दूजी मीरा पहली क़िस्त

संदीप मील

संदीप मील मह्त्वपूर्ण युवा कथाकार हैं . फिलहाल राजनीति शास्त्र में शोधरत हैं . संपर्क :09636036561

( संदीप मिल की यह कहानी जाति और जेंडर के आपसी साहचर्य को समझने के लिए एक आवश्यक पाठ है. दो किस्तों में प्रकाश्य  ) 


गांव के गुवाड़ में खेलते बच्चों को जब चैधरी के कदमों की आहट का अहसास हो जाता, तो पलभर में सारा गुवाड़ खाली हो जाता था। बच्चे जादू के मानिद गायब हो जाते और किसी बच्चे का चेहरा अगर चैधरी को दिख गया तो समझो उसकी घर में खैर नहीं। पापा-मम्मी सब कहेंगे कि तू गुवाड़ में गया ही क्यों था ?अब चैधरी कल ही सुबह गुवाड़ से निकलते समय टोक देगा, ‘‘तेरे छोरे आजकल खूब खेल रहे हैं!’’फिर सारे घर में चैधरी के बारे में चर्चा शुरु हो जाती।

चैधरी का पूरा नाम कानाराम चैधरी था। गांव के गुवाड़ के पूर्व में बिल्कुल सटे हुए  चैधरी की हवेली के विशाल दरवाजे के सामने गुवाड़ बौना-सा लगता था। दरवाजे के दोनों तरफ दो चबूतरे थे जिन पर हरदम एक हुक्का सीमेंट फैक्टरी की तरह धुंआ उगलता रहता था। इन चबूतरों पर बैठने वाले लोग अमूमन अधेड़ उम्र के ही होते थे। बायें चबूतरे पर चैधरी की चारपाई लगी रहती थी जिस पर ऊंट के बालों की बनी दरी बिछी रहती थी। कद साढ़े चार फिट का था। साधारण नाक-नक्श और साठ किलो के वजन के करीब वाले चैधरी की आवाज भी बिल्कुल साधारण थी। इसी चारपाई के दायें तरफ एक लकड़ी की कुर्सी रहती थी जिस पर चैधराईन बिराजती थी। चैधराईन के नाम का तो किसी को पता नहीं था। लोग कहते थे कि चैधरी इसे पहाड़ों से उठाकर लाया था, इसलिए गांव वाले उसको ‘डूंगरी दादी’ कहते हैं।

गोरा बदन, साढे़ पांच फिट लम्बाई और तीखी आवाज वाली डूंगरी दादी से चैधरी भी खौफ खाता है। गांव में जो भी मामला उलझ जाता है तो उसका निपटारा इसी चबूतरे पर होता है और हमेशा जज डूंगरी दादी ही बनती है। चैधराईन के पास अपना छोटा हुक्का रहता है जिसको मुंह लगाने की इजाजत चैधरी को भी नहीं है। इस हुक्के के लिए हनुमानगढ़ से विशेष तम्बाकू मंगाई जाती है।गिरधारी कहता है, ‘‘डूंगरी दादी के हुक्के से चमेली की खुश्बू आती है। एक बार यह खुश्बू नाक से टकरा जाये तो जुकाम की शिकायत नहीं होगी।’’इसलिए तो गिरधारी चैधराईन से चिपक कर बैठता है। वह पानी लाने से लेकर हुक्के के लिए आग लाने के कामों का किसी को मौका ही नहीं देता। अब तो उसे यह भी पता चलने लगा है कि कब चैधराईन को प्यास लगने वाली है और कब हुक्के की तलब होगी। चैधरी को भी गिरधारी के इस ‘विशेष खूशबू’ के लिए किये जा रहे सेवा-भाव से कोई ऐतराज नहीं है। वह जानता है कि चाहे गिरधारी कितना ही मुरीद् हो चाहे, पर चैधरी की सीमा को लांघ नहीं सकता। वैसे भी, आज तक किसी गांव वाले ने चैधरी के कहे को पाटने की सोची भी नहीं। एक चैधराईन ही है जिसकी जबान चैधरी के सामने भी छूरी की तरह खच-खच चलती है।

गांव के आधे गुवाड़ पर चौधरी का अघोषित कब्जा है, वहीं पर चैधरी का ऊंट बंधता है और वहीं पर पिकअप खड़ी होती है। ऊंट रखना वह आज भी अपनी शान समझता है, कहीं भी जाता है तो सवारी ऊंट से ही करता है। जब चैधरी ऊंट के जीन पर सफेद गद्दा डालकर रवाना होता है तो चैधराईन हुक्के से सलाम ठोक कर उसे विदा करती है। कभी-कभार होने वाली चौधरी की यात्रा के अतिरिक्त यह ऊंट किसी भी काम में नहीं लिया जाता है, इसलिए ‘बोछाड़’ हो गया है। दिन रात जुगाली करते-करते दांत घिस गये हैं। बिना मेहनत के खाने के कारण गिरधारी ऊंट को ‘सेठ जी’ कहता है।

चैधराईन के दो बेटे और एक बेटी है। बड़े वाला बेटा महावीर गांव में किराने की दुकान को संभालता है और छोटा बेटा बजरंग ‘आधुनिक पहलवानी’ करता है। यह आधुनिक पहलवानी पुराने समय की अखाडे़ की पहलवानी का उत्तर-आधुनिक रूप है। बजरंग कहीं भी अखाड़े में नहीं जाता है। उसने अपनी हवेली के एक कमरे में अखाड़ा बना रखा है। लौहे के स्लेटों से यहीं पर दिनभर कसरत करता रहता है और सुबह शाम दो किलो दूध  पीता है। चैधराईन का कहना है कि आज के जमाने के दस लौंडों को बजरंग अकेला पछाड़ सकता है। हालांकि, आज तक बजरंग ने किसी को थप्पड़ भी नहीं मारी और न ही मारने का मौका मिला क्योंकि चौधरी के खौप से गांव वैसे ही सहमा हुआ था। बजरंग जब भी गांव की किसी गली से गुजरता है तो बच्चे पीछे से चिढ़ाते हैं-

