पुंसवादी आलोचना के खतरे और महादेवी वर्मा

सुधा सिंह

आलोचक सुधा सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं.  ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ , स्त्री अस्मिता साहित्य और विचारधारा, आदि कई किताबें (अपनी और संपादित) .प्रकाशित संपर्क : singhsudha.singh66@gmail.com9

( इस आलेख में सुधा सिंह महादेवी वर्मा के बहाने हिन्दी साहित्य में ‘ मर्दवादी आलोचना’ की पड़ताल कर रही  हैं , हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक नामवर सिंह की आलोचना में ‘ मर्दवादी स्त्रीदृष्टि’ की पड़ताल . इस आलेख में स्त्रीवादी आलोचना के बिंदु भी स्पष्ट होते हैं ) 


महादेवी पर पिछले चार-पाँच वर्षों में हिन्दी में नए सिरे से लिखने और पढ़ने की कोशिशें हो रही हैं। छायावाद के अंतर्गत विवेचना की जो नई संभावनाएं बन रही हैं वे सबसे ज्यादा महादेवी के लेखन के संदर्भ में बन रही हैं। प्रत्येक सामाजिक विमर्श अपना दबाव पैदा करता है कि पुराने या नए साहित्यिक पाठ को उसके आलोक में पढ़ा जाए और विमर्श के अनुकूल पाठ की तलाश की जाए।

 हिंदी में नब्बे के दशक के बाद के स्त्रीवादी विमर्श ने यह स्थिति पैदा की कि पाठ को खासकर स्त्री-पाठ को स्त्रीवाद के संदर्भ में रखकर देखा जाए और यह तय हो कि यह स्त्रीपाठ है या नहीं। यह एक गंभीर जरूरत थी क्योंकि परंपरित हिंदी आलोचना साहित्य को सिर्फ और सिर्फ साहित्य (वह भी हिंदी साहित्य) की हद में ही रखकर देखने की वकालत करती रही है। यह सब होता है साहित्य में समग्रता के नाम पर। सबसे ज्यादा परेशानी उन्हें साहित्य के बँटवारे को लेकर है कि साहित्य में स्त्री और पुरुष लेखन जैसा कोई बँटवारा क्यों हो? साहित्य तो साहित्य है। और जब साहित्य कह या लिख रहे होते हैं तो केवल हिंदी साहित्य ही उनकी चिंता के केन्द्र में होता है! साहित्य के बँटवारे की यह चिंता हिंदी के मठाधीशों को केवल अस्मितामूलक पाठों के संदर्भ में ही जोरों से सताती है। बँटवारे के अन्य सभी आधारों को वे बड़ी सहजता से स्वीकार कर लेते हैं पर यहाँ उनका विरोध देखते बनता है। देश-कालगत, भाषागत, क्षेत्रगत, बोली के आधार पर, विभिन्न राजनीतिक परिवर्तनों के आधार पर, सामाजिक आंदोलनों के आधार पर साहित्य का बँटवारा वे बहुत पहले बिना किसी ना-नुकच के स्वीकार कर चुके हैं। लेकिन स्त्री-पाठ का स्वीकार मानो उनकी साहित्यिक मर्दवादिता को चुनौती लगता है। कहीं-न-कहीं यह भावना भी काम कर रही होती है कि स्त्री-पाठ का स्वीकार, साहित्य में जेंडर का स्वीकार है। इससे वे डरे हुए हैं। अन्य अस्मितामूलक विमर्श जहाँ अस्मिता को केन्द्र में करके अपनी शर्तें सामाजिक-राजनीतिक-संवैधानिक कारणों से मनवा चुके हैं, वहीं स्त्री के संदर्भ में सत्ता-विमर्श के इन सभी केन्द्रों के साथ-साथ साहित्य में भी मामले को जब-तब संशयमूलक बनाने की कोशिशें की जाती हैं।

उनके अनुसार (हिंदी) साहित्य में स्त्री-लेखन जैसी कोई चीज नहीं होती। यह बड़ा सपाट वक्तव्य है और पिछले एक दशक की हिंदी-आलोचना को देखें तो पाएंगे कि साहित्य में स्त्री-लेखन जैसी चीज कितनी विभाजनकारी है और यह कितनी व्यर्थ की कोटि है- इस विषय पर खूब लिखा गया है। पराकाष्ठा वहाँ दिखाई देती है जहाँ कई स्त्री-आलोचक और लेखिकाएं इस जमात में शामिल हो जाती हैं और वैसी ही सपाटबयानी करती हैं कि स्त्री-लेखन जैसी चीज को नहीं मानतीं, वे स्त्रीवादी नहीं हैं और साहित्य में यह कोटि विभाजनकारी है!
इन लोगों की मुश्किल यहाँ है कि जैसे ही साहित्य में स्त्री-लेखन को स्वीकार करेंगे, पुरुष-लेखन की बात आएगी, यह इसका विपरीतार्थक है। विपरीतार्थकों में ही दुनिया को समझने की दृष्टि तैयार की गई है। यह पूछा ही जाएगा कि क्या पुरुष लेखन जैसी कोई चीज होती है? अगर हाँ, तो किन विशेषताओं के आधार पर उन्हें चिह्नांकित करेंगे? और सच मानिए, आश्चर्य होगा यदि अब तक के हिंदी साहित्य के मुख्यधारा के लेखन से इतर कोई अन्य विशेषताएं गिनवा पाएँ! तो ख़तरा स्त्री-लेखन जैसी कोटि के स्वीकार किए जाने से नहीं पैदा हो रहा बल्कि इसकी रौशनी में उजागर हो जानेवाली पुंस-मानसिकता वाले लेखन और आलोचना से पैदा हो रहा है!
इन आलोचकों से पूछा जाना चाहिए कि रचना, रचना है, मूल्यांकन का आधार रचना ही होनी चाहिए। इसे

महादेवी वर्मा

(कलावादियों और रूपवादियों को छोड़कर) जब खारिज करते हैं और रचना को उसके सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों में खोलते हैं तो क्या यह नहीं देखा जाना चाहिए कि रचना कौन लिख रहा है? किन उद्देश्यों से लिख रहा है? उसका सामाजिक परिवेश क्या है? स्त्री अगर रचना करती है और रचनात्मकता के उन्हीं टूल्स का इस्तेमाल करती है जो पुंसवादी लेखन के टूल्स रहे हैं तो इसका अर्थ क्या हो सकता है? जो तैयार पाठ है, उसे केवल संदर्भ बदलकर स्त्री के कोण से पढ़ना शुरु करें तो क्या अर्थ होगा? यह ठीक है कि लेखक और रचना की अवस्थिति साहित्यिक-ऐतिहासिक संदर्भों में होती है लेकिन उसकी अपनी विशिष्टताओं को खारिज करके या चालाकी से समाहित करके या गौण बनाकर नहीं।

