निराला की कविता में स्त्री मुक्ति का स्वर

नीरज कुमार

निराला का ब्याह तेरह (13) बरस की उम्र के आस-पास हो गया था। तकरीबन सोलह (16) बरस की उम्र में उनका गौना हुआ। संभवतः तेईस (23) वर्ष की उम्र में निराला विधुर हो गए थे। निराला की साहित्य साधना के प्रथम खंड में रामविलास शर्मा ने उल्लेख किया है-युद्ध और महामारी में चोली-दामन का सम्बन्ध है। यूरोप में लड़ाई खत्म होने पर भारत में महामारी फैली। सुर्जकुमार को तार मिला-तुम्हारी स्त्री सख्त बीमार है, फौरन आओ। सुर्जकुमार ने तुरंत डलमऊ के लिए कूच किया। राम-राम करते जब ससुराल पहुँचे, तब मालूम हुआ, मनोहरा देवी पहले ही चिता में जल चुकी हंै।1 जिस युद्ध का उपर्युक्त पंक्तियों में जि़क्र आया है, वह सन् 1914 से 1918 तक चलने वाला प्रथम विश्व युद्ध है। निराला का जन्म वर्ष सन् 1896 है। वर्ष 1996 में उनके पैतृक गाँव गढ़ाकोला में उनका जन्म शताब्दी वर्ष मनाया गया था। वर्षानुसार गणना करें तो निराला का शारिरिक साथ मनोहरा देवी से तेईस वर्ष की उम्र में छूट गया था। विधुर होने के बाद निराला तकरीबन ब्यालिस (42) वर्ष और जिए।

निराला

निराला के पुत्र रामकृष्ण उस समय चार बरस के थे। पुत्री सरोज मात्र साल-भर की थी। निराला पर दूसरे विवाह का दबाव था। बच्चे छोटे थे। निराला तैयार नहीं हुए। दो-तीन बरस बाद दबाव और बढ़ा। लड़की एन्ट्रेस पास थी। निराला छब्बीस के थे। आकर्षण प्रबल था। मन डावाँ-डोल। सरोज का चेहरा सामने था। जन्म कुंडली सरोज के हाथ में दे दी। कुंडली में दो विवाह लिखे थे। बालिका सरोज ने कुंडली के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इस तरह निराला ने अपनी शैली में भाग्य अंक को खण्डित कर दिया।2 आकर्षण पर दायित्व भारी पड़ा।
निराला का एक उपन्यास है- कुल्लीभाट। उपन्यास में कुल्ली का चरित है। निराला का अपना चरित भी आ गया है। थोड़ा कम। उपन्यास में विधुर पुरुष की मनोदशा देखी जा सकती है। निराला अत्यंत व्यथित थे। ख़ुद को संभाला। साहित्यिक कर्म में डूब गए। शोक सागर से उभर आए। ससुराल गए हुए थे। कुल्ली मिले।-
कुल्ली ने मुझे देखते हुए आवेश से पूछा, ‘‘आपने दूसरी शादी नहीं की?’’
मैंने कहा, ‘‘करने की आवश्यकता नहीं मालूम दी।’’
पूछा, ‘‘रहते किस तरह हैं?’’
उत्तर दिया, ‘‘एक विधवा जिस तरह रहती है।’’
कुल्ली, ‘‘विधवाएँ तो तरह-तरह से व्यभिचार करती हैं।’’
मैं, ‘‘तो मैं भी करता हूँगा।’’3

कुल्ली भाट वास्तविक पात्र है। उनका नाम पथवारी दीन भट्ट था। निराला उन्हें अपना मित्र मानते थे।4 कुल्ली से निराला की उक्त बातचीत संभवतः 1925 के आसपास का वाकया है। उस समय तक निराला साहित्यिक दुनिया में दाखिल हो चुके थे। उनकी बहुत-सी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी थी। उन्हीं रचनाओं में से एक रचना है- ’भारत की विधवा’। यह कविता 27 अक्तूबर, 1923 के ‘मतवाला’, साप्ताहिक, कलकत्ता में प्रकाशित हुई थी।5 कविता का ढब छायावादी है। भाषा तत्सम है। कुछ दूर तक लाक्षणिक है। भावुकता यथायोग्य है। कथ्य यथार्थ संगत है। दृष्टि विसंगति-उद्घाटक है। यथार्थ का दबाव कविता को मात्र कोरी कल्पना नहीं बनने देता। स्त्री जीवन के जटिल प्रश्न से कवि जूझता है। हालाँकि कविता सहानुभूतिजन्य लगती है। सहानुभूति से जुड़े जोखिम की ललकार भी कविता में है। आगे इस पर विशेष बात की जाएगी।
निराला रचनावली में यह कविता ‘विधवा’ शीर्षक से छपी है। कविता की पहली पंक्ति में कवि ने विधवा स्त्री को जिस उपमा से सम्बोधित किया है। वह महत्वपूर्ण है। कवि कहता है-
वह इष्टदेव के मन्दिर की पूजा-सी6

विधवा स्त्री के व्यक्तित्व में कवि को आध्यात्मिक पवित्रता का भान होता है। क्या यह मात्र छायावादी भावुकता है? अगर निराला वस्तुतः ऐसा समझते हैं तो कुल्ली का विरोध क्यों नहीं करते! यह कविता कुल्ली से हुई बातचीत से पहले लिखी गई थी। निराला के जीवन के घटनाक्रम से यह स्पष्ट हो जाता है। ‘कुल्लीभाट’ उपन्यास में भी इसके संकेत हैं। ऐसा तो नहीं हो सकता कि निराला के विचार कुल्ली से मिलने तक बदल गए हो। आखिर मामला क्या है? समाज जिसे व्यभिचारी मानता है वह कवि के लिए ‘पूजा-सी’ पवित्र क्यों है? आइए इस पर विचार करते हैं।

कुल्ली की बातचीत का संदर्भ ले तो विधुर पुरुष के लिए पुनर्विवाह करना सहज-स्वाभाविक है। ‘सरोज-स्मृति’ का संदर्भ देखे तो खुद निराला की सास उनका विवाह करवाने को तत्पर है। विधवा स्त्री को विधवा की तरह रहना होता है। इच्छा रहते हुए भी वह दूसरा विवाह नहीं कर सकती। विधुर पुरुष का दूसरा विवाह उसकी इच्छा-अनिच्छा पर निर्भर है। समाज-परिवार उस पर दूसरे विवाह का दबाव बनाता है। वही समाज-परिवार विधवा बालिका-युवती-स्त्री को जबरदस्ती विधवा बनाएँ रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। इच्छा-अनिच्छा की कोई परवाह नहीं। न जाति-बिरादरी धर्म को न घर-परिवार-समाज को। उस पर तुर्रा यह है कि विधवाएँ व्यभिचार करती हैं। किसके साथ? क्यों? तथाकथित व्यभिचार की स्थितियाँ पैदा किसने की? यह प्रश्न बहुत बड़ा है। इस प्रश्न का उत्तर देना किसी पुरुष के बस की बात नहीं है। यह विषय सहानुभूति का नहीं है। स्वानुभूति का है। कुल्ली से हुई बातचीत से दशकों पहले एक स्त्री इसका जवाब दे चुकी थी। सन् 1882 में छपी पुस्तक ‘सीमन्तनी उपदेश’ में विधवा स्त्री की मनोदशा का जैसा वर्णन लेखिका ने किया है। वैसा बाद में शायद ही कोई कर पाया हो। उस समय-समाज में विधवा स्त्री के मन की दशा के बारे में लिखना साहसपूर्ण काम था। लेखिका ने अपनी बात तार्किक ढंग से रखी। निस्संकोच। निर्विकार। यथातथ्य। पुस्तक के चैदह (14) नम्बर मजमून का उनवान है- ‘जवाब एक औरत का’- जवाब देखिए।