‘‘जय बजरंग बली, फूटे ना मूंगफली।’’
‘‘बने हैं पहलवान, उठे न दो किलो सामान।’’

हां, गांव के बारे में बताना तो भूल ही गया। इस गांव का नाम अमरनगर है। लगभग तीन-सौ के आसपास घर हैं। गांव में तीन कुएं हैं, एक दलितों के लिए, एक ब्राह्मणों का और एक जाटों और खातियों का। एक जाति के कुएं से कोई दूसरी जाति का पानी नहीं भर सकता है। अगर कोई पानी भरता हुआ पकड़ा गया तो उसे  चौधरी की अदालत में हाजिर होना होगा और जज चैधराईन एक निश्चित सजा सुनायेगी कि गुनेहगार को दो महीनें चैधरी के घर पर बिना वेतन काम करना पड़ेगा।गिरधारी बताता है, ‘‘सात बरस पहले एक दलित पकड़ा गया था जाटों के कुएं से पानी पीते हुए। बारह साल का बच्चा था, स्कूल से आ रहा था। जिस्म जलाने वाली धूप थी। दलितों के कुएं का पम्प चार दिन से खराब था। वहां पानी न होने के कारण चुपके-से जाटों के कुएं पर पूरे पांच घूंट पानी पी लिया था। चैधरी का बड़ा बेटा महावीर शहर से पिकअप में खल-चूृरी लेकर आ रहा था, उसने देख लिया। उसी रात अदालत बैठी और उसे दो महीने वाली सजा मिली। लगातार दो महीने तक उसे  चौधरी के घर

पर झाड़ू लगानी पड़ी थी। सारा घर रोहित डांटता था।’’ रोहित के जहन को उस घर के लोगों की यादों में सिर्फ मीरा की यादें बैचेन करती हैं।अरे यार! आपको मीरा के बारे में बताया ही नहीं है। चैधरी की बिटिया है। एकलौती बेटी होने के कारण एकदम नकचढ़ी। उस पर न किसी का हुक्म चलता है और न किसी की मोहब्बत। जो मन में आये, वही करेगी।
‘‘चैधरी साहब!’’
कुछ नहीं  बोलते। अगर मीरा को किसी ने एक शब्द भी कह दिया तो चैधराईन खाल खींच लेगी और फिर उस खाल में कांटों वाला भूसा भी भर देगी। वैसे भी, चैधराईन का तो नम्बर ही नहीं आता, मीरा खुद ही सामने वाले का भर्ता बना देगी।
‘‘उम्र!’’
होगी तकरीबन सौलह के आसपास।
‘‘रंग-रूप पूछ रहे हैं ?’’
इसके बारे में कुछ बोल दिया तो कलम की कसम आपके इस लेखक की यह आखिरी कहानी होगी। खैर, जो भी हो, मीरा की दुनिया में न चौधरी की सियासत थी और न ही चैधराईन का हुक्का। अंग्रेजी की किताबें, हाॅलीवुड फिल्में और राॅक म्यूजिक के अलावा उसे किसी से कोई लेना-देना नहीं था। जब मीरा अंग्रेजी में बोलती थी तो गांव वालों का मुंह खुला का खुला रह जाता था। इस गांव की वह पहली लड़की है जो शहर में जाकर ‘बीए’ कर रही है। वैसे तो वह बीएससी कर रही है लेकिन गांव में बाहरवीं के बाद की सारी पढ़ाई ‘बीए’ के नाम से ही जानी जाती है। और इससे आगे कोई पढ़ाई नहीं होती।

जब पहली बार मीरा गांव से जयपुर पढ़ाई करने जा रही थी तो सारा गांव देखने के लिए आया था। गुवाड़ में तिल रखने को भी जगह नहीं थी। चैधरी ने सबको दाल-बाटी-चूरमा खिलाया और चैधराईन ने मीरा को सलाह दी, ‘‘शहर जाकर तेरे बाप के नांव का ख्याल रखियो।’’
मीरा सोच रही थी कि शहर में उसके बाप को कोई जानता भी है या नहीं ?
जो भी हो, उस दिन गांव में उत्सव का माहौल था।
आज तो गजब हो गया भाई। गिरधारी शाम के वक्त चैधराईन के पास बैठा चमेली की खुशबू का इंतजार कर रहा था। चैधराईन लगातार हुक्का गुड़गुड़ा रही थी लेकिन चमेली की खुशबू गायब थी। गिरधारी को लगा कि तम्बाकू बदल दी गई है। उसने हुक्के की जांच की तो तम्बाकू भी वही थी। फिर चमेली की खुशबू क्यों नहीं आ रही ? इस खुश्बू के लिए ही तो वह रोज चबूतरे पर आता था। उसने माचिस की तिल्ली से तीन-चार बार नाक साफ किया। लेकिन आज कहीं चमेली की खुशबू थी ही नहीं। थक-हारकर वह घर आ गया और तकरीबन एक घंटे बाद उसके नाक से पानी बहने लगा। आज उसे जुकाम हो गई थी।

चधरी की हवेली का दरवाजा कभी बंद नहीं होता था। रात को चौधरी अपनी चारपाई आधी दरवाजे में और आधी गुवाड़ में रखकर उस पर सोता था। सारे गांव की औरतें भौर को ही पानी भरने के लिए गुवाड़ से गुजरती तो घूंघट निकालती थी। कई बार नींद में चौधरी की धोती खुल जाती थी और गांव वाले बिना टिकट का रंगीन सिलेमा देखते थे। एक दिन तो सांवरमल के पोते ने चैधरी से पूछ भी लिया था, ‘‘दादा जी, आप अंदरवियर क्यों नहीं पहनते ?’’