महादेवी के साथ ये आलोचक जो वर्षों की कुंभकर्णी नींद त्यागकर इस विषय पर और पल्ला झाड़ने की गुंजाइश न देखते हुए, जागे हैं, कुछ ऐसा ही सलूक कर रहे हैं। इसका एक नमूना है- 7-8 मई 2007 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में दिया गया हिन्दी के शीर्ष आलोचक नामवर सिंह का वक्तव्य।
नामवर जी अपने वक्तव्य का आरंभ ही इस बात से करते हैं कि महादेवी की प्रसिद्धि और इतिहास में उनकी अवस्थिति का आधार ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ पुस्तक नहीं हैं। वे एक चालाक सवाल उछालते हैं, “कल्पना कीजिए कि उन्होंने केवल ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ पुस्तक ही लिखी होती; नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा, अग्निरेखा, सप्तवर्णा जैसे ग्रंथ न लिखे होते, स्मृति की रेखाएँ, अतीत के चलचित्र न लिखी होती तो हिन्दी साहित्य के इतिहास में अथवा भारतीय साहित्य के इतिहास में उनका स्थान क्या होता, कितना होता? पाद टिप्पणी के रूप में होता या अनुक्रम में कहीं होता या पूरा का पूरा अध्याय होता। सोचिए। महादेवी को केवल स्त्री के रूप में निःशेष करना क्या ठीक है? सिर्फ इसलिए कि उन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की और इसलिए कि उन्होंने महिला शिक्षा में काम किया”।[i]

नामवरजी, सही सवाल उठाने और सही नाम से पुकारने की वकालत करते हैं। हिंदी आलोचना में अन्य क्षेत्रों में उन्होंने यह किया भी है। लेकिन यहाँ वे अपनी पहले से स्थिर धारणा को पुष्ट करने के लिए केवल तर्क जुटा रहे हैं। इस सवाल को जरा पलटकर पूछिए और वक्तव्य के छपे हुए अंशों को पढ़ते हुए आगे बढ़िए, आपको हिंदी के इस मूर्धन्य आलोचक की स्थिर और अचल आलोचना-दृष्टि के दर्शन होंगे। जैसे, “कल्पना कीजिए कि महादेवी ने ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ नहीं लिखी है; नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा, अग्निरेखा, सप्तवर्णा जैसे ग्रंथ ही लिखे हैं, स्मृति की रेखाएँ और अतीत के चलचित्र ही लिखा है तो हिंदी साहित्य के इतिहास में या भारतीय साहित्य के इतिहास में उनको क्या स्थान प्राप्त है, कितना है? पाद टिप्पणी के रूप में है या अनुक्रम में कहीं है या पूरा का पूरा अध्याय है? सोचिए”। अब यहाँ से इस प्रश्न को खोलिए। यह उल्टी कवायद है, पर करिए। तभी आप नामवर जी से भी यह पूछ पाएंगे कि उन्होंने अब तक छायावाद पर लिखी अपनी दो रचनाओं – ‘छायावाद’ और ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ’ में कितनी जगह महादेवी को दी है? अलग से अध्याय दिया है, विवेचना में केन्द्रित करके बात की है? पाद-टिप्पणी या अनुक्रम में जगह दी है? किसी अन्य रचनाकार को ध्यान में रखकर मुद्दा निर्मित  करके बात करते हुए आनुषंगिक रूप से महादेवी का जिक्र ले आए हैं या ग़ाह-ब-ग़ाह उनकी भी पंक्तियाँ संदर्भ से काटकर पेश कर दी है, अधिकांश जगहों पर बिना नाम तक लिए? यह सवाल नामवरजी से अकेले नहीं समूची हिंदी की तथाकथित मुख्यधारा की आलोचना से पूछा जाना चाहिए। नामवरजी अकेले नहीं हैं, आलोचकों की पूरी जमात है जिनसे यह सवाल किया जाना चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि हिंदी आलोचना की इस ʻजग-मग करती आकाशगंगाʼ में बड़े और छुटभैय्ये सितारों में कितनी दूरी है और वैचारिक-सामाजिक संबंध कैसे हैं?

नामवर सिंह

यह आलोचना-दृष्टि पुराने पाठ को पुरानी पड़ चुकी दृष्टि के संदर्भ में ही पढ़ रही है। समय की विवशता है कि आधुनिक नवीनतम दृष्टि से, नए विचारों के संदर्भ में पुराने पाठ को भी खोला जाए। इस प्रसंग में पुराना भी, अगर उसमें क्षमता हो तो नवीन बनता है। उसकी प्रासंगिकता बनती है। इस मुद्रित वक्तव्य में नामवर जी ने कुछ ऐसा नहीं कहा जो  पहले नहीं कह चुके हों। बल्कि अद्भुत विसंगति है कि जगह-जगह ऐसे वाक्य हैं जिनमें स्त्री-आंदोलन, विमर्श और रचना-कर्म को हेय बताने की कोशिश है!  एक शिष्ट आलोचक की विषय के प्रति घृणा बड़े ही प्रकट तरीक़े से व्यक्त हुई है। वे नामवरजी जो अपने व्यवहार में हर एक से सम्मानपूर्वक बात करने के लिए जाने जाते हैं, ‘स्त्री’, ‘स्त्री-पाठ’, ‘स्त्री-संदर्भ’ और ‘विमर्श’ और इन मूल्यों को जीवन में उतारनेवाली प्रबुद्ध स्त्रियों से कितनी चिढ़ रखते हैं कि भाषा की शालीनता विस्मृत कर जाते हैं! एक-आध नमूना देखिए- “फिर भी मैं कहूँगा कि हमलोग कहीं उनको (महादेवी को) सिमोन द बउवार न बना दें, और आज के वातावरण में यह खतरा है।” सिमोन द बुवा का नाम कोई गाली नहीं है, इसे इस रूप में इस्तेमाल किया जाना भाषा में अशालीनता है। आगे देखिए- “उनके (महादेवी के) नाम पर कोई स्त्रीवादी आंदोलन चलाना चाहे तो वो किसी और के नाम पर चला ले, इन्दिरा गाँधी के नाम पर चला ले, मायावती के नाम पर चला ले, लेकिन कम-से-कम बख्शिए महादेवी को।”[ii]

