रीतिकाल में स्त्रीं-यौनिकता का सवाल उर्फ देह अपनी बाकी उनका

नीलिमा चौहान


पेशे से प्राध्यापक नीलिमा ‘आँख की किरकिरी ब्लॉग का संचालन करती हैं. संपादित पुस्तक ‘बेदाद ए इश्क’ प्रकाशित संपर्क : neelimasayshi@gmail.com.

भारतीय संदर्भों में सेक्सुएलिटी का इतिहास लिखे जाने के लिहाज से रीतिकालीन कविता का अपना महत्त्व है । जैसे पाश्चात्य जगत में हिस्ट्री ऑफ सेक्सुएलिटी का प्रथम अध्याय विक्टोरियन काल (1837 – 1901 ) से प्रारंभ होता है  उसी प्रकार वात्स्यायन के कामसूत्र के सैद्धांतिक यौनिकता -विमर्श के बाद पहली बार संभवत: रीतिकाल की कविता में ही इस विमर्श के इतिहास – लेखन के लिए विश्लेषणोपयोगी संदर्भ -बिंदु मिलते हैं । मिशेल फूको ने विक्टोरियन काल के सेक्सुअल रिप्रेशन को विक्टोरियन यौनिकता का  मुख्य कारक माना है , जिसके परिणामस्वरूप यौनिकता के विषय पर तत्कालीन समाज में चुप्पी , प्रतिबंध , नकार और पाखंडपूर्ण वातावरण का जन्म होता है  । यदि रीतिकाल के काव्य को गैरपरम्परागत दृष्टि से आधुनिकता के आईने में देखने का प्रयास किया जाए तो लगभग ऎसा ही पाठ सामने आता है । इसा पाठ के माध्यम से  रीतिकाल को हमारे समय व समाज के सेक्सुएलिटी के इतिहास का उत्सर्ग काल मानने के लिए पर्याप्त आधार दिखाई देते हैं ।

यौनिकता- विमर्श निस्संदेह एक बायोलॉजिकल संदर्भ पर केन्द्रित है और यह जींस या गुणसूत्रों की ऎनोटॉमी है लेकिन इस विमर्श की परिधि में भूगोल विशेष के सामाजिक व सांस्कृतिक कंस्ट्र्क्ट्स भी शामिल होते हैं । व्यक्ति की यौनिकता उसकी देह व अस्तित्व से संबद्ध होकर जितनी निजी अवधारणा है उससे कहीं अधिक सामाजिक सांस्कृतिक संरचनाओं से अंतरसंबद्ध होती है तथा निरंतर निर्मित व पुनर्निर्मित होती है । सेक्सुएलिटी का संबंध व्यक्ति की यौनेच्छा ,यौन-व्यसवहार,  वैयक्तिकता , अस्तित्व से है साथ ही यौनिक संदर्भों को प्रभावित करने वाले प्रत्येक सामाजिक संदर्भ से इसका गहन वास्ता है । व्यक्ति की यौनिकता के अनुभूतिगत आयाम भी हैं, अर्थात यौनेच्छा की अभियोग्यता , सेंसुएलिटी , यौनाभिव्यक्ति की विशिष्टता  ,यौन क्रिया की निजतम मनोनुभूतियां  । स्पष्ट है कि सामाजिक व वैयक्तिक दो विपरीत ध्रुवों से संबद्ध यौनिकता में स्त्री व पुरुष की अवस्थिति भी उतनी ही विपरीत व वैभिन्यपूर्ण होगी । अर्थात स्त्री व पुरुष की भिन्न शारीरिकता ,सामाजिक स्थिति , भौगौलिक स्थिति , सांस्कृतिक संरचनागत असमानताओं का प्रभाव उनकी यौनिक अभिव्यक्ति व अनुभूति दोनों को समान नहीं रहने देते । इसलिए आधुनिक विमर्शों में स्त्री – स्वातंत्र्य के साथ ही स्त्री सेक्सुएलिटी का विमर्श भी अस्तित्व में आया या कह सकते हैं कि यैनिकता – विमर्श से जेंडर विमर्श की आधुनिकतम विमर्श-सरणि‍ शुरु होती है ।