जब परमेश्वर ने इनको (औरतों को) पैदा किया तो सब इन्द्रियाँ मर्दों के बराबर दीं। यह कुछ बात नहीं कि एक खाविंद मर जाए तो साथ सब इन्द्रियाँ अपना असर छोड़ दें। जब तक देह में दम है ये जरूर वक्त पर अपना असर करेंगी। ऐसा कोई दुनिया में पैदा नहीं हुआ जिसने इनके फै`ल को रोका हो। बड़े-बड़े महात्माओं की इन्द्रियाँ चलायमान हो गई है। फिर औरत क्या चीज़ है जो रोक सके।… ज़रा सोच के देखों तो मालूम हो कि मर्दों से सौ गुना ज्यादा सब्र इनमें हैं, मगर फिर भी यह इन्द्रियाँ अपना असर करती है। बस लाचार होकर हम बदकाम करती हैं क्योंकि दूसरी शादी हमको करने नहीं देते, उधर हमें इन्द्रियाँ चैन नहीं लेने देती। उस वक्त हमारी आँखें अंधी हो जाती हैं। नफे नुकसान की कुछ खबर नहीं रहती।… अगर इस हालत में वह अपने ज़रूरी कामों के लिए चोरी करे सो पाप नहीं।… जरा इंसाफ की नजर से देखों कि यह मुसीबतें इनसे कौन उठवाता है?7
जानबूझकर आँख मूंदे बैठे समाज के पास इंसाफ की नज़र कहाँ से आएगी। ऐसे समाज की आँख में उंगली डालकर लेखिका अपनी बात सामने लाती है। कुल्ली कहते हैं- विधवाएँ व्याभिचार करती हंै। ‘सीमन्तनी उपदेश’ का यह वाक्य इस मायने में गौरतलब है- दूसरी शादी हमको करने नहीं देते, उधर हमें इन्द्रियाँ चैन नहीं लेने देती। इसलिए लाचार होकर हम बदकाम करती हैं। लेखिका शरीर की स्वाभाविक ज़रूरत को पूरा करना ’बदकाम’ मानती हैं। कुल्ली भी इसे बदकाम कहते हैं। दोनों में फ़र्क क्या है? कुल्ली सामंती मानसिकता के चलते ऐसा सोचते हैं। ‘सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका इसे सामाजिक विसंगति-असमानता की उपज मानती है। दूसरे विवाह की छूट हो तो तथाकथित बदकाम की नौबत नहीं आएगी।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध को भारतीय नवजागरण के रूप में जाना जाता है। उत्तर भारत में इस काल खंड को डाॅ. रामविलास शर्मा ने हिन्दी नवजागरण के रूप में पहचाना है। विधवा पुनर्विवाह पर नवजागरण काल के समाज सुधारकों ने विशेष बल दिया। विधवाओं की सामाजिक-आर्थिक दुर्दशा के मार्मिक प्रसंग भारतेन्दु मंडल के रचनाकारों के यहाँ मिल जाते हैं। व्यभिचारियों का शिकार होती विधवाओं का जि़क्र भी मिलता है।8 स्त्री यौनिकता का प्रश्न संभवतः इन रचनाकारों के चिंतन में नहीं है। लड़की के लिए विवाह की उम्र निर्धारित करते हुए ‘भाग्यवती’ उपन्यास में श्रद्धाराम फिल्लौरी यह जि़क्र ज़रूर करते हैं कि बारह वर्ष से पहले लड़की की लड़के की चाह नहीं होती।9 विधवा स्त्री की भी चाह होती है। उसका भी ‘स्वप्न’ होता है।10 इस पर भारतेन्दु युग के रचनाकार नहीं सोच पाए। जिस विषय पर तमाम ‘रैशनल’ विचारक-सुधारक नहीं सोच पाएँ। उस विषय पर एक स्त्री की बेबाक अभिव्यक्ति अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। तथ्य शीशे की तरह साफ। आर-पार दिखता है। शब्द सीसे की तरह उबलते हुए। फ्रीज मेंटेलिटी को पिघला देते हैं। जड़ सामंती मानसिकता को झकझोरती ‘सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका को शायद इसीलिए ‘एक अज्ञात हिन्दू औरत’ होकर रह जाना पड़ा है।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में तथा बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में विधवा पुनर्विवाह व्यापक बहस का विषय रहा है। इसके पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क दिए गए हैं। एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो विधवा पुनर्विवाह को ‘पाप’ समझता है। सती प्रथा पर प्रतिबन्ध के बावजूद ये वर्ग स्त्रियों के चरित्र में ‘सतीत्व’ देखने का पक्षधर है। बाल विधवाएँ जिन्होंने अपने पति का चेहरा भी नहीं देखा, उनसे आजीवन ‘सतीत्व’ की माँग करता है। विधवाओं को अकेलेपन के अंधेरे में ढकेल देता है। अपनी समझ में उन्हें अनाकर्षक बनाए रखता है। सिर मुड़वा देना। शृंगार न करने देना। रंगीन कपड़े न पहनने देना। इसी मानसिकता का प्रमाण है। हैरानी की बात यह है कि इस वर्ग में सिर्फ पुरुष ही नहीं स्त्रियाँ भी है। ऐसा सोचने वाली स्त्रियाँ निराला के समय में भी मौजूद थी। यहाँ तक कि कविता भी लिख रही थी। अक्तूबर 1923 में निराला की कविता ‘भारत की विधवा’ छपी है। अप्रैल 1923 में चाँद पत्रिका में- ‘समाज पर हिन्दू-विधवा’ शीर्षक से कविता छपी है। कवयित्री का नाम छपा है- ले. श्रीमती कृष्ण कुमारी जी बघेल। लेखिका विधवा स्त्रियों के जीवन की त्रासदी से वाकि़फ है। समाज द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों को भी जानती है। फिर भी वह विधवा पुनर्विवाह की पक्षधर नहीं है। विधवा स्त्री का वैधव्य लेखिका के लिए ऊँचे आदर्श का विषय है। कठोर सामाजिक नियमों के बंधनों को वह ढीला नहीं करना चाहती। उसका मानना है कि प्रत्येक जाति के जीवन का निश्चित उद्देश्य होता है। रीति-रिवाजों और नियमों का पालन सबको करना चाहिए। वरना समाज का सच्चा उत्कर्ष न हो पाएगा-
द्रवित हुआ है हे समाज तू,
सुन विधवाओं का क्रन्दन।
पर ढीला मत करना अपने,
नियमों का कठोर बन्धन।
देख, सम्हल! तू मत गिरने दे,
भारत के ऊँचे आदर्श।
जहाँ नहीं आदर्श वहाँ कब-
हो सकता सच्चा उत्कर्ष।11

