कलाकार के सौ गुनाह माफ हैं ।

सुधा अरोडा


सुधा अरोडा सुप्रसिद्ध कथाकार और विचारक हैं. सम्पर्क : 1702 , सॉलिटेअर , डेल्फी के सामने , हीरानंदानी गार्डेन्स , पवई , मुंबई – 400 076
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ऑस्कर वाइल्ड से लेकर वॉल्टेयर तक ने कलाकार के असाधारण तरीके से जीवन जीने की हिमायत की है। उनका कहना है कि सामान्य ढर्रे में बंधा हुआ जीवन किसी भी कलाकार को स्थितियों का गुलाम बना देता है, जरूरी है कि वह जीने के सामान्य ढांचे को ध्वस्त करे ! यह भी कहा गया है कि कलाकार में लुम्पेन तत्व होना ही चाहिए। अगर वह थोड़ा आवारा नहीं है, अगर उसमें आधी रात को खुली सड़क पर नंगे निकल जाने का हौसला नहीं है,  अगर खूबसूरत औरत देखकर उसके साथ की इच्छा उसमें नहीं जागती तो वह सही मायने में कलाकार नहीं है। हमारे अपने जैनेन्द्र कुमार इसी बात को ज्यादा सीधे ढंग से कहते हैं कि रचनाकार को प्रेरणा के लिए पत्नी के साथ एक प्रेयसी की भी जरूरत है और राजेन्द्र यादव तो इस तरह की टिप्पणियों के लिए कुख्यात हैं, जब वह कहते हैं कि सात्विक किस्म का भला सा आदमी कथाकार कैसे बन सकता है! लफंगई ही किसी व्यक्ति को साहित्यकार बनाती है,  शराफत तो उसे विष्णुकांत शास्त्री बना देती है।

इन्हीं उक्तियों की ओट लेकर हमारे देशी-विदेशी रचनाकार सीना ठोंककर, डंके की चोट पर अपने अनैतिक सम्बन्धों का खुलासा करते रहे हैं और इस खुलासे से उनकी रचनात्मक ईमानदारी में बढ़ोत्तरी होती रही है (कमलेश्‍वर की आत्मकथा या राजेन्द्र यादव की मुड़ मुड़ के देखता हूं इसकी गवाह है) यानी कला का जरदोजी वाला जामा पहनने के बाद, लफ़्ज़ों के कीमखाबी लिहाफ के भीतर उसके सारे कुकृत्य माफ होते हैं। कलाकार के व्यक्तिगत जीवन की नंगई और चरित्रहीनता के प्रसंगों की फेहरिस्त से उसके प्रभामंडल की आभा क्षीण नहीं होती।

कला में अभिव्यक्ति की आजादी के साथ-साथ कलाकार को अपना जीवन चुनने और अपनी तरह से जीवन जीने की छूट कहां तक दी जानी चाहिए?  जहां एक की आजादी दूसरे की गुलामी न बन जाये! जहां एक का वर्जनाहीन दुस्साहस दूसरे के शोषण का बायस न बने! पर वास्तविकता इससे अलग है। कलाकार होने के नाम पर उसके सौ गुनाह माफ हैं। एक कलाकार की रचनात्मकता के शिखर तले उसके कितने गुनाह सिसक रहे हैं , उसकी चौंधियाती कृतियों की इमारतें कितनी प्रताड़नाओं की बुनियाद पर खड़ी हैं, इसका लेखा-जोखा करना साहित्य की चौहद्दी में नहीं आता।

कला और लम्पटता,  कलाकार और आक्रामकता, रचना और नंगई में कैसा इक्वेशन होता है, इस पर चर्चा की जानी चाहिए। कलाकार पुरुष के निजी जीवन की तमाम बदकारियों और बेइमानियों का असर उसकी कृतियों के मूल्यांकन पर नहीं होता। अपनी पत्नी या बच्चों के प्रति आक्रामकता, अवहेलना या हिंसा, विवाहेतर संबंधों से एक आत्ममुग्ध रचनाकार की रचनात्मक गरिमा पर कोई आंच नहीं आती। रचना का प्रकाश वृत्त इतना बड़ा होता है कि रचनाकार के जीवन की छोटी बड़ी सब बदकारियों का अंधकार उसके आलोक में छिप जाता है!

