किले में समंदर : आखिरी किस्त

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com

( रोहिणी अग्रवाल की यह अभिव्यक्ति अतीत से वर्तमान और वर्तमान से अतीत की आवाजाही है , स्वप्न -कल्पना और यथार्थ के परस्पर गुम्फन के साथ . स्त्री के संघर्ष और पीड़ा तथा मुक्ति के अहर्निश अभियान की कथा पढ़ें दो किस्तों में  : आखिरी किस्त  ) 


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मैं किश्ती लेकर अपने भीतर की गहराइयों में उतर गई हूं। दादी मेरे संग चलेगी। कृशता और उम्र के भार से झुकी दादी बार-बार मेरे कोरे पन्नों को चाव से सहलाया करती थी। ”तेरी तरह पढ़ी-लिखी होती तो अपने जीवन की कहानी इन पन्नों पर उतार देती।”


”तुम्हारे जीवन में क्या है दादी – हर डेढ़ साल बाद का अनिवार्य जापा, चूल्हे की धुंआती आग, रोटियां बेलने और बच्चे पालने में घुलती हर सुबह-सांझ! इनसे आत्मकथाएं नहीं बनतीं दादी! आत्मकथा लिखने के लिए जिंदगी एक बड़े कॉज को समर्पित करनी पड़ती है।” मैं अभिमान में उद्धत छोकरी! तुरत-फुरत भागने को तैयार!
दादी लम्बी सांस खींच कर मुझे रोकने और बात करने की ताकत बटोरतीं – ”फिर मेरे पास रोज की चख-चख में ही कहने को इतना कुछ क्यों है? क्यों चूल्हे की आग कलेजे में भी जलती है? पकता रहता है कुछ भीतर ही भीतर। पक-पक कर जल जाता है – तप कर बुझे तंदूर की राख में राख होती जली रोटी के ढेर सा।”

दादी के संग कोई है। पंजाबी सुथ्थण, लम्बी कमीज और भारी सा दुपट्टा। पांव में बेढब जूती। ऊँची-लम्बी जट्टणी कद काठी। चेहरा ताम्बई लाल – ओज-आक्रोश, पीड़ा-अपमान, संघर्ष-जिजीविषा के विविध रंगों से तैयार! सुलगती चिंगारियों के बावजूद आंखों में ठंडक देता अपनापन। खासी तेजस्वी महिला।
”यह निम्मो है।” दादी ने मेरी आंखों में झांकते अपरिचय को पढ़ लिया, ”निम्मो! मेरी सहेली! पहली बार मिली तो लगा यह मेरी जुबान ही नहीं, चुप्पियों को भी समझती है। समझती है मेरी कसक, मेरे सपने, छलांग की लंबाई और ऊँचाई . . . ”
”छलांग जो कभी लगाई नहीं तुमने।” निम्मो ने तरेरा।
”लगाने ही नहीं दी किसी ने।” दादी मिमियाई।