 महादेवी को परंपरा में रखकर देखिए पर उनकी विशिष्टता मत भूलिए।  वह परंपरा कौन-सी है कि महादेवी की तमाम प्रशंसा के बावजूद भी जब स्थान निर्धारण का सवाल आता है तो पहले प्रसाद, निराला ही नज़र आते हैं, इस पर जरूर विचार किया जाना चाहिए।महादेवी के स्त्री संबंधी चिंतन में आधुनिक स्त्री की चेतना के साथ परंपरित स्त्री की चेतना का जो अंतर्द्वंद्व है, उसे देखा जाना चाहिए। भारतेन्दु और उनके युग के लेखकों के अंतर्द्वंद्वों की व्याख्या कर उन्हें आधुनिक युग का निर्माता मानने में संकोच नहीं करते पर महादेवी के  लेखन में पाश्चात्य स्त्री के साथ भारतीय स्त्री की तुलना और भारतीय स्त्री की भिन्न स्थिति के बयान से तत्काल महादेवी की स्त्री संबंधी मूलगामी चिंता को केवल राष्ट्रवाद और छायावाद के दायरे में क़ैद करना और यह कहना कि वे स्त्रीवादी चिंतक नहीं थीं; उनका स्त्रीवाद से लेना-देना नहीं था; उन्हें स्त्रीवादी मत बनाइए- इसे कूढ़मगज़ी ही कहेंगे।

नामवरजी महादेवी के संदर्भ में भाषा और चेतना के स्तर पर जिस तरह की आलोचकीय भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं वह वही सांस्कारिक भाषा है जिसका प्रयोग समाज में स्त्री के संदर्भों में होता है। महादेवी  स्त्री की अस्मिता के लिए लड़ीं, अकेलेपन को प्यार किया, इस बात को सिद्ध किया कि स्त्री की दुनिया बड़ी होती है, उसके साथ पूरा संसार चलता है। बड़ी से बड़ी अस्मिता को स्त्री के सत्याग्रह और हठीले प्राण के आगे अपना अहंकार त्यागना होता है, उसके कंपनों का भिखारी बनकर समता की धरातल पर उतरना होता है। स्त्री का संसार महादेवी ने इतना बड़ा बनाया कि ‘मानवी’ स्त्री के लिए प्रचलित सारी व्याख्याएं अपर्याप्त हो गईं। ऐसी उदार, विस्तृत, भावुक लेकिन दृढ़, निर्माण उन्मत्त, स्त्री-छवि महादेवी के यहाँ है जो किसी को भी उदात्तता के दर्शन करा सकती है। और नामवर जी के लिए स्त्री-छवि कैसी है, स्त्री के संदर्भ से संसार को देखने को वे कैसा मानते हैं- यह उनके ही शब्दों में देखिए। वे कहते हैं, “महादेवी को केवल स्त्री के रूप में निःशेष करना क्या ठीक है?”[iii] इसमें दो तरह की अंतर्ध्वनियाँ हैं- एक कि स्त्री के रूप में देखना दुनिया को छोटा करके देखना है और दूसरी कि स्त्रीवादी दृष्टि से केवल स्त्री ही दिखाई देती है। या यह दृष्टि केवल स्त्री से जुड़ी समस्याओं को ही देखती है, उन्हें संसार नहीं दिखाई देता!

दोनों ही पूर्वाग्रह हैं और ग़लत हैं। स्त्री के रूप में देखना न तो दुनिया को छोटा करके देखना है न ही स्त्रीवादी दृष्टि से केवल स्त्री ही दिखाई देती है! यह दुनिया को देखने की एक मुकम्मल दृष्टि है जिसमें स्त्री भी शामिल है। आप सामाजिक विकास की किसी भी अवस्था में ऐसी किसी दुनिया की कल्पना नहीं कर सकते जिसमें स्त्री शामिल न हो! यह हो सकता है कि कभी कोई पेशा विकासक्रम में लुप्त हो जाए, वर्ग नए उभरें या लुप्त हो जाएं, सामाजिक संरचना में आज के वंचित कल ताक़तवर हों पर स्त्री के बग़ैर कोई समाज बना रहे इसकी कल्पना भी मुश्किल है। स्त्री-पुरुष दोनों इस सामाजिक संरचना के अहम् हिस्से हैं। यह कैसे संभव है कि स्त्री के बिना कलाओं और साहित्य का सृजन होता रहे, भाषा की संरचनाएं विकसित की जाती रहें, समाजिक विभेद की स्थितियों को और मजबूती प्रदान की जाती रहे और उन्हें देखने-बताने पर उसे स्त्री की तरह देखना कहा जाए, स्त्री में निःशेष कर देना कहा जाए! हमारे आलोचक आलोचना में स्त्री की ʻविराट्ʼ छवि, ʻदेवि, माँ, सहचरि, प्राणʼ को महिमामंडित कर सकते हैं लेकिन निजी-व्यवहार और सोच में कहीं फाँक रह जाता है जो स्त्री होने मात्र को हीन मानकर, संकुचित मानकर व्याख्या करता है। नामवरजी के लिए स्त्री का अर्थ है संकुचन जो महादेवी के यहाँ चित्रित स्त्री की छवि से मेल नहीं खाता। वहाँ स्त्री विस्तार है, संकुचन नहीं।

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

नामवरजी के इस भोले प्रश्न पर सिर धुनने का ही मन करेगा कि “महादेवी नारी थीं, लेकिन इसमें उनकी क्या विशेषता थी?” नहीं, कोई विशेषता नहीं थी और अगर “इस विशिष्टता से उनका संपूर्ण काव्य एक तरह से प्रभावित हुआ है”[iv] तो बस इतना ही कि उन्होंने बात कहने के लिए रहस्यवाद की आड़ ली है! यह रहस्यवाद क्या है? जिसका इस्तेमाल रामचंद्र शुक्ल ने सामान्य संदर्भ में और नामवर जी ने स्त्री के विशेष संदर्भ में किया है। यह दरअसल साहित्य में पर्दाप्रथा है जिसका ये लोग महिमामंडन कर रहे हैं कि ये रहस्य की ओट में स्त्री-सुलभ सहज लज्जा है! वास्तविकता यह है कि महादेवी ने स्त्री की बात कहने के लिए किसी आड़ या रहस्य का सहारा लिया ही नहीं है। कविता में विशिष्ट शैली में और विचार तथा संस्मरण साहित्य में स्पष्ट पक्ष रखते हुए स्त्री और उससे जुड़े समाज की आलोचना की है।

रहस्यवाद की बात जिस समय शुक्ल जी ने महादेवी के संदर्भ में उठाई तब उनकी बहुत कम रचनाएं खासकर कविताएं ही ज्यादा प्रकाशित थीं। लेकिन जिस समय नामवरजी कह रहे हैं तो उनके सामने महादेवी की सारी रचनाएं प्रकाशित हैं। महादेवी यथार्थवादी लेखिका हैं, वे लेखन में रहस्यवादी उपकरणों का इस्तेमाल करती हैं लेकिन उनकी अंतर्वस्तु यथार्थवादी है। उनके भाषिक प्रयोग उनकी काव्य-शैली का हिस्सा हैं। वह उनकी अंतर्वस्तु का हिस्सा नहीं है। महादेवी ने स्वयं रहस्यवाद को काव्य विशेषकर गीत की शैली के रूप में ही व्याख्यायित किया है। अपने विचारात्मक निबंध ʻगीति-काव्यʼ में वे लिखती हैं, “छायावाद के गीतों का यथार्थ कभी भाव की छाया में चलता है और कभी दर्शनात्मक आत्मबोध की।

