बदरूहें हवा में चिरागों की तरह उड़ रही हैं

निवेदिता


निवेदिता पेशे से पत्रकार हैं. सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में  सक्रिय .  स्त्रीकाल की संपादक मंडल सदस्य . सम्पर्क : niveditashakeel@gamail.com

जिन्दगी ने दुनिया के कुछ मुल्कों के कुछ शहरों को देखने का मौका दिया . मैं हैरान थी . इतने सारे रंगों को देखकर .जब कनाडा के एक प्यारे शहर मिसीसागा पहुंची तो लगा ही नहीं की ये शहर अंजान है . सारे अपने बाहें फैलाये इंतजार में थे .शांत ,संजीदा शहर . शाखों पर पत्ते नहीं पर बारिश की नन्हीं बूंदे मोतियों की तरह लटके हुए थे .बारीक़ शीशे की दीवार पर जो  जगह खाली थी वहां ठंडी हवा कभी तीर सी कभी माशूक सी बदन पर लिपट जाती .दिन की रौशनी में आसमान कभी सिंदूरी , कभी जाफरानी कभी पीलापन लिए हुए था . लगभग एक हफ्ते कनाडा की खूबसूरती में भीगती रही . नियागरा फौल देखकर लगा रवींद्र नाथ  की कविता की पंक्ति  गुनगुनाऊ .इ सुन्दोरे भुवने आमी मोरते चाई ना.. एक विशाल झील , नीले  और हरे रंगों में झिलमिलाता हुआ .जब सूरज की किरणें पानी में पैवस्त होकर ऊपर उभारना चाहतीं तो झील का रंग गहरे हरे रंग में बदल जाता . जाने कितनी देर तक हम झील के नीलमी हीरे जैसे रंगों के जादू में खोये रहे .जब चले तो पानी के चश्में जगह- जगह हमारे साथ चलते रहे .मुझे फारसी के मशहूर शायर  उर्फी की पंक्ति याद आगयी जो उन्होंने कभी कश्मीर के बारे में कहा था …कि वहां जली-भुनी चिड़िया भी पहुँच जाये  तो उसके पंख और पर निकल आते हैं . पर ये बात मैं नियागारा फौल के  बारे में कहना चाहती हूँ .    जिसके  जादुई असर  से  हम
निकल नहीं पाएं.

वैसे कनाडा बहुत हद तक हिंदुस्तान का हिस्सा ही लगता है . हिदुस्तानी , पाकिस्तानी और बंग्लादेशियों से भरा है मुल्क .सरदारों की तादाद सबसे ज्यादा है ..सड़क के दोनों जानिब एक जैसे खूबसूरत इमारतें .जिनकी मेहराबो के नीचे कुछ बूढ़े लोग टहलते मिल जाते थे .बड़ी अजीब उदास ,नर्म धीमी –धीमी तहजीब थी .कहीं कोई शोर नहीं … मेरा मन घबराने लगा .कितनी अजीब बात है अपने देश में शोर से जी घबराता है यहाँ ख़ामोशी से . कनाडा से हम जर्मनी , फ्रांस और नीदरलैंड  गए . इन तीनों देश को टुकड़ों में देखा .पूरा रास्ता घनी और धारदार लंबी पत्तियों वाले दरख्तों से भरा पड़ा था .जब हम फ़्रांस के कांव शहर पहुंचे साँझ फूट रही थी .आसमान तक सर उठाये रहस्यमयी काले देवदार खड़े थे . पास कोई नदी बह रही थी धीमें धीमें . दूसरे दिन हम पेरिस पहुंचे .पेरिस वो जगह है जहाँ कला अपने विशाल रूप में मिलती है .हम आर्ट म्यूजियम में थे .एक विशाल महलनुमा ईमारत .जिसके फर्श के ज्यादातर हिस्सा कीमती कालीनों से ढका हुआ था .लोगों का हुजूम दुनिया की बेहतरीन कला में डूब रही थी .दरख्तों के साये ,बादल के रंग .औरतें जिसके बदन का हर हिस्सा जैसे बोल रहा हो .मुझे लगा ये सारीविशिष्ट कलाएं इंसानी वजूद हैं , जो सात सुर सात रंग और हजारों करोड़ों समय से देख रही हैं  हमें .मैं रंगों का तराना सुन रही थी , महसूस कर रही थी.