रुख्मा बाई 

निम्मो की तरेरे में नेह की नदियां थीं। दादी मुस्काई -”तुमसे हारती हूं बाबा! तब उस जमाने में भरी जवानी के दिनों मिली होतीं तो तुम्हारी संगत में अपनी जिंदगी के सफे पर अपने ही हरफ लिखती। तुम्हारी तरह।” दादी बेहद उत्साहित भाव से मेरी ओर मुखातिब हुई, ”जानती हो, निम्मो ने वही सब लिखा है जो मैं लिखना चाहती रही ताउम्र। तुम तो इतना पढ़ती रहती हो। निम्मो की किताब भी पढ़ी होगी न।”
”निम्मो की किताब. . . . कौन निम्मो? कौन सी किताब?” मैं परेशान। दादी की सहेली और लेखिका!
”अरे, किताब-विताब कहां? जो सोचा, लिख दिया। भाषा तो थी नहीं, सिर्फ आग थी। कलेजे में ढांप कर रखने की बजाय बाहर उगल दी। जलना तो दोनों ही सूरतों में था।”
”आपकी किताब . . . ?” मैं अदब और आश्चर्य से अभिभूत!
”सीमंतनी उपदेश।”
”सीमंतनी उपदेश???” मेरी सांस धौंकनी सी। स्त्राी-गीता की व्यास सामने और मैं परिचय मांग रही हूं? ये दादी भी न! तब से निम्मो-निम्मो की रट लगाए है।। कोई धोखा न खा जाए तो क्या करे?
”आप अज्ञात हिंदू महिला हैं न
”मूर्ख लड़की।” दादी ने फटकारा, ”अज्ञात हों इसके दुश्मन। यह निम्मो है।”
निम्मो मेरे बचाव में आगे आईं। ”हां, तुम लोग मुझे अज्ञात हिंदू महिला कहते हो। पुन्नी ने मुझे निम्मो नाम दिया है।”
अब यह पुन्नी कौन? एक और पहेली।
”पुन्नी। पूनम। तुम्हारी दादी।”
”ओ!!! दादी, तुम्हारा नाम पूनम है? मुझे तो पता ही नहीं था।”
”औरतों के नाम खुद औरतों को याद नहीं रहते। उनसे नाम छीन लिए जाते हैं ताकि कोई अलग पहचान न बना सके। नामविहीन व्यक्ति चेहराविहीन हो जाता है पहले, फिर भावहीन, विचारहीन, व्यक्तित्वहीन। औरत की पहली लड़ाई अपना नाम पाने की होनी चाहिए। पद नहीं, विशेषण नहीं, नाम! अपनी अलख जगाता, धूनी रमाता नाम!”

अज्ञात हिंदू महिला सॉरी निम्मो अब कितना संयत होकर बोलती हैं। ‘आवेश लड़ाई का ऐलान करने के लिए जरूरी होता है। लेकिन बाद में निर्माण और प्रबंधन के लिए विवेक और संवेदना, व्यावहारिकता और सर्जनात्मकता की ही जरूरत होती है।”
”मैं बीजी कहूं आपको?” मेरे मुंह से बस इतना ही निकला। आदर का अतिरेक। उन्होंने मेरा मस्तक चूम लिया तो मैं हुलस कर वाचाल हो गई -” बीजी, आजकल हम औरतों ने अपना नाम पाने की लड़ाई जीत ली है। बीवी और मां बन कर अब हम अपना नाम नहीं खोतीं। वंशवृक्ष में भी हम हैं और कानूनी दस्तावेजों में भी।”
”लेकिन बेटा, तुम्हारे हरियाणा की पंचायतों में जो कबीलाई संस्कृति घुस आई है, वह तो ऐसा कुछ नहीं कहती। उससे करोगी दो-दो हाथ? जान लो, हठ को हिंसा से नहीं जीता जा सकता, न ही प्रेम को दंड से दबाया जा सकता है। औरत के हकों की बात करते हुए मर्द के अस्तित्व, स्थिति और प्रतिशोधात्मक खिसियाहट को नजरअंदाज कभी न करो। मैं करती थी ऐसा अपने दिनों में। प्रताड़ित-दमित थी न! सो लगता था तमाचे के जवाब में झन्नाटेदार तमाचा न मारा तो दर्द को पचाऊँगी कैसे? लेकिन औरत क्या अपनी दुनिया में सिर्फ औरत ही चाहती है?”

नहीं! दुविधा की कोई गुंजाइश नहीं। औरत नहीं चाहती निखालिस मर्द या औरत की दुनिया। वह चाहती है इंसानी दुनिया – एक दूसरे के प्रति आदर, विश्वास और प्यार की दुनिया।
”बीजी, क्या ऐसी दुनिया संभव है? सम्बन्धों की रूढ़ संरचनाओं को बदलती बहिश्ती दुनिया?”
”हां, और इसे जमीन पर लाओगी तुम। तुम्हारी पीढ़ी। तुम्हारी पीढ़ी की संतति। अपने चिंतन को अनुभव से सान कर, दर्प की बर्फ को विवेक की मद्धम आंच से गला कर तुम्हें ही नव-संस्कारित करना है समाज। तुम लोग ही हो हमारे समाज की रमाबाई। रख्माबाई।”

