स्त्री पर यौन हिंसा और न्यायालयों एवम समाज की पुरुषवादी दृष्टि पर ऐडवोकेट अरविंद जैन ने मह्त्वपूर्ण काम किये हैं. उनकी किताब ‘औरत होने की सजा’ हिन्दी में स्त्रीवादी न्याय सिद्धांत की पहली और महत्वपूर्ण किताब है. संपर्क : 9810201120
bakeelsab@gmail.com
( पेशे से वकील और प्रतिबद्धता से स्त्रीवादी आलोचक अरविंद जैन ने अपने समय में एक कल्ट बन गये राजेन्द्र यादव के आलेखों , सम्पादकीयों से उद्धरण लेते हुए उन्हें स्त्री विरोधी चिंतक सिद्ध किया है . न्यायालीय जिरह की शैली में लिखा यह आलेख पहली बार उद्भावाना ( 2005 ) में छपा था , हम इसे दो किस्तों में रख रहे हैं , बहस को आगे बढाते हुए लेखों का स्वागत होगा . )
” धीरेंद्र स्थाना : आपकी बात से यह निष्कर्ष निकला कि पत्नी को एक तरह से नर्स जैसा होना चाहिए ?
राजेन्द्र यादव : देखो , मेरे जवाब से भाई लोग बिदक जायेंगे और कहेंगे और कहेंगे यह सामंतवादी मानसिकता है, पर होना तो यही चाहिए , जो रेणु को मिला रेणु की पत्नी भी तो नर्स थी और लेखक की पत्नी के लिए नर्स होना बहुत जरूरी है ” . १
” सुधीश पचौरी : मन्नू जी आपको सामंती संस्कार वाला कहती हैं , एकदम फ्यूडल?
राजेन्द्र यादव: नहीं कहतीं
सुधीश पचौरी : कहती हैं , आप कैसे कह सकते हैं कि नहीं कहती ?
राजेन्द्र यादव : वे जेनरली कहती हैं कि मैं कमलेश्वर , राकेश आदि उस पीढी के लोग मिजाज से फ्यूडल हैं , एटीटयूड फ्यूडल है. अभी कल ही कमलेश्वर थे तो वे कल ही गालियाँ दे रही थीं कि चार -चार शादियाँ चाहते हैं , स्त्रियों के प्रति यह सामंती दृष्टि है .’
” यों हर मामले में निहायत अनकन्वेंशनल ,प्रेम विवाह-परिवार-सेक्स सबके मामले में अत्याधुनिकता के पोषक ,हर प्रकार की अनैतिकता के समर्थक ……..पर अपने हर अनकन्वेंशनल और अनैतिक काम को झूठ और रहस्य का जाम पहनाने को मजबूर! हाँ,अपनी हर गैर जिम्मेवार हरकत को जस्टिफाई करने के लिए दुनियाभर के फलसफे गढ़ते है,महान कलाकारों के उदहारण देते है ,पर आज तक अपने इस अनगढ़ जीवन दर्शन का एक भी समर्थन नहीं जुटा पाए !’’३
“अभी तक अपने ऊपर मैंने एक भी समीक्षा ऐसी नहीं देखी ,जहां लगे कि गहराई में जाकर बात की हैं !शायद मैं ऐसा लेखक हूँ , जिस पर चलते -चलते कुछ भी नहीं लिखा जा सकता ,या जो एक विशेष क्षमता की मांग करता है !”४
सिद्ध –प्रसिद्ध कथाकार –सम्पादक राजेंद्र यादव ने नाबोकोब के उपन्यास ‘लोलिता’की विवेचना करते हुए लिखा है “वस्तुत:चाहे नबोकोव दुवारा प्रौढ़ पुरुष को किशोरी कन्या के प्रति आसक्ति का चित्रण हो या फ्रेन्स्वा सगा दुवारा दिखाई गई षोडशी की प्रौढ़ पुरुष के प्रति मुग्ध अनुरक्ति ,दोनों ही आज के एक विकट मानसिक और आध्यात्मिक संकट की ओर इशारा करते है! बूढ़े किशोरियों से प्रेम करें और किशोरियां बूढों की वासना शांत करें ,दूसरी तरफ युवक आपस में अप्राकृतिक सम्बन्ध रखें ,मौके ,बेमौके छूरे और पिस्तौलें लेकर टूट पड़ें ,क्या ‘फ्री वर्ल्ड की यहीं नैतिकता रह गई हैं ?लुप्त –मूल्यों और विघटित समाज के मानस का प्रतिबिम्ब ‘लोलिता ‘सभ्य और सुरुचि के लिए एक चुनौती और प्रश्नचिन्ह दोनों है ! ५
