उन पत्रकारों के नाम जो मारे गए

निवेदिता


मूलतः पत्रकार निवेदिता सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों में भी सक्रिय रहती हैं. एक कविता संग्रह ‘ जख्म जितने थे’ प्रकाशित . सम्पर्क : niveditashakeel@gamail.com

निवेदिता

1.
जब कोई दरवाजे पर देता  है दस्तक
माँ भागती  है
किवाड़ खुलते
ही  उसकी चाल धीमी
हो जाती है
जानती है अब वह लौट कर कभी नहीं  आएगा
सब कुछ वही है
उसका कमरा
टेबुल पर पड़ा लैम्प
मुड़े –मुड़े कागजों का ढेर
कैमरा , माईक
पेंसिल, जिसे वह अक्सर अपनी उंगलियों में दबाकर
लिखता हुआ नज़र आता था
माँ धीमे कदमों  से आकर उसके पास खड़ी हो जाती थी
रे इतनी देर तक क्या लिखता रहता है
वह मुस्कुराता और माँ को भर लेता बाँहों में
तू चिंता क्यों करती है
माँ जानती है
रात उतर आती है कागजों पर
कागज से बड़े -बड़े दैत्य निकल आते हैं
टी वी पर शब्द उछलते
एक और घोटाला
आकाश विदीर्ण हो रहा है
सूर्य दहक  रहा है
पृथ्वी गहरे सुरंगो में ढल गयी है
हवा ने देश के चिथेड़े –चिथड़े किये
माँ ने देखा उसके लिखे शब्द
बह रहे हैं
बहती रहो नदियां
उसकी आवाज की नमी ख़त्म न हो
अनन्त पानियों की जगह वह लौट आएगा
सब कुछ के विरुध्य
दुनिया की तमाम स्याही

के साथ
वह फिर
लिखेगा
कागज पर
फिर कागज जलाये जायेंगे
उसी चौक पर जहाँ
उसे जला दिया गया
माँ ने हवा में उड़ते  चिंगारियों को दामन में समेट लिया
उसके आंचल लहरा रहें  हैं
आसमान तक  फूंट रहीं हैं
लाल लाल लपकती आग

२.
तुम जानते थे कि
सच की खोज जोखिम भरा है
तुम जानते थे धरती सपनो के साथ जीवित है
तुम मिट्टी में तारीख दर्ज  करने की कोशिश में लगे थे
परत-परत खुलता गया
और खून से दामन भींगते गए
माँ जो अक्सर डर जाती थी
रात –रात आकर तुम्हारे सिराहने बैठी रहती
आसमान पर अपने आंचल की तम्बू टांग देती
जाने कितने जतन
किये
पर रोक नहीं पाई हत्यारे की लपलपाती जीभ
उसने अपने आंसू पोछ  लिए
और वह लड़ रही है,
जहाँ बच्चे खेलते हैं
जहाँ अँधेरी गलियों में जीवन सरकता है
जहाँ रात की पाली से लौटते है कामगार
वह तुम्हारे लिखे कागज पर लिख रही है
शब्द
एक पुराने ग्रह की भाषा
संघर्ष


नहीं हम नहीं भूलेंगे
हत्यारे की आखें
हम नहीं भूलेंगे उनकी शांत चीख
हमारे लोगों के कडवे आंसू
हम नहीं भूलेंगे इस
असंवेदनशील समय को
मुझे याद है
तुम्हारी हंसी
तुम्हारा प्यार
याद है तपती गर्मी में बिना बादलों के
मारे – मारे  फिरना
जहाँ घुली बर्फो पर सूरज की पीली रौशनी पसरती है
पलाश और गुलमोहर
बरस पड़ते थे
पेड़ो की  शाखों पर फिसलते पानी की तहरीर
नीला समंदर
और रात की गोद , हमारा डूब जाना
तुम्हारी यादें
हमें यकीं दिला रहीं हैं
अभी सब ख़त्म नहीं हुआ है
अभी प्यार जिन्दा है
जिन्दा हैं  सपने
अभी लड़ना बांकी है
बांकी है  जिन्दगी  के राग ….

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ISSN 2394-093X
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