मैं सकुचा गई। मैं – आत्मनिर्भर, सुशिक्षित, चिंतनशील जाग्रत स्त्राी! फेमिनिस्ट! क्या अपने ही स्वार्थ की परिधि में घूमते-घूमते अपने से भिन्न स्त्री  समाज से बहुत कट नहीं गई हूं? क्या बोली-बानी, चाल-पोशाक के मोटे-बारीक फर्क के आधार पर मैंने स्त्रियों की कई कोटियां नहीं बना लीं? और कई-कई-कई कोटियों पर ‘संवाद निषिद्ध’ की तख्ती भी। बीजी क्या मेरा दोगलापन जानती हैं? मैं भय से सिहर उठी, इसलिए आत्मरक्षा के प्रयास में बेहद आक्रामक – ”बीजी, विवाह और पति के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ कर जीतने वाली रख्माबाई क्या सचमुच पति नामधारी पुरुष की मृत्यु के बाद विधवा की तरह रहने लगीं थीं?”
”हां।” तथ्य को तथ्य की तरह कह देने की लालसा।
लेकिन मैं इसे तथ्य कैसे मान लूं? यह तो भीषण अंतर्विरोध है। रख्माबाई का रख्माबाई होना खारिज करता अंतर्विरोध। तो क्या अंतर्विरोधों से कोई मुक्त नहीं?
”न्न बेटा! अंतर्विरोध अपमान या ग्लानि उपजाती दुर्बलताएं नहीं, वैचारिक विकास के अगले सोपान पर आरूढ़ होने के बाद पीछे छूट गई अपरिपक्व भावनात्मक भ्रांतियां हैं। अंतर्विरोध व्यक्ति को खारिज नहीं करते, वक्त और व्यवस्था के साथ उसकी मुठभेड़ को दर्ज करते हैं।”
”इजाजत हो तो अपनी बात मैं खुद कहूं?” रख्माबाई को देख निम्मो बीजी और दादी खिल उठीं।
”हां, उस पति नामधारी पुरुष की मृत्यु के बाद विधवा की तरह रहने लगी थी मैं। शायद इसलिए कि हमारे यहां औरत मर्द से ब्याही नहीं जाती। ब्याही जाती है सपने से जो सिंदूर बन कर उसकी जिंदगी की रवानगी को गिरफ्त में ले लेता है। औरत पैर टिकाने के लिए आधार चाहती है। पति का नाम उसे आधार देता है। पति का नाम लेकर औरत मर्द को नहीं, भावनात्मक सम्बन्ध को थामे रहना चाहती है।”
मैं मानने को राजी नहीं हुई।

रख्माबाई आजी की बात शायद खत्म नहीं हुई थी। ”बड़ी-बड़ी कानूनी लड़इयां लड़ना आसान है बेटा। आपके पास वैचारिक और नैतिक बल होता है। नया वक्त रचने और क्रांति करने का जनूनी जज्बा भी। शिकस्त को मुंह चुरा कर नौ दो ग्यारह होना ही पड़ता है। लेकिन अपनी ही संस्कारग्रस्तत से लड़ना आसान नहीं होता। दरअसल संस्कारों में पैठा दुश्मन दिखाई ही नहीं देता। वह खून और सांस बन कर रग-रग में दौड़ता है। जो जीने की शर्त हो, उसी पर जानलेवा प्रहार कैसा?”
”सिर कलम करके ही दुश्मन को हमेशा जीता नहीं जाता। उसे पालतू बना कर भी राह से हटाया जा सकता है।” यह शिवरानी देवी थीं।
”अम्मा!” मैं लाड़ से उनके कंधे पर झूल गई।
”बेहद उद्दंड औरत हूं मैं। खासी दबंग। इसलिए बहनो, मेरी बात का बुरा न मानना। लेकिन एक बात जरूर कहूंगी, औरत हो या मर्द, अपने को जीते बिना संसार को जीतने का सपना देखना निरा पागलपन है।”
सबने सहमति में सिर हिला दिए।
”अपने को जीतना माने अपनी कमजोरियों और विकारों को दूर करना। अंत तक औरत या मर्द बने रह गए तो इंसानी समाज की बात करना बेमानी हो जाएगा। औरत न मर्द, सिर्फ इंसान – अपने तईं मैं इतनी सी बात जानती हूं, बस।”
मैं शिवरानी देवी की उद्दण्डता की मुरीद! औरत की उद्दण्डता यानी साफगोई और निर्भीकता।
”अम्मा, क्लास में जब मैं सूरदास का बाल-लीला वर्णन पढ़ाती हूं तो खीझ उठती हूं। मुख पर दही और गात पर मिट्टी का लेप करके नहलाया-धुलाया बच्चा घर लौटे तो मेरे हृदय में ममता के सोते नहीं फूटते। बाद में जो करूं सा करूं, पहले जम कर धुनाई जरूर करूंगी।”

