स्त्री के प्रेम की अभिव्यक्ति – ‘अन्या से अनन्या’

कुमारी ज्योति गुप्ता


कुमारी ज्योति गुप्ता भारत रत्न डा.अम्बेडकर विश्वविद्यालय ,दिल्ली में हिन्दी विभाग में शोधरत हैं सम्पर्क: jyotigupta1999@rediffmail.com

( इस आलेख मे प्रेम और खासकर स्त्री के प्रेम की व्याख्या के प्रति  स्त्रीवादी दृष्टि से कई सवाल हो सकते हैं , लेकिन प्रभा खेतान के प्रेम को समझने का एक स्त्री शोधकर्ता का यह भी एक नजरिया हो सकता है . स्त्रीकाल में हम अन्या से अनन्या तक की आलोचना करते हुए स्त्रीवादी व्याख्यायें किंगसन पटेल और भावना इशिता के आलेखों  में पढ चुके हैं.)
प्रेम के संबंध में बायरन ने लिखा है- ‘‘पुरुष का प्रेम पुरुष के जीवन का एक हिस्सा भर होता है। लेकिन स्त्री का तो यह सम्पूर्ण अस्तित्व ही होता है।’’ इसका अर्थ यही है कि स्त्री जब किसी से प्रेम करती है तो वह सिर्फ ईमानदार ही नहीं होती बल्कि उसमें समर्पण का भाव भी होता है। इस भावना के कारण ही वह भविष्य  का सुनहरा सपना देखती है। ऐसा ही प्रेम प्रभा खेतान ने किया। उन्होंने कहा ‘‘प्रेम कोई योजना नहीं हुआ करता और न ही यह सोच समझकर किया जाने वाला प्रयास है। इसे मैं नियति भी मानूँगी क्योंकि इसके साथ आदमी की पूरी परिस्थिति जुड़ी होती है।’’ अतः सोच समझकर लाभ-हानि देखकर प्यार नहीं होता और न ही अकेलेपन को भरने के लिए। प्रभा खेतान का प्यार भी जीवन के खालीपन को भरने का माध्यम नहीं था बल्कि उनका सम्पूर्ण अस्तित्व था, जिसकी ओर बायरन ने इशारा किया है।

बाइस साल की उम्र में प्रभा खेतान का पेशे  से चिकित्सक और उम्र में अठारह साल बड़े डाॅक्टर सर्राफ से जो रिश्ता  बना, उसे ‘प्रेम’ कहते हैं। निस्वार्थ, निश्छल  प्रेम। जिन रूढ़ परम्परावादियों को इस आत्मकथा में वासना और व्यभिचार नज़र आता है उन्हें ‘प्रेम’ और ‘व्यभिचार’ शब्द का अर्थ समझ लेना चाहिए। मैत्रेयी पुष्पा  ने लिखा है ‘‘मेरी दृष्टि  में ‘प्रेम’ शब्द और ‘व्यभिचार’ शब्द को अलग-अलग देखा जाय तो दोनों एक-दूसरे के विपरीत आचरण में दिखते हैं। प्रेम जहाँ निश्छलता, विश्वास  और ईमानदारी भरा लगाव है वहीं व्यभिचार कपट चोरी और बेईमानी है। लेकिन सामाजिक विडम्बना यह है कि अक्सर ही प्रेम  को व्यभिचार से जोड़ दिया जाता है।’’ प्रभा खेतान के प्रेम को भी व्यभिचार का नाम दिया गया जिसकी अच्छी-बुरी प्रतिक्रिया समय-समय पर देखने को मिली। व्यभिचार देह से जुड़ा मामला है और प्रेम मन से। इसे व्यक्त करते हुए प्रभा खेतान ने कहा है- ‘‘प्रेम के कई रूप हैं और प्रेम की उम्र बहुत लंबी होती है, जिसकी तुलना में देह की उम्र छोटी। कामना का सुख तो हार्मोन पर आधारित होता है और यह बड़े सीमित समय के लिए मनुष्य को उपलब्ध होता है लेकिन प्रेम तो उसे हर समय उपलब्ध है। यह आपके व्यक्तित्व पर निर्भर है कि आप देह से परे जा सकें और प्रेम को अपने जीवन में महसूस कर सकें।’’ अतः यह कह सकते हैं कि देह की अपेक्षा प्रेम की उम्र बहुत लम्बी होती है। जिसके अन्दर यह अहसास जीवित  है वह इंसान भी जीवित  है, जिसने इस एहसास को महसूस किया ही नहीं उसे तो हर जगह वासना और व्यभिचार ही नज़र आयेगा।