कला के विभिन्न क्षेत्रों के शिखर पुरुषों के उदाहरण हमारे सामने हैं! उस्ताद अलाउद्दीन खां की जहीन बेटी अन्नपूर्णा को मंचीय सितारवादन से परे, एक बन्द कमरे में कुछ शागिर्दो को सितारवादन की कला में पारंगत करने की उम्र कैद देकर, भारत-रत्न पंडित रविशंकर अपनी कला साधना के झंडे दिक् दिगन्त में गाड़ते रहेंगे! यशोदा पाडगांवकर की ‘ कुणास्तव कुणीतरी’ में एक प्रतिष्ठ‍ित कवि की पत्नी की यातना को एक ओर धकेलकर मंगेश पडगांवकर अपनी ऊंचाई से नीचे नहीं गिरेंगे। मल्लिका अमरशेख कितना भी ’मळा उध्वस्त व्हायचय’ लिख लें, नामदेव ढसाल की काव्य प्रतिभा के चर्चे होते रहेंगे और अन्ततः मल्लिका अमरशेख ’ शित्जोफ्रेनिया’ की कगार पर धकेल दी जायेंगी। कान्ता भारती की ’रेत की मछली’ जैसे आत्मकथात्मक उपन्यास के एक-एक प्रसंग के त्रासद सच की भयावहता को दरकिनार कर डॉ. धर्मवीर भारती के चहेते पाठकगण उनकी दूसरी पत्नी-प्रेयसी को लिखे प्रेम पत्रों में प्रेम की दिव्य और ओजस्वी छवि के दर्शन कर अलौकिक रस से सराबोर होते रहेंगे। मन्नू भंडारी अपने अकेलेपन से ग्रस्त और शारीरिक-मानसिक यंत्रणा से संत्रस्त होकर डाक्टरों-अस्पतालों के चक्कर लगाती रहें,  उनके प्रतिष्ठित लेखक-पति राजेन्द्र यादव के जन्मदिन के शाही आयोजनों में कोई कमी नहीं आयेगी । सोफिया टॉलस्टॉय की आत्मकथा में ऐसे प्रसंग आते रहेंगे, जब अपने पुत्र की अंत्येष्टि से लौटकर सोफिया दीवार से सर टकरा-टकरा कर रोती है और उनसे सांत्वना का एक शब्द कहे बगैर लियो टॉलस्टॉय धुले सफेद कपड़े पहन बाहर टहलने निकल जाते हैं।

अन्नपूर्णा और पंडित रविशंकर

सोफिया की आत्मकथा हो या दलित रचनाकार कौशल्या बैसंत्री की – कलात्मकता के अभाव में सपाटबयानी अपने नंगे सच के बावजूद हाशिये पर धकेल दी जाएगी। स्त्रियों पर बेहद कोमल और संवेदनशील कवितायें लिखने वाले कवि अपनी पत्नी को एक कोने में बिलखता छोड़कर घर से निकल जायेंगे क्योंकि अपनी पत्नी के आंसू उनमें कोई संवेदना नहीं जगा पाते और गाहे-बगाहे अपनी दब्बू और डेढ़ हड्डी की पत्नी को पीटने से भी उन्हें कोई परहेज नहीं होगा। सवाल उठाए जाने पर वे शहीदाना अंदाज़ में अपनी पत्नी को मानसिक रोगी और अपने को ही पत्नी द्वारा प्रताडि़त घोषित कर देंगे और पुरुषप्रधान समाज के एक बड़े हिस्से की सहानुभूति भी बटोर लेंगे। हिन्दी फिल्मों की दुनिया में बीना राय और परवीन बाबी से लेकर राहुल देव बर्मन की पत्नी तक की एक लंबी कतार है! यही है सच हमारे समाज का जहाँ स्त्री हर हाल में कटघरे में हैं, उसके साथ खड़े होने में स्त्रियां भी हिचकती नज़र आती है!