ठीक ३८ साल बाद उन्होंने लिखा “नारी क्या हैं ?सिर्फ एक बहता हुआ सोता !उसे तो बहना ही हैं !अगर आप कुछ मिनट उसके किनारे अपनी –अपनी थकान मिटा लेते हैं ,दो घूंट पानी पीकर ,अगली लम्बी यात्राओं पर निकल पड़ने के लिए तरोताजा हो जाते हैं ,तो इसमें बुरे क्या क्या हैं ?नहीं ,न इसमे कुछ गलत है,न अनैंतिक…..भाड़ में गई नैतिक मर्यादाएं और शील सच्चरित्रता !यह हमारा सारा लेखन इन्ही बंधनों के खिलाफ ही तो विद्रोह हैं! “६
सुधीश पचौरी के शब्दों में “यह नयी कहानी के एक नायक नवल का गहन चिंतन क्षण हैं ! इस ‘खेलन ‘ में नयी कहानी के लेखन का सांग रूपक सक्रिय हैं! नारी सोता हैं !थकान मिटाना उसके साथ सोना हैं! ‘लम्बी यात्राएं ‘ महान कृति की रचना की साधना हैं! रूपक को आसान कर लें तो एकदम ‘मानो ‘सूत्र चमकता हैं:नयी कहानी लिखने के लिए हर बार एक नयी स्त्री के साथ सोना जरुरी है …..नयी महान कहानी के लिए एक अदद लड़की चाहिए !एकदम स्वप्ना जैसी !कारण,कला की अवधारणा हैं, ‘नारी प्रकृति की श्रेष्ठ कृति है और जब कलाकार उधर आकर्षित होता है, तो इस कलाकृति को एप्रीशिएट करता है !मगर यह सम्बन्ध सामाजिक मर्यादाओ में ऐसा ही अनुशासित होता तो क्यों ब्रह्मा अपनी ही पुत्री सरस्वती के प्रति इस तरह आसक्त होते? क्यों कलाएँ नारी केन्द्रित होती हैं ?’…….. रचना का रूपक यूं पूरा होता है: ब्रहम यानि नवल,सरस्वती यानि स्वप्ना यानी कहानी “७
नहीं सुधीश जी नहीं !नारी यहाँ सार्वजनिक सोता हैं –वेश्या ,रखैल,रंडी और कॉलगर्ल !असली अर्थ हैं ;”अच्छा तुम कहती हो की जब हमने तुम्हें वेश्या बनाया ,नगरवधू का दर्जा दिया ,कोठो पर बैठाया ,कॉलगर्ल के पेशे में डाला अपराध और कुफ्र की दुनिया का हिस्सा बनाया तो सामूहिक उपयोग और उपयोग के लिए सुरक्षित कर लिया !जैसे आज जन-सुविधाओं की जरुरत हैं,वैसे ही हमें तुम्हारी सार्वजनिक सेवाओ की जरुरत हैं ताकि घर-बार से थका –मांदा आदमी घडी –दो घडी तरोताजा होकर अगली यात्राओ पर निकल सके या घे-बार से भागकर चैन-शांति पा सके !”८