भाव की छाया मनुष्य और प्रकृति दोनों की यथार्थ रेखाओं को एक रहस्यमयता दे देती है”।[v]
जब आलोचना के पास नए संदर्भों की आलोचकीय भाषा न हो तो आलोचना कैसे लड़खड़ाती है, इसका एक   उदाहरण देखिए। “जिस कविता को आप पिघली हुई मोम समझते हैं, उस कविता से प्रकट होता है कि वे कितनी अभिमानिनी थीं? कितनी हठीली थीं? जीने की कितनी चाह थी उनमें? वे लिखती हैं-
कंटकों की सेज जिसकी आँसुओं का ताज
        सुभग हँस उठ खुश प्रफुल्ल गुलाब ही सा
कंटकों की सेज के साथ यह प्रफुल्ल गुलाब जैसी चीज देखना स्त्रीत्व का उदाहरण है। महादेवी के स्त्रीत्व का सबसे बड़ा उदाहरण है उनकी अधिकांश कविताओं में मिलनेवाली श्रृंगारप्रियता। स्त्री सचमुच यदि स्त्री है तो श्रृंगारप्रियता होगी, श्रृंगार रस नहीं कह रहा हूँ, साज-श्रृंगार के अर्थ में कह रहा हूँ”।[vi]

महादेवी अभिमानिनी भी थीं, हठीली भी थीं, जीने की चाह भी थी उनमें; मरना थोड़े ही चाहती थीं! गीतात्मक भावुकता के अतिरेकी क्षणों में भी कहीं उन्होंने सांसारिक कष्टों से ऊबकर आत्महत्या की इच्छा प्रकट नहीं की है! स्त्री तो छोडिए, कौन-सा सामान्य इंद्रिय-बोध वाला मनुष्य अधम होगा जो अभिमानी, हठीला और जीने की चाह से भरा न होगा! नामवरजी महादेवी के स्त्रीत्व के उदाहरण के तौर पर जिन गुणों को रख रहे हैं वे वही परंपरित गुण हैं जिसकी मांग हिंदी भाषी समाज की मध्यवर्गीय आधुनिक परंपरागत मर्द मानसिकता करती रही है। जिसकी एक छवि ʻगोदानʼ में मेहता के माध्यम से प्रेमचंद पेश करते हैं। जिसमें वह स्त्री को क्षमा, त्याग, दया, करुणा, सहनशीलता की देवी मानता है और अपने लिए वैसी ही स्त्री पाना चाहता है।
सहनशीलता और श्रृंगारप्रियता कोई स्त्री के निजी गुण नहीं होते। एकतरफा सहनशीलता कोई गुण नहीं हो सकती। यह तो जीने के लिए परिस्थितियों से समझौता है, क्या नामवरजी इसे नहीं जानते?  निन्यानबे फीसद स्त्रियाँ सहनशीलता के गुण का प्रदर्शन इसलिए करती हैं कि वे जीना चाहती हैं! सहनशीलता के कई रूप होते हैं। केवल गोल-मोल शब्द ʻदुखʼ के प्रति ही नहीं, कायिक-वाचिक हर तरह की हिंसा के प्रति सहनशीलता, विपरीत सभा-समूह में बने रहने के लिए आचारजनित सहनशीलता, अस्तित्व को येन-केन-प्रकारेण बचाए रखने के लिए अतिरिक्त श्रमजनित सहनशीलता – न जाने इस तरह सहनशीलता के कितने प्रकार होंगे जिनका व्यवहार स्त्रियां रोजाना करती हैं। यहाँ तक कि समाज की संवेदनाओं और संवैधानिक स्थितियों के बदलने की प्रतीक्षा में अपनी सहनशीलता को रचनात्मक बनाए रखने की प्रक्रिया भी एक भिन्न किस्म की हठी संवेदनशीलता की मांग करती है! स्त्री के इन गुणों की प्रशंसा, बिना समुचित संदर्भ में रखे करना, इस सहनशीलता की सही व्याख्या नहीं हो सकती। समुचित संदर्भ स्त्री का संदर्भ ही होगा, यह कहने में परहेज नहीं है।

 “स्त्री सचमुच यदि स्त्री है तो श्रृंगारप्रियता होगी, श्रृंगार रस नहीं कह रहा हूँ, साज-श्रृंगार के अर्थ में कह रहा हूँ”। और “इस दुनिया में फूलों से, रंगों से भरे इस जगत में इसके बिना इस सौन्दर्य के बिना वे सूखी काठ कठोरी, किसी आर्यसमाजी महिला के समान दिखने लगेंगी। लोगों ने उनकी (महादेवी) की ऐसी छवि बनाई है जैसे वे किसी आर्यसमाजी अनाथालय की महिला हों या गाँधी आश्रम में सूत कातने वाली हों”।[vii] यहाँ फिर आलोचकीय दृष्टि का झोल नज़र आता है। नामवर जी यह तो ठीक कह रहे हैं कि छवि बनाई जाती है लेकिन वह यह भूल रहे हैं कि जिस साज-श्रृंगार को स्त्री से जोड़ रहे हैं और सजी हुई स्त्री की बात कर रहे हैं, वह भी एक बनाई हुई छवि है, सहज नहीं है! इसमें स्त्री को सदियों क़ैद रखा गया है। स्त्री माने सुंदरता, स्त्री माने कोमलता, स्त्री माने कलात्मकता, स्त्री माने कमनीयता, स्त्री माने रमणीयता – यह सारी धारणाएं क्या समाज के द्वारा स्त्रीत्व की पैमाइश के रूप में गढ़ी हुईं नहीं हैं? ʻसुंदरʼ (कमनीय) स्त्री जितनी आकर्षक लग सकती है, सुंदर (कमनीय) पुरुष भी उतना ही आकर्षक लग सकता है। यह दैहिक सौंदर्य है जिसकी नामवर सिंह स्त्री के संदर्भ में चर्चा कर रहे हैं और स्त्रीत्व का गुण बता रहे हैं। सूत कातने वाली, सादा साड़ी पहननेवाली, सादगी से रहनेवाली स्त्री असुंदर हो जाती है, ऐसा मान लें तो कहना पड़ेगा कि हमारी आलोचना, आलोचकीय भाषा और चेतना के स्तर को एक और प्रेमचंद की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी जो यह कह सके कि खेत की मेंड़ पर पसीना बहानेवाली स्त्री भी सुंदर है!

