देह के द्वार पर अनादृत स्त्रियां और हिंदी कथा साहित्य: पहली क़िस्त

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com

( रोहिणी अग्रवाल का शोध -आलेख .  हिन्दी साहित्य में ‘ बलात्कृत स्त्री की पीड़ा ‘ की अभिव्यक्ति का उन्होंने ‘ स्त्रीवादी’ पाठ किया है . ) 


एक साथ बहुत सी बातें कह देना चाहती हूँ-कुछ सनसनीखेज मारक तथ्य,  कुछ दहशतभरी अमानवीय खबरें, मूक क्रंदन में छिपे प्रतिशोध को उभारती कुछ मार्मिक कविताएं। एक सी प्राथमिकता और गंभीरता के साथ। तथ्यों को सिलसिलेवार संजोने का प्रयास करती हूँ , तो निर्जीव गणितीय आंकड़े एक ओर आधी दुनिया की यातना के इतिहास का खुलासा करने लगते हैं
कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर 54 मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार होता है, 
कि पुलिस के मुताबिक 80 फीसदी बलात्कार नियोजित होते हैं,
कि बलात्कार के सोलह फीसदी मामले ही पुलिस थाने में दर्ज हो पाते हैं,  जबकि करीब 84 प्रतिशत महिलाएं तरह-तरह के दबावों के अधीन एफ. आई . आर तक  दर्ज नहीं करा पातीं, 
कि सौ में से बमुश्किल चार बलात्कारियों को ही अदालत से दंड मिल पाता है। शेष समाज में सरेआम सीना तान कर सम्भ्रांत अभिजन की ज़िंदगी जीते हैं, 
कि 2001,  यानी महिला सशक्तीकरण वर्ष के प्रारंभिक महीनों में दिल्ली में हुए एक सर्वेक्षण के जरिए सामने आए बलात्कार के 366 मामलों में 321 आरोपी परिवार के ही सदस्य थे, 
कि छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की 80 प्रतिशत घटनाओं में अभिभावकों का हाथ होता है,  

तो दूसरी ओर दूसरी आधी दुनिया ( पुरुष समाज) की सामंती मानसिकता का उद्घाटन करते हैं : 

कि चंडीगढ़ के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलेपमेंट एंड कम्यूनिकेशन की महिला उत्पीड़न विषयक वर्ष 2000 के सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार 52 फीसदी पुरुष पीड़ित महिला के ‘ अनुचित पहनावे,  व्यवहार और चाल- चलन को बलात्कार-छेड़खानी  का मूल कारण मानते हैं , तो 54 फीसदी लोग बलात्कार के लिए पुरुषों के दुराचार की जगह शराब के नशे को जिम्मेदार ठहराते हैं,
कि दिल्ली पुलिस के आयुक्त आर. एस . गुप्ता  का कहना है कि महिलाएं पहनावे में सावधानी बरतें,  अपनी सीमाएं पहचानें और असुरक्षित व्यवहार न करें तो उनके खिलाफ अपराध 50 फीसदी तक घट जाएं।’ 

