गुलज़ार के नाम एक ख़त

मंजरी श्रीवास्तव

युवा कवयित्री मंजरी श्रीवास्तव की एक लम्बी कविता ‘ एक बार फिर नाचो न इजाडोरा’ बहुचर्चित रही है
संपर्क : ई मेल-manj.sriv@gmail.com

आज गुलज़ार का जन्मदिन है.. मंजरी श्रीवास्तव की एक कविता, जो गुलज़ार के नाम खत है. 

कविता के बारे में कवयित्री 

गुलज़ार मेरा  दिल तब से धड़काते रहे हैं , जबसे  होश संभाला है. अपने पहले प्रेम-पत्र गुलज़ार को ही लिखे हैं मैंने , पर कभी पोस्ट नहीं किये.   उन्हीं ख़तों में से एक ख़त है यह , जो मैंने २००९ में उन्हें लिखा था.  

पत्तों की तरह सरगोशियाँ करते हुए
सितारों और कहकशां जैसे न जाने कितने ख़त पहुंचते रहे होंगे तुमतक
पर मैं लिखती रही हूँ हर्फ़ दर हर्फ़ हर गुज़रते लम्हे में… एक ज़माने से तुम्हें
मुद्दतों से पढ़ती रही हूँ…सुनती रही हूँ…बुनती रही हूँ…गुनती भी रही हूँ तुम्हें
सोचती रही
लम्हे फ़ना कैसे हो जाते हैं…
इस वक़्त कलम मेरे हाथों में है और स्याही जैसे क़तरा…क़तरा ज़िन्दगी बन जाती है..
ये लम्हे भी हवा में उड़ जायेंगे एक दिन.

शायद पैदा होते ही या होश संभालते ही दिल के तलाश करने की एक नामालूम-सी सदा सुनी
एहसास के नूर में चुपके से वो सामान मिल गए जो शायद गुम हो गए थे.

रूमी ने लिखा था – ‘बशनो…अज़ने…चूं हिकायत मी कुनद…’
(बांसुरी से सुनो वो क्या बयान करती है
वो मेरे दिल की हिकायत बयान करती है)

उम्र की इन फ़सीलों पर उड़ते शहबाज़ों को देख रही हूँ
और तुम्हारे शेरों को सज़्दा कर रही हूँ.
ये ख़त नहीं एक नज़्म है तुम्हारे लिए
कि तुमसे बढ़कर कौन जी सकता है इन नज़्मों को …

तुमने वो सामान भी आख़िरकार भिजवा ही दिए न…
जो गीले बिस्तर की शिकन में कहीं रह गए थे
मुट्ठी भर धूप या एहसास भर हथेलियों का दुआ बन जाना
जैसे एक हथेली मेरी, एक तुम्हारी
और इस दुआ पर चुपके से गिरती पानी की एक नौख़ेज़ बूँद.

तुम लम्हों के फ़ना हो जाने से डरते थे न…
इसीलिए लम्हे की हर सांस को पीते रहे चुपके-चुपके घूँट-दर-घूँट
ऐसे, जैसे कोई मुस्कुराते हुए ईद की सिवइयां उडाता है
या फिर…
ख़ुशबू की सड़क पर
चुप-चुप उस बांसुरी का गीत जो सुनाता है
जिसे बजानेवाला आँखों के प्रेम में तो होता है पर नज़र नहीं आता.

गीली रेत के घरौंदे भी तुम्हें पसंद थे न…
और उनका टूट जाना भी
टूटने का दर्द चुप-चुप रखते रहे अपने भीतर
और जीत आये दुनिया को

दुःख अन्दर रखकर हर बार चाबी समुद्र में फेंकते रहे एक लम्बे अरसे तक और
उछालते रहे हवा में वह संगीत जिसकी तलाश हर जवाँ दिल को हर लम्हे रहती है.

गीले बिस्तर की शिकन तो भिजवा ही दी है पर
थोड़ी-सी आंच रह गई है अब भी वहीँ…तुम्हारे पास…
शायद नहीं भिजवाओगे उसे
वो आंच तुम्हारा ही एक हिस्सा है ना…?