ध्यान रखना चाहिए कि नामवर जी यह सब महादेवी की रचना में आए किसी पात्र के लिए नहीं बल्कि स्वयं महादेवी के लिए, एक पढ़ी-लिखी, प्रबुद्ध, संवेदनशील और व्यावहारिक स्त्री के लिए कह रहे हैं!  आलोचकीय व्याख्या के इस पिछड़ेपन का संबंध पिछड़ी सामाजिक चेतना से है, जो आलोचक की दुनिया है। जो भाषा में सुंदर और भदेस सौंदर्य की खोज स्त्री के संदर्भ में पिछड़ी सामाजिक चेतना के स्तर से कर रहा है। जो यह मानकर चलता है कि सुंदरता स्त्री के स्त्रीत्व को तय करती है और जिसका संबंध साज-श्रृंगार से है! इसके पीछे कहीं अकेली बौद्धिक स्त्री की रूढ़ सामाजिक छवि भी काम कर रही है। जो यह मानती है कि अकेली, पति से अलग रहने वाली, मातृत्व से वंचित, स्व-निर्भर बौद्धिक स्त्री के व्यक्तित्व से सारी कोमलताएं, सारा आकर्षण खत्म हो जाता है। वह खड़ूस और शुष्क क़िस्म की महिला बन जाती है! हमारा आलोचक बताना चाहता है कि महादेवी शुष्क और खड़ूस नहीं थीं। उन्हें रंगों से प्यार था, वे रंगीली थीं!  क्या इस तरह से महादेवी के व्यक्तित्व और उनकी कविता में आए रंगों की व्याख्या हो सकती है? महादेवी स्वयं सौंदर्य के तमाम बाहरी उपकरणों का निषेध एक नहीं अनेक जगह करती हैं। झूठ और दिखावे से उन्हें नफरत है। सौंदर्य- प्रज्ञा, व्यवहार, विचार के स्तर से तय होगा न कि साज-सिंगार से? स्त्री साज-श्रृंगार के बिना हो ही नहीं सकती, इस तरह का वक्तव्य सामाजिक फैक्टरी में स्त्री के निर्माण की विशेष अर्हताओं को तय करता है! साथ ही यह स्त्री-पाठ को पढ़ने में हिंदी की परंपरित आलोचना दृष्टि की दरिद्रता को भी खोलता है। जरा महादेवी के शब्दों को भी ध्यान में रखें, जो वह पश्चिम की आर्थिक रूप से निर्भर लेकिन प्रसाधन प्रिय स्त्री के लिए कह रही हैं- “स्त्री वहाँ आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र हो चुकी है, अतः सारे सामाजिक बंधनों पर उसका अपेक्षाकृत अधिक प्रभुत्व कहा जा सकता है। उसे पुरुष के मनोविनोद की वस्तु बने रहने की आवश्यकता नहीं है, अतः वह चाहे तो परंपरागत रमणीत्व को तिलांजलि देकर सुखी हो सकती है। परन्तु उसकी स्थिति क्या प्रमाणित कर सकेगी कि वह आदिम नारी की दुर्बलता[viii] से रहित है? संभवतः नहीं। श्रृंगार के इतने संख्यातीत उपकरण, रूप को स्थिर रखने के इतने कृत्रिम साधन, आकर्षित करने के उपहास-योग्य प्रयास आदि क्या इस विषय में कोई संदेह का स्थान रहने देते हैं? यदि पुरुष को उन्मत्त कर देनेवाले रूप की इच्छा नहीं मिटी, उसे बाँध रखनेवाले आकर्षण की खोज नहीं गई तो फिर नारीत्व की ही उपेक्षा क्यों की गई, यह कहना कठिन है”।[ix]
“….आज उसे अपने रूप, अपने शरीर और अपने आकर्षण का जितना ध्यान है, उसे देखते हुए कोई भी विचारशील, स्त्री को स्वतंत्र नहीं कह सकेगा”।[x]

महादेवी के लेखन में स्त्री-संबंधी चिंतन के दो छोर मिलते हैं। उन्होंने अपने चिंतन का विकास निजी और सामाजिक अनुभवों के आधार पर किया है। सामाजिक विकास का गंभीर अध्ययन इसमें शामिल है। सामाजिक परंपरा का विवेचन करना और परंपरा के भीतर स्त्री को रखकर देखना और उसकी दुर्दशा की व्याख्या करते हुए समाज की सत्ता-संरचानाओं को चुनौती देना, उनकी आँख में उँगली डालकर दिखाना कि देखो तुमने क्या किया है, महादेवी के स्त्री-चिंतन की विशेषता है। लेकिन इसका एक और पक्ष है जो दुर्बल है। वह है इन्हीं परंपराओं में स्त्री की मुक्ति की तलाश करना।

जयशंकर प्रसाद

महादेवी की स्त्री-संबंधी विवेचना का सार यह है कि स्त्री के पास जो है उसे खोकर अपनी हीन दशा से ऊपर उठने और समाज में सम्मान पाने की स्पर्द्धा में पुरुषों की तरह सारी प्रकृतिजनित कोमल भावों का त्याग कर अपने को असंवेदनशील और कठोर बनाना; स्त्री की मुक्ति का रास्ता नहीं हो सकता। पश्चिम की स्त्रियों ने शिक्षा आदि को पहले प्राप्त कर अपनी दीन दशा से मुक्ति के प्रयास में ऐसा किया है और प्रकृति से विकृति की ओर गई हैं। उनसे सीखना चाहिए। जो है उसे, जो नहीं है उसे पाने के लिए खो देना और पुनः खोए हुए को पाने की कोशिश करना; अपार ऊर्जा को नष्ट करनेवाला है।

जिसे हमारे आलोचक भारतीय स्त्रीवाद की परंपरा कह रहे हैं और पूरब-पश्चिम की श्रेष्ठ-हीन युग्मों में रखकर देखने की कोशिश कर रहे हैं उनसे यह पूछा ही जाना चाहिए कि महादेवी के स्त्री-संबंधी चिंतन में वे किन विशेषताओं को ढूँढ़कर उन्हें पश्चिम से अलग और श्रेष्ठ भारतीय परंपरा में बता रहे हैं? महादेवी की स्त्री-संबंधी चिंता से यह कहीं नहीं ध्वनित होता कि वे पिछड़ी हुई औरत को जो रमणी, परनिर्भर, साज-श्रृंगारवाली है, पसंद करती हैं! वे कोमल और श्रेष्ठ को जो स्त्री के पास पहले से है, बचा लेने की बात करती हैं। आज के समय में यह अकेले स्त्री का दायित्व हो सकता है, ऐसा भी महादेवी का मानना नहीं है। यह एक सामाजिक-राष्ट्रीय दायित्व है। यह समाज का दायित्व है कि वह स्त्री के कोमल और श्रेष्ठ का सम्मान करे; उसे नीचा न दिखाए; कमजोर और दुर्बल कहकर उसकी उपेक्षा न करे। अपनी समस्त कोमलता और श्रेष्ठता के साथ यदि स्त्री को बराबर सामाजिक भागीदारी और सम्मान मिलता है, उसके सार्वजनिक स्पेस को कम नहीं किया जाता; उसकी बुद्धि और मेधा पर पाबंदियाँ नहीं बिठाई जाती तो समाज की स्वस्थ उन्नति को कोई रोक नहीं सकता। महादेवी का जोर है कि प्रकृति ने स्त्री को विशिष्ट जैविक क्षमता दी है उसके कारण उसमें कुछ श्रेष्ठ मानवीय गुणों का तुलनात्मक तौर पर ज़्यादा स्वाभाविक विकास हुआ है। पुरुष की बराबरी और अपने को साबित करने की स्पर्द्धा में स्त्री को इन गुणों का त्याग नहीं कर देना चाहिए। इस संदर्भ में अपनी बात स्पष्ट करने के लिए वे बार-बार पश्चिम की स्त्रियों का उदाहरण देती हैं। पश्चिम की स्त्री-मुक्ति का संदर्भ उनके लिए गाली नहीं है ना ही महादेवी की यह समझ है कि भारतीय स्त्री की मुक्ति का दुनिया से विरला, कोई रास्ता होगा!