आंकड़ों के बाद आंकड़ों की पुष्टि करती कुछ  ‘ खबरें ‘  जो यकीनन अखबारी कॉलम से बाहर निकल कर सत्ता और व्यवस्था,  व्यक्ति और समाज सबको अपने-अपने गिरेबान में झांक लेने का आग्रह करती हैं 
कि नशे में धुत सलीम खान ने मुम्बई के चर्च गेट और बोरीवली के बीच उपनगरीय ट्रेन में मानसिक रूप से विक्षिप्त एक बारह वर्षीया लड़की के साथ बलात्कार किया। इस अमानुषिक घटना के साक्षी सात मध्यवर्गीय शिक्षित यात्री थे,  जो अपनी सुविधाजन्य कायरता (स्वार्थपरकता या असंलग्नता)  के कारण इस अमानुषिक कांड के मूक दर्शक बने रहे। 
कि एक साल से पुंछ जेल में कैद पाकिस्तानी महिला परवीन अख्तर उर्फ शहनाज ने 1996 में जेल के हैड वार्डन मुहम्म्द दीन के बलात्कार का शिकार हो मोबिन नामक कन्या को जन्म दिया जिसे मानवाधिकार आयोग के हस्तक्षेप ने भारतीय नागरिकता अवश्य दिलवाई, लेकिन शहनाज की नागरिकता,  यौन शोषण और न्याय जैसे जटिल अंतर्सम्बद्ध मुद्दों पर विचार करने की जरूरत नहीं समझी गई। उसका पूरा भविष्य पुंछ जेल के हैड वार्डन की ‘ सदाशयता ‘  पर टिका है,  जो चाहे तो उसे अपनी बीवी कबूल कर जिल्ल्त से छुटकारा दिला सकता है, अन्यथा उसका क्या है। पुरुष है,  पुलिसकर्मी है,  बलात्कार का मुकद्दमा वर्षों घसीटने और बेदाग छूटने की बारीकियां जानता है। 



तो क्या सचमुच ‘ योनि’ ही  है नारी? बकौल अमृता प्रीतम पुरुष के तन, मन और जेहन के नाप की बनी जरूरतों,  संस्कारों और जेहनियत की वरदी पहनने को अभिशप्त ?   उसकी सारी शारीरिक,  मानसिक,  नैतिक विकृतियों-दरिंदगियों को गर्भ में पाकर अनचाहे मातृत्व को सहेजने को विवश?
‘ माँ एक जुल्म को कोख में उठाती रही, और उसे अपनी कोख से एक सड़ांध आती रही,
कौन जान सकता है, एक जुल्म को पेट में उठाना,     हाड़- मांस को जलाना।’

‘ तुम लोग हमसे इतनी घृणा क्यों करते हो ?’ 


बलात्कार स्त्री के निजत्व पर गहरी चोट है। जर्मेन ग्रीयर इसे “ पुरुष  की स्त्री के प्रति अदम्य कामना या जबर्दस्त आकर्षण के बाध्यकर प्रत्युत्तर की अभिव्यक्ति”  मानने की बजाय ” आत्मवितृष्णा से जन्मा,  घृणा के पात्र पर किया गया हत्यारी आक्रामकता से भरा कृत्य” ( विद्रोही स्त्री,  पृ0 229)  मानती हैं। वे जानती हैं कि स्त्री के प्रति ” अपनी घृणा की गहराई खुद पुरुष भी नहीं जानते”  और चकित हैं कि पुरुष की हर अमानुषिकता को अपनी नियति स्वीकार करने वाली स्त्री ने कभी पलट कर उससे यह क्यों नहीं पूछा कि “तुम लोग हमसे इतनी घृणा क्यों करते हो? ”  बेशक समूची विश्व संस्कृति नारी को पूज्या,  श्रद्धा,  देवी कह कर महिमामंडित करती रही है,  लेकिन उसके पीछे छिपी पाखंडपूर्ण कुटिलता और हीनता ग्रंथि को क्या इतनी सरलता से नज़रअंदाज किया जा सकता है ?  जर्मेन ग्रीयर जे मैकग्रिगॅर एलेन के वक्तव्य को उद्धृत कर पुरुष के घृणा- मनोविज्ञान को एक तथ्य की तरह प्रस्तुत करती हैं – “मैं  जानता हूँ कि नैतिक श्रेष्ठता की यह स्वीकृति जिसे साधारण पुरुष स्त्रियों को अर्पित करने को इतने तत्पर रहते हैं,  उन बहुत सी सुविधाओं से वंचित किए जाने की रिश्वत है,  जो उन्हें पुरुषों के बराबर स्तर पर पहुँचा देतीं। मुझे ऐसा खासतौर पर इसलिए भी लगता है क्योंकि व्यक्तिगत रूप से स्त्रियों के प्रति बहुत विनम्र,  उन्हें फरिश्ता वगैरह कहने वाले लोगों के मन में असल में उनके लिए गहरी अवमानना का भाव रहता है।” ( वही पृ0 233)  महादेवी वर्मा पुरुष की घृणा ग्रंथि को हीनता ग्रंथि का नाम देकर इसे घनीभूत करने वाले कारकों -भय,  असुरक्षा,  एकाकीपन – को रेखांकित करना नहीं भूलतीं , जो स्त्री की स्वभावगत स्निग्धता,  सम्पूर्णता और संतान को जन्म देकर सक्षम बनाने में संलिप्त एकनिष्ठ दायित्वशीलता के बरक्स उसे बेहद बौना,  कुंठित और संहारक बना देते हैं। घृणा का आक्रामक विस्फोट जहाँ आत्मदया से त्रस्त पुरुष का अपने को एसर्ट करने का लाचार हथियार है,  वहीं स्त्री-गुणों को दुर्बलता में पुनर्व्याख्यायित करने के सचेष्ट सामूहिक प्रयास शारीरिक संपुष्टता के आधार पर अपनी वर्चस्व-प्रतिष्ठा की खिसियानी प्रतिक्रियाएं हैं।