हम देख पाए मोनालिसा की पेंटिंग को .हमारी नजर ठहर गयी .जिस मुस्कुराहट पर दुनिया जान देती है उस मुस्कुराहट का रहस्य क्या है कौन जान पाया ?हल्की सी मुस्कुराहट की सुर्खी , लबों पर तिरछी होकर कुछ कह रही हो .नाजुक सी ठोड़ी. दूध में जैसे गुलाबी रंग घुल गया हो .हम देखते रह गए . .दो दिन वहां रहने के बाद हम जर्मनी के लिए निकल पड़े .रास्ता हरे हरे दरख्तों से घिरा था . इतना हरा शहर हमने देखा  नहीं अबतक . आखें हरी हो गयी .उंचे उंचे दरख्तों के घने झुंड.बल खाते रास्तो के किनारे झील .झील पर मुकम्मल ख़ामोशी तारी थी ..आसमान सुर्ख था .अब सूरज डूब रहा था .चंद लम्हों में यह सुर्खी रात में ढल गयी. …… जर्मनी को अपने खूबसूरत होने का दर्प है तो अपने इतिहास पर शर्मिदा है .हिटलर ने दुनिया के साथ जो कुछ किया उस दाग को वे धोना चाहतें हैं .इसलिए अगर किसी भी देश के शरणार्थी जर्मनी पहुँच जाये तो वहां की सरकार उनकी जिम्मेदारी लेती है.ऐश्वर्य  में डूबे उस देश में भी गरीबी है . सडकों के किनारे पूरा का पूरा परिवार भीख मांगता नजर आया . ये पूंजीवाद का चेहरा है  जो जर्मनी की भव्यता में छिप गया है .  क्लोन . फ्रेंकफर्ट, जेनट्राम और ग्लैडबैक की खूबसूरती का रंग एक सा है .

आप यूरोप का कोई शहर घूम लें उसमें गजब की एकरूपता है . हमारे देश की तरह विविधता नहीं है, इसलिए मन थोड़ी देर में उब जाता है .जर्मनी से विदा होकर हम नीदर लैंड की और चले .जर्मनी की ऊँची नम हवाओं की गोद से निकलकर  हम नीले गहरे पानी में थे . शहर के बीचो -बीच बड़ा सा केनाल है  .जो झील की तरह  है .जहाँ की गुलाबी ठंड जवान लडकियों के गालों को और सुर्ख कर रही थी ..  उसके चारों तरफ बादामी जर्द , सुर्ख
और सफेद  रंग के फूल लगे हुए थे .सामने खूबसूरत इमारतें जिसके मेहराब बादलों को छू रहे थे . हमने मोटर वोट लिया और चल पड़े . मोटर वोट का चालक शहर के बारे में बता रहा था ..उसकी आवाज गहरी थी हम डूब रहे थे आवाज केसाये में .वो कह रहा था …सारी दुनिया , सारी कायनात रंगों के सिवा कुछ नहीं है .

मैं हैरान थी इतनी खूबसूरत दुनिया का एक स्याह रंग था वहां का रेड लाइट एरिया . जहाँ की बड़ी-बड़ी खिडकियों के शीशे में लड़कियां खड़ी थी . पूरी नग्न . राहगीर खिड़की के शीशे के पास रुकते और देह को खरीदने का व्यापार चलता . सेक्स के बाजार का इतना भयावह रूप नहीं देखा था .पूंजीवाद का चरम रूप . जहाँ सबकुछ बिकता है . पूरी दुनिया के खरीददार आते हैं.  ये दूसरी ही दुनिया थी . कोई भी राहगीर शीशे में  बंद लडकियों की नग्न देह देख सकता है . वह खुले आम इंटरकोर्स करते हुए देख सकता है .मुझे सदमा लगा . कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था .जैसे किसी ने ढेर सारी कालिख मेरे मुंह पर पोत दी हो . मुझे लगा वे कह रही हैं निकालो मुझे यहाँ से . नंगी -नंगी औरतें – बदरूहें हवा में चिरागों की तरह उड़ रही हैं और दुनिया की सारी कौम कब्रिस्तान में तब्दील हो गयी है .
( यह यात्रा वृतांत आज जनसत्ता मे ‘ सफर के रंग’ शीर्षक से छपा है. )