‘यह है स्त्री  पर छवियों का आरोपण।” जाने कब से रमाबाई हमारी बातें सुन रही थीं। ”स्त्री  की भरपूर ठोस लौकिक स्वतःस्फूर्त इयत्ता को क्षरित कर किन्हीं महिमामंडित दैवीय अमूर्तनों में बांधने की क्रमिक प्रक्रिया है स्त्राीत्व की रचना। खंडों में विभाजित स्त्राी अपूर्ण, निर्भर और अडोल रहे; हृदय, बुद्धि, गति और कर्मठता को जोड़ कर किसी एक दिशा की ओर प्रयाण न कर सके। स्त्राी की तेजस वैयक्तिक अस्मिता की हत्या कर स्त्राीत्व उसे लैंगिक इकाई बनाता है – पुरुष की परिक्रमा मेें जीवन पाती लैंगिक इकाई। मातृत्व, सतीत्व, गृहिणहत्व – स्त्रीत्व  की संरचनाएं। स्त्री को  छलती प्रवंचनाएं।”
इसलिए तो पसंद हैं शिवरानी देवी मुझे। स्त्रीत्व  की रूढ़ छवियों को ओढ़-बिछा कर कातर भाव से रोती-बिलखती नहीं वे। ताल ठोंक कर उन्हें चुनौती देती हैं।
”मैंने तो भई कह दिया था, पूत कपूत तो क्या धन संचै, पूत सपूत तो क्या धन संचै। अपने पैरों पर खड़े होने का माद्दा नहीं हुआ लड़कों में तो समझ लूंगी ये मेरे बच्चे हई नहीं।”
”सचमुच, यशोदा को ऐसी पटकनी दी आपने कि . . .” मुझे खूब मजा आता है इस प्रकरण को सुन-गुन कर। शयद इसलिए कि परंपरानुमोदित अच्छी मां न हो पाने का अपराध बोध घुल जाता है कहीं। मैं मां हूं, लेकिन मेरा मातृत्व दूध की फुहारों से भीगा नहीं है। वह पुचकार और फटकार दोनों को जरूरी महत्व देता है। मेरा आंचल दुनिया भर की बदमाशी करके पनाह मांगते बेटे की सीनाजोरी ढांपने के लिए परदा बनने से इंकार करता है। मैं उसे जिम्मेदार नागरिक बनाना चाहती हूं। धूप-ताप, आंधी-पानी झेल कर जमीन के अंदर ही अंदर जड़ों का सख्त जाल फैलाते चले जाने और विनम्र छायादार ढंग से अपनी भूमिका निभाते चले जाने वाला जिम्मेदार नागरिक। ममता की तरलता जितनी जरूरी है, बस उतनी ही दूंगी। जानती हूं ज्यादा नमी से कच्ची जड़ंे गल जाया करती हैं।