संवेदनशील कहलाये जाने वाले इन सर्जकों की निजी दुनिया इतनी क्रूर और अमानवीय क्यों है, और ये सवाल साहित्य के दायरे से, विश्‍वासघातों के स्त्री विमर्श से बाहर क्यों हैं ?  इन सवालों को समाजषास्त्रीय अध्ययन के लिए छोड़ दिया जायेगा और समूचा साहित्यिक समाजशास्त्र  ’’ नत्थिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेस’’ (Nothing succeeds like success ) के बैनर तले धूल फांकता नजर आता हैं।

ऐसे में स्त्री विमर्श के हमारे प्रबल पैरोकार बड़े उदारमना होकर सवाल उठाते हैं कि प्रताडि़त पत्नियां अपनी आत्मकथाएं क्यों नहीं लिखतीं ? अधिकांश स्त्रियां तो चुप रहना ही श्रेयस्कर समझती हैं, लेकिन जो सच बोलने का साहस दिखाती हैं, उन्हें मित्रों-परिचितों-पाठकों द्वारा हमेशा  कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। ’सैवी‘ में अंग्रेजी के प्रख्यात कवि डॉम मोरेस की पत्नी लीला नायडू के विस्तृत साक्षात्कार के साथ यही हुआ। प्रख्यात फिल्म निर्माता निर्देशक बासु भट्टाचार्य की पत्नी रिंकी भट्टाचार्य को भी 1984 में ’ मानुषी ‘ को एक लम्बा साक्षात्कार  देने के एवज में खरी-खोटी सुनाई गयी । आखिर घर की ‘गोपनीय’ बातों को बाहर उजागर करने में कैसी शान है ? ‘वॉशिंग डर्टी लिनेन इन पब्लिक’ का एक पत्रकार द्वारा मौलिक हिन्दी अनुवाद किया गया – ”चौराहे पर चडढी फींचना” इस दुस्साहस को लज्जाजनक बताया गया। आखिर लौह महिला-सी दिखने वाली रिंकी अपने पति से लगातार बारह लम्बे बरसों तक कैसे पिटती रह सकती हैं। इसे अविश्‍वसनीय ही माना गया जबकि सच्चाई यही है कि इस बयान में से रिंकी का नाम हटा दें तो यह बहुत-से जाने माने, प्रतिष्ठित और नामी कलाकारों की पत्नियों की गाथा है!

निम्नमध्यवर्गीय तबके से आयी कार्यकर्ता सुगन्धि की कहानी से लेकर उच्च मध्यवर्गीय तबके की रिंकी भट्टाचार्य की कहानी में समानता के कई कोण सहज ही तलाशे जा सकते हैं। रिंकी की केस हिस्ट्री को सोशल साइंसेज के संस्थानों में घरेलू हिंसा के तहत विश्लेषण का आधार बनाया जा रहा है पर साहित्य की हदों से इसे बाहर ही रखा जाता है। सच्चाई के सपाट बयान में कलात्मक सौन्दर्य के लिए ज्यादा जगह नहीं होती । बेबी कांबले (जीवन हमारा), कौसल्या बेसंत्री (दोहरा अभिशाप) और बेबी हालदार (आलो आंधारी) का बयान साहित्य में कारगर हस्तक्षेप है और इसलिए स्वागत योग्य है। इनमें सिद्धहस्त रचनाकारों की तरह शब्दों के लागलपेट में झूठ को सच और गलत को सही बनाने और बुनने का कौशल नहीं है और यही इन आत्मकथाओं की सबसे बड़ी
खूबी है।

कई बार आत्मकथा लिखने वाली इन लेखिकाओं पर मानसिक अस्वस्थता का आरोप भी लगाया जाता रहा है। दरअसल, पागलखाने या मानसिक अस्पतालों की चहारदीवारी के भीतर भी घोषित रूप से पागल औरतों के अपने संसर्ग में आये पुरुषों के बारे में दिल दहला देने वाले बयान एक भयावह सच होते हैं,  बजाय उन सदगृहस्थिनों के जो अपने पूरे होशोहवास में अपने पति की प्रतिष्ठ‍ित इमेज को खंडित होने से बचाये रखने के लिए उसकी बदकारियों के सामने हमेशा अपने ढाल कवच के साथ पति की सुरक्षा में हाथ फैलाकर खड़ी हो जाती हैं। जो नहीं खड़ी होतीं,  वे रिंकी की तरह पुरुष समाज के ढेले और पत्थरों का शिकार होती हैं।

चुनाव हर महिला का अपना है, वे सदगृहस्थिनों की एक अंतहीन जमात में बिला जाएं या जनमघुट्टी में घोल कर पिला दी गई चुप्पी को तोड़कर बगावत पर आमादा हो जाएं !!
(कथादेश : मार्च 2006 से साभार)

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