चौधरी को ‘अंदरवियर’ का मतलब समझ में नहीं आया और जब मीरा शहर से आयी तो उससे पूछा। पहले तो वह खूब हंसी और फिर बताया कि इसका मतलब ‘कच्छा’ होता है। गिरधारी बताता है कि उसके बाद चौधरी ने सांवरमल के पोते को टाॅफी देना बंद कर दिया। पता नहीं यह बात गांव वालों को कैसे मालूम हुई, सारा गांव पीठ पीछे चौधरी को ‘अंदरवियर’ कहता है। आपकी इजाजत हो तो यह लेखक भी गांववाला होने के नाते आगे की कहानी में  चौधरी को ‘अंदरवियर’ ही कहे।

तो साहब, अंदरवियर के चबूतरे की बैठक में कई दिनों से गिरधारी का आना बंद हो गया है। उसका जुकाम ठीक ही नहीं हो रहा है। पहले अंग्रेजी बैदों से इलाज करवाया। न जाने कितनी दवाइयां ली। दिन में तीन बार टेपलैट और दो बार पीने की दवा भी ली। गिरधारी ने जीवन में पहली बार अंग्रेजी दवा ली थी। बीमारी ठीक होने की बजाय बढ़ने लगी। जब रात को वह पीने वाली दवा लेकर सोता था तो अजीब सपने आने लगे। ऐसा लगता था कि जैसे कोई उसे तेली की घानी में डालकर उसका तेल निकाल रहा है। लेकिन तेल निकलता ही नहीं था, शरीर से आग निकलती। फिर उस आग से सारी घानी धू-धूकर जलने लगती और बैल रस्सी तोड़कर भाग जाते। बैल भी अजीब तरह के थे, एकदम हरे रंग के। दस पैर और आठ सर। अचानक वह उठता और नवम्बर के महीने में ठंडे पानी से नहाता। जब सर पर पानी डालता है तो शरीर की आग और तेज हो जाती है। ऐसा लगता है कि आग पानी को जला डालेगी।

अंग्रेजी दवा से तंग आकर वह अब देशी बैदों को खोजने लगा। इस कार्य में भी उसे ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी, पहले गांव वाले को अपनाया। बुखार तो कम हुई लेकिन जुकाम नहीं गई और रात वाले सपने ज्यादा परेशान करने लगे। पास के कस्बे के बैद की दवा शुरु की। बिमारी ही अजीब थी, रात के खराब वाले सपने बंद हुए तो उनके साथ नींद भी जाती रही। उन सपनों को फिर भी जैसे-तैस झेल लेता था लेकिन बिना सोये हालत खराब हो गई। दो-तीन रात तो जागकर निकाल दी लेकिन अब स्थिति यह हो गई कि रात-दिन का पता ही नहीं चलता।

सब दवाएं फैल हो गई। आज सुबह से गिरधारी की तबीयत में ज्यादा गिरावट आ गई थी। किस बैद के पास जाये ? एक ही उपाय था। चमेली की खुशबू कहीं से मिल जाये तो जुकाम ठीक हो सकती है। यह विचार मन में आते ही वह महावीर की दुकान में गया और आधा किलो वाली चमेली के तेल की बोतल ले आया। जब दुकान से घर आ रहा था तो सोच रहा था कि इसमें खुशबू क्यों नहीं आ रही है ? कहीं नकली तो नहीं दे दिया है ? लेकिन महावीर पर उसे पूरा भरोसा था कि चीजों के दाम दो रुपये ज्यादा जरूर लेता है पर माल खरा देता है। शायद बंद बोतल से खुश्बू नहीं आती होगी। घर आकर तेल कि बोतल का ढ़क्कन खोला। वह सोच रहा था कि ढ़क्कन खोलते ही पूरे कमरे में चमेली की खुश्बू फैल जायेगी और वह खुश्बू, एक्सप्रेस रेल की तरह उसकी नाक की पटरियों से अंदर चली जायेगी, फिर जुकाम का जड़ से सफाया। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। न कमरे में किसी प्रकार की खुशबू फैली और न ही नाक की पटरियों पर रेल का छिक-फक हुआ। आज तेल को क्या हो गया ? तेल की एक अंगुली भरकर उसने अपने नाक पर लगाई लेकिन खुशबू नहीं थी। अब क्या करे ? उसका मन किया कि पूरी बोतल को गटक जाये, शायद कुछ खुशबू तो मिलेगी। ज्यों ही तेल की बोतल को पीने के लिये मुंह की तरफ ले गया तो खुश्बू की जगह अजीब किस्म की बू आने लगी।

ब चमेली की खुशबू एक ही जगह मिल सकती थी, चैधराईन के हुक्के में।इसे आखिरी प्रयास समझकर वह अंदरवियर की हवेली की तरफ चल पड़ा। उम्मीद तो यही थी कि बीमारी ठीक हो जायेगी। आज चौधरी के चबूतरे पर कोई नहीं दिख रहा था। उसने सोचा कि लोग तो खाना खाने के लिए गये हुए होंगे और चैधरी कहीं बाहर गया होगा। दरवाजे के अंदर रखे हुए हुक्के को एक बार उसने नजदीक से सूंघा, शायद अब चमेली वाली खुशबू आ जाये। लेकिन हुक्के से सड़ी हुई तम्बाकू की बदबू आ रही थी। आज गिरधारी को सिर्फ वह खुशबू ही बचा सकती थी। खूशबू की चाहत में हवेली के अंदर प्रवेश करते गिरधारी के नथूने बार-बार अजीब तरह से फूल रहे थे। हवेली के सामने वाले कमरे के बगल में चैधराईन धूप में बैठी पैरों पर सरसों के तेल की मालिश कर रही थी। नजर पड़ते ही एक बार तो उसके कदम ठिठके और वह वापस मुड़ने ही वाला था कि चैधराईन ने आवाज दे दी, ‘‘आओ गिरधारी, आज थोड़ी तबियत खिराब थी, बदन दुखो हो। सोच्यो कै धूप में बैठकर तेल लगा लियो जावै। कई दिनों से आये नहीं, तेरी जुकाम ठीक हुई कै ?’’