जर्मेन ग्रीयर

यही वह पुरुष मनोवृत्ति है जो पहले स्त्री, फिर उसके मादा  अंग के प्रति सम्मान न रखने की सार्वभौमिक  घटनाओं की अनवरत श्रृंखला के जरिए स्त्रियों के आत्मसम्मान को न्यूनतर करते हुए इस सीमा तक शून्य कर देती है कि वह पुरुष के लिए ‘ अपने शुक्राणु उंडेल’  सकने लायक ‘ एक बर्तन’ , ‘ एक तरह के मानवीय पीकदान’  में तब्दील हो जाती है तो दूसरी ओर अपनी शारीरिक संरचना,  प्रकृति और ‘ जनाना मानसिकता’  से भयातुर होकर उसे बदल डालने को लालायित रहती है।  निस्संदेह पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के सुदृढ़ स्तम्भों के नीचे अहेरी पुरुष की मनोवृत्तियों को चीन्हना ज़रा भी कठिन नहीं। जर्मेन ग्रीयर बलात्कार के कारणों को विश्लेषित करते हुए उसके पीछे सक्रिय दो उत्प्रेरक घटकों पर विशेष बल देती हैं। एक,  समूचे दिक-काल  में सैक्स के साथ जुड़ा घृणा एवं वर्जना का भाव जिस कारण पुरुष न अपनी लैंगिकता से तालमेल बैठा पाता है,  न स्त्री को लैंगिक प्राणी से इतर किसी ‘पूर्ण’  रूप में देख पाता है। चूंकि उसे ‘काम’  को घृणित मानना सिखाया गया है, लेकिन काम का उत्ताप उसे उन्मत्त बना डालता है,  इसलिए कामतृप्ति के उन्माद में ‘वितृष्णा  के दलदल में गिर जाने के बाद तमाम शर्म और बाध्यता को अपनी भागीदार के मत्थे मढ़ कर’ ( वही,  पृ0 231)   वह अपनी छवि सदैव धो-पोछ कर निष्कलुष रखना चाहता है। भारतीय पौराणिक और मिथकीय साहित्य में ऋषि-मुनियों के तप भंग के लिए मेनका-उर्वशी आदि अप्सराओं को ‘ नरक का द्वार’  तथा  ‘ ठगिनी’  कह कर ‘  बेचारे ब्रह्मचारी’  ऋषि-मुनियों को ‘क्लीन चिट’  देने के उदाहरण प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं। पुरुष मानसिकता की गहरी चीरफाड़ करती वे कहती हैं कि पुरुषों के लिए यदि अनुपलब्ध (संभ्रांत)  स्त्रियां ‘कुतियाएं’  हैं तो उपलब्ध लडकियां ( वेश्याएं एवं कॉलगर्ल्स )  ‘ कचरा’,  जिनके पास  से गुजरते हुए अश्लील बातें फुसफुसाना और उनकी लज्जा और बड़बड़ाहट को उस पाशविक कामना ( सैक्स में रुचि )  के अपराध का प्रमाण मान कर स्वयं को निष्कलुष सिद्ध करना आत्मप्रवंचना का प्रमाण नहीं तो और क्या है। यहाँ पुनः उन आंकड़ों की ओर संकेत करना अकारण नहीं होगा जो बलात्कार के लिए स्त्री के चाल-चलन और उत्तेजक परिधान को उत्तरदायी मानते हैं। जर्मेन ग्रीयर की दृष्टि में दूसरा कारण पुरुष की हीनता ग्रंथि में निहित है, जो स्त्री के साथ सहज दैनंदिन सम्बन्धों में भी उसे आशंकित और भयाक्रांत रखता है।  लेकिन स्थिति विडंबनात्मक स्वरूप तब ग्रहण कर लेती है, जब पुरुषों का पथानुगमन करते हुए स्त्रियां पुरुषों से नहीं,  खुद अपने प्रति वितृष्णा का अनुभव करने लगती हैं। अतः जरूरी हो जाता है कि स्त्री के यौन शोषण और उत्पीड़न के लिए पुरुष मनोविज्ञान की जटिल संरचना को समझते हुए स्त्रियां रूढ़ छवियों से मुक्ति पाकर पहले अपने अस्तित्व और अस्मिता को दृढ़तर मानवीय संदर्भों में देखें और फिर अपनी लड़ाई के लिए एक सुविचारित रणनीति तैयार करें। जोन्स और ब्राउन ने अपने ऐतिहासिक ‘ टूवर्ड्स ए वीमेंस लिबरेशन मूवमेंट’  में कुछ मांगें प्रस्तुत की हैं, जिन्हें अनदेखा करके नई स्त्री छवि गढ़ना संभव नहीं। इनमें से कुछ उल्लेखनीय मांगे हैं:
स्त्रियों को अपना खुद का इतिहास जानना चाहिए क्योंकि उनका एक स्पृहणीय इतिहास है,  एक ऐसा इतिहास जो उनकी बेटियों में गौरव का भाव भरेगा….  हमारी सुधरी हुई स्थिति कई साहसी स्त्रियों के उद्यम से संभव हुई है। उन्हें छोड़ देने के बजाय हमें उनसे सीखना चाहिए और एक बार फिर लक्ष्य प्राप्ति के अभियान में उन्हें जुटने देना चाहिए। स्त्रीवादी साहित्य,  स्त्रीवादी इतिहास की बाजार में मांग है। हमें उसे उपलब्ध कराना चाहिए।

