैड़म, अगले साल मेरा बेटा इस कालेज में पढ़ने के लिए आयेगा. मै उसके सामने झाड़ू लगाते हुए क्या अच्छी लगूंगी ? उसके दोस्त क्या सोचेगे कि उसकी मां कालेज में साफ-सफाई करती है. बस इसलिए मैं इस काम को नहीं करना चाहती. मैं नहीं चाहती जो हम झेल रहे हैं वो मेरे बच्चे भी झेले. जिस अपमान से मैं गुजरी उसी अपमान को मेरे बच्चे भी सहे. मैं ऐसा नही करने दे सकती. मैं नही करना चाहती साफ-सफाई का काम, मुझे कोई और काम दिलवा दो.” वह उससे अपनी बातों का और दुविधा का समाधान चाहती थी पर उसके पास उसकी बातों का कोई जवाब नहीं था. वह क्या करूं, कहां जाएं ? वह बिना उसकी बातों का जवाब दिये भारी भारी कदमों से अपने आपको घसिटते हुए अपनी कार तक लायी और कार को दौड़ा दिया सड़क पर. उसे ऐसा लगा था जैसे सविता शर्मा के एक एक शब्द उसके पीछे पड़े हों? वे शब्द मानो सविता शर्मा ने सुनेरी को नहीं कहे बल्कि पूरे दलित समाज पर अपनी दबिश का तमाचा जड़ दिया था और इस बात ने उसके पूरे अस्तित्व को झंझोड़ कर रख दिया था. आज एक बार से फिर सदियों की दी हुई इस व्यवस्था ने गुलामी की जंजीरों में उसे जकड़ दिया था.

पर आज उसे समाधान करना था, उसने निर्णय किया कि अगर उसके जैसे लोग भी अन्याय के आगे घुट्ने  टेकते रहे तो ये जंजीर और गहरी होती चली जायेगी. फिर मां सावित्री बाई फूले और रमाबाई अम्बेडकर के बलिदानों का क्या होगा ? इस व्यवस्था ने सदा ही ऐसे हथियारों का इस्तेमाल सदियों से किया है. जिसका सामना तो शिक्षा के मूल मंत्र से ही किया जा सकता है. एकाएक उसकी गाड़ी की स्पीड़ में ब्रेक लग गयी थी और इन घुमड़ते हुए सवालों पर भी. गाड़ी के सामने रोड़ पर एक सीधा तनकर खड़ा हुआ ब्रेकर आ गया था जिसने उसकी गाड़ी को रोकने और धीमा करने की पूरजोर कोशिश की थी. परन्तु नीना को लगा कि यह ब्रेकर नहीं पूरे समाज को अवरुद्ध करने वाली दीवार है. उसे लगा कि अब इसे तोड़कर ही उस जैसे लोग आगे के रास्ते पर जा सकेंगे. यह काम मुझसे ही शुरू होना चाहिए….. ताकि लोगों को आगे जाने का कोइ उपाय हो सके….

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ISSN 2394-093X
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