वह सहज होकर कोई जवाब खोज ही रहा था कि अचानक उसके नाक से चमेली के तेल की खुशबू टकराई। उसके बदन में सरसराहट होने लगी। लेकिन चैधराईन जो तेल लगा रही थी, वह तो सरसों का था। सरसों के तेल से चमेली की खुश्बू, चैधराईन तेरी माया गजब है।
‘‘क्या सोचो हो बाबू ? बैठ जाओ, इतणे दिनों बाद आये हो।’’ चैधराईन ने बैठने का इशारा किया।शाम को गांव में चमेली की खुशबू की तरह खबर फैली कि गिरधारी की जुकाम ठीक हो गई है।सुबह-सुबह गांव में अखबार पढ़ने का एकमात्र अड्डा भी अंदरवियर का चबूतरा था। लगभग दो घंटे तक अखबार का पाठ होता था और लोग सामूहिक रूप से खबरों का विश्लेषण करते थे। हर खबर पर प्रतिक्रिया देने के लिए लोग अपनी-अपनी विशेषज्ञता रखते हैं। बुजुर्ग भी लगातार खबरे पढ़ने के कारण कई राजनेताओं और फिल्म अभिनेताओं के नाम जानने लग गये हैं। खबरों के अतिरिक्त कुछ बुजुर्ग ‘शोक-संदेश’ भी पढ़वाकर सुनते हैं। भींवाराम ने तो एक दिन अपने बेटे के सामने इच्छा जताई कि उसके मरने पर मृत्युभोज चाहे मत करना पर अखबार में ‘शोक-संदेश’ छपवाना। उसने इस बाबत बेटे को दस हजार एडवांस भी दे दिये और पांच लोगों के सामने ‘शोक-संदेश’ छपवाने की कसम खिलवाई। अब हर रोज होने वाले अखबार पाठ में शोक-संदेश पढ़े जाने के समय वह कहता है, ‘‘वैसे तो अपणे गांव का अखबार में नाम कभी आया नहीं है, मेरे मरने पर जरूर आयेगा।’’ उसकी इस बात पर महावीर हमेशा मजाक करता है, ‘‘दादा, तू जल्दी निपट जा, अखबार में गांव का नाम तो आये।’’

इस अखबार पाठ के भी कई चरण हैं। पहले चरण में राजनीतिक खबरों का पाठ होता है। दूसरे में अपने इलाके की खबरों का और फिर बारी आती है प्रेमी युगलों से संबंधित खबरों की। इन खबरों के विश्लेषण में हर कोई बढ़-चढ़कर भाग लेता है। अगर खबर प्रेमी-प्रेमिका की घर से भागने की हो तो सबसे पहले उनकी जाति के बारे में अटकलें लगाई जाती हैं। फिर उन दोनों के परिवारों के प्रति असीमित संवेदनाएं व्यक्त की जातीं हैं। इस बहस में एक तरफा बातें की जाती थीं और ज्यादातर लोग स्टेटमेंट जारी करते थे –
‘‘आजकल भैया जमाना ही खराब आ गया है। किसी का विश्वास किया ही नहीं जा सकता है।’’
‘‘छोरां को दोष नहीं है। छोरियां को रहन-सहन ही खराब हो गया।’’
‘’पढ़ी-लिखी छोरियां जात-धर्म ही नहीं देखती हैं।’’
‘’पहले तो बचपन में शादी हो जाती थी। आजकल तीस साल तक घर वाले शादी तो करते नहीं, छोरियां भागेंगी नही तो क्या करेंगी।’’
‘‘कुछ दिनों बाद शादी-वादी का झंझट ही नहीं रहेगा। सब भागकर कर लेंगे।’’
‘‘शहर में रहने वाली छोरियों का तो पक्का है कि भागेंगी ही………।’’
‘शहर’ का नाम आते ही सबकी तिरछी नजर अंदरवियर पर आ टिकती क्योंकि उसकी मीरा भी तो शहर में पढ़ रही थी। एक बार तो अंदरवियर के घर पर किसी अंग्रेजी बोलने वाले छोरे का फोन भी आ चुका है – ‘‘केन आई टाॅक टू मीरा ?’’
फोन चैधराईन ने ही उठाया था। गांव वाले कहते हैं कि चैधराईन जब फोन उठाकर दहाड़ती है तो सामने वाले का गोबर निकल जाता है। वह अपनी धारदार आवाज में कहती है, ‘‘कोण बोलर्या सै ?’’
इति सुणते ही कई तो फोन काट देते हैं। लेकिन उस दिन ‘‘केन आई टाॅक टू मीरा ?’’ सुनकर चैधराईन की भी बोलती बंद हो गई।
वह चिंतित भाव में अंदरवियर को बोली, ‘‘मीरा के लखण ठीक नै सै चौधरी। किण छोरे का फोन आया सै। ‘टाॅक’ कर रिया सै मीरा सूं।’’
यह सवाल सुनने के बाद से अंदरवियर ने प्रतिदिन दो रोटी कम खाना शुरु कर दी। अब वह पहले की तरह न तो हंसता है और न ही दहाड़ता है। चौधराईन को बहलाने के लिये उसने आश्वासन भाव में कहा, ‘‘मालकण, डरणै की कोई बात नै सै। मीरा चैधरी की जल्मी है।’’