”सूरदास के जरिए मुझे जानने का दावा करोगी तो सच से हमेशा दूर रहोगी। दूसरा व्यक्ति आपको समग्रता में चीन्ह ही नहीं सकता। वह उतना ही देखता है, जितना चाहता है, और उतना ही पेश करता है जिससे उसके वर्चस्व पर आंच न आए।” यशोदा हांफती-हांफती वहां आई, ”अभी जल्दी में हूं, इसलिए जा रही हूं, लेकिन इतना भर जान लो कि छवियों में कैद औरत की सुनवाई के लिए कहीं कोई अदालत नहीं। रिहाई की उम्मीद किससे करे वह?”
”अरे!” मुझे मानो सांप सूंघ गया।
”मैं मां होने से इंकार नहीं करती, लेकिन मेरा मातृत्व मेरे ‘मनुष्य’ होने को क्यों निगले? मैं मनुष्य रूप में अखंड, समग्र क्यों न पढ़ी-गुनी जाऊँ? क्यों नहीं क्लास में सूरदास की नजर से मुझे देखने की बजाय मेरी पीड़ा को अपने भीतर जीतीं तुम? तब करना मेरे और अपने युग की सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था की पड़ताल। फिर निकालना निष्कर्ष। पुराने से असंतुष्ट होकर खीझा जा सकता है। उसे बदलने के लिए नया नजरिया पैदा करना ही होगा।”

”ठहरो।” यशोदा को बांह पकड़ कर रोक लिया एक बंदिनी ने। ”यशोदा के साथ-साथ मेरी बात भी सुन लो। मैं  . . . सावित्राी . . . सत्यवान की परिणीता। यम से लौटा लाई पति के प्राण, राज्य, सुख, स्वत्व, संतान, भविष्य! मैं अकेली! फिर भी कहलाई अबला, परनिर्भर! मेरी अपराजेय जिजीविषा, संघर्ष-संकल्प, व्यूह रचना और रण लड़ने की कूटनीति – सब अलक्षित! अदृश्य! बना दी गई पतिव्रता पत्नी! सतीत्व का चरम! पुरुष को मौत के मुंह से लौटा लाने की जुर्रत करती स्त्राी को उन्मुक्त कैसे छोड़ दे समाज? वह हस्तक्षेप कर व्यवस्था को पलटेगी। इसलिए मैं पुरस्कृत की गई – सतीत्व में कैद करके।”

हम सब चुप रहीं। कठघरे में अकेली मैं। मेरा स्त्रीवादी  होने का दर्प क्या सिर्फ अपने को गुनने-बुनने, तराशने और समुन्न्त करने का स्वार्थपूर्ण अभियान ही है? अपने से बाहर दूसरे से न जुड़ना, न सुनना। दादी मुझे अपने साथ समूची स्त्री  जाति के तलघर में ले जाना चाहती थी लेकिन मैंने उनकी पुकार अनसुनी छोड़ दी और भटकती रही पुरुष रचित इतिहास की कंदराओं में – उनकी दृष्टि और निष्कर्षों के साथ।
”हमें सबसे पहले स्त्राी की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाओं को छिन्न-भिन्न करना होगा।” गहरे दायित्व बोध के साथ मेरा अंग-अंग ऊर्जस्वी हो गया। ”छवियों से मुक्त नहीं हुई तो कैसे अपने आप को मनुष्य समझे-समझाएगी स्त्राी? कैसे आत्मानादर और भय से मुक्त होगी?”

रमाबाई और निम्मो बीजी मुस्करा दीं। मैं झेंप गई। नया क्या कह रही हूं भला? एक सदी पहले की उनकी पुकार को दोहरा रही हूं न!
”दोहराव हमेशा निरर्थक और अनुत्पादक नहीं हुआ करता। निःसंग आत्मालोचना बन कर वह व्यवधान को गति देता है और गति को निरंतरता।” रख्माबाई आजी ने मेरी पीठ थपथपा दी, ”लेकिन तुम अकेली क्यों? तुम्हारी बिट्टी कहां है?”
”आती होगी आजी। एम .एन .सी .में है न। सो रात-बिरात आने का कोई समय नहीं। ये नए-नए टैक्नोक्रैट्स – तगड़ा पे-पैकेज देखते हैं बस। वक्त और शरीर नहीं।”
”नई पीढ़ी को लेकर इतनी शंकाएं ठीक नहीं बेटी।”

