हेमलता यादव की कवितायें

हेमलता यादव

युवा कवयित्री इंदिरा गांधी ओपन विश्वविद्यालय में शोध छात्रा हैं.   संपर्क :hemlatayadav2005@gmail.com

हे अहल्या

हे अहल्या
आस्था के मनके बुनती समाधिस्थ
मत करों इंतजार राम का
पैर के स्पर्श मात्र से मुक्त
व्यर्थ भ्रम है नाम का,
संदेह से बुद्धि  भ्रष्ट साधु की हुई
सदियों तक शिला पर तुम बन गई
बिन अपराध, अपराधिन सी तुम
जड़वत करती इंतजार राम का
पैर के स्पर्श मात्र से मुक्त
व्यर्थ भ्रम है नाम का,
हे देवी
सत्य कहो क्या राम आये
क्या स्पर्श से तुम मुक्त हुई
मुझे तो पाषाण सी लाखों अहल्याएं
उम्मीद के कंकड़ किरकिराती
अथाह बंधनों की
अंसख्य गांठे गिनती
नजर आती है आज भी
करती इंतजार राम का
पैर के स्पर्श मात्र से मुक्त
व्यर्थ भ्रम है नाम का.

खूंटा 

बांधने के लिए
प्रत्येक आंगन में
एक खूंटा
गाड़ दिया,
खुली न रहे

एक खूंटे  से दूसरा  खूंटा
ढूंढ  लिया
पिता कि बाड़े
से पति के बाड़े में
झोंक दिया

 सूरजमुखी

सूरजमुखी ने
रोंप दी सलाखें
कमरे के भीतर
घर की जेल में
बना लिया कंक्रीट दीवारों का
अपना सुरक्षित कारावास
जहां
छोटे झरोखें से झांकती
थोड़ी सी धुप  पी
खिलती रहती
सूरजमुखी
बिना भुले रोज करती
नींव पुख्ता
कि कहीं आ न जाए
बदहवास माली
जो तोड़ लाया था
खुले आकाश के नीचे
हवा से बतियाती
सूरजमुखी
घर महकाने को
मन बहलाने को
सुंदर कोंपलों की
क्यारियां बनाने को
खुले आकाश का संताप
सह मुरझाई नहीं
फिर से जमी
फिर से खिली
सूरजमुखी
रंग बिखेरती रही चाहे
धीरे धीरे
उसकी कोमल पत्तियों सी आस
वो मसलता रहा
रफतः रफतः
सिलसिला यही चलता रहा
ओह !
सारी पत्तियां कहां झरीं ?
सूरजमुखी
सोचती रही
पिंजर सा
घेरा पहचानती रही
कैसा था आस्तित्व ?
याद करने की
चेष्टा करती रही
कहां गई पीली आभा
की खिलखिलाती लहक
कहां गए पत्तियों पर लुढ़कते
ठहरते, चमकते ओसकण
कहां गया अपनी चाल
से बावरा बनाता सूर्य अटल
सूरजमुखी सब
भूल गई
सूरजमुखी अब
सूरजमुखी न रही
किंतु
कुछ तो बचा था
चिथड़ो सा
क्या?
पता नहीं
माली वही था
अभी भी नोचने को आतुर
पर सूरजमुखी
अब सूरजमुखी
न थी
अपनी टहनियों को भींच बना ली सलाखें
कैद में हो गई आजाद
निःशेष मर्म समेट
जी भर लहकती है कि
माली उसे छू  नहीं सकता
स्वनिर्मित बाड़े में फैलती है कि
माली उसे रौंद नहीं सकता
स्वयं  से बातें कर दोहरे
होने का विश्वास दिलाती
सूरजमुखी
अपने मौन की
बातुनी सुगंध
छिटका रही है
बेबस माली

चाह कर भी हाथ
नहीं बढ़ा सकता
वह अभिशप्त एक
मटमैले स्वपन की
तरह भोर  तक
जा अटकेगा
उसी झरोखे पर
जहाँ से थोड़ी सी
धूप छनती है
सूरजमुखी पर।

 गर्भवती

बदल गई है
जब से तुम आए हो
निखर गई है
जब से तुम आए हो
रसोई में खड़ी मुस्कराती है
मन ही मन बातुनी बतियाती है
दर्पण देख अल्हड़ सी शरमाती है
क्षणिक हलचल पर सिहर जाती है
छुपाती है तुम्हें नजरों से
ढकती है अपना शरीर
कर नहीं सकती मस्तक
पर काजल टीका तो
ईश्वर से दबी दुआयें मनाती है
कभी आवेग में बह तुम दोनो के
बीच आने की कोशिश करता हूँ तो
लड़ती है मुझसे दूर  जाती है
मेरी जद्दोजहद  पर
आंसू भी बहाती है
मुझसे उपर
उठ रही है तुम्हारी माँ
सचमुच
कतरा कतरा माँ बन रही है
तुम्हारी माँ।

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