लेखिका की भाषा पर पितृसत्तात्मक सामंती संस्कारों का असर साफ तौर पर दिखता है। सामंती समाज जिन नियम-कायदों को गढ़ता है। कालांतर में वह सामाजिक मानसिकता बन जाते हैं। जिन समाजों में सामंती स्थितियाँ दीर्घकाल तक रही हैं। उन समाजों की मानसिक बनावट कमोवेश एक जैसी हो जाती है। उन समाजों के ‘अधिकार वंचित’ वर्ग भी वैसा ही सोचने लगते हैं। अधिकार वंचित वर्ग-विशेषतः स्त्रियाँ और दलित- जब तक बना दी गई मानसिक बनावट से बाहर नहीं आते, तब तक सामंती स्थितियाँ बनी रहती हैं। सामंती समाज की सफलता और जीवन यथास्थिति बनाए रखने में है। उपर्युक्त कविता में लेखिका यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में है। कविता में एक जगह पर वह ‘इन्द्रिय सुख खोने से आस टूटने का’12 जि़क्र करती हैं। मुख्यतः लेखिका पुरुष समाज को उलाहना देना चाहती है। वासना में डूबा पुरुष समाज ‘विधवाओं के जीवन के महान गौरव’ को नहीं समझ सकता। स्त्री-यौनिकता का प्रश्न लेखिका के सामने नहीं है। तथाकथित सामाजिक आदर्श की बात वह करती है। पतित होकर कठोर पापाचार करने वाली विधवाओं का उल्लेख कविता में है। लेखिका ऐसी स्त्रियों को ‘धर्म-नीति के ज्ञान’ से रहित, ‘नारी के महान कर्तव्य’ से अनभिज्ञ मानती है।

क्या ‘सीमंतनी उपदेश’ की गूंज हिन्दी क्षेत्र में नहीं सुनी गई थी! ज्बकि हिन्दी प्रदेश के बाहर भी इस पुस्तक का असर दिखता है। पंडिता रमाबाई ने अपनी पुस्तक ‘The High Caste Hindu Women’ में इस पुस्तक का एक अंश उद्धृत किया है।13 ‘चाँद’ के जिस अंक में कृष्ण कुमारी जी बघेल की कविता छपी है। वह विधवा अंक है। इस अंक में और भी कई रचनाकारों की रचनाएँ हैं। श्रीमती विमला देवी चैधरानी का उपन्यास ‘विधवा’ शीर्षक से उन्हीं दिनों धारावाहिक रूप में छप रहा था। जनवरी 1923 के अंक में इस उपन्यास की पहली किस्त छपी थी। उपन्यास की पहली कुछ पंक्तियाँ देखिए-
अभागी विधवा हूँ। अपवित्र हूँं दुखिया हूँ, और क्रूर हिन्दू समाज की सतायी- एक अबला हूँ। मेरी जीवनी लगातार दुःखों से परिपूर्ण है।14

खुद को अभागा, अपवित्र, दुखियाँ और अबला कहकर संभवतः लेखिका पाठक वर्ग से सहानभूति चाहती है। अप्रैल, 1923 के अंक में उपन्यास का शीर्षक ‘विधवा अथवा अभागी कामिनी की आत्म-कथा’ छपा है। सम्पादकीय टिप्पणी में सम्पादक ने इस रचना को सामाजिक उपन्यास माना है।15 उपन्यास की कथा आदर्शवादी ढंग से रची गयी है। बाल विधवा कामिनी पर ससुराल में व्यभिचारिणी होने का आरोप लगता है। उसका सम्बन्ध देवर से जोड़ा जाता है। देवर ज़हर खाकर जान दे देता है। परिवार और समाज से लड़ने के बजाय अपनी पत्नी को भी विधवा की स्थिति में छोड़ जाता है। उपन्यास में लेखिका ने आंकड़े देकर यह बताया है कि विधवाओं को वेश्या बनाया जा रहा है। विधवाएँ स्वयं भी हिन्दू समाज के चंगुल से मुक्त होने के लिए वेश्यावृत्ति अपना रही हैं।

‘विधवा’ उपन्यास की तरह एक और रचना का जि़क्र मिलता है। ‘सरला-एक विधवा की आत्म जीवनी’ शीर्षक से यह रचना स्त्री-दर्पण पत्रिका में धारावाहिक रूप में छपी थी। लेखिका का नाम दुखिनीबाला छपा है। इस रचना को पुस्तकाकार रूप में छपवाने का श्रेय सुश्री प्रज्ञा पाठक को जाता है। वे इस रचना को हिंदी क्षेत्र में स्त्री-मुक्ति आंदोलन का दस्तावेज़ मानती हैं।16 पुस्तक निश्चित रूप में महत्वपूर्ण है। बाल विधवा को जिस सहूलियत के साथ मायके में रखा जाता है। उस पर विश्वास करना ज़रा कठिन है। जिस मासूमियत के साथ विधवा जीवन से सम्बन्धित सवाल पूछे गए हैं। वह हृदयद्रावक हैं। उठने-बैठने, खाने-पीने, पढ़ने-लिखने का जो सुभीता विधवा बेटी को दिया जाता है। अगर वास्तव में यह स्थिति होती तो यह आत्म जीवनी न लिखी जाती।
‘सीमन्तनी उपदेश’ के तीस-चालीस बरस बाद तक भी हिन्दी प्रदेश में विधवा स्त्री के जीवन की वास्तविक समस्याओं को लेकर कोई गंभीर रचनात्मक काम संभवतः नहीं हुआ। इस तरह की पहल के लिए चिंतन के ढाँचे में जिस टूट-फूट की ज़रूरत थी, वैसी आवश्यक टूट-फूट शायद नहीं हो पाई थी। विधवा को अभागिन मानना और विध्ुार के लिए लड़कियों की कमी न होने का भाव ‘सरला: एक विधवा की आत्मजीवनी’ तक में मौजूद है। पितृसत्तात्मक समाज, विवाह संस्था, धर्म शास्त्र के नाम पर लगाए जाने वाले तथाकथित नैतिक बंधनों को चुनौती देने की स्थितियाँ समाज में नहीं बन पा रही थी। जैसी खरी-खरी बातें ‘सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका ने अपनी पुस्तक में कहीं हैं, वैसी चेतना बाद के रचनाकारों में नहीं है। कृष्ण कुमारी बघेल ‘सामाजिक नैतिकता और आदर्श’ के चलते विधवा पुनर्विवाह नहीं चाहती। ‘सीमन्तनी उपदेश’ के 18 नम्बर मज़मून का शीर्षक है- ‘पुरुष की हर रोज की मार खाने से रांड रहना अच्छा है। इस अध्याय का पहला वाक्य है- आजकल के जमाने में जिसका एक खाविंद मर जावे मेरी राय में उसको दूसरी शादी नहीं करनी चाहिए।17 लेखिका की यह राय किसी आदर्श या नैतिकता के कारण नहीं बल्कि जीवन की ठेठ यथार्थ स्थितियों से बनी है। शादी से होने वाली तकलीफों का जि़क्र करते हुए वे आगे कहती हैं- …शादी करने से अपने अखत्यारात दूसरे के अखत्यार में देने पड़ते हैं। …अगर इस दुनिया में कुछ खुशी है तो उन्हीं को है जो अपने तई आजाद रखते हैं। हिन्दूस्तानी औरतों को तो आजादी किसी हालत में नहीं हो सकती। बाप, भाई, बेटा, रिश्तेदार- सभी हुकूमत रखते हैं। मगर जिस क़द्र खाविंद जुल्म करता है उतना कोई नहीं करता।18 यह पंक्तियाँ सन् 1882 में लिखी गई है। इस अज्ञात हिन्दू औरत को हिन्दुस्तानी औरत की पारिवारिक वैवाहिक, सामाजिक स्थिति कितनी ज्ञात है। इन्हें किसी स्त्री-विमर्श या आंदोलन का इंतजार नहीं था। सामंती मानसिक बनावट से बाहर आने की ज़रूरत भर थी। लेखिका समझती है कि पितृसत्तात्मक सामंती समाज की हुकूमत मंे रहने वाली हिन्दुस्तानी औरत किसी हालत में आज़ाद नहीं रह सकती। उसे आजाद होने के लिए पितृसत्ता के घेरे को तोड़ना ही होगा। विवाह संस्था की अमानवीयता से वह वाकिफ है। पति के रूप में पुरुष के जुल्मों के दिल दहला देने वाले ब्योरे पुस्तक में अनेक स्थानों पर मौजूद हैं। स्त्री यौनिकता की प्रबल पक्षधर होने के बावजूद लेखिका का मानना है कि सिर्फ इन्द्रिय सुख के लिए फिर से विवाह संस्था में दाखिल होना अपने आपको दोबारा गुलाम बनाना भी है। लेकिन ‘बदमाशी’ करने की बजाय दोबारा विवाह करना लेखिका बेहतर मानती है।

