रवींद्र के दास की कवितायें : माँ ! पापा भी मर्द ही हैं न !

रवींद्र के दास

रवींद्र के दास के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. कालीदास के मेघदूत का उन्होंने हिन्दी काव्य रूपांतरण भी किया है . संपर्क :मोबाईल: 08447545320
ई-मेल : dasravindrak@gmail.com

माँ! पापा भी मर्द ही हैं न!
बड़ी हिम्मत जुटा कर
सहमते हुए पूछती है माँ से
युवती हो रही किशोरी-
माँ! पापा भी मर्द हैं न?
मुझे डर लगता है माँ! पापा की नज़रों से…
माँ! सुनो न! विश्वास करो माँ!
पापा वैसे ही घूरते हैं जैसे कोई अजनबी मर्द…
माँ! पापा मेरे कमरे में आए
माँ! उनकी नज़रों के आलावा हाथ भी अब मेरे बदन को टटोलते हैं
माँ! पापा ने मेरे साथ ज़बरदस्ती की
माँ! पापा की ज़बरदस्ती रोज़-रोज़…
माँ! मैं कहाँ जाऊँ!
माँ! पापा ने मुझे तुम्हारी सौत बना दिया
माँ! कुछ करो न!
माँ! कुछ कहो न!
माँ! मैं पापा की बेटी नहीं, बस एक औरत हूँ?
माँ! औरत अपने घर में भी लाचार होती है न!
माँ! मेरा शरीर औरताना क्यों है!
बोलो न! बोलो न! माँ!

स्त्रियाँ ईश्वर की शरण में 

इस बात पर कोई विवाद न था
कि स्त्रियाँ धुरी हैं सभ्यता की
स्त्रियाँ सौन्दर्य हैं, सेवा है, त्याग है
….. यानी सद्गुण का मूर्तरूप हैं स्त्रियाँ
ये वाक्य
मंदिर में स्थापित देव-मूर्ति की भांति स्थापित थे
हम मनुष्य बड़े हुए थे
इन्हीं पवित्र वाक्यों को सुनते हुए

या तो हम स्त्रियों से संवाद नहीं करते
या उनके शब्द रहस्यमय थे हमारे लिए
ये तय नहीं था
पर एक अनिवार्य दूरी थी
क्योंकि सभ्यता पर इसका कोई वैसा असर था नहीं
यद्यपि संस्कृति
इस दूरी से अक्सर बौखला उठती थी
संस्कृति का बौखलाना हमें
कविता के लिए प्रेरित करता था

हमें इस बात का ख्याल नहीं रहता
स्त्रियाँ ब-ख़ुद कोई शख्स है
हम उसे हरसत से देखते
और उसकी तस्वीरें बनाते
नाचती स्त्री, संवरती स्त्री, उदास स्त्री …
और सोचते कि हमने सभ्यता का ऋण उतार दिया

उस उतरे ऋण वाले मनोभाव से
स्त्रियों को देखते
और पाते कि स्त्रियाँ मुस्कुरा रही हैं

स्त्रियों के पास अपनी भाषा नहीं होती
वे आपस में भी
हमारी भाषा में बातें करतीं
हम उनकी बातचीत पर नज़र रखते
और व्याकरण की अशुद्धि सुधारते

स्त्रियों की आँखें
हमारी सुधार की कोशिश को न स्वीकारती
पर हिली गर्दन से हम संतुष्ट हो लेते
हम पुरुष
अपने कर्तव्य निभा रहे के भाव में व्यस्त रहते
हमारी इस व्यस्तता को भांप
स्त्रियाँ बहुधा चली जातीं
ईश्वर की शरण में

ईश्वर की शरण में गई स्त्रियाँ
क्या कहतीं ईश्वर से
हम नहीं जानते
पर कल्पना करते कि वे
हमारे लिए दुआ मांग रही होंगी
उन्हें जो भी चाहिए, हम तो दे ही रहे हैं
तभी तो हम आह्लादित हो उठते
जब जातीं
स्त्रियाँ ईश्वर की शरण में

कमाती हुई स्त्री
स्त्री सबलीकरण पर लम्बा लेख लिखने के बाद
कुछ था,
जो रह गया था कहने को
इसके पीछे यह डर था कि इससे कमजोर हो जाएंगे तर्क
जिनका इस्तेमाल मैंने लेख में किया
मैंने लेख लिखते हुए इन तीनों,
मुनिया, मिसेज़ वर्मा और दीक्षा को एक नज़र से देखा
मैं कन्फेस करता हूँ मैंने ईमानदारी नहीं बरती

कमाने का अर्थ नकद पैसा कमाना है
इस अर्थ में
ये तीनों स्त्रियाँ कमाऊ हैं
घर घर जाकर काम करने वाली मुनिया
परिवर्तन से प्रभावित हो शिक्षिका बनी मि. वर्मा
और विदेशों में मनेज़मेंट वगैरह ऊँची डिग्री ले चुकी दीक्षा
लगभग एक समय निकलती हैं काम पे
मुनिया तीन हजार, मि. वर्मा तीस हजार और दीक्षा तीन लाख

मुनिया घर की रोटी जुटाती है
अपनी गिरस्ती चलाती है, बच्चे को पढ़ाती है
मि.वर्मा अपनी शिक्षा का इस्तेमाल करती है
और पैसों से मदद करती है पति की
दीक्षा जॉब इम्ज्वोय करती है, लेटेस्ट लाइफ जीती है
एक्साईटमेंट के नए नए रास्ते खोजती है