 जब तक स्त्रियों और पुरुषों के बीच सम्बन्धों का पुनर्गठन नहीं हो जाता ,  तब तक इस समाज का पुनर्गठन भी नहीं हो पाएगा। घर के अंदर मौजूद असमतावादी सम्बन्ध ही शायद सब बुराइयों की जड़ हैं । पुरुष कोई भी भयानक कर्म करके या कायरतापूर्वक अपनी आत्मा का हनन करवा कर आदर,  सम्मान और यहाँ तक कि प्रेम तक पाने के लिए घर लौट सकता है। इस स्थिति में  पुरुष कभी अपनी वास्तविक पहचान या समस्याओं से रू-ब-रू नहीं होंगे,  और हम भी नहीं होंगी। चूंकि स्त्रियां शारीरिक बल के भय से बहुत ही आक्रांत रहती हैं,  अतः उन्हें अपनी रक्षा करना सीखना होगा।  स्त्रियों को अपने अनुभव आपस में बांटने चाहिए। हमें  संचार माध्यमों को मजबूर करना होगा कि वे वास्तविकता को प्रतिबिंबित करें।

यानी स्त्री मुक्ति की पैरोकार खरी- खांटी स्त्रीवादी दृष्टि! लेकिन स्त्री के साथ-साथ पुरुष यानी मानव-मुक्ति के उदात्त लक्ष्य को सुलभ कर लेने को लालायित! ठीक इस स्थल पर मुड़ कर पिछले पचास साल के हिंदी कथा साहित्य पर दृष्टि डालने पर एक तथ्य उथर कर सामने आता है कि स्त्रियों और दलितों की समस्याओं से जूझता-टकराता एक नए बेहतर समाज की रचना का स्वप्न देखता हिंदी कथा साहित्य बलात्कार जैसी अमानवीय सामाजिक विकृति को लेकर चुप है। अपवादस्वरूप उग्र को छोड़ दें तो प्रेमचंद से लेकर अब तक मूर्धन्य पुरुष रचनाकारों ने इसे मानवीय समस्या के रूप में कोई तवज्जो नहीं दी है। छिटपुट जहाँ कहीं भी इसका चित्रण हुआ है,  केवल एक स्थिति के रूप में ताकि घटनाओं के संघात को पुष्ट किया जा सके ( कर्मभूमि की मुन्नी )  स्त्री शोषण के एक और आयाम को प्रस्तुत कर धर्म के कुत्सित रूप को प्रकट किया जा सके ( मैला आंचल में  कोठारिन लछमी का मठ के तमाम महंतों द्वारा जरखरीद दासी के रूप में यौन शोषण )  दंगों में अनावृत्त स्त्री देह के मार्मिक चित्रण के जरिए देशविभाजन जैसी राजनीतिक परिणतियों के दुष्प्रभावों का अंकन किया जा सके (  झू ठा सच  में तारा जैसी एकाकी,  असहाय स्त्रियां ) ,  गाहेबगाहे पुलिस,  ब्यूरोक्रेसी और असामाजिक तत्वों की हवस का शिकार होने की अपेक्षा डाकुओं जैसे सत्ता के नए गढ़ों से सांठगांठ कर अस्तित्व रक्षण करती स्त्री की धूर्त निरीहता व्यंजित की जा सके ( संजीव का उपन्यास ‘ जंगल जहाँ शुरु होता है’  की मलारी ) ,  अपराध को छुपाने के लिए