”ठीक कहती हो बीजी। लेकिन शायद हम लोगों ने संवाद करके नई पीढ़ी को मूल्य और मानवीय दृष्टि दी ही नहीं। नौकरी और कैरियर की दौड़ में समय ही नहीं बचा बच्चों के लिए। उन्हें पहले क्रैच-टी .वी . के संग छोड़ा, फिर अपने संग बदहवास चूहा दौड़ में लगा दिया। वक्त को पहचानने और गढ़ने की तमीज दी ही नहीं।” मैं रुआंसी हो गई, ”बीजी, हम लोग स्पेस देने-पाने की बहुत बात करते हैं, लेकिन शायद देने और पाने की रचनात्मक परिपक्वता हममे है ही नहीं। इसलिए उन सब रूढ़ियों को गले लगा कर बैठे हैं जिनके खिलाफ आप लोगों ने जान की बाजी लगा दी थी।” मैंने पल भर को रुक कर शिवरानी देवी की ओर निहारा, ”अम्मा, गहनों से बेहद चिढ़. थी न आपको। और उससे भी ज्यादा नफरत पति की उस पुरुषवादी सोच से कि औरतें गहनों के लिए पति से लड़ती-क्लेश करती और गहने पाकर रीझती बहुत सुंदर लगती हैं।”

”हां!” शिवरानी देवी ने निम्मो बीजी के दोनों हाथ पकड़ लिए, ”तुम न होतीं बहन तो गहनों की हत्यारी भूमिका को मैं जान ही न पाती। लेकिन कितनों तक तुम्हारी बात पहुंची भला? खुद मेरे पति . . . प्रोग्रेसिव होने के बावजूद औरत को देखने का वही सामंती नजरिया। सामने जीती-जागती औरत गहनों के प्रति स्त्री -मोह के मिथ केा नकार रही है और आप हैं कि उसी को स्त्री -सत्य बना कर उपन्यास लिख रहे हैं, किस्से गढ़ रहे हैं।”
”पचास-साठ के दशक में पैदा होने वाली हमारी पीढ़ी ने भी सादगी को विरासत में पाया लेकिन आज की पीढ़ी . . . अम्मा, मुझे कहते लाज आती है, लेकिन तुम जानो, बिट्टी की आठों उंगलियों में अलग-अलग पत्थरों की अंगूठियां हैं और कानों में तीन-तीन बालियां। बाहों पर टैटूनुमा गोदने अलग से। पत्थरों से किस्मत बदल लेगी लड़की?” मैं आवेश में तन गई।

”निम्मो बीजी, जैसे आपकी साीधी-सच्ची बातों को कड़वा जान गले उतारना मुश्किल हो गया था आपके समकालीनों के लिए, वही हाल हमारे समकालीनों का भी है। आपके नाम और विचारों को निगल कर किताब को दफना दिया था उन्होंने। वैसे ही नारीवादी चेतना से भय खाकर वे स्त्राी को देह बना रहे हैं -चूम-चाट कर थूक दी जाने वाली देह। चेतना जैसी सूक्ष्म व्यंजनाओं के सामने जब दैहिक अलंकरण जैसी स्थूलताएं खड़ी हों, तब वही-वही दिखेंगी न सब ओर। और बीजी, स्तब्ध खड़ी औरत अपने से पूछ रही है कि देह मुक्ति के नाम पर दैहिक तिजारत के अधिकारों के लिए कब लड़ी वह? वह तो चाहती है देह में स्थित मस्तिष्क और हृदय, विवेक और विश्लेषण के सामर्थ्य पर अपना नियंत्राण।”