पंडिता रमाबाई

इन्द्रिय सुख अथवा आकर्षण की दुर्दमनीयता को समझते हुए भी एक स्तर पर ‘सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका इन्द्रियों पर नियंत्रण की बात करती है। पितृसत्तात्मक समाज में विवाह संस्था को वह स्त्री पराधीनता का बड़ा कारण मानती है। विवाह संस्था का विकल्प अलबत्ता वह नहीं देती। एक तरह के आदर्शवाद की ओर लेखिका बढ़ती है। यह आदर्शवाद बहुत व्यवहारिक नहीं है। हाँ, उस ज़माने में वह चुनौतीपूर्ण ज़रूर रहा होगा। विधवा स्त्री को लेखिका आज़ाद स्त्री मानती है। कहती है- बस, इस आज़ादी को गनीमत समझ अपने तन-मन-धन को पर-उपकार में लगाओ। उसमें (पुनर्विवाह में) सिर्फ एक इन्द्रिय को खुशी होगी और इसमें (पर उपहार में) अपने आत्मा को आनंद और गैरों की इन्द्रियाँ सुख पाकर आशिष देंगी।19 आत्मा के आनंद की बात करते हुए भी लेखिका जीवन के यथार्थ धरातल से जुड़ी रहती है। ‘दुखिनीबाला’ की तरह स्त्री-पुरुष की समानता की बात करते हुए स्वर्ग-नरक की फैंटेसी नहीं रचती। कृष्ण कुमारी बघेल की तरह सतीत्व के आदर्श को नहीं बखानती। वैधव्य को एक जीवन स्थिति मानती है। इस जीवन-स्थिति से जुड़ी समस्याओं को सामाजिक आचरण पद्धति की विसंगतियों से जोड़ कर देखती है। इसके लिए जि़म्मेदार सामाजिक संस्थाओं को चिन्हित करती हैं। इसलिए उसके निशाने पर पितृसत्ता, विवाह संस्था, परिवार, धर्म जैसी संस्थाएँ आ जाते हैं।

क्या निराला ने ‘सीमन्तनी उपदेश’ रचना पढ़ी थी। ‘The High Caste Hindu Women उनकी निगाह से गुज़री थी। निराला के विभिन्न विषयक निबंधो, के  सम्पादकीय टिप्पणियों को देखने से लगता है कि वह अपने समय-समाज पर पैनी दृष्टि रखते थे। सरस्वती, विशाल भारत, माधुरी, प्रभा, चाँद ही नहीं स्त्री दर्पण, गृह लक्ष्मी तथा स्त्री धर्म शिक्षक जैसी स्त्री केन्द्रित पत्रिकाएँ भी वे देखते रहे होंगे। सुश्री नीरजा माधव ने अपनी पुस्तक ’हिन्दी साहित्य का ओझल नारी इतिहास’ में छायावाद युग के आस-पास की जिन स्त्री रचनाकारों का जि़क्र किया है।20 तत्कालीन रचनाकारों की निगाह से सम्भवतः वे ओझल न रही होंगी। भारतेन्दु युग से लगातार हो रहे स्त्री सम्बन्धी लेखन से निराला वाकिफ़ रहे होंगे। विधवाओं की सामाजिक स्थिति उन्हें आंदोलित करती रही है। अपने लेखन के आंरभिक दौर में निराला विधवा-जीवन की समस्याओं को लेकर चिंतित दिखाई देते हैं। ‘मारवाड़ी सुधार’ मासिक कलकत्ता के फरवरी 1923 में अंक में निराला की एक कविता छपी- ‘बाबा और नाती’। उन दिनों निराला महिषादल स्टेट की नौकरी छोड़कर कलकत्ता आ चुके थे। पहले वे रामकृष्ण मिशन की पत्रिका ‘समन्वय’ से जुड़े। बाद में महादेव सेठ की पत्रिका ’मतवाला’ में आ गए। मनोहरा देवी को गए हुए चार बरस बीत चुके थे। निराला विधुर होने का अर्थ जानते थे। विधुर पुरुष और विधवा स्त्री की सामाजिक स्थिति के परस्पर अंतर को खूब पहचानते थे। तीसरी आजी की मृत्यु के बाद चैथी शादी करने को तत्पर वृद्ध बाबा के सामने काॅलेज में बी0ए0 के छात्र नाती को खड़ा कर देते हैं। बीस साल की विधवा पुत्री को ब्रह्मचारिणी बनाए रखने वाले सत्तर पार के वृद्ध पर पड़ने वाली प्रेम चांदनी की शीतलता को आंच में बदलने वाले भाव से नाती कहता है।
आस वृथा करते विवाह की, ब्याह नहीं होने दूंगा
एक बहिन को जीवनभर, सिर पीट नहीं रोने दूंगा।21