घर-बार से दूर (भागा)आदमी ,बहुत थका-मांदा है !’थकान’ मिटाने या ‘चैन-शांति’ पाने या ‘तारोताजा’ होने/सोने के बाद ,अगली यात्राओं या ‘शिकार’ पर निकलना चाहता है. स्त्री भी ‘विद्रोह’कर सकती हैं ,यह यादव जी के चिंतन का विषय कभी नहीं रहा ! राजेंद्र यादव मानते है “वह (स्त्री) सुन्दर हो या असुंदर,दोनों ही सिथितियें में शरीर को लेकर अत्यधिक परेशान हैं !बहुत सुन्दर शरीर पाया हैं,तो दुनिया(मर्दों)को कुछ नही समझती है और असुन्दर तो अपने आप को कुछ भी नहीं समझती है !९ और’’वह (स्त्री)एक ऐसी ‘दृश्यवस्तु’ हैं जिसे अपनी साथर्कता पुरुष की निगाह में सुन्दर और उपयोगी लगाने में ही पानी है… पुरुष वह शीशा है ,जिसके सामने वह हर समय अपने को निहारती हैं—चाहे वह एकांत की ड्रोंसिंग टेबिल हो या बिस्तर ,बाजार हो या घर का लॉन !”१० क्योंकि “उसे हमेशा यह लगता है ,जो भी आदमी मेरे पास आया हैं,वह मेरी खूबसूरती के लिए आया हैं, मेरे लिए नही आया !जिस दिन मैं खुबसूरत (और उपयोगी) नहीं रहूँगी ,वह मुझसे विमुख हो जाएगा!”११
खुबसूरत दुश्मन और मकड़ीजाल
राजेंद्र यादव बार-बार दोहराते हैं “नारी प्रकृति है ,जीवन को निरंतरता देने का माध्यम है,माँ है,इसलिए वह(ही)अपने सौन्दर्य और यौवन से हमें मोहकर प्रजनन और संरक्षण—दोनों में हमारा उपयोग करती है !हमें इस्तेमाल करती है !वह अमरबेल की तरह हमारे ऊपर छा जाती हैं,हमारा सारा सत्व और रस चूस कर हमें व्यर्थ कर देती हैं !निर्भर और कमजोर होने का भ्रम देकर वह हमें बांधती हैं !हमारे बीच औए हमारे साथ ही वह ऐसा खुबसूरत दुश्मन है, जिसके मकड़ीजाल में बंधकर हम समाप्त होते हैं !”१२
‘प्रकृति’ या ‘प्रजनन’ के साधन का ‘उपयोग’या ‘इस्तेमाल’ जैसी भाषा या शब्दों पर बहस की जा सकती हैं लेकिन निम्नलिखित वाक्यो की ‘अमिधा’ ‘व्यंग्य’या ‘व्यजना’ क्यों हैं?’ग्रीन रूप’में नायक,नंगा हो चिल्ला रहा हैं “सच बात तो यह है की हम जिन्दगी –भर तुमसे ही इस्तेमाल होते रहे हैं !सिर्फ इसलिए की तुम्हारे पास ‘कंट’हैं और कभी-कभी उसकी जरूरत के लिए पागल हो जाते है !मगर खुद ही सोचो,कितनी बड़ी कीमत वसूलती हो तुम अपने शरीर के उस उस हिस्से की?उसकी सारी जिन्दगी चूस डालती हो ………….और भाव ऐसा ,मनो हम ही तुम्हारे जिन्दगी पीसे डाले रहे हैं !”१३ हर ‘सभ्य’ सुसंस्कृत’व्यक्ति के लिए अश्लीलतम साहित्य (फिल्म ,विडियो इंटरनेट वगैरा)पढ़ना अनिवार्य है!लिखना भले ही बस की बात नही हो!
राजेंद्र यादव कहते-मानते रहे है कि स्त्री”हमारे बीच और हमारे साथ ही वह ऐसा खूबसूरत दुश्मन है,जिसके मकड़ीजाल में बंधकर हम समाप्त होते रहे है”मगर उनकी कहानी ‘हासिल’के नायक नवल (या वे स्वयं) का इकबालिया बयान दिया है “वह (एक)मकड़ा है और चारों ओर मुलायम रेशम का खूबसूरत ,तरतीबवार जाल फैलाकर बीच में चौकन्ना चुस्त इधर –उधर देख रहा है (हूँ ) की कब मक्खी हमले की सीमा के भीतर आती हैं !”१४
लाड टेन्नीसन के शब्दों में, इस ‘मकडजाल’ को आसानी से समझा जा सकता है “man is a hunter,women is his game, The sleek and shining creature of the chase,we hunt them for the beauty of their skin”.