हिंदी साहित्य के रीतिकाल में इन आधुनिक विमर्शों के इतिहास की प्राक्कल्पना के लिए पर्यात्प व विस्तृत अध्ययन सामग्री उपलब्ध है । अपनी शृंगारिकता ,स्थूलता ,दैहिकता और सौंदर्य – केन्द्रीयता के कारण रीतिकाल की आक्षेपग्रस्त कविता अपने समय का पहला यौनिकता का प्रगल्भ इतिहास सामने रखती है । फूको ने हिस्ट्री ऑफ सेक्सुएलिटी की पृष्ठभूमि में जिस महानतापूर्ण ,दंभपूर्ण , प्रपंचकारी सामाजिक परिवेश की बात की है वही परिवेश रीतिकाल की कविता की पृष्ठ्भूमि का भी रहा । शाही दंभ की प्रतिच्छाया में पनपी कविता में शौर्य व शृंगारिकता कविता के प्रधानतम उत्प्रेरक तत्व दिखाई देते हैं । प्रेम पर रसिकता का , संवेदना पर प्रयोजनवादिता का , आत्मानुभूति पर कल्पना का प्राधान्य ही दिखाई देता है । इस पूरे परिवेश में स्त्री की देह ही है और वह भी विशुद्ध ऑब्जेक्टिफाइड अंदाज़ में  । स्त्री का अस्तित्व व उसकी संवेदना-पक्ष ही नहीं उसका सामाजिक कर्म भी दर्ज नहीं है । इस कविता का परिवेश व उसकी रचना प्रक्रिया में ही नहीं उसकी आस्वाद्यता में भी स्त्री की उपस्थिति का नकार है । अत: इस काल की कविता उस रिप्रेशन के अपने चरम पर पहुंचने का संकेत करता है, जिसके बाद भारतेन्दु व द्विवेदी युग में स्त्री की सत्ता के प्रश्न स्थूलता में ही सही पहली बार दिखाई देते हैं । महावीर प्रसाद द्विवेदी के ‘उर्मिला विषयक उदासीनता’ नामक निबंध संकलन में स्त्री के प्रजननांगों ,गर्भधारण व उपेक्षणीय सामाजिक स्थिति की ओर पहली बार किसी शृंखलाबद्ध विचार-सरणि सामने आई । इसी तरह मैथिलीशरण गुप्त की पंचवटी में स्त्री अस्तित्व व स्त्री सेक्सुएलिटी के प्रश्न को कवि सामाजिक विचार का विषय बनाता है । रीतिकाल में अतिशय शृंगारिकता व कामुकता ने स्त्री व स्त्री-देह को उपभोग्य वस्तु में तब्दील कर दिया । इस वस्तुकरण ने स्त्री के समाज ,कविता व इतिहास से विलुप्तिकरण पर जायज़ प्रश्न खडे किए ।

रीतिकाल के काव्य में शृंगारिकता ,नायिकाभेद , सौंदर्य-वर्णन , देह– चित्रण व सामाजिक सांस्कृतिक संबंधों के डिकोडीकरण  के माध्यम  से  उस  काल  की  सेक्सुएलिटी  व   उसमें स्त्री-सेक्सुएलिटी  का अध्ययन किया जा सकता है ।