‘सरोज स्मृति’ की पंक्तियों को साक्ष्य माने तो छब्बीस बरस की आयु में निराला के लिए इंट्रेस पास अट्ठारह वर्षीय लड़की का रिश्ता आया। निराला ने सरोज का चेहरा देखा। विवाह नहीं किया। उपयुक्र्त कविता लिखते समय निराला की उम्र सत्ताईस बरस रही होगी। क्या बाबा के सामने नाती के रूप में निराला स्वयं खड़े हैं। निराला के समूचे साहित्य में शिक्षित युवक-युवतियां तथाकथित सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ते हुए देखे जा सकते हैं। बाबा को लगता है- नाती ने मरजाद धो दी है- उनकी करमगति उनसे रूठ गई है। पुरुष की सामाजिक मान्यता प्राप्त करमगति यह है कि एक के बाद एक विवाह करता चला जाए। स्त्री को सामाजिक मरजाद में बांधकर रखे। स्त्रियों के हाथ में ‘सीता’ और ‘सावित्री’ की कथाएं देकर बगल में चैरासी आसन दबाने वाले पुरुषों की नैतिकता को निराला ने ’देवी’ कहानी में उधाड़ा है।22 उसकी जड़े उनकी प्रारंभिक कविता ’बाबा और नाती’ में देखी जा सकती हैं। 1923 के ’चांद’ के विधवा अंक की रचनाएं इस भावभूमि तक नहीं पहुंच पाती हैं। ‘सरलाः एक विधवा की आत्म जीवनी’ की लेखिका दुखिनी बाला भी इस विसंगति का संकेत भर करती हंै। सरला अपनी भाभी की मृत्यु पर सियापा करने आई स्त्रियों को भाई की दूसरी शादी का लीला क्षेत्र रचते देख नाराज़ होती है। अपने स्तर पर बहिष्कार भी करती है। लेकिन डट कर सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। सरला के माँ-बाप उसके लिए सारी सुविधाएं जुटाते हैं। दूसरी शादी की बात वे नहीं करते। क्या सरला घर में रह कर बिगड़ी न होगी! उसके लिए ’बदकाम’ करने की नौबत न आयी होगी। अगर ऐसा नहीं है तो बेचैन कर देने वाली इन्द्रियों के हाथों विवश होकर ‘बदकाम’ करने वाली वे विधवा स्त्रियां कौन हैं जिनका उल्लेख ‘सीमन्तनी उपदेश’ में है। भीतर तक झकझोर देने वाले बयान देती वे विधवा स्त्रियां कौन हैं जिनका जि़क्र स्फुरणा देवी ने अपनी रचना-‘अबलाओं का इंसाफ’ में किया है।23

‘दुखिनी बाला’ सरला से कर्नल टाॅड का राजस्थान पढ़वा सकती है। स्त्री-पुरुष समानता – असमानता के सामाजिक, दार्शनिक, जैविक कारणों पर चर्चा करवा सकती है। जीवन के वास्तविक यथार्थ के नज़दीक नहीं ले जाती। सरला पति पत्नी विहीन उस समाज की कल्पना करती है जहां स्त्री-पुरुष समान हैं। लेकिन यह जगह स्वर्ग में है। दुनिया में नहीं। यहाँ प्रश्न स्त्री की मुक्ति का है। उसकी इच्छा का है। सामाजिक स्थिति का है। निसंदेह स्त्री यौनिकता का भी है। किसी रचना को कमतर या श्रेष्ठ कहने से बात नहीं बनेगी। देखना यह होगा कि कौन सी रचना ऐसी है जो भविष्य का रास्ता खोलती है। विधवा बेटी के लिए जे़वर, गहने का फि़क्र करने वाली माँ को ‘सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका कैसे फटकारती हैं। देखिए ’ माँ कहती है ‘‘भला इसने दुनिया में आकर देखा ही क्या है। हमारे आगे न पहने तो कब पहनेगी? हम पहन ओढ़ कर बैठें और यह हमारे सामने मन मार के बैठे?’’

लेखिका कहती हैं – वाह री समझ! कोई पूछे इनसे जब आप पलंग पर गर्म होती हैं उस वक्त लड़की के मन का क्या बंदोवस्त करती हो ? सच है,जेवर बिन नहीं देखी जाती ख़ाविंद ब़गैर देखी जाती है।24
यह सवाल एक स्त्री ही पूछ सकती है। पितृसत्ता में रचा-बसा दी गई स्त्री। गहने, कपड़े, श्रृंगार पिटार में उलझा दी गई स्त्री, स्त्री के पक्ष में कैसे सोच पाएगी! डाॅ0 विश्वनाथ त्रिपाठी अपने वक्तव्यों में अक्सर कहा करते हैं-क्रांतियां संतानवती होती हैं। रचनाएं भी संतानवती होती हैं। ’सीमन्तनी उपदेश’ की उपयुक्र्त पंक्तियों को निराला की कविता ‘बाबा और नाती’ की इन पंक्तियों के साथ मिलाकर पढि़ए-
बीस बरस की विधवा बेटी, ब्रह्मचारिणी बनी रहे-
जहां सत्तर पार पिता पर पड़ी प्रेम चांदनी रहे।25

संदर्भ भिन्न है। वहां मां है, यहां पिता है। काल खंड भिन्न है। सामाजिक संरचना एक ही है, पितृसत्तात्मक बनावट भी एक है। इसलिए समस्या भी एक जैसी है। समस्या पर विचार करने वाले रचनाकारों की शैलीगत भिन्नता होते हुए भी तर्क पद्धति एक जैसी है। समस्या का ट्रीटमेंट भी परस्पर काॅम्पलीमेंटरी है। ’सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका जैसी बेबाक़ी निराला में नहीं है। अलबत्ता समयानुकूल दृढ़ता और क्रांतदर्शिता निराला के यहां भी दिखती है। पितृसतात्मक समाज में पुरुष की मनमानी मान्य है। इस व्यवस्था के तमाम सामाजिक संस्थान पुरुष को ‘शक्ति सम्पन्न’ बनाते हैं। यह शक्ति केवल ‘सवर्ण’ पुरुष को दी जाती है। इस शक्ति का इस्तेमाल पुरुष-स्त्री और अवर्णों-दलितों को दबाए रखने के लिए करता है। पितृसत्तात्मक सत्ता पुरुष को जितना जन्मना ‘पुरुष’ बनाती है उससे कहीं ज़्यादा स्त्री और अवर्ण को जन्मना ‘स्त्री’ और ‘अवर्ण’ बनाती है। यह सत्ता ऐसा करने के लिए वर्ण धर्म ,रीति-रिवाज, ब्राह्यचार को सख़्ती से लागू करती है। इस समाज में रहने वाली स्त्री सिखा दी गई नैतिकता और बना दी गई मर्यादा के घेरे में बंधी रहती है। सीमोन द बोउवा की यह स्थापना की स्त्री जन्मती नहीं बनायी (गढ़ी) जाती है। बाद में आई है।26 जिन रचनाओं पर यहां चर्चा हो रही है वे पहले आ चुकी थी। इस मायने में निराला के अनेक स्त्री पात्र ’सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका के वंशज लगते हैं।
निराला के उपन्यास-कहानियों के कई स्त्री पात्र पितृसत्तात्मक सत्ता को चुनौती देते हैं। पितृसत्ता द्वारा ‘गढ़’ दी गई स्त्री की छवि से बाहर आकर अपना स्वत्व पहचानने वाली ऐसी ही एक स्त्री पात्र है-सावित्री। सावित्री निराला के उपन्यास ‘अलका’ का अत्यंत सशक्त पात्र है। सावित्री श्रृंगार नहीं करती। सुहाग चिह्न धारण नहीं करती। सुहाग चिह्नों को सौभाग्य का लक्षण मानकर धारण करने वाली स्त्रियों के लिए वह कहती है। ‘‘सुहाग प्राणों का विषय है, किसी चिह्न का धारण उसे धवल नहीं करता। दागे हुए साँड या कम्पनी विशेष के घोड़ों की तरह किसी देवता या पुरुष के नाम चढ़ जाने की मुहर लगाकर फिरना स्त्रियों के लिए सम्मान जनक कदापि नहीं हंै।’’27 सावित्री की ‘भाषा’ सीमन्तनी उपदेश की भाषा के बेहद करीब है। दोनों की भाषा पर संस्थानिक दबाव नहीं है। स्त्री के मन, उसकी इच्छा और सम्मान की बात दोनों करती हैं। हालांकि सावित्री सुहाग को प्राणों का विषय मानती है, परंतु वह स्त्री के सम्मान के साथ समझौता नहीं करती। अपनी गरिमा और पहचान वह किसी पुरुष से जोड़ने के बजाय अपने व्यक्तित्व से जोड़ती है। ‘सुकुल की बीबी’ कहानी की कुंवर, पदमा और लिली कहानी की पद्मा ‘ज्योर्तिमयी’ कहानी की ज्योर्तिमयी, अधूरे उपन्यास ‘चमेली’ की चमेली जैसे स्त्री पात्र पितृसत्तात्मक सामंती समाज से लोहा लेते हैं।