हम बिट्टी की प्रतीक्षा में हैं। आजकल उसका पति विदेश गया है। इसलिए ऑफिस से सीधे यहीं लौटेगी। सॉरी, पति नहीं, दोस्त! ब्याह नहीं किया न उसके साथ। बस, संग-संग रहते हैं दोनों – बिना किसी अपेक्षा, शर्त और समझौते के। मन मिलने तक रहेंगे संग-संग। फिर? पता नहीं।
”बच्चे? उनका भविष्य?” मैंने धड़कते दिल से पूछा था बहुत पहले।
”हू थिंक्स अबाउट दैम?” बिट्टी डिंक कल्चर में दीक्षित है। इसके बाद संवाद की क्या गुंजाइश बचती भला?
”बात-बात पर आंसू और आशंका! मुझे नहीं रुचता तुम्हारा हाहाकार! रास्ते बंद हैं तो उठो और ज्यादा ताकत लगा कर खोलो।’ शिवरानी देवी बरस पड़ीं, ”कहा न, जंग अपने से ही लडऩी है हमें और जीतना भी अपने को ही है। हमारी सबसे बड़ी बाधा हम स्वयं हैं।”
रख्माबाई मेरे पास आकर बैठ गईं। उनकी उंगली पर मेरी आंख से टपका मोती था। ”तुम लोगों से चूक कहां हुई, जानती हो?”
मैंने आहत प्रश्नाकुल दृष्टि उनकी ओर उठा दी।
”तुम लोगों ने सवाल उठाए, संदेह किए, गलत को खारिज किया। हर गलत को – व्यवस्था, समाज, व्यक्ति, सम्बन्ध, संस्कार। सिर्फ खारिज। उग्र नकार के साथ लेकिन साथ-साथ कुछ नया रचनात्मक तो गढ़ा ही नहीं। अपने दायरे तंग करता चले आदमी तो एक दिन अपने लिए भी जगह नहीं पाता। तुमने मातृत्व, पत्नीत्व, गृहिणीत्व की छवियों में खंड-खंड होने का विरोध करते हुए साबुत मनुष्य बनी रहना चाहा। बहुत ठीक। लेकिन अपने सहयोगी पुरुष – अखंड मनुष्य – से परहेज क्यों किया बेटा? दाम्पत्य और गृहस्थी – तुम दोनों का सपना है तो संयुक्त होकर साझी आंख से इस सपने को क्यों नहीं देखते? मिल कर चार हाथों से उस सपने को साकार क्यों नहीं करते तुम दोनों? नई पीढ़ी के साथ दोस्ती क्यों नहीं? अलग-अलग पालों में बंटने से प्रतिद्वंद्विता बढ़ती है, मिठास नहीं। तुम्हें साझी दुनिया बनना है क्योंकि दायित्व साझे हैं; प्रकृति और सृष्टि पर अधिकार साझे हैं।”

”और दादी अम्मा! जिंदगी हम सबकी साझी प्रयोगशाला भी तो है न।” बिट्टी लौट आई थी। उसने मेरे गले में बाहें डाल दीं, ”बात करने में परले सिरे की कंजूस मेरी मां। सारा दिन जाने किस अबूझ किताबी दुनिया में गुम। लेकिन फिर भी मैंने उनसे सीख ही लिया स्पेस और उसके सदुपयोग का विवेक।” बिट्टी ने मेरी आंखों में सीधे झांका, ”तुम परंपरा और व्यवस्था को जस का तस स्वीकारने की बजाय उसे जांचती रहीं हमेशा! लेकिन संदेह से भर कर हर चीज को परे ठेलते हुए। है न? ” उसने मुझे तोला। मैंने आंखें झुका लीं।
” और मैं . . . उछाह में बौरा कर हर चीज को गले लगाती रही। सही-गलत, सब कुछ चखा, पचाया और फिर जो रुचा, उसे अपना बना लिया। सो सिम्पल!”

न, सिंपल नहीं। यह बिट्टी के किसी जटिल निर्णय की भूमिका है। मैं उसकी आदत जानती हूं। ”कुछ कहना है बेटा?”
वह मुस्करा दी, शर्म से नहाई मुस्कान, ”जैसे ही विनय विदेश से लौटेगा, हम लोग शादी कर लेंगे।”
”अरे!” ब्याह से दूर भागने वाली बिट्टी और ब्याह . . .
”नहीं मां, ब्याह-परिवार किसी से भी इंकार नहीं हमें। इंकार है सम्बन्धों की ऊबड़खाबड़ जमीन पर खड़े होने से। दरअसल साथ-साथ रह कर एक-दूसरे के बरक्स हम अपने को तोल रहे थे, खोज रहे थे। मैंने विनय में पाया अपना सपना – स्त्राी सरीखा कोमल संवेदनशील मन। विनय ने मुझमें साकार देखी अपनी कामना – पुरुष सरीखी विवेकपूर्ण कर्मठता। हम शायद अपने ही अक्स को दूसरे में ढूंढते थे और दूसरे की ताकत को अर्जित कर अपनी कमी पूरने में लगे हुए थे।’
दादी ने आगे बढ़ कर बिट्टी को चूम लिया। मुझे लगा, वहां उपस्थित सभी स्त्रिायां अपनी-अपनी तेजस्विता के साथ बिट्टी में विलीन हो गई हैं।
बिट्टी की दबी मुस्कान फूट पड़ी, ”जानती हो मां, विनय मुझे क्यों पसंद था? क्योंकि उसे देख कर हरे-भरे खेतों में मुंह मारते सांड की याद नहीं आई कभी।”