रीतिकाल की दरबारी कविता को तत्कालीन पुरुष की मसल फ्लेक्सिंग प्रवृत्ति कहना तनिक भी अत्युक्तिपूर्ण वक्तव्य नहीं है । मध्यकालीन सामंती परिवेश में राग-रंग संगीत कलाओं की तरह कविता में स्त्री का पण्यकरण करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है जहां आनंद केवल पुरुष केन्द्रित अवधारणा है व स्त्री के जन्म व वजूद का अंतिम लक्ष्य आनंद का सृजन करने वाली वस्तु मात्र है । भक्तिकाल के विलुप्त आध्यात्मिक संदर्भ तथा दरबारी अभिवृत्ति से जनित विलास -भावना के कारण उपजी कविता में स्त्री एक प्राणहीन संवेदनाहीन आलम्बन ही बनकर रह गई । इस केंद्रिकता का चरम उद्देश्य भोग व विलास तथा शुद्ध ऐन्द्रिकता था । अत; इस भावना के आलम्बन स्वरूप कोई नायिका चाहिए चाहे वह कोई भी हो जैसी भावना ने सेक्सुएलिटी के स्त्री पक्ष को एकदम सारहीन मान लिया । देव ने निस्संकोच रूप  से स्वीकृत किया  है :
काम अंधकारी  जगत ,लखै न रूप कुरूप ।
हाथ लिए डोलत फिरै , कामिनि छरी अनूप ॥
तातैं कामिनि एक ही , कहन सुनन को भेद ।
राचैं पागै प्रेम रस , मेटै मन के खेद ॥

मतिराम, देव, पद्माकर ,आदि कवियों के लिए शृंगारिकता ऐंद्रिकता के उत्सव से कम नहीं थी । यौनिकता के देह व सौंदर्य से इस कदर अंतर्भुक्त हो जाने से स्त्री की यौनिकता के लिए पूर्ण नकार का परिवेश था । स्त्री जन्म का लक्ष्य मानो सौंदर्यवती नायिका बनकर ही सार्थक हो सकता था. अत: कामकलाओं में प्रवीण होना व रूप रस की माधुरी से नायक की यौनिकता को उद्बुद्ध करने में ही स्त्रीत्व परिभाषित होता था । प्रेम व शृंगार की फाँक यहाँ स्पष्ट दिखाई देती है ,  सौंदर्य से जनित आकर्षण से जो उपजता है वह प्रेम की कोटि में तो कहाया है किंतु उसमें बलिदान ,समर्पण व रोमानी साहसिकता का प्राय: अभाव ही है।  प्रेम आत्मा  के परिष्कारक रूप में नहीं अभिव्यक्त हुआ है,  उसमें ऐंद्रिकता का प्राधान्य है और एकांगिता है । स्त्री के लिए प्रेम कुल की कानि को खंडित करने वाला तत्व है, जिसकी एवज में सामाजिक तिरस्कार व निंदा रूपी दंड प्रावधान है । अर्थात स्त्री के लिए अपनी यौनिकता का शारीरिक व भावनात्मक पक्ष त्याज्य है । “काममय होते हुए भी रीतिकाव्य काम को प्रवृत्ति से अधिक कुछ नहीं मानता उसके द्वारा उद्बुद्ध जीवन की गहन मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्याओं से वह अनभिज्ञ है  दृष्टि कोण की यह एकांगिता और गांभीर्य का अभाव रीतिकाल पर लगने वाले आक्षेपों के लिए उत्तरदायी है तथा इसी अगांभीर्य व एकांगिता के कारण सेक्सुएलिटी व जेंडर विमर्श व स्त्री-स्वातंत्र्य आधुनिक विमर्शों के आलोक में रीतिकाल के साथ हीनता का मूल्य आ जुड़ता है । ”इस काल की शृंगारिकता में अप्राकृतिक गोपन अथवा दमन से उत्पन्न ग्रंथियॉं  नहीं हैं,  उसमें स्वीकृत रूप से शरीर सुख साधना है , जिसमें न अध्यात्मिकता का आरोप है, न वासना के उन्नयन अथवा प्रेम को अतीन्द्रीय रूप देने का उचित अनुचित प्रयत्न । जीवन की वृत्तियॉं उच्चतर सामाजिक अभिव्यक्ति से चाहे वंचित रही हों,परंतु शृंगारिक कुंठाओं से मुक्त थीं । इसका परिणाम यह हुआ कि काम जीवन का अंतरंग साधक तत्त्व न रहकर बहिरंग साध्य बन गया” डा. नगेन्द्र  के इस कथन से आधुनिकतम विमर्शों के आलोक में केवल आंशिक सहमति ही हो सकती है । इस काल के यौनिक वर्णनों में समाज व सांस्कृतिक संरचना स्त्री को वासना के केंद्र में प्रतिष्ठित कर रहे हैं व स्त्री के यौनिक अस्तित्व को हाशिए पर धकेल रही हैं । यहॉं काम -क्रिया के सामाजिक , मनोवैज्ञानिक , राजनीतिक ,धार्मिक पहलू दिखाई नहीं देते । यह एकोन्मुखी भावना के रूप में पनपा और एकांगी रूप में अभिव्यक्त हुआ भाव है । अपने सहचर व समाज से निरपेक्ष ही उस आनंद की भी सत्ता है जो इस क्रिया का सहज प्रतिफलन है । स्त्री का यौन सुख भी केवल इस भावना में है कि वह यौनिक रूप से कितनी अधिक संतुष्टि प्रदान करा सकने की योग्यता रखती है ।