राजनीतिक ताकत अर्जित करने के हथकंडों को बखान करते- करते राजनीति के आपराधिक चेहरे को उजागर किया जा सके ( वीरेन्द्र जैन का उपन्यास ‘ डूब’,   जहाँ बामन महाराज ‘  कपूत बलात्कारी कैलाश को बचाने के लिए सरपंच का चुनाव लड़ते हैं )  या बलात्कार के बहाने इत्मीनान से पूरे तंत्र की ‘ खबर’ ली  जा सके ( शिवमूर्ति की कहानी ति रिया चरित्तर,  ‘ अकाल दंड’,  और लघु उपन्यास ‘ त र्पण ) । उल्लेखनीय है कि इन रचनाओं में बलात्कृत स्त्री एक अदद नाम,  पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि तथा अंधकारमय भविष्य के बावजूद हाड़-मांस की जीवंत स्त्री के रूप में दिखाई नहीं देती। न अपमान की बीहड़ यंत्रणा,  न निजत्व को रौंदे जाने का मर्मांतक आघात,  न भीषण मानसिक उद्वेलन, न देह-प्राण के प्रति प्रतिशोध भरा निर्मम विरक्ति भाव! केवल सपाट स्थितियां – सूचनापरक! स्त्री के अंतरंग और बहिरंग से अछूती! बेशक महंथ सेवादास के यौन शोषण का प्रतिकार न कर पाने के कारण रात के खामोश प्रहर में लछमी ( मैला आंचल)  के आंसुओं की अविरल धार तथा उसकी मृत्योपरांत गद्दीनशीन महंथ रामदास को कड़ी फटकार  उसे लेखक द्वारा स्त्री  के रूप में चित्रित किए जाने के प्रमाण हैं,  जिन्हें बालदेव के साथ गृहस्थी बसा कर पत्नीत्व पाने  के सपने में स्पष्ट-सघन रूप में देखा जा सकता है, लेकिन फिर भी अंत तक परिपुष्ट स्त्री व्यक्तित्व उसे नहीं ही मिल पाता। सारा जीवन सत्संग करके बिताने वाली लछमी निर्दोष भाव से बिदियारथीजी के संग सत्संग करने के अपराध में जब लोकापवाद से क्रोधोन्मत्त बालदेव जी की घुड़कियां खाती है तब पत्नी बनाम गृहदासी की रूढ़ छवि का अनुसरण कर वह जार- जार रोती बस इतना ही कह पाती है,  ” छमा  प्रभू! दासी का अपराध’  ( वही,  पृ0 292) – क्या इसलिए कि रेणु की दृष्टि मूलतः शरच्चंद्रीय दृष्टि है,  अतः तीस बीघा जमीन और कलमी आमों के बाग की मालकिन होने के बावजूद राजलक्ष्मी ( श्रीकांत)  होना उसकी नियति है ?  आत्मनिर्भर,  दृढ़ किंतु समर्पित।  