महादेवी के स्त्री-संबंधी चिंतन पर ग़ौर करें तो पाएंगे कि वैश्विक परिदृश्य में रखकर ही वे भारतीय स्त्री की मुक्ति की बात कर रही हैं। उनकी कविताओं से लेकर लेखों और स्मृतिचित्रों तक, स्त्री-मुक्ति का एक ही वितान बनता है। उनकी कविताओं के अंदर आए शब्दों को, भावों को, विचार-बिंदुओं को तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि उनके लेखों की विचार-सरणियों से परिचित न हों। महादेवी बार-बार स्त्री के उदात्त मानवीय गुणों को बनाए रखने पर बल दे रही हैं। लेकिन इसे स्त्री की हीनावस्था की एवज में बनाए रखने नहीं कह रहीं। भारतीय स्त्री से उनकी मांग है कि वह सामाजिक परिस्थितियों को समझे, अपनी हीन अवस्था से ऊपर आने के लिए संघर्ष करे, लेकिन संघर्ष को ही लक्ष्य न बना ले। दो बड़ी ही महत्वपूर्ण चीजों की माँग समस्त स्त्री जाति और विशेषकर भारतीय स्त्री से महादेवी करती हैं। पहली है, स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता की और दूसरी है, पुरुष की स्वार्थपरता के विस्मरण की! यह आह्वान उनका जागृत स्त्रियों से है जिन्हें अपनी अवस्था का ज्ञान नहीं है, उन स्त्रियों को वे इससे दूर रखती हैं। यह दोनों अवधारणाएं विश्व के स्त्रीवाद को भारतीय स्त्री-मनीषा की देन है। यह स्त्रीवाद की पश्चिमी अवधारणाओं से भिन्न अवधारणा है। स्त्री-चेतना को भी रूढ़ जकड़बंदियों से निकालने की जरूरत है। महादेवी ने यह काम अपने स्त्री-चिंतन के जरिए किया है।

नामवर जी महादेवी का मूल्यांकन करने के लिए लोक-जागरण, राष्ट्रीय जागरण से लेकर नवजागरण तक की परंपरा को टटोलते हैं। लोकजागरण की परंपरा में जैसे कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा हैं, उसी तरह छायावाद में प्रसाद, निराला, महादेवी, पंत हैं। सवाल है कि इस नवजागरण का कोई स्त्री-संदर्भ बनता है कि नहीं? स्त्री-लेखिका का स्त्री की परंपरा में रखकर मूल्यांकन होना चाहिए। लेकिन नामवर जी ऐसा नहीं करते। नामवरजी महादेवी के लेखन और विचारों का महत्व न समझते हों या जानबूझकर छिपा रहे हों ऐसा नहीं है, लेकिन परंपरा के मूल्यांकन की जो पद्धति चुनते हैं, उनमें महादेवी के लेखकीय सरोकार कमतर नज़र आते हैं, उनका विस्तार छोटा नज़र आता है।

नामवर जी महादेवी की परंपरा ‘हमारी पूरी परंपरा में’[xii] तलाश रहे हैं! सवाल है कि जिस परंपरा की बात कर रहे हैं, क्या वह समावेशी है? इस परंपरा के अंदर और बाहर रखे जाने के पैमाने क्या रहे हैं? क्या इसमें स्त्री सामान्य रूप से शामिल है, या अपवादस्वरूप कहीं कहीं नज़र आती है। समूचे हिंदी साहित्य में आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिककाल के आरंभिक डेढ़ सौ सालों में कितनी स्त्री रचनाकार ‘हमारी पूरी परंपरा में’ शामिल हैं? नामवर जी भी परंपरा के विवेचन के क्रम में भक्तिकाल के चार सौ साल बाद की यात्रा करके आधुनिक काल और छायावाद फिर महादेवी तक पहुँचे! जिस परंपरा में इतना अंतराल और झोल हो उस पर संदेह होता है। किसी रचनाकार का मूल्यांकन परंपरा में रखकर करना परंपरा की भी पड़ताल करना हो सकता है, इस पर सोचने की जरूरत है।
महादेवी को परंपरा में रखकर विश्लेषित करने के लिए नामवर जी सारे ऐसे संदर्भों का इस्तेमाल करते हैं जो महादेवी से सीधे नहीं जुड़ते। मूल चीज यह है कि महादेवी पितृसत्ता विरोधी दृष्टि से देखती हैं और नामवर जी के यहाँ यह शब्द पाद-टिप्पणी में भी नहीं आया है। महादेवी की या छायावाद के किसी भी रचनाकार की आलोचना के क्रम में वे पितृसत्ता का नाम तक नहीं लेते! दूसरी बात कि नामवर जी ने इस वक्तव्य में परंपरा की पड़ताल और महादेवी की उसमें अवस्थिति को देखने के लिए विवादित मुद्दों की तरफ देखा ही नहीं। वे छायावाद के फॉरमेट पर बात कर रहे हैं उसकी अंतर्वस्तु पर बात ही नहीं कर रहे। अंतर्वस्तु पर अगर विस्तृत चर्चा करते तो यह बताना पड़ता कि महादेवी को जब वे प्रगतिशील, अग्रसोची और क्रांतिकारी कह रहे हैं तो किन अर्थों में? कहाँ उनकी क्रांतिकारिता दिखाई देती है और क्यों?