सेक्सुएलिटी को सेंसुअस रूप में वर्णित करने की रीतिकाल की कविता पीछे नहीं रही  । काम-क्रीडा के वर्णनों में , विपरीत रति के चित्रों में , प्रणय  निवेदनों में  नायक केंद्रित चित्रांकन हुआ है । नायिका के पैरों को स्पर्श करके विपरीत रति के लिए प्रणय निवेदन करने वाले चित्र में नायिका की रति -दक्षता से प्राप्त होने वाला सुख ही काम्य है । नायिका की स्वेच्छा ,काम अभिरुचि या उसके यौन अस्तित्व का कोई स्वतंत्र रूप नहीं दृष्टव्य है । कामक्रीडा के उपरांत नयिका के आनंद की सघनता नायक की संतुष्टि पर आश्रित है । देह पर टिकी कवि की दृष्टि नायिका के मन में कम ही झांक पाई अगर झांकने भी पाई तो वहां भी उसकी सत्त्ता को पुरुषाश्रित मानकर काल्पनिक वर्णन मात्र किए हैं । ‘इन रसिकों की दृष्टि प्राय: शरीर के सौंदर्य पर ही टिकी रहती थी ,मन के सूक्ष्म सौंदर्य तक कम ही पहुंच पाती थी,और आत्मा का सात्विक सौंदर्य तो उसकी परिधि से बाहर ही था ”   । तत्कालीन सामाजिक व साहित्यिक परिवेश में स्त्री के अस्तित्व के कोई चिह्न नहीं दिखाई देते । देह व सौंदर्य के चित्रणों में स्त्री वस्तुकृत कर दी गई है । नखशिख वर्णन और शिखनख वर्णन के रूप में  सेक्सुअल उत्तेजना को उद्दीप्त करने वाले अंगोपांगों की भूमिका से वह युग बहुत प्रभावित है। स्त्री-देह, संवेदना , काम-स्वीकृति, शारीरिक स्वातंत्र्य व शरीर की छवि -निर्माण में स्त्री की भूमिका को ही दरकिनार किया गया है । स्त्री की देह में अधर ,ग्रीवा, नितंब,कुच,कुचाग्र ,त्रिबली , नाभि आदि अंगों का सौंदर्य चित्रण में एवं कामोद्दीपन के दृश्यों  में चित्रण किया गया है  । यहां सौंदर्य मानो स्त्री के जीवन का अंतिम लक्ष्य हो जिसके आधार पर वह योग्य नायक स्त्री को ग्राह्य मानेगा । कुरूपता ,विरूपता के लिए प्रेम ,शृंगार व कविता में ही नहीं समाज में ही कोई उपयोगिता नहीं है । शृंगार का जन्म सौंदर्य से इतर  नहीं मिलता । सौंदर्य की प्रभावान्विति में आक्रामकता भी है,  व दिव्यता भी परंतु समस्त सौंदर्य दैहिकता पर ही केन्द्रित भी है । विरह वर्णनों में नायिका के स्वास्थ्य के खराब हो जाने संबंधी चित्रण अवश्य हैं, किंतु स्त्री देह को स्वास्थ्य के साथ जोडकर नहीं देखा गया,  न ही स्वास्थ्य के साथ सौंदर्य को । इस देह विमर्श में स्त्री के गर्भाशय की उपस्थिति कविता की कल्पना से बाहर की बात है,  इसलिए इस कविता में मातृत्व के कोई चित्र नहीं मिलते । जिस कविता में बार – बार देह के वर्णन आते हों वहां सेक्सुअल स्वास्थ्य संबंधी या प्रजनन-स्वास्थ्य संबंधी चित्रों का कोई प्रकारांतर से भी संकेत नहीं है ।