समर्पण माने आत्मसम्मानपूर्वक सामंजस्यपूर्ण संवाद नहीं,  पुरुष- पति में अपने अस्तित्व का पूर्ण लय। इस पुरुषवादी दृष्टि के चलते जाहिर है रेणु न बलात्कार को एक जघन्य समस्या के रूप में संदर्भ दे पाए,  न धर्मस्थलों के भीतर पनप कर समाज की नींव खोखली कर देने वाली विकृतियों के खिलाफ जनाधार बना पाए। अपनी ओर से अंचल को दूषित करते काल का भले ही उन्होंने प्रामाणिक चित्रण किया हो,  लेकिन समस्याओं को उभार कर सही परिप्रेक्ष्य में न रख पाना एक ऐसी लेखकीय दुर्बलता है,  जो लेखक की चुप्पी को अनाचार के समर्थन में अनूदित करने का दुस्साहस भी कर सकती है। ठीक यही बात 1991 में रचे वीरेन्द्र जैन के उपन्यास ‘ डूब’ को  लेकर भी कही जा सकती है। बामन महाराज और कैलाश के पक्ष को छोड़ भी दें ( जिन्हें लेखक ने आग्रहपूर्वक खल पात्रों के रूप में चित्रित किया है)  तो माते ( जिन्हें उतने ही आग्रहपूर्वक महानायक की पदवी दी गई है)  के नीर- क्षीर विवेक के प्रति लेखक की अतिरिक्त श्रद्धा कुछ शंकाओं- आपत्तियों को जन्म देती है कि चंद्रभान अहीर की बलात्कृता बेटी अक्क्ल की लोेकलाज की रक्षा के प्रयास में  माते ने अनजाने ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था के हाथ मजबूत किए हैं या पुरुष दृष्टि के कारण तमाम सदिच्छा के बावजूद वे बलात्कार को पुरुष की तात्कालिक कामुकता के क्षणिक विस्फोट से ज्यादा अहमियत नहीं दे पाए हैं ?  वरना क्या वजह है कि वे कैलाश के अवैध पुत्र रामदुलारे और उसकी धाय मां के पालन-पोषण का दायित्व मंदिर ( बामन महाराज)  पर डालते हैं और अट्टू साव तथा गोराबाई के प्रेम-प्रसंग को कलंक कथा के रूप में फैलते देख कर भी चुप हैं ? क्या  माते की व्यवस्था और चुप्पी स्त्री के अनेकविध शोषण के द्वारों को खुला छोड़ कर अपराधियों के पक्ष में नहीं जा खड़ी होती ?  दूसरे,  निर्भीक,  सत्यवादी,  महात्मा माते की पुत्रवधू के रूप में अक्क्ल जिस तरह असंलग्न रागात्मकता के साथ गोराबाई की गोद में पलते अपने पुत्र को देख कर टीस और असमंजस की गड्डमड्ड स्थिति की शिकार कठपुतली की तरह चित्रित की गई है,  वह भी बलात्कार जैसी समस्या के प्रति लेखक के अ-गंभीर रवैये की साक्षी है। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक का लक्ष्य ‘ ब्राह्मण  के वीर्य से जनमे’  रामदुलारे के रूप में दलितों-वंचितों-पीड़ितों के एक ऐसे मसीहा को प्रतिष्ठित करना है,  जिसे अहरीन ने सेया, लुहारिन ने दूध पिलाया,  बनिया ने परवरिश की और ठकुराइन ने अपना ठाकुर चुना। ( डूब,  पृ0 266 )  फलतः अक्कल और गोराबाई,  उनके निकट,  जीवंत स्त्रियां न होकर यज्ञ में डाली जाने वाली आहुतियां ही बनी रहीं।

