दो पीढी तीन कवितायें

( शेफलिका  कुमार और अंजना वर्मा दो पीढियों से हैं – बेटी और मां , दोनो की कवितायें एक साथ पढें )

शेफलिका कुमार की कवितायें



डॉ०  जैसमीन अरोड़ा


वह दिल्ली जाकर
यामीन से
जैसमीन क्या बन गयी
कि उसके छोटे- से कस्ॿे में
भूचाल आ गया
किसी ने कभी
उसे बिना दुपट्टे के देख लिया
और यह भी देखा कि
वह कुरते के साथ
टाइट जींस पहनती है
कुछ जानने की जरुरत नहीं

सबको  पता है
कि ज्यादा पढने वाली
फ्री माडर्न  लड़कियों को
कैसे-कैसे एसएमएस आते हैं
अरे!
वे माँ-बाप का नाम रोशन नहीं करती
रौशन के साथ भाग जाती हैं
कहा था न ?
फोन मत दो उसे
बारहवीं के बाद ही शादी करा दो
मटन कवाब कम खिलाओ
अरे! हमारे जमाने में तो
सब्जी मर्दों के लिए होती थी
हम तो रोटी अचार के साथ खाती थी

डॉ जैसमीन अरोडा!
आज तुम एक बच्चे की ‘मॉम’ हो
तुम कितने बच्चों को
अपने नरम हाथों से
इस दुनिया में लाती हो
पर याद है तुम्हें यासमीन ?
तुम्हारा वह छोटा कसबा
जो ऊंघता रहता था दिन में भी
उसमें जब भी तुम निकलती थी
दम-ख़म के सथ
होता था तुम्हारे नाम का तमाशा

शेफलिका कुमार 

भूल


कभी -कभी
कुछ नदियों को बांधकर
तुम यह समझने की भूल करते हो
कि एक दिन
सारी नदियां बंध जायेगी
और तुम्हारे इशारों पर बहेंगी
सिर्फ तुम्हारे इशारों पर

कभी बच्चे को देखा हैं?
बोतल में धुप को कैद करने की
कोशिश करते  हुए ?
धूप की किरणें जन्म लेती हैं
सिर्फ फैलने के लिए
तुम महसूस करो या नहीं
वे बिना रुके फ़ैल जाती हैं

हर वह चीज
जो तुम्हें लुभाती हैं
जिसकी खूबसूरती और ताकत के
कायल हो तुम
उसे मुट्ठी में दबाकर रखने की
कोशिश करना
फितरत है तुम्हारी

यद इसलिए रात के अँधेरे में
ये भेड़िये निकल आये हैं
अपने निगाहें पंजो और दांतों से
नोच नोचकर
हमें रोकने की कोशिश कर रहें हैं
पर वे दिन की सच्चाई में
गीदड़ों की तरह दम दबाकर
दांत दिखाते रहेंगे
हमारे कदम नहीं रुकेंगे
हम फैलते रहेंगी
धूप की किरणों की तरह

अंजना वर्मा की कविता 

अंजना वर्मा





एक साजिश हो रही है

अब वह अड़तीस पूरे करेगी
चलते -फिरते
दिमाग में एक फिल्म की तरह
वह अपनी ही काया देखने लगती है
देखती रहती है
यह कौन है कोट औए पैंट में?
हाथों में लैप टॉप लिये ?
अंकिता नाम है इसका -अंकिता मैडम
हठात कोई बात नहीं कर सकता मैडम से
चेहरे पर बहुराष्टृीय  कंपनी की छाप
बता देती है कि कमी किस बात की
पद, अपार्टमेन्ट, गाडी,बैंक बैलंस
सब कुछ तो है?

रोयें फुलाये चिड़िया- सी फूल उठती है वह
लेकिन  तुरत ही
अपने दिवास्वपन  में देखती है वह अपने जाल
जो परिपक्व  दीये – से रूखे हो गये हैं
बचपन से पिता कहते थे
“यह मेरी बेटी नहीं बेटा है”
माँ तो कहने ही लगी
“मेरी राजा बेटा ”
वह बन भी गयी बेटी से बेटा
और बन गयी राजा
किसी की रानी नहीं बन पाई अब तक
पहले जो संबोधन
उसे पंख दे देता था उडने के लिए
शहतीरों का दर्द दे जाता है
वह टूट-पिसकर धूल मिट्टी बन जाती है
अखबार के पन्नों में “वैवाहिक” देखते ही
वह चीखना चाहती है
“अरे! किसी को याद भी है
कि मैं बेटी हूँ?”

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