नायक (लेखक) के मन में कोई अपराध बोध नहीं क्योंकि”साहित्य, कला,साधना का इस्तेमाल अगर उसने इस निरीह लड़की को फंसाने के लिए किया था, तो उसने भी अपनी असहायता ,लाचारी,और अनाथ होने को यहाँ तक पहुँचने की सीढ़ी बनाया था!१५ ऐसी लड़कियां’कहानियाँ’और कविताओं के क्षेत्र में पाव जमाने के लिए कहीं भी बिछ जाने वाली नवोदिताएं ……..”हैं १६ और वे महान लेखक ,रचनाकार ,कलाकार, विचारक ,चिन्तक और कथाकार –संपादक!तृप्ति की तलाश में भटकती स्त्री ‘कुलटा’है!काम कुंठित,यौन विकृतियो की शिकार ,समलेंगिक या व्यभिचारिणी है! यौन मुक्ति की आकांक्षा में देह और नैतिकता से मुक्त !
स्त्री मुक्ति बनाम मुक्त स्त्री
‘मुक्त स्त्री’और मर्दवादी मानसिकता के सन्दर्भ में सुधीश पचौरी का मनना हैं “मुक्तिकामी औरत आजाद है और आजाद औरत आसानी से उपलब्ध होती है!कल तक घोर सामंती परिवेश में दमित रहता आया हिंदी का लेखक जो अब नए ग्लोबल समय में स्त्री के नए स्पेश बनते देखता है तो अचानक पाता है की उसकी बीबी जो उसके बचपन में गावों कस्बे में उसके पल्ले बांध दी गई थी अब पुरानी हो चली है!उसे साथ सभा सोसायटी में जाने लायक औरत चाहिए !सामन्ती मानसिकता वाले समाज में हिंदी लेखक की सामन्ती मानसिकता की इस यात्रा में शहरी लंफगाई स्त्री के ‘आजादी’के मुहंमांगे विचार से ठीक नजदीक बैठ जाती है –आजादी के बाद उभरे हिंदी के कवि कथाकारों का एक बड़ा टोला अपनी पत्नियों को छोड़ दूसरी –तीसरी वाला लेखक यों ही नहीं बन गया !उसके सामन्ती से लंफगई के संक्रमणकाल को उसकी रचना यात्रा में पढ़ा जा सकता है !नई कहानी के लगभग सारे महारथी (विशेषकर राजेंद्र यादव) अपने जीवन को जब भी याद करने बैठते है ,वे अपनी लड़कियों और प्रेमिकाओं की याद करने लगते है और इस सबमें वे अपनी मर्दवाद को अपने हिरोइज्म को सेलीब्रेट करते दीखते है!नई कहानी ले लेखक या नए कवि का प्रोफाइल मूलतःएक दमित सेक्स वाल्व आदमी का प्रोफाइल ही हैं! स्त्रीत्वाद के इन दिनों में उन्हें लगता है कि स्त्री मुक्ति का एजेंडा सीधे आजाद स्त्री का एजेंडा है और मजेदार है…………..जहां कोई राजनीति-अर्थगत नहीं है!१७
सुधीश ने सही लिखा है “सच .समाज में चलने वाले स्त्री अधिकार संबंधी आन्दोलन का ताप अभी साहित्य तक नही आया है वरना ‘आजाद’छवि को लार टपका टपका कर कहने वाले .सेलीब्रेट करने वाले लेखक ‘अपने लम्पटत्व को सेलीब्रेट नहीं कर पाते !१८”
नारी’ नदी’हो.’प्रकृति’ हो या ‘दृश्यवस्तु’ उसकी ‘सार्थकता’ सिर्फ ‘सुन्दर’ और उपयोगी’ होने में ही है !इसलिये वह अपने ‘सौंदर्य’और यौवन में हमें ‘मोह’ लेती है,इस्तेमाल करती है ,खुद ही हमारे ‘ऊपर’(आ)छा जाती है, सारा ‘सत्त्व और रस चूस’ कर हमें ‘व्यर्थ’ करने के लिए ‘मकडजाल’में फंसा लेती है!वह सचमुच एक ‘खुबसूरत दुसमन’ है,जिसके साथ ‘होना/सोना’ हमारी ‘विवशता’ है,विश्वास न हो तो पढ़ कर देख ले –‘होना/सोना एक खुबसूरत दुश्मन के साथ’!१९
खुबसूरत दुश्मन और बलात्कार
