सुजाता तेवतिया की कवितायें : अगर नहीं होती गुफा मैं और

सुजाता तेवतिया

सुजाता तेवतिया चोखेरवाली ब्लॉग का संचालन करती हैं और दिल्ली वि वि के श्यामलाल कॉलेज में पढ़ाती हैं . संपर्क : ई-मेल : sujatatewatia@gmail.com

अगर नहीं होती गुफा मैं


अगर नहीं होती गुफा मैं
तो बन जाती नदी एक दिन।
जितना डरती रही
उतना ही सीखा प्यार करना
और गुम्फित हो जाना।
गुफाएँ कहीं चलती नहीं
इसलिए अगर नहीं होती लता मैं
तो बाढ हो जाती क्या एक दिन?
एक परी या तितली या पंखुरी
सूने गर्भगृह की पवित्र देहरी पर पड़ी हुई।
कभी नहीं हो पाती मैं
जैसे हो सकती हूँ आज !
हवा हो जाती मैं शायद या बयार ।
लेकिन सिर्फ बाढ हो पाती हूँ अक्सर !
एक भी अच्छा शब्द,
क्या करूँ ,
छूटा नहीं है मेरे लिए।
तुम ऊब न जाओ
चलो फिर से गाएँ वही कविता
जिसमें मैं बन जाती थी चिड़िया और तुम भँवरा।
तुम्हारी गुन गुनाहट से
मैं प्यार सीखने लगूँगी फिर से।
इसलिए शब्दसाज़ होना होगा
मुझे ही
अबकी बार।
अगर नहीं होते तुम भ्रमर तो
मैं नहीं गाती कभी कविता
मैं गद्य रचती।
मुझे फिर से तलाशने हैं
वे छंद जो गुफासरिता से बहते हैंं।
शापित आस्थाएँ अब भी वहाँ
दिया जलाती हैं
कि गुफाएँ पवित्र ही रहें ।
और चिड़िया – या जो भी कुछ
मैं बनूँगी इस बार-
जब तक बेदखल है
तब तक बार बार पढनी होगी वही कविता
जिसमें तुम बादल बनते थे और
धरा बन जाती थी मैं।

नहीं हो सकेगा प्यार

नहीं हो सकेगा
प्यार तुम्हारे-मेरे बीच
ज़रूरी है एक प्यार के लिए
एक भाषा …
इस मामले में
धुरविरोधी हैं
तुम और मैं।
जो पहाड़ और खाईयाँ हैं
मेरी तुम्हारी भाषा की
उन्हें पाटना समझौतों की लय से
सम्भव नहीं दिखता मुझे
किसी भी तरह अब।
इसलिए तुम लौटो
तो मैं निकलूँ खंदकों से
आरम्भ करूँ यात्रा
भीतर नहीं ..बाहर ..
पहाड़ी घुमावों और बोझिल शामों में
नितांत निर्जन और भीड़-भड़क्के में
अकेले और हल्के ।
आवाज़ भी लगा सकने की  तुम्हें
जहाँ नहीं हो सम्भावना ।
न कंधे हों तुम्हारे
जिनपर मेरे शब्द
 पिघल जाते हैं सिर टिकाते ही और
फिर  आसान होता है उन्हें ढाल देना
प्यार में …
नहीं हो सकता प्यार
तुम्हारे मेरे बीच
क्योंकि कभी वह मुकम्मल
 नहीं आ सकता मुझ तक
जिसे तुम कहते हो
वह आभासी रह जाता है
मेरा दिमाग प्रिज़्म की तरह
तुम्हारे शब्दों को
हज़ारों रंगीन किरनों में बिखरा देता है।

पाँव भर  जगह 

उसे अक्सर देखा
शाम के छह बजे छूटती है जब
भागती है मेट्रो की ओर
सिर्फ माँ होती है वह उस वक़्त
जिसके बच्चे अकेले हैं घर पर
नाम पूछो तो वह भी नही बता पाएगी।
पाँव-भर खड़े रहने की जगह खचाखच भीड़ में
बचाए रखना सिर्फ
उसका प्रयोजन है
किसी रॉड के सहारे से वह जमी रहती है
बेपरवाह धक्कों,रगड़ों और कोलाहल से
बस कुछ पल और
अगले स्टेशन पर मिल ही जाएगी सीट
और बस कुछ ही सालों में बड़े हो जाएंगे बच्चे
लग ही जाएगी नैया पार
फिर सो जाएगी कुछ देर आराम से सीट पर
यूँ भी आँख बंद करने भर की दूरी पर रहती है नींद।
शहर में नौकरी के बिना चलता भी नहीं है।
कभी तो मिलती ही नहीं सीट घर आने तक भी।
माँ कमातीं अगर कुछ पढी लिखी होतीं
जद्दोजहद मेरी कुछ कम हो जाती।
चलो अच्छा है जो जैसा है।
ग्यारहवीं में पढती बड़ी बेटी
पढती है बेफिक्र मन लगाकर
शायद वह जान पाएगी जल्दी ही कि
सारी कोशिश माँ की
पाँव-भर जगह बचाने की नहीं
आने वाली कई पीढियों को बचा लेने की कोशिश थी।

जो आएगा बीच में उसकी हत्या होगी 

तुमने कहा
बहुत प्यार करता हूँ
अभिव्यक्ति हो तुम
जीवन हो मेरा
नब्ज़ हो तुम ही
आएगा जो बीच में
हत्या से भी उसकी गुरेज़ नहीं
संदेह से भर गया मन मेरा
जिसे भर जाना था प्यार से
क्योंकि सहेजा था जिसे मैंने
मेरी भाषा
उसे आना ही था और
वह आई निगोड़ी बीच में
तुम निश्शंक उसकी
कर बैठे हत्या
फिर कभी नहीं पनपा
प्यार का बीज मेरे मन में
कभी नहीं गाई गई
मुझसे रुबाई
सोचती हूँ
इस भाषा से खाली संबंध में
फैली ज़मीन पर
किन किंवदंतियों की फसल बोऊँ
कि जिनमें
उग आएँ आइने नए किस्म के
दोतरफा और पारदर्शी
क्योंकि तुमने कहा था
जो आएगा बीच में
उसकी हत्या होगी ।

भागना था मुझे बहुत पहले 

भागना था मुझे बहुत पहले
लगभग उन्हीं वक़्तों में
जब सोचती थी -‘भागना कायरता है’
लेकिन ,भागना हिम्मत भी होती है
उन वक़्तों में
जब भागा जाता है
असह्य व्यवस्थाओं के निर्मम मकड़जाल से बचकर
जब भाग निकलते हैं हम
उनके पास से
जिनकी कुण्ठाएँ धीरे- धीरे
ग्रस लेंगी हमारे व्यक्तित्व को
भाग जाना बहुत बहादुरी है
उन कमज़ोर पलों में जब
अत्याचारी के चरणों में शीश
झुकाए रखने की आदत पड़ने लगी हो
और उस हिम्मत के पल में भी
जब अत्याचारी को बदल देने का मूर्ख दम्भ जागने लगा हो
गढ्ने के लिए अपने मुहावरे हर एक को
भागने की कायरता या हिम्मत का निर्णय
अपनी पीठ पर उठाना होता है
इसलिए भागना था मुझे बहुत पहले
अब इन वक़्तों में
जब कि उन खूँखार चेहरों से नकाब हट गए हैं
उनकी ढिठाई आ गई है सबके सामने
हद्द है
कि न भाग पाने की अपनी स्वार्थी कायरता को
मैंने उधारी शब्दों की परछाईं में अभी -अभी देख लिया है।

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ISSN 2394-093X
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