ये तीनों एक जमाने की औरतें हैं
तीनों हिंदुस्तान की बेटियाँ हैं
मैं इन तीनों को एक नज़र से देखना चाहता हूँ
पर हरबार बदल जाती है मेरी नज़र
मैं बहुत शर्मिंदा हूँ
मैं इन तीनों में स्त्री सबलीकरण का अर्थ खोजता हूँ
ये तीनों ही तो हैं –
कमाती हुई स्त्रियाँ |

एक उम्र निकल जाने के बाद 

घर वाले निस्पृह हो जाते है
घर में रहती बेटी से
जैसे कि उसका होना कोई बात नहीं
और रात्रि निवास के लगभग
माना जाता है उसका हक़

गोया बेटियाँ घर में नहीं रहती हुई
समेटे रहती है समूचा घर
अपने अंतर में
और चलती है संभल कर
जल से भरे जलद की मानिंद

जिस दिन जन्म लेती है बेटियां
उसी दिन से
चौकन्ने माँ-बाप, पुरुख-पुरखिन
संवारने संजोने में हो जाते हैं व्यस्त
कि जतन से … थोड़ा ध्यान से
पराए घर जाए
तो नाक न कटवाए हमारी

और उनके केलेंडर के हिसाब से
जब नहीं चली जाती हैं बेटियाँ
अपने उस पराये घर
बेहाल हो उठते माँ-बाप, सगे-सहोदर
कि हे प्रभु !
किस पाप का दंड है यह …
यह रिकार्ड चलना हो जाता हैं
तब बंद
जब पराए घर जाने वाली बेटियां
उसी घर के रकबे में
रहकर तलाशने लगती है अपनी ज़िन्दगी
बूढ़े होते माँ बाप की नज़रों से
जब हो जाती हैं अभ्यस्त
तो बेटियां एक आशाहीन ठूंठ की तरह
हिलती रहती हैं अपनी समय सारणी से

शाम को जब आती हैं वापस घर
उनके आने से
नहीं डोलता है एक तिनका भी
खुद ही निकाल फ्रिज से पीती हैं ठंडा पानी
और एक सांस जी लेती हैं और
एक उम्र निकल जाने के बाद

विज्ञापनों में बढती स्त्रियों की मांग से 

उनमें आत्म-निर्भरता आई है
साहूकारों के नए मुंशी
इस की फाँक को समझता है ठीक से
मुस्कुराता है खुल कर
कि हमें तो बस खोलना है खूँटे से
आगे इनकी जिम्मेवारी है खुद की
जो हम काम लेते है
तो दिलवाते है पूरे दाम
इसी बूते जो
ये टकरा जाए जमाने से
सर इनका फूटेगा
हम तो मजबूर हैं पेशे से
चाहे टूटे परिवार या संसार
दुनिया तो मर्दों की है

सुनो नदी !

जहाँ पहुँच कर स्वयं को भूल गई नदी
वह सागर नहीं
कोई जन-संकुल बाज़ार था
नदी रम गई,
मानकर कि समुद्र है.
यह अवधारणाओं में जीने का नतीजा था
नदी के एक आइना है
जिसे वो मन कहा करती है
आस पास के मछुआरे
अपनी मीठी तानों से नदी का हौसला बढ़ाते
गदराई नदी चल पड़ती
बहकती, बलखाती
अपनी कमर लचकाती

नदी उन्मत्त थी,
सराबोर थी,
आत्मग्रस्त थी
शायद, किसी दुविधा से त्रस्त थी
कि जैसे कोई जल्दी हो दूर जाने की

ऊँघती नदी की जब नींद खुली
कई सारी नदियाँ
निढाल पड़ी थी वहीं कहीं
वहां समुद्र नहीं था
बाज़ार भी नहीं था वहां
एक काँपता उजाड़ था
कई रसहीन, निर्वाक नदियाँ अवसन्न पड़ी थी

सुनो नदी !
सिर्फ़ बहना ही नहीं होता है सबकुछ
चलना होता है संभलकर
अन्दर चाहे पानी हो
या भरी हों आग की ज्वालाएँ

बहेलिया जानता है 

कि उन चिड़ियों की हवस है इस मुंडेर पर आने की
यहाँ रखे दाने चुगने की
ऐसे नहीं है कि बहेलिए ने सुच्चे दाने नहीं डाले
डाले
कई दिनों तक डाले
कि जब चिड़ियों के परिजन समझाएँगे
उकसायेंगे चिड़ियों को
उसके खिलाफ़
तो चिड़ियाँ ही उन्हें समझाएंगी
यकीन दिलाएंगी कि ये बहेलिया नहीं हमारा मसीहा है
अब,
जब चिड़ियाँ अभ्यस्त हो चुकी हैं
और उनके परिजन आश्वस्त
बहेलिये ने दानों में मिलाना शुरू कर दी है सुरूर की दवा
गोया चिड़ियाँ अब देर तक करती हैं
इसी मुंडेर पर मटरगस्ती
कि आसपास के जीव जंतु इन्हें मुंडेर की चिड़ियाँ कहने लगे हैं.
शक तो हुआ
कुछ परिजनों को, कुछ चिड़ियों के बढ़ते अल्हड़पन देख
टोका भी इन्होंने
कि चालबाज़ है बहेलिया
चिड़ियों ने पुराने दिनों का हवाला देकर
कर दिया मुंह बंद
और कर दिया साफ़ कि हम तालीमयाफ्ता हैं
अच्छी नहीं बात बात पे टोका टाकी
बहेलिया जानता है
चिड़ियों की अभिलाषा
वह जो चिड़ियों में उन्मत्तता के बीज बो रहा था
हवस को हवा दे रहा था
इन दिनों
बहेलिया कुछ दूसरे मुंडेरों पर दाने बिखेर रहा है

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ISSN 2394-093X
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