मैं फिर अपराध बोध से ग्रस्त! बेटे को सांड बनाने के लिए क्या मैं अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ सकती हूं?
बिट्टी अपने अनुभव शेयर कर रही है मुझसे। ”मां, अंधेरा घिरते ही दफ्तर या सड़क के सूनेपन से आज भी घबरा जाती हूं मैं। सामने से कोई लड़का आता दिखे, तो सांप सूंघ जाता है। नहीं, जिसे तुम लोग इज्जत कहते हो, उसके खोने का भय नहीं, लेकिन कोई रौंद दे अकारण . . . थूक दे आपकी शख्सियत पर और आप निरीह कांपते रहें घृणा और बेबसी से भर कर .. . . यह अपमान सालता है मुझे।”
मैं भी क्या इस भय से मुक्त हो पाई हूं?
बिट्टी रोने में ज्यादा वक्त जाया नहीं करती। उसकी आवाज में ओज और चमक दोनों लौट आईं। ”हमने तय किया है मां, हम अपने बच्चों को लड़कियों की तरह गहरी निष्ठा और कन्सर्न के साथ पालेंगे और उन्हें लड़कों सा खुद्दार व्यक्तित्व देंगे। हमने खुद को लैंगिक जकड़न से मुक्त कर लिया है, इसलिए अपनी संतान को मनुष्य बना पाना हमारे लिए आसान हो जाएगा।” वह सपनों के समंदर में दूर तक निकल गई – ”मेरा बेटा अंधेरे का प्रेत बन कर कभी किसी को नहीं डराएगा। पैतृक सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा मांगने वाली बहन को तिरस्कार की नजर से नहीं देखेगा। मानव मुक्ति के लिए नारीवाद नाम से लड़ी जाने वाली लड़ाई में बराबर की शिरकत करेगा वह। बल्कि इस लड़ाई को नया नाम देगा – ‘मानवीय अस्मिता की लड़ाई’।”
”मैं जानती हूं, तुम लोग ही मिलजुल कर रचोगे साझी दुनिया के सम्बन्धों की नई सैद्धांतिकी।”

बिट्टी ने असहमति में सिर हिला दिया। ”नहीं मां, सम्बन्ध रचे नहीं जाते, जिए जाते हैं – विश्वास और संवाद के साथ, अनायास भाव से।”
”और संस्कार दिए जाने चाहिएं बेहद सजग-सचेत ढंग से – मनुष्य बनने का संस्कार और उतने ही सजग-सचेत होकर पूर्वग्रहों से लड़ते वे संस्कार अपने भीतर उतार लिए जाने चाहिएं। तैराकी सीखने की तरह पहले पहल बेहद श्रमसाध्य प्रशिक्षण होगा यह, लेकिन फिर रिलैक्स करने का सरलतम उपाय भी।” मुझे अपनी चूक समझ में आने लगी थी।
रोज-रोज अलक्षित सी टूट-फूट के साथ घर, परिवार और समाज में जो जुड़ रहा है धीरे-धीरे, वह नयापन ही तो है। कुछ ग्राह्य! कुछ अग्राह्य! उदार संवेदनशील दृष्टि के साथ इसका चयन और अभिषेक करना क्या मेरा दायित्व नहीं?

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ISSN 2394-093X
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