युवा कवयित्री स्वर्णलता ठन्ना फिलहाल विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में शोधरत हैं . संपर्क :swrnlata@yahoo.in
1. प्रकृति
कल रात मैंने
एक स्वप्न देखा
नींद, सुख,
आराम ,चैन
सब भुलाकर
बहने वाली सहिष्णु नदी
धीरे-धीरे सूख गई
और बच गए
केवल पत्थरों भरे किनारे …
जंगली वृक्ष लताएँ
धीरे-धीरे हटाने लगी
अपने जमे पैर
वृक्ष से
और टूट कर
विलीन हो गई धरा में
पत्तियां, कोपलें और
कलियाँ
एक-एक कर
खत्म होती गई
जंगल से
और बचे रह गए
कुछ ठूँठ पेड़ …
साहित्य की पुस्तकों से
विलुप्त होने लगी
श्रृंगार , करुण, अद्भुत
और शांत रस की रचनाएँ
लोप होने लगी
प्रेम पर लिखी
अनेकानेक कविताएँ
बचा तो केवल
वीभत्स को दर्शाता
कुछ साहित्य …
और सबसे वीभत्स
जो घटित हो रहा है
वह है
बाँझ हो जाना
उन कोखों का
जो गवाह थी
कन्या भ्रूण हत्या की
क्योंकि उन्होंने चाहा था
केवल पुरुष
प्रकृति नहीं …
उन्हें नहीं पता
वे कर चुकी है
अनजाने में ही
नदी ,लताएँ
और रस की हत्या … |
2. टूटता-सा कुछ मेरे भीतर
जीवन के दरख्त की
शाखों से जब
बिन पतझड़ के भी
झड़ जाती है
सुहाने सपनों की पत्तियाँ
तब
बिना आहट के
बिखर जाता है
बहुत कुछ
मेरे भीतर…।
जंगली आवारा
हवा की तरह बहते
मेरे अलहदा अनुभवों को
बाँटते
एहसास के समक्ष
जब खड़ी कर दी जाती है
दीवारे
तब
भरभरा कर
टूट जाता है बहुत कुछ
मेरे भीतर…।
देखती हूँ जब
संवेदनाओं को, स्नेह को
छटपटा कर
दम तोड़ते हुए
हाथों से छूटती
मानवता की डोर को
पकड़ने की
अदम्य कोशिशों के बाद भी
जब
खत्म हो जाती है
कोई जिंदगी
तब
सारे जहान के
होते हुए भी
वीरान हो जाती है
मासूमियत की दुनिया
और तब
मृत संवेदनाओं के बीच
खंडहर में तब्दिल हो जाता है
बहुत कुछ
मेरे भीतर….।
3. सुकरात
अमृत की चाह में
कितने घूंट
हलाहल का पान
किन्तु
नीलकंठ नहीं बन पाई…
विष मेरे हलक से
नीचे उतर चुका था
किन्तु नहीं बना
यह कृष्ण का
चरणामृत…
जिसे पीकर मीरा
भक्ति के चरम को
छू गई…
इस गरल ने
मुझे कर दिया
समाप्त
और मृत्युदंड को प्राप्त
मैं बन गई
सुकरात………!!!