क्या दुनिया की हर खूबसूरत स्त्री,पुरुष की दुश्मन है और दुश्मन के साथ ‘बलात्कार’ का अधिकार है मर्दों का?राजेंद्र यादव इसे सहमति से सम्भोग में बदलने के लिए ‘सिद्धांत’गढ़ते हैं (दरसल नैन्सी फ्राई डे से चुराते हैं ) –“दुनिया की हर खुबसूरत लड़की चाहती है की उसके साथ रेप हो ….रेप का आधा मजा तो वह लोगों की भूखी निगाहों और तारीफों में लेती ही है! डरती वह उस घटना से नहीं है, बल्कि उसके तो सपने देखती है ! वह डरती है उस घटना को दूर खड़े होकर देखने वाली आँखों से, तमाशबीनों से…”२०
दुनिया की हर खूबसूरत (या बदसूरत) लड़की रेप (या फक) होना चाहती हो या नहीं, मगर मर्द जरुर ऐसा सोचता-समझता और मानता हैं कि वह्सिर्फ़ देह,वस्तु,भोग्या और आनदं का साधन है!”बलात्कार जैसी साधारण –सी बात पर ऐसा आसमान सिर पर उठा रही हो !जैसे प्रलय हो गई हो !इच्छा -अनिच्छा को मारो गोली ,बलात्कार का अर्थ सम्भोग ही तो हुआ न ? बताओ मर्द अगर औरत के साथ सम्भोग नहीं करेगा तो कहाँ करेंगा कोई तो करेगा आखिर ,फिर क्या फर्क पड़ता है कि वह कौन है! दिन-भर में जाने कितना कुछ घटता है जो हमारी –तुम्हारी इच्छा के अनुकूल नहीं होता!इसके लिए न ह्त्या की जाती है न आत्महत्या ….तुम्हें देख कर हमारे भीतर वासना जगती है यो पूरा करने क्या भगवान उतरेगा? हर बात में तुम्हारे इच्छा –अनिच्छा ही बनी रहेगी तो हम क्या अपनी ऐसी –तैसी करवाएंगे!”२१अगर’बलात्कार ‘और ‘सम्भोग’ में ही कोई फर्क नजर न आता हो तो ऐसे ‘परम पुरुष’के बारे में क्या कहा जा सकता है ?स्त्री विमर्श की यह कैसी भाषा –परिभाषा है?
जब वे तीस वर्ष के युवा थे ,तो यह बर्दाश्त करना मुश्किल था कि ‘बूढ़े किशोरियों से प्रेम करें और किशोरियों बूढों की वासना शांत करें !’मगर जब खुद बूढ़े हो गए ,तो कहने लगे “न इसमें कुछ गलत है ,न अनैतिक …भाड में गई नैतिक मर्यादाएं और शील सच्चरित्रता !”सच पूछो तो उन्हें लगता है ‘स्त्री देह पर काबू पाने का सबसे बड़ा हथियार है बलात्कार’ और मुझे ‘सलमान रुश्दी’ की यह बात कहीं सही लगती है कि ‘हर सभ्य समाज के लिए अश्लील साहित्य अनिवार्य है ,’क्योंकि वह नैतिक किलेबंदी का प्रतिरोध और प्रतिपक्ष है!२२ इससे पहले वे कह चुके हैं कि “अश्लीलता सिर्फ औरत के शरीर में ही नही होती है !”२३ ‘शी इज आब्सीन’ का इससे बेहतर अनुवाद,वे कर भी नही सकते !यहाँ “सिर्फ”और ‘ही’ बहुत सोच-समझ कर लिखे शब्द हैं,जिनका अर्थ (अनर्थ)बेहद पारदर्शी ही नहीं बल्कि अत्यंत घातक भी है !एक अनाम (महिला)लेखिका के शब्दों में ‘ही इज नॉट ओनली आब्सीन बट पर्वट टू!’कहने की जरुरत नहीं की अश्लीलता व्यक्ति के दिमाग या दृष्टि में ही होती है! मैनेजर पांडे के अनुसार “अश्ल्लीता एक अर्थ में पुरुषवादी वर्चस्व को कायम रखने का माध्यम है! अश्लीलता की परिभाषा पितृसत्तात्मक समाज अपनी जरूरतों के हिसाब से रचता- गढ़ता है!”२४