नायिका -भेद की परिपाटी का निर्वाह करते हुए रीतिकाल तत्कालीन समाज की मानसिक संरचना की विकृतियों को उद्घाटित करता है  । इस काल में स्त्री काव्य-रचना व मनोरंजन का उपकरण मात्र दिखाई देती है भावहीन व संवेदनाहीन देह मात्र । यह विभेद स्त्री के सेक्सुअली संतुष्टि प्रदान करने की विभिन्न डिग्रियों का ही सरणिकरण प्रतीत होता है । नायिका -भेद व उसके उपभेदों पर दृष्टिपात करते ही उस समय की स्त्री की दयनीय व उपेक्षणीय स्थिति को डिकोड किया जा सकता है । स्वकीया ,परकीया व वेश्या अथवा कुलटा ,प्रेष्या , व सामान्या आदि भेदों से स्त्री के प्रति उपभोगवादी सामाजिक नजरिया उजागर होता है । प्रेम गर्विता , अन्य संभोग दुखिता , सौंदर्यगर्विता ,प्रोषितपतिका स्त्री की जेंडर ट्रेनिंग ही नहीं उसके सामाजिक अस्तित्व की नगण्यता को भी इंगित करते हैं । कुलटा या अधमा जैसे विभेद एक सेक्सुअल ऑब्जेक्ट के रूप में इस्तेमाल होने वाली स्त्री की सामाजिक नियति का अंदाज कराते हैं । इस विभेदीकरण का निहितार्थ यह है कि पारिवारिक संरचना में अपने स्थान के लिए संघर्ष करती स्त्री को अपना स्थान तभी मिल सकता है जब वह रूपवती व कामप्रवीण होकर नायक के लिए काम्य हो । इस तरह के विभेद स्त्री की यौनिक पहचान को कई शरीरेतर व मनोभावेतर कारकों से जोड़ते हैं;   स्त्री के सोचने , महसूस करने या उसमें दखल देने के लिए बहुत कम स्पेस या कहें कि कोई स्पेस नहीं छोड़ते  । बडी होती बच्ची की भी जेंडर ट्रेनिंग यह है कि उसे यौन वस्तु में तब्दील होना है और यौन क्रीड़ा की पारखी बनना है । यहां सखियां ,परिवार ,लोक व नायक के रूप में एक आरोपित छद्म परिवेश में अपने यौनिक -सेल्फ व उसकी अनुभूति के लिए कोई गुंजाइश नहीं है । यहां पति के प्रेम की डिग्री पर ही उसकी पारिवारिक और सामाजिक हैसियत को आश्रित मानकर ज्येष्ठा व कनिष्ठा जैसे विभेद किए गए हैं ।