नामवर जी महादेवी के विशिष्ट अवदान को रेखांकित करने की बात कहते हैं। उनकी प्रगतिशील विचारों को भी नोटिस लेते हैं, ‘जहाँ तक जीवनदृष्टि का सवाल है, जीवनदृष्टि में अपने विचारों में महादेवी प्रगतिशील थीं।….वे बहुत अग्रसोची थीं, क्रांतिकारी थीं। निराला से भी अधिक’।[xiii] लेकिन बिना यह स्पष्ट किए कि वे स्थल कौन से हैं, वह दृष्टि कौन-सी है जो महादेवी को इस चेतना से संपन्न बनाती है;  वे साहित्यिक परंपरा में श्रेष्ठता की कसौटी गढ़ने लगते हैं। महादेवी के बारे में मूल्यांकन के तमाम  सकारात्मक वाक्यों के बाद भी वे जब स्थान तय करने की बात आती है तो वे प्रसाद को पहला, निराला को दूसरा तथा महादेवी को तीसरा स्थान देते हैं! इसके लिए कई अजीब तर्क देते हैं। लेखन और उम्र का सह-संबंध, लेखकीय उम्र और भौतिक उम्र, परिमाणमूलक और गुणवत्तामूलक लेखन, प्रकाशन में सचेत चयन आदि की बात करते हैं। ये सब चित्र-विचित्र पैमाने वे रचते हैं सिर्फ अपने प्रिय लेखक प्रसाद, निराला को बड़ा बताने के लिए! सोचने की बात है कि आज का संदर्भ प्रसाद-निराला से बन रहा है या महादेवी से! महादेवी की सीमा और अंतर्विरोधों को देखने के साथ-साथ इन रचनाकारों की सीमाओं और अंतर्विरोधों को भी देखा जाना चाहिए।

1955 में लिखी गई पुस्तक ‘छायावाद’ के विभिन्न अध्यायों में महादेवी की आनुषंगिक चर्चा है। यहाँ तक कि ‘छायावाद’[xiv] में स्त्री और प्रेम के रूपायन पर लिखा गया पूरा का पूरा अध्याय महादेवी के यहाँ व्यक्त स्त्री और प्रेम के स्वरूप की चर्चा से रहित है। पूरे अध्याय में युगीन परिस्थितयों का जिक्र है, स्त्री की पहले से भिन्न स्थिति का जिक्र है, प्रेम के चित्रण के संदर्भ में प्रसाद, निराला और पंत का जिक्र है, लेकिन महादेवी कहीं नहीं हैं! यह चौंकानेवाली बात नहीं लगती कि जिस महादेवी ने प्रेम के संबंध को ही अपनी कविता का आधार बनाया हो, उसके विभिन्न भावों के चित्रण के सहारे स्त्री मन की कथा कही हो, स्त्री की तत्कालीन सामाजिक अवस्था का इतना प्रतीकात्मक और शानदार काव्य-चित्र खींचा हो और यदि किसी को संदेह हो तो स्पष्टता के लिए सन् 1931 से लेकर 1937 तक विभिन्न समय में ‘चांद’ के संपादकीय के रूप में लेख लिखा हो जो बाद में 1942 में ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ नाम से प्रकाशित हुए हों ; वह आलोचक की निगाह से स्त्री की अवस्था और प्रेम पर लिखते हुए ओझल रहती है! यह स्पष्टता से कहे  जाने की जरूरत है कि महादेवी के स्त्री-संबंधी लेखों का समय छायावाद का काल ही है, उससे बाहर नहीं। नामवर जी छायावाद के अंदर आए बदलाव को, स्त्री की स्थिति में परिवर्तन को भिन्न दृष्टि से देख रहे हैं और यह भी कि सिर्फ परिवर्तन को ही देख रहे हैं! जबकि महादेवी परिवर्तन और स्त्री की सामाजिक स्थिति की पड़ताल अपने लेखों में करती हैं और उसीके काव्यात्मक भाव और स्वरूप का चित्रण अपनी कविता में कर रही हैं। उनकी कविता में चित्रित प्रेम और स्त्री चरित्र के प्रसंग में आए बहुत से ‘क्यों’ का जवाब उनके लेखों में मिल जाएगा। जबकि नामवरजी पुंसवादी दृष्टि से स्त्री की सामाजिक हैसियत और काव्यात्मक चित्रण को देख रहे हैं। नामवरजी छायावाद में स्त्री की बदली हुई, पहले से ज्यादा मुक्त स्थिति को देख रहे हैं पर स्त्री को क्या उतना ही चाहिए था कि द्वेदी युगीन दयाभाव से आगे थोड़ी सी मेल-जोल की स्वतंत्रता मिल जाए? क्या इतने भर से किसी को उस समाज में स्त्री की दशा पर संतोष हो सकता था? छायावाद में स्त्री-पुरुष का स्वच्छंद मेल और चित्रित प्रेम के निजी और अनुभूतिपरक होने का कारण तो इस तर्क से ढूँढ़ा जा सकता है लेकिन इसके बाद क्या? क्या स्त्री बस इतने पर निःशेष हो जाती है? उसके आंतरिक और बाह्य द्वंन्द्व क्या है? सामाजिक असमान स्थितियों में क्या वह अपनी इतनी भर भूमिका से संतुष्ट है? प्रसाद, पंत, निराला की कविताओं में इन बातों का जवाब नहीं मिलेगा। इनका जवाब केवल महादेवी की कविता में है। महादेवी बहुत साफ कहती हैं, “समाज में व्यक्ति का सहयोग और विकास की दिशा में उसका उपयोग ही उसके अधिकार निश्चित करता रहता है और इस प्रकार, हमारे अधिकार, हमारी शक्ति और विवेक के सापेक्ष रहेंगे”।[xv]

स्त्री की शक्ति को जागृत करके परिस्थितियों में साम्य लाने वाली सफलता संभव करना महादेवी का काम्य है जबकि जागृत स्त्री की कामना छायावाद के कवियों में नदारद है। हमारा आलोचक तो जागृत स्त्री की वाणी को रहस्यवाद की उलझी-अटपटी वाणी ही बना डालना चाहता है। महादेवी की कविता की सीमा बताते हुए पूरे डेढ़ पन्ने खर्च कर, उन्हें और उनकी कविता दोनों को बहुत सीमित करके नामवर जी ने देखा है। काव्य की सीमा बतलाते हुए भी वह नारी को न्यून (कमतर) अर्थ में ही घटित करके देखते हैं। अपने महादेवी संबंधी अद्यतन वक्तव्य में जहाँ वे महादेवी को स्त्री के रूप में निःशेष कर देने से आगाह करते हैं, वहाँ भी और इस उद्धरण में भी, स्त्री का अर्थ न्यून और नकारात्मक ही है, “ महादेवी की प्रतिक्रिया एक नारी की तरह घर की सीमा में ही हुई। परंतु उनकी भी आरंभिक रचनाओं में जो भावुक असंतोष और तीव्र पीड़ा मिलती है, वह अंत तक जाते-जाते बौद्धिक परितोष में शमित होने लगी।”[xvi]