क्या खूबसूरत स्त्री( स्त्रियों )के साथ होने?सोने के बाबजूद ,कुछ ‘हासिल’ नहीं हुआ तो उन्हें दुनिया की हर खूबसूरत स्त्री,’दुश्मन’और स्त्री देह अश्लील नजर आने लगी है?या समझ में नही आ रहा कि नारी क्या है , पुरुष की शक्ति या कमजोरी ,उसकी क्षमताओं को धार देने वाली या उसे ले डूबने वाला पत्थर …..सहभागिनी या रहनुमा?२५
उन्हें यह भी “ समझ में नहीं आता कि चौबीसों घंटे चलने वाले पचासों चैनलों में स्त्री की देह से लेकर रतिक्रिया की कौन सी मुद्रा है ,जो हम माँ –बहनों के साथ बैठ कर नहीं देखते ?मगर उसके शतांश को लिखते ही ‘देहवाद’कह कर छाती-माथा कूटने लगते है !स्त्री की देह में अब बचा क्या है, जिसका सहारा लेकर ट्रेक्टर –सूट और और मोटर –गाड़ियां न बेचीं जाती हों!मुझे इस तरह के छदमों और आडम्बरों से चिढ़ होती है !किस संस्कृति और शील की बात हम इस ‘गलोब्लाइजेशन’ और ‘बाजारवाद’ के जमाने में दूसरों को समझाना चाहते हैं!”२६
यह ‘ग्लोबलाइजेशन’ और ‘बाजारवाद’ का समर्थन है या विरोध ? पूंजीवादी प्रचार तंत्र में स्त्रीदेह और सेक्स के माध्यम से आम जनता की कमजोरी का फ़ायदा उठाते हुए आर्थिक शोषण करते राष्ट्रीय –बहुराष्ट्रीय निगमों की तर्ज पर क्या साहित्यक !पत्रकारिता में भी वही खुली छुट लेने –पाने के तर्क (कुतर्क) नहीं है? साहित्य में भी स्त्री का वैसा ही शील (हरण ) हो,यह कौन से (कैसी?)प्रतिरोध की संस्कृति है? ‘पोर्नोग्राफी’ पूंजीवादी व्यवस्था में स्त्री के शोषण और दमन का सबसे बड़ा हथियार है और अधिकतम मुनाफा कमाने का ‘शर्तिया इलाज’!स्त्री देह का सहारा ‘लेकर’ ट्रैक्टर-सूटऔर मोटर-गाड़ियां’ही नहीं ‘इंडियाटुडे’’आउटलुक ‘और ‘हंस’ जैसी पत्रिकाएँ भी बेची जाती रही है! अपने धंधे के प्रचार -प्रसार के पक्ष में .व्यापारी (पितृसत्ता) न जाने कब से इस प्रकार की बौद्धिक वेश्यावृति या व्यभिचार के पीठ थपथपाते रहे है !साहित्य में भी ‘रूपर्ट’ मार्डोक की कमी नहीं! पोर्नोर्गाफ़ी के विरोधियोंको ‘विक्टोरियन’ ’आर्यसमाजी’ ‘शुतुरमुर्गो की औलाद’ ‘ढोगी’ ‘पाखंडी’ ‘धार्मिक कठमुल्ले’ ‘संकीर्ण कट्टरपंथी’और न जाने कैसी-कैसी ‘उपाधियों’से पुकारा जाता है!जा रहा है!
कम्प्यूटर से ‘हैंग अप’ बुद्धिजीवी कुतर्क करने लगता है “बहु बेटियों का नाश तो नंगी पत्रकारिता और टी.वी. पहले ही किए बैठे है!जहाँ स्त्री के शरीर का कोई भी हिस्सा छिपा नहीं है! लेकिन साहित्य में हम वहीँ अड़े है!रतिक्रिया की कौन से मुद्रा है ,जो मीडिया में बेशर्मी से दिखाई नहीं जाती रही,मगर हमारा ढोंग कि लेखन में वह सब नही आना चाहिए !वस्तुत:साहित्य में हम ,वही विक्टोरियन या आर्यसमाजी दुनिया में पड़े सड़ रहे है! इस जगह हम शुतुरमुर्गों कि औलाद हैं”२७ पर्नोर्ग्राफ़ी के विरुद्ध बोलने की बजाय, उपयोग के समर्थन में, बिपाशा बसु (‘जिस्म ‘की नायिका )की तरह कहती है”पता नहीं लोगों ने मुझे कपडे उतारू अभिनेत्री क्यों समझ लिया है जबकि औरों के मुकाबले मैंने कम ही कपडे उतारे है! आखिर टांगों और जाँघों में ऐसा क्या है,जिसे छिपाना जरुरी है”अगर छिपाना नहीं (रहा),तो साहित्य में छापना जरुरी है!