किसी भी रिश्ते  को निभाने का भाव स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों  में कमजोर होता है। अधिकांश  आत्मकथा और हिंदी कथा साहित्य में ऐसे अनेको उदाहरण हैं जो इस तथ्य की प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं। चूँकि स्त्रियाँ ज्यादातर संवेदनशील होती हैं इसलिए इस तरह के संबंध की प्रतिक्रिया से ज्यादा आहत भी होती हैं।प्रभा  खेतान के इस प्रेम-संबंध में कहीं भी चालाकी नहीं है, वह समझदारी या यूँ कहे कि वह दुनियादारी भरी समझ नहीं है जिसकी वजह से उनपर ऊँगलियाँ उठती रहीं। एक नज़र के आकर्शण से उत्पन्न प्रेम को आत्मसात कर जिंदगी भर का जोखि़म उठाने वाली स्त्री चालाक तो नहीं हो सकती। हाँ ! निश्छलता और मासूमियत की प्रतिमूर्ति जरूर थी। उन्होंने लिखा ‘‘जिस राह पर मैं चल पड़ी हूँ वह गलत-सही जो भी हो पर वहाँ से वापस मुड़ना संभव नहीं। इसे ही प्रेम कहते है।’’ अतः निर्णय पर कायम रहना और संबंध को निभाने का जज्बा होना चाहिए तभी प्रेम किया जा सकता है।

डाॅ0 सर्राफ ने प्रभा खेतान से कभी पे्रम किया ही नहीं उनके लिए यह क्षणों का आकर्षण  था, जिसे उन्होंने स्वयं स्वीकारा भी लेकिन प्रभा खेतान के लिए उनका प्रेम उनका पूरा बजूद था, उनका अस्तित्व था जिसे वे पीड़ा सहकर भी अंत तक कायम रखती हैं। उनका कथन इस बात का प्रमाण है-
‘‘वेदना की कड़ी धूप में
खड़ी हो जाती हूँ क्यों
बार-बार ?
प्यार का सावन लहलहा जाता है मुझे
किसने सिखाया मुझे यह खेल
जलो !जलते रहो
लेकिन प्रेम करो और जीवित रहो’’

यातना की भट्टी में जलकर, सारी उपेक्षा सहकर, प्रेम करने और अन्त तक अपने निर्णय पर कायम रहने का साहस प्रभा खेतान ने ही दिखाया। इनके प्रेम में कहीं भी सयानापन नहीं, कपट नहीं, निश्छल मन से सबकुछ देने का भाव दिखता है और अपनी आत्मकथा में सबकुछ स्वीकार कर लेने का साहस भी। चूँकि बात प्रेम की हो रही है तो एक प्रेमिका की आकांक्षा को जानना जरूरी है ,जो खलील जिब्रान की महबूबा ने अपने महबूत कवि के लिए की थी ‘‘मैं चाहती हूँ कि तुम मुझे उस तरह प्यार करो जैसे एक कवि अपने ग़मग़ीन ख्यालात को करता है। मैं चाहती हूँ, तुम मुझे उस मुसाफिर की याद की तरह याद रखो जिसकी सोंच में पानी से भरा तालाब है, जिसका पानी पीते हुए उसने अपनी छवि उस पानी में देखी हो। मेरी इच्छा है, तुम उस माँ की तरह मुझे याद रखो, जिसका बच्चा दिन की रौशनी देखने से पहले मौत के अंधेरे में डूब गया हो। मेरी आरजू है कि तुम मुझे उसे रहमदलि बादशाह की तरह याद करो जिसकी क्षमा घोशणा से पहले कै़दी मर गया हो।’’ प्रभा खेतान ने कभी ऐसे ही प्रेम की कल्पना की थी। लेकिन अफसोस, डाॅ0 सर्राफ से ऐसा प्यार उन्हें नहीं मिला। समय के साथ उन्हें ये  आभाष होने लगा था कि मैंने और डाॅ0 साहब ने जिस चाँद को साथ-साथ देखा था वह नकली चाँद था। प्यार को निभाने का जो उत्साह प्रभा खेतान में था वह डाॅ0 सर्राफ में दिखा ही नहीं। निष्कपटता , निश्छलता प्रेम की कसौटी है। इसमें लेने का नहीं, देने का भाव होना चाहिए। लेखिका ने तो अपना हर कर्तव्य निभाया लेकिन डाॅ0 सर्राफ ने इस रिश्ते  के प्रति अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई। घनानंद के शब्दों में कहें तो-
‘‘तुम कौन धौं पाटी पढ़े हो लला
मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।’’