यह आश्वासन सुनकर चैधराईन उसकी तरफ ऐसे देखती जैसे अंदरवियर की झूठ पकड़ी गयी हो। इस गांव में खबरें बहुत तेजी से फैलती हैं। आप दिवार के पास मुंह करके एक शब्द भी बोलें तो सुबह तक पूरे गांव में बात उड़ जायेगी। लोग दूसरे ही दिन कहने लगे कि एक छोरा मीरा के साथ ‘टाॅक’ करता है। कल उसने चैधराईन को भी फोन करके ‘टाॅक’ करवाने को कहा। इस ‘टाॅक’ का मतलब किसी को भी मालूम नहीं था। हर कोई अपना अर्थ लगा रहा था लेकिन मूलतः वह अर्थ मीरा के चरित्र पर ही जाकर टिकता। पीठ पीछे लोग अंदरवियर को मूर्ख बताते, ‘‘एक तो बेटी को अकेली शहर भेज दिया, दूसरा उसकी शादी भी नहीं कर रहा है। ऐसे में लोग ‘टाॅक’ तो करेंगे ही।’’

मीरा काॅलेज में एकदम मस्त थी, शुरु में तो शहर के रिवाजों से वाकिफ नहीं होने के कारण कुछ मायूस थी लेकिन अब सब कुछ समझने लगी थी। अपनी मर्जी का पहनने और बिंदास रहने के कारण वह शहर के लौंडों के आकर्षण का केंद्र भी थी। चेहरे से बेहद सहज लगने वाली मीरा के पीछे कई लड़के वक्त जाया किया करते थे। लेकिन जब मीरा को मालूम होता है कि पट्ठा उसके पीछे बाइक का पेट्रोल जला रहा है तो तड़ाक से ऐसा जवाब देती कि कई ने तो लड़कियों के पीछे घूमने की आदत तक तज दी। और जब वह रात को हाॅस्टल की सड़क पर अकेली टहल रही होती थी तो अचानक पीछे से तेजी से दौड़कर आ रहे घोड़े की पैरों की टप-टप सुनती, पीछे मुड़कर देखती तो सुनसान सड़क। तभी सामने से दूधध की डेयरी वाला आवाज देता, ‘‘तेरा बंजारा पीछे से नहीं, आगे से आयेगा।’’

‘‘तुम अभी तक दुकान बंद नहीं किये, रोहित। जब तू कह रहा है तो आयेगा मेरा बंजारा।’’ खिलखिलाकर हंसती हुई मीरा डेयरी के सामने रखी कुर्सी पर बैठ जाती।यह वही रोहित था, जिसे कभी पांच घूंट पानी जाटों के कुए से पीने के एवज में दो महीनें चैधरी के घर पर बिना वेतन की मजूदरी की सजा मिली थी। मीरा के हाॅस्टल के सामने दूध की डेयरी कर रखी है। डीनर के बाद अक्सर मीरा यही आकर रोहित के साथ गप्पें हांकती हैं। कभी गांव की, तो कभी उस बंजारे की बातें किया करते हैं। हालांकि यह बात मीरा के गांव में मालूम नहीं है वरना ‘टाॅक’ के साथ रोहित का नाम जरूर जुड़ जाता। आज फिर वही पुराना राग छेड़ दिया रोहित ने, ‘‘मैं तो भूल ही गया, तेरा बंजारा दिखने में कैसा है ?’ यह सवाल आते ही मीरा पन्द्रह साल पीछे चली जाती है, जब उसके गांव में एक बंजारी मेवा बेचने आती थी और उसके साथ होता था एक मीरा की ही उम्र का उसका बेटा सुल्तान बंजारा। क्या सज-धज के रहता था सुल्तान। चूड़ीदार पाजामा, पठानी कुर्ता, जड़ावदार जूती और हाथ में होता था घोड़े का चाबुक। बंजारी और उसका बेटा, दोनों सफेद घोड़े पर आते थे लेकिन आगे सुल्तान बैठता था। गांव में घुसने से पहले ही घोड़े की टाप सुन जाती थी और मीरा दौड़कर दरवाजे पर आ जाती। बंजारी तो घर-घर मेवे बेचने चली जाती और सुल्तान गांव के गुवाड़ में घोड़े को दाना चबाता रहता। सारे गांव के बच्चे इक्कठे हो जाते। हर बच्चा सुल्तान और उसके घोड़े को निहारता रहता। तभी दरवाजे पर खड़ी मीरा आवाज देती, ‘‘ऐ सुल्तान, मुझे घोड़े पर बिठायेगा क्या ?’’
‘‘तू गिर जावे तो डूंगरी दादी मारे।’’
‘‘नहीं गिरुंगी रे! और लगाम तो तेरे हाथ मैं है ही।’’
‘‘मैं आगे बैठूंगा, तू पीछे बैठणा।’’
‘‘घोड़े पर तो मैं अकेली ही बैठूंगी, तू लगाम पकड़कर नीचे चलना।’’
‘‘मेरो घोड़ो और मैं ही नीचे चालूं!’’
‘‘दोनों ऊपर बैठ जायेंगे तो घोड़ा भागेगा। मुझे डर लगेगा।’’
‘‘तू कहती थी ना कि तू डरती नहीं है।’’
‘‘घोड़ा है तो दादागीरी दिखा रहा है क्या सुल्तान ? चल मैं नहीं बैठूंगी।’’
‘‘मीरा, मैं दादागीरी नहीं, दोनों के बैठणे की बात बोलूं हूं।’’
‘‘बोल दिया ना कि घोड़े पर अकेली ही बैठूंगी, तू नीचे चलेगा।’’
‘‘मैं थारो नौकर हूं कै ?’’
‘‘नौकर नहीं रे सुल्तान, भायला (दोस्त) है।’’
‘भायला’’ नाम आते ही सुल्तान हल्का-सा हंसता और लगाम पकड़कर घोड़े को कहता, ‘‘चल जिलू, मीरा को घूमाकर लाते हैं।’’
सुल्तान नीचे लगाम पकड़कर चलता और मीरा घोड़े पर। कुछ दूर तो गांव के लड़के पीछे हो-हल्ला करते आते लेकिन तभी मीरा पीछे मुड़कर जोर से डांटती और लड़कों का झूंड वापस भाग जाता। एक रेत के टीले पर चढ़ते हुये सुल्तान थक चुका था, ‘‘मीरा, मेरे से अब नहीं चला जायेगा। कुछ देर यहीं आराम करते हैं।’’
मीरा भी घोड़े से नीचे उतर जाती है। चूंकि आसपास कोई पेड़ न होने की वजह से छाया के कोई आसार ही नहीं थे। अब धूप का मुकाबला कैसे किया जाये ?
‘‘मुझे बहुत धूप लग रही है सुल्तान।’’ मीरा का चेहरा उदास हो जाता।
‘‘यहां पर तो छांव है ही नहीं।’’ सुल्तान भी चिंतत हो गया।
‘‘ऐसी धूप में तो मैं मर जाऊंगी!’’
‘‘मैं कुछ करता हूं। ऐ जिलू, इधर आ।’’
‘जिलू’ नाम सुनते ही घोड़ा सुल्तान के पास आ गया। सुल्तान ने घोड़े का मुंह दक्षिण में किया तो सूरज घोड़े के बदन के पीछे आ गया और टीले पर तीन फिट के आसपास छाया बन गयी।
‘‘अब इस छांव में बैठो आराम से।’’ सुल्तान बड़ा खुश हुआ।
‘‘लेकिन धूप तो तुम्हें भी लग रही है ना! तुम भी आ जाओ।’’ मीरा ने सहजता से कहा।
फिर घोड़ा जुगाली करता रहा और वे दोनों तीन फिट की जगह में बैठे देर तक बातें करते रहे। वापस घर आये तो मीरा के घर पर ही सुल्तान को खाना खिलाया जाता।
मीरा जब इतनी लम्बी कहानी सुना रही थी तो रोहित बड़े इत्मिनान से सुन रहा था। कई बार सुनी हुई इस कहानी को वह उसी उत्सुकता से सुन रहा था जैसे पहली मतर्बा सुन रहा हो।
‘‘लेकिन तेरो सुल्तान तुझे पहचान पायेगा ?’’
‘‘बिल्कुल पहचान लेगा। और मेरा सुल्तान है ना, अब भी इंतजार कर रहा होगा मेरा। रोहित, हमारी प्रीत  सौदा नहीं थी रे कि इस हाथ दो, उस हाथ लो। हमने तो बचपन में एक गाना भी बनाया था अपनी मोहब्बत के वास्ते। अब भी उसके बोल बंजारे के कानों में पड़ गये तो दौड़ा चला आयेगा। तुमने तो देखा है ना सुल्तान को।’’
‘‘मीरा, समाज की हकिकत को समझो। वह बंजारा है और तू चौधरी की बेटी। समाज में कतई स्वीकार नहीं किया जायेगा यह रिश्ता। सोचो कि किसी गांव वाले ने दिख लिया कि तुम रात में मेरी दुकान में अकेले में मुझ से बातें कर रही हो, तो क्या-क्या बेहुदी बातें बनायेंगे गांव वाले ? और बंजारे से तेरी शादी की बात पर तो दोनों को काट दूंगा ।’’