दरअसल महत्व दृष्टि का नहीं,  संवेदना का है जो लिंग,  वर्ग,  पृष्ठभूमि जैसी विभाजक रेखाओं का अतिक्रमण कर लेखक को विषय के साथ एकीकृत करते हुए उसके जीवन,  संघर्षों और स्वप्नों के साथ अभिन्न रूप से जीने को मजबूर करती है। अद्वैत के इस बिंदु पर तमाम लौकिक मूल्य और नियंत्रण चूंकि निरर्थक हो जाते हैं,  अतः प्रमुख रहती है पीड़ा और पीड़ा के कुहासे को चीर कर नई उषा का आह्नान करती अरुणिमा को बटोर लाने की व्यग्रता। प्राणों की बाजी भी लगानी पड़े तो कम है,  क्योंकि मूल्यवान व्यक्ति नहीं,  ‘ मनुष्यता का स्वास्थ्य और भविष्य है। इस दृष्टि से पांडेय बेचन शर्मा उग्र एकमात्र लेखक हैं, जिन्होंने स्त्री को सूक्तियों,  सुभाषितों और परंपरागत फ्रेमों से मुक्त कर देदीप्यमान मानवीय अस्मिता के रूप में देखा। उनके यहाँ स्त्री पुरुष की अनुचरी-सहचरी नहीं,  पहले स्वयं एक ‘ मनुष्य’  है . अपने जीवन और प्रतिष्ठा को अपनी शर्तों पर जीने वाली स्वाभिमानिनी आत्मनिर्भर स्त्री। उग्र अपने स्त्री पात्रों में मनुष्योचित जिन दो गुणों – स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता , की प्रतिष्ठा करते हैं,  उसके लिए वे उच्च शिक्षा,  अभिजात पृष्ठभूमि या पुख्ता पारिवारिक-सामाजिक संरक्षण जैसी बैसाखियों की तलाश नहीं करते। चेतना के स्तर पर वे सिर्फ एक ही मांग करते हैं – आत्मदैन्य के आत्मघाती भाव से मुक्ति। 1927 में रचित कहानी ‘बलात्कार’  इसका प्रमाण है, जहाँ एक ओर निरापद रैन बसेरे की तलाश में खंडहर में डेरा डालने वाली भिखारिन गंगा उर्फ  ‘ दर्शनीय चिड़िया’  को रूप की हाट में बैठा कर अपनी भोगलिप्सा की निर्लज्ज अभिव्यक्ति करते   ‘हिज  हाइनैस’  और उनके चमचों की खिंचाई की गई है तो दूसरी ओर गंगा की मानसिक दृढ़ता को रेखांकित किया गया है, जो बलात्कार  का शिकार होकर भी पुलिस और तमाशबीनों की भीड़ में बलात्कारी के खिलाफ लगाए गए आरोप से साफ मुकर जाती है। वह स्तब्ध और विमूढ़ है न्याय की गुहार लगाते उत्तेजित समाज को देख कर जो भीड़ बन कर दूसरे को उसी अपराध के लिए दंडित होते देख सुख पाता है, जिसे भीतर की अंधेरी खंदकों में गिर कर नितांत अकेले भय और प्रलोभन के सहारे अंजाम दे डालना चाहता है। फिर ‘ सफेदपोश अपराधियों’  से न्याय क्यों पाए वह ?  पुरुष की स्त्री विरोधी मानसिकता तथा समूची समाज व्यवस्था के प्रति प्रतिशोध एवं अनास्था का निदर्शन करते हुए जिस प्रकार वह अ-सतर्क सिपाही के हाथ से भाला छीन कर अब्दुल गफूर पर जानलेवा हमला करती है और फिर गरज कर दारोगा से अपना बयान लिखने को कहती है,  वह स्त्री सशक्तीकरण के दावों की धमक से बहुत दूर स्त्री को उसके मनोभावों,  मनोवृत्तियों,  मनस्तापों और मनोरथों के साथ समझ कर उसकी मानवीय गरिमा को अक्षुण्ण रखने का आह्नान करता है – ‘ लीखिए मेरा नाम गंगा है। जात औरत ही है। भीख मांगा करती हूँ। इस पापी पुरुष ने मेरा अपमान किया है। मैंने इसके खून से अपने अपमान का बदला लिया है।”