इस काल में नायिका केवल पत्नी ,उपपत्नी , भाभी , बहू , सखी रूप में है – मां , बेटी ,बहन या सामाजिक रूप से सक्रिय और कर्मशील रूपों के चित्रण नगण्य हैं । स्त्री का शृंगारेतर कोई ऎसा पक्ष नहीं है,  जो कवि को काव्योपयोगी प्रतीत हुआ हो । यौन जीवन ,यौन अनुभवों , यौन कुंठाओं से जनित मनोवैज्ञानिक या सामाजिक विषमताओं का चित्र नदारद है  । यौन प्रक्रिया में स्त्री को जीवित प्राणी मानकर उसके भावजगत की, मनोजगत की विभिन्न स्वाभाविक छवियां नहीं हैं;  न ही या नायक के भी काम भाव या आनंद के सामाजिक मनोवैज्ञानिक और भावात्मक पक्ष अंकित हुए हैं । यौनिकता का अर्थ केवल रस है , लक्ष्य भी केवल रस हैं व परिणति भी केवल रस है । यह आस्वाद्यता पुरुष केन्द्रित है स्त्री आस्वाद्यता के लिए कोई स्थान नहीं है ।रीतिमुक्त काव्य में चूंकि दैहिकता का प्राधान्य नहीं है इसलिए वहां प्रेम की सहजानुभूति के वर्णन मिलते हैं जिनमें पुरुष यौनिकता का प्रवाह नहीं है न ही स्त्री उपभोग्या और सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप में चित्रित है । ‘वह समाज की चेतन इकाई न होकर बहुत कुछ जीवन का उपकरण मात्र है।’

इस काल की कविता में यौन -शक्ति बढ़ाने के लिए नायक के वैद्य के पास जाने और वैद्य-वधू का  स्वपति के अक्षम होने के  , नायिका के पड़ोसी के गर्भ को धारण करने , पुरुष की पत्री में जारज संतान का योग होने  ,स्त्री का देवर के साथ गुप्त प्रेम होने ,नपुंसक पति के दोष को स्त्री द्वारा  स्वयं  पर  ले लिए जाने  , नायिका के कामज्वर से पीडित होने , पारिवारिक वातावरण में रति -निमंत्रण के लिए तरह-तरह के उपाय करने , सखियों द्वारा यौन शिक्षा दिए जाने  जैसे कई चित्र उपलब्ध हैं । किंतु उनसे उस काल की सेक्सुएलिटी के स्त्री पक्ष का कोई मजबूत कंस्ट्रक्ट नहीं बन पाता । न ही उस समय के समाज की सेक्सुअल ओरिएंटेशन की उपरोक्त विमर्श से भिन्न कोई अन्य छवि बनाने के मजबूत आधार मिलते हैं । जैसे स्त्री समलैंगिकता के संकेत मात्र खोजे जा सकते हैं लेकिन समलैंगिकता एक वर्जित विषय था । सेक्सुअल व्यवहार सरणियों के मनोरम चित्र भी दिखाई देते हैं । सेक्सुनएलिटी के साथ नैतिकता , कानून व धर्म के बंधन या पाबंदियां नहीं मिलती किंतु परकीया नायिका के लिए समाज में आदर का भाव नहीं है । जेंडर जन्य व्यवहार पूरी तरह समाजीकरण की प्रक्रिया से उपजा हुआ है यानि स्त्री व पुरुष अपने यौन व्यवहारों की विशिष्टता का निर्वहन करते हैं । यहां यौनिकता जैविक क्रिया मात्र है उसके साथ यौनिक आइडेंटिटी का आयाम जुड़ा भी है तो वह भी पुरुष केन्द्रित है ।स्त्री पुरुषेतर यौनिक अस्तित्व की जद्दोजहद में भी नहीं है बने बनाए खांचों में अपनी यौनिकता को फिट करने में उसकी समस्त ऊर्जा लगी है ।