‘‘रोहित, मुझे गांव, समाज और ऐसे लोगों से कोई इत्फाक नहीं है। ये बता तू मेरा साथ देगा कि नहीं ?’’
‘‘मैं तो साथ दूंगा, मेरे साथ से होगा क्या मीरा ?’’
‘‘तेरे साथ से मैं मजबूत हो जाऊंगी। तुमने सुना है ना कि हर कामयाब इंसान के पीछे एक औरत का हाथ होता है ?’’
‘‘हां, सुना है। इसका हम दोनों से क्या नाता ?’’
‘‘देख रोहित, यह कहावत दरअसल यह बताती है कि एक तो औरत कभी कामयाब नहीं होती। दूसरा यह कि औरत की कुर्बानी केवल मर्द की कामयाबी में ही काम में आती है। और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि औरत हमेशा पुरुष के अधीन है। हमें यह कहावत बदलनी है।’’
‘‘मीरा मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा तो नहीं हूं लेकिन तुम्हारी बात को समझ जरुर रहा हूं। कैसे बदलेंगे ?’’
‘‘हमने सिर्फ किताबें पढ़ी हैं रोहित, तुमने तो जिन्दगी को पढ़ लिया है। आज से यह कहावत ऐसे कही जायेगी – हर विद्रोहणी औरत का भी कोई प्यारा-सा दोस्त होता है, जो उसके मन को गहराई तक जानता है।’’
‘‘इसमें नया क्या ?’’
‘‘इसमें नया यह है कि शारीरिक संबंधों के इतर भी स्त्री-पुरुष की दोस्ती हो सकती है, बिल्कुल सच्ची। हमारे समाज में दोस्ती का मतलब सिर्फ दो पुरुषों की यारी से लगाया जाता है।’’
‘‘अरे! तुम्हें पढ़ना नहीं है क्या ? ग्यारह बज गये हैं। तुम जाओ पढ़ो और मैं तुम्हारे बंजारे को ढ़ूंढकर लाता हूं।’’
‘‘रोहित, यह आदेश दे रहे हो क्या ?’’
‘‘नहीं बाबा, यह एक दोस्त को सलाह है। मीरा को कोई आदेश थोड़ा ही दे सकता है।’’
रोहित दुकान बंद करने लग जाता है और मीरा हाॅस्टल की तरफ रवाना हो जाती है। कोहरे में नहाई सुनसान सड़क पर जाती मीरा को पीछे से देखता रोहित सोचता है कि यह मीरा भी एक सामंत के घर पैदा हो गई। वह तो आध्यात्म के लिबास में विद्रोह कर ही थी और यह…..। जो भी हो, ऐसी मीरा हर युग और हर घर में पैदा होनी चाहिये।