‘ज्योतिर्मयी’ कहानी में बाल-विधवा ज्योतिर्मयी और उसकी बहिन के एम0एम0 अंग्रेजी पास देवर विजय का संवाद इस संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है। सत्रह वर्षीय विधवा युवती विजय से विधवा विवाह पर चर्चा करती है। विजय उसे पतिव्रता स्त्रियों का आदर्श समझाता है। पतिव्रता स्त्रियों पर टिप्पणी करते हुए ज्योतिर्मयी कहती है- ‘‘मानती रहें, चूंकि आप ही लोगों ने, आप ही के बनाये हुए शास्त्रों ने जो हमारे प्रतिकूल हैं, हमें जबरन गुलाम बना रक्खा हैय कोई चारा भी तो नहीं कैसी बात है’’।विजय कहता है- ‘‘नहीं पतिव्रता पत्नी तमाम जीवन तपस्या करने के पश्चात् परलोक में अपने पति से मिलती है।’’युवती मुस्कुराती हुई बोली- ‘‘अच्छा बतलाइए तो, यदि पहले ब्याही स्त्री इसी तरह स्वर्ग में अपने पूज्यपाद पति-देवता की प्रतीक्षा करती हो, और पति देव क्रमशः दूसरी, तीसरी, चैथी पत्नियों को मार-मारकर प्रतीक्षार्थ स्वर्ग भेजते रहे, तो खुद मरकर किसके पास पहुंचेंगे? युवती खिलखिला दी।28

पितृसत्ता द्वारा गढ़े गए, स्त्री विरोधी शास्त्रों की अतार्किकता और अमानवीयता को एक साधारण पढ़ी-लिखी युवती अपने अनुभव से पलभर में षडत्रयंत्रकारी सिद्ध कर देती है। स्त्री को पतिव्रता बनाये रखने वाले पुरुष समाज को तथाकथित आदर्श, नैतिकता और परलोक के ढोंग को थोथा साबित कर देती हैं। ज्योतिर्मयी के मन में विवाह करने की इच्छा है। वह इसे स्पष्ट करने से चूकती नहीं है। विजय के प्रति अपने आकर्षण को ज्योतिर्मयी छिपाती नहीं। यही स्थिति ‘अलका’ उपन्यास की विधवा पात्र वीणा की भी है। उसके मन में भी अजित के लिए प्रबल आकर्षण हैं। वह इसका संकेत भी करती है। लेकिन निराला के यह विधवा पात्र व्यभिचार अथवा बदकाम की ओर नहीं बढ़ते हैं। सामाजिक स्थितियों के भीतर अपने लिए सम्मानजनक राह तलाशते हैं। ज्योतिर्मयी विजय से विवाह करना चाहती है। विजय सामाजिक दबाव के चलते तैयार नहीं होता। निराला दूसरा रास्ता निकालते हैं। धोखे से ब्याह करवा देते हैं। कहानी न तो विधवा जीवन की समस्याओं का समाधान देती है। समाज के लिए कोई सार्थक संदेश भी कहानी में नहीं हैं। जैसे को तैसा भावबोध नहीं होता। अलबत्ता बदले की भावना बनकर रह जाता है। ज्योतिर्मयी की तरह विजय भी यदि पितृसत्ता की विसंगतियों को चुनौती देता तो कहानी अपने उद्ेश्य में ज़्यादा सफल होती। यह महत्वपूर्ण है कि निराला विधवा युवती की मनस्थिति को समझने में सफल रहे हैं। यही स्थिति ‘अलका’ उपन्यास की वीणा की भी है। निराला लिखते हैं-‘क्या विधवा-जैसी दुखी विधाता की दूसरी भी सृष्टि होगी, जो सखियों में भी खुले प्राणों से बातचीत नहीं कर सकती। भोग सुखवाले संसार के बीच में रहकर भी भोग सुख से जिसे विरत रहना पड़ता ह,ै आँख के रहते भी जिसे चिरकाल तक दृष्टिहीन होकर रहना पड़ता है।29

भोग-सुख वाले संसार से विरत कर दी गई विधवा युवती की मनोदशा को निराला ने उपन्यास में रेखांकित किया है। अपने मन-प्राण की बात किसी से न कहने वाली असहाय युवती के मन की करुण पुकार अजित सुन लेता है। किसी अनावश्यक सामाजिक दबाव को न मानने वाला क्रांतिकारी युवक विधवा युवती के सामने विवाह का प्रस्ताव रखता है। वीणा सहज ही तैयार हो जाती है। पितृसत्तात्मक सामंती मानसिकता में रहने वाली विधवा युवती के लिए अपमान उपेक्षा, दःुख-तकलीफ और बंधनों के अलावा कुछ नहीं है। इन स्थितियों में रहती स्त्री ‘बदकाम’ और ‘व्यभिचार’ का जोखिम तो उठा लेती है। पितृसत्ता को चुनौती देकर अपनी सामाजिक स्थिति नहीं बदल पाती। पितृसत्ता प्रदत्त मानसिकता से बाहर आकर ही स्त्री पुरुष परस्पर एक-दूसरे के लिए सखा – सहायक और आत्मीय हो सकते हैं। अजित और वीणा का संबंध ऐसा ही है। पितृसत्ता द्वारा निर्धारित ‘मरजाद’ का पालन करती स्त्री ’सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका के अनुसार बेचैन इन्द्रियों के दबाव में ‘बदकाम’ की ओर बढ़ती है या फिर स्फुरण देवी की रचना ‘अबलाओं का इंसाफ’ में बयान दर्ज करवाती ‘व्यभिचारी’ स्त्री बनती है।