दरअसल इस युग का सम्पूर्ण काव्य स्त्री सेक्सुएलिटी के दमन व वंचना का काव्य है  । स्त्री की यौनिकता के पूर्ण नकार , मनाही , व उसके संपादन से भरा यह काव्य स्त्री को इतना अधिक वस्तुकृत करता है कि आगामी कालों में इसकी प्रतिक्रियास्वरूप स्त्री -अधिकारों ,स्त्री -अस्तित्व ,स्त्री की यौनिकता जैसे सवालों पर बात होने लगती है । रीतिकाल के आईने में नवजागरण काल व प्रसाद युग का साहित्य तथा स्त्री समानता के प्रश्नों का जन्म हुआ तथा बीसवीं सदी के नव्य  विचार सरणियों के प्रभाववश पैदा हुए स्त्री आंदोलनों का जन्म हुआ माना जा सकता है । सेक्सुएलिटी की अवधारणा जड़ नहीं है उसे परिभाषित व पुनर्परिभाषित किया जा सकता है । भौगौलिक सामाजिक राजनैतिक , धार्मिक ,कानून जैसी संरचनाओं से इसकी परिभाषा व आयाम निर्मित होते रह सकते हैं । सेक्सुएलिटी के कई मुद्दों पर विभिन्न स्त्रीवादी आंदोलन एकमत नहीं हैं तो कुछ विषय निरंतर विचार मंथन की मांग करते हैं । रीतिकालीन सेक्सुएलिटी और आधुनिक पॉर्न जगत में कई समानताएं हैं,  दोनों में स्त्री देह व कामुकता मुख्यत: पुरुष केन्द्रित है व दोनों ही व्यावसायिकता की मांग पर आधारित हैं.  दोनों में आस्वाद्यता का केन्द्र पुरुष है । कुल मिलाकर रीतिकाल आधुनिक यौनिकता विमर्श ,जेंडर विमर्श , स्त्री स्वातंत्र्य के विमर्शों के लिए महत्तरवपूर्ण अध्ययन सामग्री सिद्ध हो सकता है बशर्ते  इसका निरपेक्ष ,पूर्वधारणा रहित ,गैरपारंपरिक व सजग विश्लेषण किया जाए ।

संदर्भ :

१. मिशेल फूको , द  हिस्ट्री ऑफ सेक्सुएलिटी , खंड – 1 ,पृ. 3

.   मिशेल फूको , द  हिस्ट्री ऑफ सेक्सुएलिटी , खंड – 1 ,पृ.17
३.  WHO के अनुसार यौनिकता के चार तत्च बताये  गए हैं:
. i.Sexuality is a central aspect of being human throughout life and encompasses
sex, gender identities and roles, sexual orientation, eroticism, pleasure, intimacy
and reproduction
ii. Sexuality is experienced and expressed in thoughts, fantasies, desires, beliefs,
attitudes, values, behaviours, practices, roles and relationships.
iii. Sexuality is influenced by the interaction of biological, psychological, social,
economic, political, cultural, ethical, legal, historical and religious and spiritual
factors.
iv. Sexuality includes the basic need for human affection, touch and intimacy,
as consciously and unconsciously expressed through one’s feelings, thoughts
and behaviour.
Sexuality may be the origin for happiness and satisfaction on the other hand, but
in cases of sexual dysfunction it may cause frustration and suffering. Sexuality
is a central motivation in couple formation.

Ref: http://www.vaestoliitto.fi/@Bin/263341/Finsex09_Chapter+1.pdf

४.  “विलास की सरिता  दोनों  कूलों  को  तोड्कर  बह  रही  थी।विलास  का  केंद्र – बिंदु नारी  थी ,जिसके  चारों ओर अनेक कृत्रिम  उपकरण एकत्र थे” –
५. डॉ नगेंद्र , रीतिकाव्य  की  भूमिका , नेश्नल  पब्लिशिंग  हौस  ,दिल्ली ,  पृ 167
६.  डॉ नगेंद्र ,रीतिकाव्यकी  भूमिका ,पृ -171
७. ” प्रेम भावना –प्रधान एंव एकोन्मुख होता  है ,विलास या  रसिकता  उपभोग –प्रधान एंव अनेकोन्मुखीहोती  है ,तभी  तो  प्रेममें तीव्रता  होती  है ,रसिकता में  केवल तरलता । रीतिकाल  के  प्रतिनिधिकवि बिहारी , मतिराम,पद्माकर , रसिक ही  थे  प्रेमी नहीं । ”
८. आ. विश्वनाथ प्रसाद  मिश्र , हिंदी  साहित्य  का अतीत , भाग – 2 ,पृ – 58
९.   डॉ नगेंद्र , रीतिकाव्य  की  भूमिका ,पृ – 173
त्यौं त्यौं छुहुं गुलाब सैं छतियां अति सिहराति
चढ़ी हिंडोरे सैं रहें लगी उसासनि साथि
११. आ. विश्वनाथ प्रसाद  मिश्र , हिंदी  साहित्य  का अतीत , भाग – 2 ,पृ 270
१२. डॉ नगेंद्र , रीतिकाव्य  की  भूमिका ,पृ –168
१३.   “शृंगार  के वर्णनोंको बहुतेरे कवियों ने अश्लीलता की  सीमा  तक पहुंचा  दिया ” आ.रामचंद्र शुक्ल,हिंदी  साहित्य का इतिहास ,नागरी प्रचारिणी सभा ,वाराणसी ,पृ -133