अंदरवियर के चबूतरे पर रोज नये-नये चौधरी आ रहे हैं। कोई दो सौ बीघा का जागीरदार तो कोई इलाके का बड़ा ठेकेदार। सफेल धोती-कुर्ता और सर पर पगडि़यों वालों का तांता-सा लगा है। दरअसल, उस ‘टाॅक’ वाले फोन आने के बाद से ही अंदरवियर ने मीरा की शादी करने की सोच ली थी। आसपास के रिश्तेदारों में जब इस बाबत जानकारी दी गई तो रिश्ते आने शुरु हो गये। कल भोजासर के एक चौधरी आये थे। बड़े ठाठ वाला आदमी था। सौ बीघा जमीन थी, दो कुए थे और सीकर में भी मकान थे। छोरा भी खूब कमा रहा था। सड़कों का ठेका लेता है जी। एक ठेका मतलब पैसों की पोटली। दिखने में भी बड़ा धाकड़ छोरा था। अंदरवियर के तो सब जीचें पंसद थी लेकिन चौधराईन को नहीं पसंद आया। जब भोजासर के चैधरी से बातचीत हुई तो अंदरवियर ने चौधराईन को हवेली में ले जाकर राय मश्विरा किया –
‘‘मालकण, तेरे जच्यो कै सौदो ?’’
‘‘देख चौधरी, बाकी तो सब ठीक सै। लेकिण छोरा नीं जच्या।’’
‘‘छोरा तो तनै देख्या ही नीं है। ऐसा गबरु जवान है कि आसपास के किण चैधरी के ऐसा जंवाई नीं आया सै।’’
‘‘चैधरी, छोरा पढ़ा-लिखा नहीं है। अपणी मीरा की जोड़ी का पढ़ा तो चाये।’’
‘‘पढ़ण-लिखण से क्या होता है ? इण छोरे के नीचे कई इंजनीयर काम करते हैं। और सब ‘साब’ कहते हैं।’’
‘‘मेरे तो छोरो नीं जंच्यो। अब तू जांणै चैधरी और तेरा काम जांणै।’’

हालांकि अंदरवियर को यह रिश्ता बहुत पसंद आया था लेकिन चौधराईन की जिद की वजह से मना करना पड़ा। आज वाले  चौधरी हरींद्र सिंह के साथ सब चीजों को देखते हुये बात पक्की कर दी थी। यह चौधरी भी किसी भी मामले में कमजोर नहीं है और छोरा प्राईवेट बीए पास है। अंदरवियर चौधराईन को बता रहा था कि बड़ा चंगा छोरा है। हिंग्लीश भी बोल लेता है और आस्ट्रेलिया में अपनी होटल बणा रखी है। ‘बीए’ पास का नाम सुनते ही चौधराईन भी गदगद  हो गई। वैसे दहेज का मामला भी केवल दस लाख में सेट हो गया था। अब इकलौती बेटी के बाप अंदरवियर को दस लाख बहुत ज्यादा नहीं थे।

शाम को अंदरवियर के चबूतरे पर वैसे ही मजमा लगा हुआ था। लोगों को जानकारी भी हो गई थी कि मीरा का रिश्ता तय हो गया है। चौधराईन हुक्का गुड़गुड़ा रही थी और पास में बैठा गिरधारी चमेली की खुशबू ले रहा था। और अंदरवियर अपने नये समधी हरीन्द्र सिंह की जमीन जायदाद के बारे में हांक रहा था। और छोरे के बारे में तो ऐसा बता रहा था कि वह हिन्दुस्तान का सबसे कामयाब लौंडा हो। जब ‘आस्ट्रेलिया’ की बात आयी तो सबने आश्चर्य से पूछा, ‘‘चौधरी साहब, यह पड़ता कहां है ?’’
चैधरी ने अपनी पतली मूंछों पर ताव दिया और फिर बताना शुरु किया, ‘‘बहुत दूर पड़ता है। कांच की सड़कें हैं वहां पर। अपणा जंवाई जो होटल बणा रखा है, वहां बड़े-बड़े लोग आते हैं जी। और एक लाख का रोज गल्ला उठता है। सब हिंग्लीश बालते हैं। दाल-रोटी भी हिंग्लीश में मंगाते हैं।’’
‘‘चैधरी साब, दाल-रोटी को हिंग्लीश में कैसे मंगाया जाता है ?’’ गिरधारी को भी उत्सुकता हुयी।
‘‘अरे तू क्या जाणे बड़ी बातें। जंवाई आये तो उससे पूछणा। और जंवाई हिंग्लीश में ही पैसा मांगते हैं तो सारे गोरे लोगों की फट जाती है। ऐसी धड़ाके की भाषा बोलते हैं।’’ आज चैधरी की आवाज में नयी ताकत आ गई थी।
‘‘आपकी मीरा तो राजी है क्या इस रिश्ते से ?’’ गिरधारी ने दुखती रग पर हाथ रखा हो जैसे।
‘‘तनै भोत बात आवें रे गिरधारी। मेरी मीरा की मर्जी अपणे बाप सूं अलग नहीं हो सकै। जियादा लपर-लपर मत किया कर।’’ चौधरी को तैश आ गया।
‘‘चौधरी, गरम मत हुवो। गिरधारी तो भोला-भंडारी है। इसके मन में खोट नहीं है।’’ चौधराइन ने बीच बचाव करने की कोशिश की।