निराला ने इस अंतर को साफतौर पर समझा था। देह सुख के लिए अपने सम्मान से समझौता करने वाली विधवा स्त्रियों का उल्लेख उनके साहित्य में है। अधूरे उपन्यास ‘चमेली’ में ऐसी स्त्रियों को देखा जा सकता है। पं0 शिवराम दत्त के परिवार में दो विधवा स्त्रियां हैं। उसके छोटे भाई की पत्नी (भैहू) और बहिन। भैहू का सम्बन्ध जेठ से है। बहन का संबंध गांव के पुरुष खोदाया बिसाते से है। पितृसत्तात्मक सामंती मानसिकता की ‘मरजाद’ का रूप जेठ और भैहू के संवाद में देखिए-‘‘सुनो’’, पण्डित जी ने आदर से कहा। भैहू एक कदम बढ़कर बिल्कुल सटकर जैसी खड़ी हुई। ‘‘वह दवा जो तुम्हें दी थी, इसे भी पिला दो।’’ ‘‘तुम निरे वह हो’’, जेठ की छाती पर धक्का मारकर भैहू ने कहा, ‘‘बाम्हन ठाकुरों के यहाँ कोई बेवा वह दवा खिलाये बिना रखी भी जाती है? वह गावदी होगा जो रक्खेगा। एक-आध हमल रह जाता है, लापरवाही से । यह वह सब कर चुकी है।’’30 यह है पितृसत्ता का असली चेहरा। पुरुष और स्त्री की मानसिक बनावट ऐसी है कि उनके खाने और दिखाने के दाँत अलग-अलग हैं। बिना स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ के कुछ न पाने वाले पण्डित जी के ‘संयम’ का असली रूप उपयुकर््त पंक्तियों में देखिए। अवध के इस ब्राह्मण देवता ने ‘रामचरित मानस’ तो अवश्य पढ़ा होगा। तुलसी की यह पंक्तियां कद्ाचित उसे याद नहीं रही होंगी।
अनुज वधू भगनि सुतनारी
सुन सठ् कन्या सम एहचारी।31

स्त्री को भोग की वस्तु समझने वाला सामंती समाज इन पंक्तियों का पाठ सैकड़ों दफा करेगा। आचरण में कभी नहीं लाएगा। पितृसत्तात्मक सामंती समाज के आचरण के इस दोगलेपन को निराला जानते थे। सामाजिक बदलाव के पक्षधर निराला के युवा स्त्री-पुरुष पात्र इसलिए थोप दी गई नैतिकता, आदर्श और परम्परागत जीवन पद्धति को स्वीकार नहीं करते। अपने व्यवहार से वे न केवल नई जीवन पद्धति को प्रस्तावित करते हैं बल्कि नई सामाजिक संरचना का भी आह्वान करते हैं। उनके लिए जीवन स्थितियां सामाजिक संस्थानों की परिणित है न कि भाग्य-नियति अथवा शास्त्र का परिणाम। इसलिए वे सामाजिक संस्थाओं के रद्दो-बदल में यकीन रखते हैं। भौतिक-सामाजिक स्थितियों को जीवन स्थितियों का कारण मानने की वजह से निराला के साहित्य का मिज़ाज अपने समय के साहित्य से थोड़ा अलग हो जाता है। कृष्ण कुमारी बघेल, विमला देवी चैधरानी, दुखिनीबाला या स्फुरणा देवी की तरह वे नहीं सोच पाते। ’सीमन्तनी उपदेश’ की लेखिका एक अज्ञात हिन्दू औरत की तरह निराला पितृसत्तात्मक सामंती समाज के अत्याचारों की शिकार स्त्री की मानसिक और भावनात्मक दशा को समझने की कोशिश करते हैं। संभवतः इसलिए उनके यहां ज्योतिर्मयी और वीणा जैसे पात्र हैं और ‘विधवा’ जैसी कविता है।

निराला विधवा स्त्री के बारे में क्या सोचते थे ? उसकी मनोदशा को कैसे समझते थे? यह जानने के लिए ‘विधवा’ अथवा ‘भारत की विधवा’ कविता का एक नज़दीकी पाठ करने का प्रयास यहां किया जाएगा। इसी क्रम में उनके साहित्य में विधवा जीवन संबंधी संदर्भ आएं हैं-उनका भी जि़क्र करने की कोशिश की जाएगी। सुविधा के लिए कविता को कुछ हिस्सों में विभाजित करके समझने की ज़रूरत है। आइए पहला हिस्सा देखते हैं-
वह इष्टदेव के मन्दिर की पूजा-सी
वह दीपशिखा-सी शान्त, भाव में लीन
वह क्रूर काल-ताण्डव की स्मृति-रेखा-सी
वह टूटे तरु की छुटी लता सी दीन-
दलित भारत की ही विधवा है।32
पहले हिस्से में निराला विधवा स्त्री का परिचय पाठक से करवाते हैं। यह परिचय उनके समकालीन तथा पूर्व साहित्य में उल्लिखित विधवा स्त्री की छवि से भिन्न है। इस भिन्नता का कारण है कवि का नज़रिया। विधवा स्त्री की पारिवारिक और सामाजिक दशा की पड़ताल निराला यथार्थपरक स्तर पर करते हैं। स्त्री के विधवा-जीवन के लिए जिन पारिवारिक, सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रगत आदर्शें की दुहाई दी जाती है वे निराला की चिंता का विषय नहीं है। उनकी चिंता का मुख्य विषय है-विधवा स्त्री की जीवन-स्थितियाँ, मनोदशा, इच्छाएं और सबसे बढ़कर उसके सपने। निराला की यह चिंता उनके चिंतन से प्रभावित है। वे विधवा स्त्री की जीवन स्थितियों को नियति से जोड़कर नहीं देखते। जीवन की अन्य स्थितियों की तरह इसे भी एक स्थिति मानते हैं। इस स्थिति की कवि अपरिवर्तनीय नहीं मानता। स्थिति की कष्टमयता से वह अनुभव के स्तर पर वाकिफ़ हैं। कष्ट में पड़े मनुष्य को जिस भावनात्मक-मानवीय सरोकार की ज़रूरत होती है, कवि उस सरोकार के लिए समाज का आह्वान करता है। विधवा स्त्री को परंपरागत नज़रिए से देखने वाले समाज के सामने कवि उपमाओं की झड़ी लगा देता है। ऐसी उपमाएं जो विधवा स्त्री के लिए कभी इस्तेमाल नहीं की जाती थी। उपर्युक्त पंक्तियों पर ध्यान दीजिए पांच में से चार पंक्तियों में ‘सी’ शब्द का प्रयोग किया गया है। क्यों? क्योंकि कवि समाज को बताना चाहता है कि विधवा स्त्री वैसी नहीं है, जैसी आप समझते हैं। उसे किस रूप में देखना चाहिए यह कविता में प्रस्तावित है।