स्त्री मुक्ति का पहला चरण देह-मुक्ति
हिंदी के ‘आउटलुक’ २२ सितम्बर ,२००३ की ‘आवरण-कथा’(हिंदी लेखन विशेषांक) है ‘औरत मर्द के रिश्ते’ ,जिसमे प्रख्यात लेखकों की आठ कहानियाँ ,दो उपन्यास अंश ,कविताएं,विचारोत्तेजक इन्टरव्यू,दिल दिमाग छूने वाले संस्मरण और पैने आलेख’ भी शामिल है!आवरण पर प्रकाशित छाया चित्र में एक स्त्री ,किसी पुरुष से( या एक दू सरे से ) छेड़छाड़ कर रही है!दोनों के पाँव ,एक दूसरे को ‘छूने’ के प्रक्रिया में व्यस्त (मस्त) है!आवरण कथा’लव –वव सेक्स वेक्स –हमारे यहाँ नहीं चला जी’ (मनोहरश्याम जोशी )का सार संक्षेप यह है कि”हिंदी समाज और साहित्य ,दोनों अर्धसामंती दृष्टि और अति नैतिकता के मारे हुए है!” अपने बेबाक साक्षात्कार में राजेंदर यादव का कहाना है “स्त्री की मुक्ति देह से हे प्रारंभ होगी! स्त्रीमुक्ति का पहला चरण देह-मुक्ति है!”
राजेंदर यादव के अनुसार “स्त्री हमारे लिए आज भी देह पहले है,कुछ और बाद में! हम उसके शरीर के आधार पर उसका पहला मूल्यांकन करते है!उसके अंगों के लिए अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करते है!संस्कृत शब्दावली देखें :पीन पयोधरा, विम्बाधारी,क्षीण-कटी,बिल्वस्तनी, सुभागा,भगवती आदि-आदि !”२८ मनोहर श्याम जोशी का तर्क (प्रमाण सहित)है”हिंदी के मठाधीश लेखक तो स्त्री के संदर्भ में कुल मिलाकर वही ‘संरक्षक’ दृष्टि रखते है,जो हिंदी समाज के तमाम अन्य अर्धसामंती नेतागण …….राजेंदर यादव आज भी यह जरुरी समझते हैं कि लेखक –नायक द्वारा किसी और नगर से मिलने आई प्रशंसिका को शराब पिलाकर पटाने की कहानी (हासिल)के अंत में यह दर्शाये कि जब वह हमबिस्तर होने को राजी हो गई(और नायक खल्लास)तब लेखक-नायक को सहसा अपनी बेटी याद आ गई”२९
‘होना/सोना एक खुबसूरत दुश्मन के साथ’नामक अपने विवादास्पद (बदनाम,’अशालीन’)लेख के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए राजेंदर यादव उपरोक्त साक्षात्कार में कहते (स्वीकारते) हैं ” जब तक वह (स्त्री)मेरी संपत्ति है,तभी तक वह मेरी प्रिय है,जैसे ही वह मुझसे स्वतंत्र होकर खडी होती है,वह मेरी सत्ता को चुनौती देती है! मेरी सत्ता से छूटी स्त्री मेरे लिए चुनौती है! दुश्मन है!३० यहाँ’हम’ऐसा सोचते हैं ,समझते हैं वाले तर्कों को उन्होंनेखुद ही ‘मैं’और ‘मेरी’में बदल दिया है!कहानी ,लेख या व्यंग्य की भाषा(तर्क,सिद्धांत)लगभग एक जैसी है!रचनात्मक लेखन में जो पर्दा है,वह होना/सोना तार-तार हो गया है!
