मालिनी अवस्थी का गीत और मोतीझील का किस्सा

प्रभात रंजन


कथाकार प्रभात रंजन ज़ाकिर हुसैन कॉलेज, दिल्ली , में हिन्दी के प्राध्यापक हैं. संपर्क : मोबाइल न.- 09891363062



( वाणी प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य  प्रभात रंजन की ‘कोठागोई’ से एक अंश . यह पुस्तक मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान की गुमनाम गायिकाओं के किस्सों का दस्तावेज़ है . उनकी महान परम्परा के प्रति सम्मान का एक रूप)

प्रसिद्ध गायिका मालिनी अवस्थी जी का गाया हुआ एक गीत है, जब भी सुनता हूँ एक किस्सा याद आ जाता है :  ‘पिया मेहदी लिया द मो
मोतीझील से/ 
जा के साइकिल से न’ 
जबकि दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं है. मालिनी अवस्थी ने इस गाने में आगे बताया कि वह जिस मोतीझील का वर्णन कर रही थी वह बनारस में था या है.

मोतीझील शहर मुजफ्फरपुर का सबसे बड़ा बाजार है, हर बड़ी चीज उसके आसपास है, बड़े सेठों के ठिकाने, बाबूसाहबों की पुरानी बसाहतें- पुराने सिनेमा हॉल, नए मॉल, मॉडर्न कुल्फी हाउस, जीवनज्योज्योति- सब उसके आस, उसके पास हैं. सब उसके आस-पड़ोस हैं. वह एक बाजार था जो बढ़कर और बाजार बनता गया है. दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं, नहीं दिखता.

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लेकिन यह किस्सा याद आ जाता है. कम से कम 12 साल या अधिक से अधिक तेरह साल पुरानी यह बात है. उस्ताद वजन खान के यहाँ चतुर्भुज स्थान, आबिदा हाई स्कूल के सामने उनके उस बनते से मकान में गया था, जिसमें दीवारें, छत, कुछ कमरेनुमा बन गए थे, बाद में जब -जब गया वे तो बनते नहीं, पहले से कुछ और बदरंग से हुए दिखाई दिए.

बहरहाल, उस दिन बहुत से लोग आये थे उनके घर, मैं उनसे चतुर्भुज स्थान के अतीत के बारे में बातें करने के इरादे से गया था. दिल्ली से जब भी घर जाता था छुट्टियों में तो उनसे मिलने जरूर जाता था, जाता तो जानकी वल्लभ शास्त्री जी से मिलने जाता था. लेकिन इन दो बातों का भी आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है. तो, मैं यह कह रहा था कि उन्हीं लोगों ने एक किस्सा सुनाया था. किसने सुनाया था, यह बात ठीक से याद नहीं रह गई लेकिन अब लगता है कि हो न हो बनारस से आये साजिंदों में से किसी ने सुनाया था.

बनारस वालों ने ही सुनाया होगा. चतुर्भुज स्थान की कीर्ति को धूमिल करने के लिए कितने किस्से चलाये थे तब- बड़ी मजबूत थी इसकी बुनियाद. गिरते -गिरते भी हिली नहीं है.  सच या झूठ का क्या है, अब जो शहर मुजफ्फरपुर कहलाता है वह सचमुच में वही पुराना शहर है क्या-स्मृतिहीन शहर !  शहर स्मृतिहीन होते जा रहे थे, कौन है याद करने वाला कि जिसे मोतीझील कहते हैं, उसकी मोती कौन थी, झील कहाँ है?

बात यहाँ से शुरू हुई थी कि मोतीझील से कपड़े मँगवाने की तो उसने तुरंत कहा था कि मेहदी भी वहीं से मंगवाना. मेहदी और मोतीझील का यह तुक, जब सबको बेतान लगा तो उसने यह किस्सा सुनाया-
‘कहते हैं जब मोतीझील बाजार नहीं बना था तब , वहां नृत्य और संगीत का पेशा करने वाले लोग रहते थे, जिसे कम से कम 125 साल से चतुर्भुज स्थान के नाम से जाना गया. कहते हैं वहीं पश्चिम से आये एक जमींदार ने मोती बाई के लिए झेल के किनारे हवेली बनवाई थी. समय के साथ शहर की फ़सीलें बढती है, शहर का हिसार बढ़ता गया… चतुर्भुज स्थान बनता गया.