पूरी आत्मकथा में एक निष्ठा आस्था व्यक्त हुई है जिसके कारण उन्हें पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर बहुत कुछ झेलना पड़ा। उनका अन्तर्मन उनसे पूछता है ‘‘आखिर मैं क्यों नहीं अपने लिए जीती ? मैं क्यों एक परजीवी की तरह जी रही हूँ। किसलिए ? हिसाब लगाऊँ तो एक महीने में चैबीस घंटे से अधिक  समय मैं और डाॅ0 साहब साथ नहीं रहते फिर भी उनके प्रति यह कैसा दुर्निवार आकर्षण  है जो खत्म नहीं हो रहा ? डाॅ0 साहब को मेरी पीड़ा का अहसास क्यों नहीं होता ?’’ साधारणतः किसी भी संबंध में जब इतने तनाव हो तो उन्हें खत्म करना ही उचित है लेकिन ये संबंध ऐसा था जो न पूरी तरह से जुड़ा और न टूट ही पाया। क्योंकि लेखिका अपने निर्णय को खारिज नहीं करना चाहती थीं। उन्हें भले ही प्यार नहीं मिला लेकिन जितनी शिद्दत  से उन्होंने निभाया वह अद्भुत है। तू नहीं और सही, और नहीं और सही वाला भाव यदि इनमें होता तो शायद सफल उद्योगपति के साथ आदर्श  महिला भी होती क्योंकि मरे हुए संबंध को विवाह के नाम पर निभाना हमारे समाज को स्वीकार है, लेकिन आजीवन किसी से निश्छल प्रेम करना, महापाप। ये निर्णय तो पाठकों का है कि वे इस प्रेम-संबंध को किस तरह देखना चाहते हैं।

प्रेम एक ऐसा अहसास है,  जिसे करने वाला ही जानता है। हिन्दी की प्रतिष्ठित  लेखिका कुसुम अंसल ने लिखा है – ‘‘प्रेम एक इच्छा है, एक इच्छा जो विशेष इच्छा के रुप में प्रत्येक हृदय में बहती तरंगित होती है। यह इच्छा मात्र स्त्री-पुरुष  ही नहीं वृक्ष की जड़ और फूलों में भी होती है, श्वास  और वायु में भी होती है। प्रेम स्त्री-पुरष के मध्य घटित होता है जिसे शायद शरीर के पाँच तत्व भी चाहें तो ढूँढ नहीं पाते। प्रेम को हवा की तरह ओढ़ा जा सकता है, समुद्र सा लपेटा जा सकता है और पर्वतों की तरह बाहों के बंधन में आलिंगित किया जा सकता है। प्रेम हमारा वायदा है अपने आपसे से किया हुआ जिसे हमें निभाना होता है। मुझे लगता था प्रेम कोई प्रक्रिया या प्रोसेस नहीं है ,जिसमें शरीरों का जुड़ना या बिछुड़ना शामिल होता है, प्रेम तो बीज की तरह अंकुरित होता है, और फूल सा खिलता है। यह मनुष्य  के भीतर सूक्ष्म सी मानवीय चेतना है जो ऊपर उठकर अजन्मा शाश्वत  में बदल जाती है।’’ अतः प्रभा खेतान का प्रेम एक ऐसा ही सूक्ष्म  अहसास है जो वाद-विवाद, नैतिकता-अनैकिता की परवाह किये बिना सिर्फ मन की आवाज सुनता है।