लेकिन रक्तरंजित प्रतिशोध क्या प्रत्येक अनाचार- अपराध के समूल नाश का एकमात्र उपाय है ?  बल्कि सवाल तो यह है कि क्या प्रतिशोध अंततः अपराध की ज्वाला को धधकाने की उत्प्रेरणा नहीं बन जाता?  कृष्णा सोबती मानती हैं कि बलात्कार केवल कानून की दफा नहीं, न मात्र रसभंग है ,  बल्कि ” अमंगल लहर की वह टूटी आसंग स्थिति है जिसे अपने चाहने से स्रोत तक लौटा लाना जन्म- जन्मांतरों सा ही अनिश्चित है।”   यह वं चित’  हो जाने की उस सपाट स्थिति का निर्मम सामाजिक बोध है , जहाँ ज़िंदगी कीे अंतरंग रागात्मकता की चाह नैसर्गिक मानवीय वृत्ति न रह कर लोगों की आंखों में छलकती घृणा और तिरस्कार से सार्वजनिक ‘ त माशा’  बन जाती है। यानी बलात्कार केवल मात्र स्त्री पर पुरुष के लैंगिक आक्रमण की समस्या नहीं,  बल्कि इसकी व्याप्ति और व्यंजनाएं कहीं अधिक अनेकविध और गहरी हैं। समाज के मनोविज्ञान के साथ-साथ यह समस्या उन रूढ़-गलित सांस्कृतिक-नैतिक मान्यताओं के पुनरीक्षण की मांग करती हैंं,  जिन्हें गौरवमयी संस्कृति का अभिन्न अंग मानते हुए दूने जोश से महिमामंडित करने का सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है। बलात्कार जैसी घटनाओं का होना चूंकि मानवीय अस्मिता पर कठोर पदाघात के साथ-साथ लोकतंत्र की बुनियादी आस्था पर भी प्रहार है, अतः उन परिस्थितियों,  प्रवृत्तियों,  कारकों का विश्लेषण भी जरूरी हो जाता है जो घर-बाहर और जनमानस – हर कहीं लोकतंत्र को अपदस्थ कर सामंतवाद की प्रतिष्ठा करने में जुट जाते हैं। जाहिर है,  बलात्कार इकहरी समस्या न होकर खासी संश्लिष्ट एवं जटिल समस्या है, जिसके उलझे सूत्र व्यवस्था की जड़ों में रच-बस कर कड़े और समरूपी हो गए हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि हिंदी कथा लेखिकाओं ने जितनी व्यग्र उत्कंठा,  प्रतिबद्ध वैचारिकता और संवेदनपरक समग्रता के साथ इस समस्या को परत दर परत विश्लेषित किया है,  वह साहित्य में लिंगपरक विभाजन के विवादों को बेमानी मानते हुए भी नारीवादी दृष्टि और सरोकारों की अहमियत पर पुनर्विचार करने की मांग अवश्य करता है।
क्रमशः 

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ISSN 2394-093X
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