१४. ‘नायिका शृंगाररस का आलंबन  है । इस  आलंबनके अंगों का  वर्नन एक स्वतंत्र विषय हो गया और न जाने कितने ग्रंथ केवल नख – शिख वर्णन के लिखे गए ”
आ.रामचंद्र शुक्ल,हिंदी  साहित्य का इतिहास ,नागरी प्रचारिणी सभा ,वाराणसी ,पृ 131
१५.   यह विभाजन नारी  की आंतरिक मनोवृत्तियों से संबद्ध किसीएक निश्चित एवं सर्वव्याप्त आधार को  लेकर  नहीं  किया  गया ,परंतु उसके पीछे कोई  आधार या संगति न हो यह भी बात नहीं है ।वास्तव में यहां हमें विभिन्न आधारों की  संसृष्टि मिलती ,जो अधिकांश  में जीवन  के बाह्य रूपों  पर आश्रित हैं ”
डॉ नगेंद्र ,रीतिकाव्य  की  भूमिका ,पृ 133
१६.   ” नारी  के  व्यक्तित्व – उसके प्रेम- विरह , सुख – दुख ,हाव- भाव ,लीला-विलास का  एक  ही  उद्देश्य  है ,उसकेआकर्षण को समृद्धकरतेहुए उसकोअधिक से अधिक उपभोग्या बना देना । इसीलिए  तो उसमें व्यक्ति के प्रति एकनिष्ठा नहीं है । नायिका  भेद  का  विस्तार नारी के भोग्यरूपों का विस्तार ही  तो  है –रीतिकाल  के पुरुष को नारी-विशेष  की वैयक्तिक सत्ता ( individuality ) से प्रेम नहीं था – उसके नारीत्व  से ही  प्रेम था ” ।
डॉ. नगेंद्र ,रीतिकाव्य की  भूमिका ,पृ 171

१७.  डॉ. नगेंद्र ,रीतिकाव्य की  भूमिका ,पृ 171

१८.   वैद वधू हंसि भेद सौं ,रही नाह मुंह चाहि
जगन्नाथदास रत्नाकर , (सं) बिहारी रत्नाकर , पृ 107

१९. कंत चौक सीमंत की, बैठि गांठि जुराए
पेखि परोसिन कौं प्रिया ,घूंघंट में मुस्काय
रामजी मिश्र , (सं) मतिराम कृत रसराज ,पृ 33
२०.   चित्त पित्त्मारक जोगु गनि भयौ , भयै सुत सोगु
फिरि हुलस्यो जिय जोइसी समुझैं जारज जोगु
जगन्नाथदास रत्नाकर ,(सं) बिहारी  रत्नाकर , पृ 222
२१.  गुरुजन दूजे ब्याह को नित उठ रहत रिसाय
पति की पत राखत वधू ,आपनु बांझ कहाय
रामजी मिश्र , (सं) मतिराम कृत रसराज ,पृ 370

२२.  पति रति की बतियां कहीं सखी लखी मुस्काय
लहि रतिसुख लगियै हियें लखी लजौहीं  नीठि
२३. आ. विश्वनाथ प्रसाद  मिश्र , हिंदी  साहित्य  का अतीत , भाग – 2 ,पृ 264

२४.   झूठे ही ब्रजमें लग्यौ मोहि कलंक गुपाल
सपनेहुं कबहुं हिये लगे न तुम नंदलाल
आ. विश्वनाथ प्रसाद  मिश्र , हिंदी  साहित्य  का अतीत , भाग – 2 ,पृ 271

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