चौधरी के चबूतरे की शाम की बैठकी खत्म हुई तो लोग अपने घरों पर इस सवाल को साथ ले गये, ‘‘मीरा तो राजी है क्या इस रिश्ते से ?’’ फिर क्या था, लोगों ने अपने-अपने स्तर पर कहानियां बनानी शुरु कर दी। गांव वालों का मीरा से कोई संवाद तो था नहीं, वे नहीं जानते थे उसकी मर्जी और चाहतों के बारे में तनिक भी, फिर भी कहानियों में अपनी मर्जी को मीरा की मर्जी मानकर कथानक को आगे बढ़ाते रहे। प्रारम्भिक दौर में कई कहानियां बनी थी। फिर कुछ छोटी-छोटी कहानियों को लोग जोड़ने लगे और एक लम्बी कहानी गढ़नी की प्रक्रिया चली।

फागुन का महीना था और ठाकुर बन्नेसिंह की ड्योढ़ी के सामने मजमा लगा था। लोग चंग बजा रहे थे, कुछ शराब पी रहे थे और ठाकुर अपने दो चमचों के साथ चंग के रसियों को ‘वाह-वाही’ दे रहा था। हर फागुन में ठाकुर के यहां गुलाल उड़ता है। यूं तो ठाकुर की माली हालात बहुत बुरे हैं लेकिन ठिकाणा जाते वक्त जमीन दो सौ बीघा बच गई थी। जरुरत के मुताबिक बेच लेता है। इस ठाकुर के पास दो ही चीजें बची थी, एक जमीन और दूसरी ठकुरायत। सालभर ठाकुर टका नहीं खर्चता है, बीड़ी भी मांगकर पीता है लेकिन फागुन में हजारों उड़ाना उसकी लत है। शायद इसी के लिये जमीन बेचता होगा। फाग गाने वाले जब भी गाना खत्म करके बीड़ी पीने के लिये आराम करते तभी कई किस्से ठाकुर अपनी बहादूरी के सुनाता। गिरधारी जब भी वहां मौजूद होता तो उसे ठाकुर के इन किस्सों में बिल्कुल भी इंटरेस्ट नहीं होता क्योंकि वह जानता था कि ठाकुर के किस्सों की कोई जमीन नहीं है। लेकिन आज घर से चलते वक्त ही उसका मन हुआ था कि खुलकर बोलेगा और सारे रसिये सुनेंगे मजे से। पहला ही फागुनी गीत गाकर जब रसिये रुके तो गिरधारी शुरु हो गया, ‘‘ठाकुर सा, इब तो गांव में किण कायदो ही नीं बच्यो है। बड़ा खराब दिन आयेगा गांव रा।’’

‘‘किसकी बात कर रिया हो गिरधारी, ठाकुर की नियत खराब हो सकती है लेकिन दिन खराब नहीं हीं। राज-पाट सब चले गये, अब क्या दिन खराब आयेंगे पगले।’’ बन्नेसिंह ने गहरी सांस ली।सारे रसिये बीड़ी का धुआं निकालकर गिरधारी की ओर एक टक देखने लगे। वे सब जानते थे कि वह चौधरी के बारे में बात करेगा और चौधरी के बारे में तो सिर्फ मीरा की ही बात हो सकती है। हालांकि, इस चर्चा को कई बार सुनने के बाद भी लोगों में उत्सुकता बनी हुई थी। आज वे ठाकुर के मुंह से मीरा की कहानी सुनना चाह रहे थे। गणेश ने ठाकुर को उकसाते हुये पूछा, ‘‘ठाकर सा, मीरा के ब्याह के बारे में आप क्या सोचते हैं ?’’

बन्नेसिंह ने पास रखी बोलत से दो पग देशी के मारे और एक बीड़ी सुलगाई। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद शुरु, ‘‘एक मीरा राजपूत के घर भी जल्मी थी पहले। पूरी जात पर कोई कलंक है तो वह औरत। क्या कमी थी उसके ?’’
‘‘लेकिन उसने तो भक्ति की थी।’’ मजमें में से किसी ने कहा।
‘‘भक्ति करणे के लिये यादव ही मिला था क्या ? राजपूतों में देवताओं की कमी थोड़ी ही है। हमारे पुर्खों में तो सब ‘शहादत’ को ही गये थे, सबके मंदिर बणें हैं, उन्हें में से किसी की भक्ति कर लेती। अब राजपूत जाति में कोई छोरी को नाम मीरा नहीं रखै। चैधरी की ही गलती थी कि यह नाम रखा, अब भुगतो अपणी। सबसे बड़ा खतरा जाति को है।’’
’’किस जाति को खतरा है ठाुकर सा ?’’ ‘जाति’ का नाम सुनते ही सारे रसियों के कान खड़े हो गये।
‘‘ठाकुरों पर तो जितने खतरे थे, सब आ गये। अब ‘जाटों’ की बारी है। उन्होंने ही मीरा नाम धर्या है। एक मनुष्य पूरी जात ने आसमान भी ले जा सकता है और पाताल भी।’’ ठाुकर आगे के दो नकली दांतों से असली हंसी हंसते हुये बोला।
‘‘भला एक चैधरी के कारण पूरो जाट समाज खतरो क्यों उठावै ?’’ नरेश को गुस्सा आ गया।
ठाकुर ने दायें हाथ से नकली दांतों को यथास्थान सैट किया और फिर ठाकुरियत की मुद्रा में कहा, ‘‘बेटा, चौधरी नै छोरी ही जाति के कलंक लगाण वाली जल्म दी। अब तो एक ही उपाय है, या तो चौधरी जाति में रहे या फिर जाति रहे। देख लो तुम लोगों को कौन जियादा प्यारो है।’’
‘‘मीरा ने ऐसो कै काम कर दियो कि जाति पर संकट आयगो ?’’ आज पहली बार रफीक रजक ने ठाकुर के सामने बोलने की हिम्मत की।
‘‘पूरे समाज की नाक कटवा दी। शहर में जाकर छोरों के साथ ‘टाॅक’ करती है। न जाति देखती, न धर्म।’’ ठाकुर की बजाय जवाब नरेश ने दिया।
क्रमशः

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ISSN 2394-093X
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