खैर …………….’आदमी की निगाह में औरत’(राजकमल प्रकाशन,२००१) में संकलित उपरोक्त लेख की भूमिका में राजेंदर यादव ने लिखा है “महिला विशेषांक (दो खंडो में) के लिए प्रस्तुत मेरे इस लेख को ‘हंस’की शिष्ट और विशिष्ट सम्पादिका (अर्चना वर्मा)ने अस्वीकृत कर दिया !मैं इसे औरताना असहिष्णुता और सम्पादकीय धांधली मानता हूँ जहाँ दूसरे पक्ष की सच्ची तकलीफ सामने ही न आने दी जाए ! अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार और लोकतान्त्रिक संविधान की प्रतिज्ञाओं का यह निर्लज्ज हनन है!”३१ स्पष्ट है कि ‘दूसरे पक्ष (पुरुष सम्पादक)की सच्ची तकलीफ है-‘होना/सोना एक खुबसूरत दुश्मन के साथ!’ स्वतंत्र स्त्री(संपादिका)दुवारा पुरुष सम्पादक की ‘सत्ता को चुनौती’!अपना -अपना पक्ष प्रकाशित कर दिया ,’दू सरे पक्ष की सच्ची तकलीफ सामने ही नहीं आने दे रही !क्या इसी ‘औरताना असहिष्णुता और सम्पादकीय धांधली’ से आहात-अपमानित होकर,उन्होंने यह लेख ‘वर्त्तमान साहित्य’ में छपवाया था?और बाद में ‘अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य’(राजकमल प्रकाशन२००१) के खुद भी सम्पादक बन गए!पुस्तक के आवरण पृष्ठ तीन पर सिर्फ उनका ही चित्र और जीवन परिचय छपा है,अर्चना वर्मा का क्या हुआ ?…कौन अर्चना वर्मा !
पुस्तक की भूमिका ‘स्त्री-दर्शन:स्त्री छवि’ में उन्होंने लिखा है “अतीत होती सड़ी और स्त्री का भविष्य ‘हंस के जनवरी-फरवरी ,मार्च महीने के दो विशेषांक के रूप में प्रकाशित रचनाओं से किया गया चुनाव है! यह आयोजन इतना स्वायत था कि संपादकों ने स्वयं मेरा लेख ‘होना/सोना एक खू बसूरत के साथ’छापने से इनकार कर दिया- मेरे लाख तर्कों और आग्रहों के बाबजूद वह ‘हंस’ में नहीं आया ! हार कर उसे अपनी पुस्तक ‘आदमी की निगाह में औरत’में देना पडा!इसलिए प्रस्तुत संकलन का सारा श्रेय संपादकों को ही है”देखो मैं ‘प्रजातांत्रिक’ और ‘उदार मालिक’ ही नही महान सम्पादक भी हूँ !
“हम स्त्री के किसी स्वतंत्र सोच को बर्दाश्त नहीं कर सकते! स्त्री हमारी कॉलोनी या उपनिवेश है!कॉलोनी को जिस तरह शासित किया है ,उसी तरह हम स्त्री को शासित करते है…३२ स्वायत्त या स्वतंत्र स्त्री सम्पादक की इतनी हिम्मत कि’स्वयं मेरा लेख …छापने से इन्कार कर दे ’? ‘स्वयं मेरा ‘जो पत्रिका का सम्पादक है! मालिक है!’हमारा’ कुछ नहीं होता…सब कुछ मैं हूं और सारी संपत्ति (स्त्री सहित) मेरी है….!’मेरी सत्ता से छूटी स्त्री मेरे लिए चुनौती है!दुश्मन है.
दरअसल यादव जी हमेशा कडवी-से कडवी बात मजाक,चुटकुले या व्यंग्य के रूप में कहते हैं! तर्क के आड़े –तिरछे रास्तों से भाग निकलते है! बाहर’मसखरे का मुखौटा’लगाए रखते है, मगर भीतर ‘नितांत अकेले और असुरक्षित महसूस करते है! वो हम सबसे ही नहीं ,खुद से भी नाराज हैं!छोटी से छोटी बात भूल नहीं पाते (गाँठ बाँध याद रखते है)और नाटक यह की मेरी यादाश्त बहुत कमजोर है! सार्वजनिक स्थल पर भी अश्लीलतम भाषा का प्रयोग करने में भी संकोच नहीं!जानबू झ कर चर्चा का विषय बने रहने के प्रयास में ,विवादास्पद बोलते –लिखते रहे है!
क्रमशः
( उद्भावना से साभार )