मोती बाई क्या थी? गायिका? गाने और बजाने वालों का ही रहा है यह शहर. यही परम्परा यहाँ से फली-फूली- बनारस वाले कुछ भी कहें- वह इसके इतिहास के मजबूत हाशिये की तरह मौजूद रही हैं, हमेशा से.
मोती बाई का किस्सा बड़ा मशहूर था कि आसपास के गाँवों-कस्बों में उसकी महफ़िल करवाने की हसरत हर जमींदार रखता था. उसने बताया था कि बाबू लोग अपने यहाँ मनाये जाने वाले जलसों की तारीख़ उसकी तारीखों से मिलान करके तय करते थे. कि कहते हैं कि सीमा पार नेपाल के एक जमींदार से शिवहर के सेठ की ऐसी ठनी कि उसने भादो की भरी बारिश में उसके घर आधी रात को डाका डलवा दिया था. डाकू रातोरात उस भरी बरसात में जब न कुछ दिखाई दे रहे था, न कुछ सुनाई,  तो  न जाने वे किस बड़ी सी गाड़ी से आये थे -सर्र से निकल लिए थे. जो पैसा वे मोती पर लुटाते थे डाकू सारा लूट ले गए थे. कहते हैं उस सेठ ने नेपाल के उस बाबू के एकलौते बेटे की शादी के दिन अपनी बेटी की शादी तय कर दी थी और मोती बाई को उस दिन अपने यहाँ आने के लिए मुंहमांगा ईनाम देने का लोभ दिखा रहे थे. जमींदार साहब को यह बात लग गई और मोती ने भी वफादारी दिखाते हुए यह बात जमींदार साहब को बता दी थी. बाद में उसी जमींदार ने उसके लिए झील के किनारे हवेली बनवा दी थी. बारिश के दिनों में वहीं रहता था. तब मोती बाई घर से बाहर नहीं निकलती थी- सावन-भादो घर में अपने उस प्रिय के साथ बिताती थी, पहचान के लिए जिसे बनारसी बाबू ने पछिमाहा जमींदार कहा था.

कुछ साल तक वह जमींदार साल भर नेपाल में अपने विशाल खेत-खलिहान के हिसाब-किताब में लगा रहता था सावन भादो के महीने मोती केपास जाकर बिताता, उसका घर भी चलता रहा, बार भी. कि हादसा हो गया. नेपाल से आते हुए बारिश घनघोर हो रही थी. उसका घोड़ा लेकिन मजबूती से चल रहा था. नदी-नाले पार करता हुआ बढ़ रहा था. जब लखनदेई नदी पार कर रहा था घोडा सहित ऐसा गायब हुआ कि उसका कुछ पता नहीं चला, आज तक. कहते पनडुब्बा ले गया था. सच में किसी को विश्वास नहीं हो रहा था. लखनदेई नदी में उस समय पानी नहीं होता था, भादो के आखिर में जाकर वह उफनाता था, सावन शुरू होते ही इतना कैसे भर गया कि राजा और घोडा दोनों डूब गए पता ही न चला.

जब खबर मोती बाई तक पहुँची तो उसने उसी दिन गाना छोड़ दिया-कहते हैं सुहागन के वेश में रहने लगी थी. जब तक जमींदार साहब थे तब तक किसी की कुछ नहीं थी, उनके जाते ही उनकी वियोगन बन गई मोती. कहते हैं एक महीना भी नहीं बीता कि उसी शोक में चल बसी. बात यहीं ख़त्म हो गई होती तो किस्सा आगे बढ़ता ही नहीं. कहते हैं उस वीरान पड़े बंगले के सामने झील के झाड-झंखाड़ में मेहदी की झाडी उग गई. पास की एक लड़की एक दिन आई, मेहदी के पत्ते तोड़ के ले गई, पीस कर लगा लिया. कहते हैं उसको जल्द ही अच्छा वर मिल गया और वह भी बिना दहेज़ के-बात फ़ैल गई कि वहां की मेहदी सुहाग की मेहदी है.

समय के साथ सब गया- मोती गई, झील गया, हवेली गई, देखते-देखते बाजार बन गया. जो कभी मोती बाई से गुलजार था बाजार बन गया. मेहदी जाने कहाँ गई, यही किस्सा रह गया. हाँ, जरूर बनारस वाले ने सुनाया होगा. क्या पता वहीं के मोतीझील का किस्सा रहा हो? क्या पता?  अब कौन पूछे, उस्ताद के साजिन्दे के परिवार ने कौल निभाते हुए अपने बेटे का निकाह उनकी बेटी के साथ किया था. दिन में शादी हुई, शाम तक सब चले गए थे.
और यह किस्सा?  मालिनी अवस्थी के गाये गीत को जब सुनता हूँ- याद आ जाता है-
‘पिया मेहदी लिया द मो
मोतीझील से/
जा के साइकिल से न’

किस्सा नहीं बस एक प्रसंग भर है!

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