छायावाद पुस्तक का जो अध्याय-विभाजन है, वह अद्भुत रूप से बहिष्कारमूलक है! पहले अध्याय से लेकर ग्यारहवें अध्याय के पहले  तक कहीं भी महादेवी के लेखन पर एकाग्रता से न्यूनतम ही लिखा गया है। छायावादी निजता की बात हो, प्रकृति की बात हो, प्रेम और स्त्री की बात हो, जागरण की बात हो, कल्पना की बात हो- महादेवी की काव्य-विशेषता का जिक्र नहीं किया गया है। निजता, प्रकृति, प्रेम, स्त्री की सामाजिक स्थिति आदि स्वयं स्त्री के लिए क्या अर्थ रखते हैं, इस पर ध्यान नहीं दिया गया है। महादेवी का जिक्र पूरी पुस्तक में जहाँ आया है, वे तीन महत्वपूर्ण स्थल हैं। रहस्यवाद के संदर्भ में महादेवी का जिक्र रामचंद्र शुक्ल पहले ही कर गए थे, नामवर जी ने भी किया है और महादेवी के रहस्यमय असीम को आत्म-विस्तार की इच्छा से जोड़ा है।[xvii] दूसरा स्थल है रूप-विन्यास के संदर्भ में महादेवी की कविता में चित्रमयता की चर्चा का।[xviii] तीसरा, जहाँ सबसे ज्यादा विस्तार से महादेवी की कविता का विश्लेषण किया गया है, वह स्थल है छायावादी कविता की सीमा और उसका पराभव बताने वाला। दिलचस्प यह है कि नामवर जी की इस विवेचना में महादेवी के लिए कहे गए उनके दो-चार सकारात्मक वाक्य भी नकारात्मक अर्थ ले लेते हैं। मसलन, वे कहते हैं कि महादेवी की कविता में आया असीम आत्म-विस्तार का द्योतक है। अन्यत्र कहते हैं कि महादेवी की कविता घर की सीमा में ही बंद है। “जो दीप पत्थर की कठोर दीवारों से बने हुए मंदिर में घिरा हो, उसका जीवन सांसों की समाधि न हो जाए तो क्या हो?”[xix]

आश्चर्य यह है कि नामवर सिंह की कौन सी सीमा है जिसके कारण आज तक वे महादेवी की कविता के सशक्त पक्षों को देखकर भी नहीं देख पा रहे हैं? महादेवी की कविता में यथार्थ का आग्रह है। यहाँ तक कि रहस्यवाद भी; असीम-अनंत का जिक्र भी; यथार्थ है। नामवर जी ने स्वयं इस चीज को लक्षित किया है और कहा है कि “महादेवी के अंतिम गीत भी यथार्थ का गहरा पुट लिए हुए हैं। प्रसाद और पंत की तरह उनमें आदर्श अथवा सुखद लोक में पलायन करने की भावना नहीं है। भारतीय नारी आखिर भागकर जा ही कहाँ सकती है?”[xx] यह वाक्य और यह दृष्टि, कितनी सहज लग रही है! कविता घर की चारदिवारी में लिखी, क्योंकि भारतीय नारी थीं! रहस्य के आवरण में यथार्थ का चित्रण किया क्योंकि उपाय न था, भारतीय नारी थीं! और जीवन में दुख, वेदना, अवसाद के बाद भी पलायन नहीं कर सकीं, क्योंकि भागकर जाती कहाँ, भारतीय नारी थीं! यह अद्भुत आलोचना है एक ‘भारतीय मर्द’ आलोचक की!

 आप ज़रा ध्यान कीजिए, छायावाद के अंतर्विरोधों की और उसकी कमियों की तरफ। सहज रूप में जो तीन-चार बातें तत्काल ध्यान में आएंगी- छायावाद का अतीत-प्रेम जिसका अंत पुनरूत्थानवाद में होता है; छायावाद के अंदर रहस्यवाद की भावना और छायावाद का पलायनवादी स्वर। इन सारी कोटियों पर महादेवी की कविता को कसकर देखिए, अन्य कवियों को भी रखिए और फिर बताइए कि महादेवी कहाँ ठहरती हैं और बाकि के कवि कहाँ! विस्तार से व्याख्या में न जाते हुए, मोटे तौर पर देखिए तो महादेवी के यहाँ अतीत का आग्रह नहीं है। उनके रहस्य के आवरण में यथार्थ का सबसे परिचित चेहरा व्यक्त हुआ है। महादेवी के यहाँ दुख है, वेदना है, पीड़ा का संसार है, अवसाद है लेकिन अक्षत संकल्प भी है। संकल्प और जीजिविषा की ऐसी गहरी टेक किसी अन्य छायावादी कवि में नहीं है। इन सारी चीजों को पहचानकर भी इन पर बात न करना; अन्य कवियों के यहाँ जो चीज ग़ायब है, उस पर पर्दा डालना, ओझल करना और फिर परंपरा में स्थान तय करना अपने आप में विडंबनापूर्ण है।

[i] सिंह, नामवर, महादेवीः प्रगतिशील और क्रांतिकारी, शाही, सदानंद (सं), साखी, महादेवी वर्मा अंक, वाराणसी, अंक 24, मार्च 2014, पृ 17

[ii] वही, पृ. 17 और 21

[iii] वही, पृ. 17

[iv] वही, पृ.17

[v] महादेवीः प्रतिनिधि गद्य-रचनाएँ, गीति-काव्य शीर्षक निबंध, पांडेय, रामजी पांडेय (संकलन-संपादन), भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण,2008, पृ. 138

[vi] सिंह, नामवर, 24 मार्च, 2014, पृ. 19

[vii]  सिंह, नामवर, 24 मार्च, 2014, पृ. 19-20

[viii] वह आदिम नारी जिसने अपने समर्पण, आत्मनिवेदन और आकर्षण में बाँधकर पुरुष को पराभूत कर डाला था। देखिए, महादेवी, युद्ध और नारी शीर्षक निबंध,2008, पृ.236

[ix] महादेवी, आधुनिक नारी, 2008, पृ. 247

[x] उपरोक्त, पृ.248

[xi] आधुनिक नारी, महादेवी, 2008, पृ. 249

[xii] सिंह नामवर, 24 मार्च 2014, प. 21

[xiii] उपरोक्त, पृ.25

[xiv] सिंह, नामवर, देवि माँ सहचरि प्राण, छायावाद(1955), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1990

[xv]  महादेवी, श्रृंखला की कड़ियाँ (1942), भूमिका, लोकभारती पेपरबैक्स, 2012

[xvi] सिंह, नामवर, जिसके आगे राह नहीं, छायावाद, 1990, पृ 146

[xvii] देखिए, सिंह, नामवर, एक कर दे पृथ्वी-आकाश, छायावाद, 1990, पृ 30

[xviii] वही, पृ.101

[xix] वही, पृ. 146

[xx] वही, पृ.147
(यह आलेख ज्ञानरंजन जी के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका ‘पहल’-99 में छपा है।)