परम्पराग्रस्त नज़रिया प्रस्तावित नवाचार को अमूमन स्वीकार नहीं करता। इसलिए कवि उपमाओं के लिए प्रयुक्त प्रतीकों के पीछे की जीवनगत बिम्बमाला को भी कविता में लाता है। अपने तई कवि विधवा स्त्री के जीवन विम्बों के लिए जिन उपमागत प्रतीकों को कविता में सिरजता है, उनकी वास्तविकता को जानता-मानता भी है। इसलिए पाँचवी पंक्ति में निश्चयात्मक शब्द ‘ही’ का प्रयोग करता है। इस प्रयोग से कवि स्पष्ट कर देता है कि विधवा स्त्री को किस रूप में देखना होगा। ’ही’ का प्रयोग एक तरफ नवाचार का दबाव बनाता है, वहीं दूसरी तरफ कविता में अनुपस्थित परम्परागत सामाजिक दृष्टि को गतकालिक भी बनाता है। जैसे परम्परागत दृष्टि से विधवा स्त्री को देखने वाला समाज उसे अपवित्र-अभागी-अशुभ आदि न जाने क्या-क्या कहेगा। कविता इस दृष्टि को अपदस्थ करती है। परम्परागत दृष्टि सिद्ध गणितीय समीकरण से विधवा को अशुभ मानती है। जैसे वर्ण विशेष में जन्म लेते ही वर्णगत संस्कार मनुष्य में खुद-ब-खुद आ जाते हंै। वैसे स्त्री के विधवा होते ही वह अपने आप अशुभ-अभागी हो जाती है। ‘सरला’, एक विधवा की आत्म जीवनी’ में दुःखिनीबाला ने इस परम्परागत सामाजिक दृष्टि को दिखाया है। विधवा होने पर सरला को ससुराल में कैसे अनुभव होते हैं- देखिए – ‘‘उस दिन पहिले-पहिल यह मालूम हुआ कि विधवा का अर्थ कुलक्षिनी है, अभागिनी है।३विधवा होने से पहले मैंने ये शब्द कभी नहीं सुने थे। मेरे बाबू जी कभी कभी मुझे ‘आओ लक्ष्मी’ कहकर बैठाते थे किंतु अब मैं कुलक्षिनी हूं, अभागिनी हूं। मैं सब तरह से वही हूँ,वैसी ही हूँ, मेरे शरीर में , मेरी शक्तियों में, मेरी मस्तिष्क में बिना किसी प्रकार के अंतर हुए ही केवल मात्र विधवा होने से मैं कुलक्षिनी और अभागिनी
हो गई’’33

विधवा स्त्री की जीवन स्थिति से निर्धारित जीवन दशा को दःुखिनीबाला अस्वीकार करती है। निराला भी इसे नहीं मानते। जीवन स्थिति और जीवन दशा के बीच से परम्परागत दृष्टि को हटाकर निराला वहां मानवीय दृष्टि को रख देते हैं। इसलिए उनकी कविता में विधवा, कुलक्षिनी-अभागिनी नहीं बल्कि पवित्रतम है। कवि उसे इष्टदेव के मन्दिर की पूजा-सी कहता है। जिस समाज में विधवा स्त्री को व्यभिचारी समझा जाता है। तथाकथित रूप में व्यभिचारी बनाया जाता है। उस समाज में विधवा के लिए ‘पूजा-सी’ सम्बोधन चुनौती की तरह है। सामंती मानसिकता के लोग मांगलिक एवं शुभ कामों में विधवा स्त्री की छाया भी नहीं पड़ने देते थे। निराला उस समाज के मंगलतम-पवित्रतम कार्यकलाप के साथ विधवा स्त्री की छवि जोड़ देते हैं। ऐसा करना या कहना कोई बहुत व्यावहारिक स्थिति नहीं है। निराला उसे ‘दीपशिखा- सी शांत भाव में लीन’ रूप में भी देखते हंै। ‘दीप-शिखा’ प्रतीक अपने आप में महत्वपूर्ण है। दीपक की लौ अपने को दग्ध करके दूसरों को आलोकित करती है। इस क्रम में वह स्वयं निरंतर नष्ट होती है। इतने पर भी वह शांत है। अकम्प है। बिना विचलित हुए जल रही है। यह विधवा स्त्री के संयम-धैर्य और त्याग का प्रतीक रूपक है। वह अपने आप में सिमटी है। जिस मनःस्थिति में समाज ने पहुंचा दिया है। उसी भाव में लीन है। शिकायत नहीं। विद्रोह नहीं। छटपटाहट भी नहीं। तीसरी पंक्ति में निराला स्पष्ट करते हैं कि वह ऐसी क्यों हंै। निराला लिखते हैं -‘वह क्रूरकाल-ताण्डव की स्मृति रेखा सी’ है। काल ने क्रूरता पूर्वक जो ताण्डव किया है स्त्री का वैधव्य उसका परिणाम है। उसकी स्मृति है। अब काल का ताण्डव नहीं है। उसका परिणाम लेकिन है। काल मायने क्या? समय! महाकाल! जहां तक ताण्डव का प्रश्न है, वह तो महाकाल शिव से जुड़ा है। कल्याणकारी शिव से नहीं प्रलयंकर शिव से जुड़ा नृत्य। कविता में काल शिवत्व से जुड़ा नहीं है। यहां उसका विशेषण ‘क्रूर’ है। ‘काल’ यहां दार्शनिक-आध्यात्मिक अर्थ नहीं देगा। विधवा स्त्री की जीवन स्थिति के संदर्भ में काल की क्रूरता का मौलिक अर्थ होगा। सामाजिक स्थितियों में काल की क्रूरता सामाजिक आचरण में खुलनी चाहिए।
निराला की इस कविता के बाईस बरस बाद शमशेर ने एक कविता लिखी-’बात-बोलेगी’। कविता में उन्होंने काल को भीषण विशेषण दिया। काल की भीषणता के कारण स्थितियां क्रूर हो जाती हैं। सोचने समझने की क्षमता समाप्त हो जाती है। बुद्धि कंगाल हो जाती है। नतीजा घर भर मजूर हो जाता है। पंक्तियां देखिए-
दैन्य दानव; काल
भीषण; क्रूर
स्थिति; कंगाल
बुद्धि; घर मजूर।34

इस कविता में भी काल की भीषणता सामाजिक स्थितियों में खुलती है। विधवा कविता में ‘क्रूर काल का ताण्डव’ पितृसत्तात्मक सामंती समाज का विशिष्ट आचरण है। स्थिति विशेष में यह मनुष्य के जीवन पर इस कदर हावी होता है कि जीना मुहाल हो जाता है। वर्तमान समाज में खाप पंचायत की गतिविधियों पर ध्यान दीजिएा। बात स्पष्ट हो जाएगी। होना तो यह चाहिए कि किसी टूटे हुए पेड़ की छुटी हुई लता की तरह बेसहारा विधवा स्त्री को सहारा दिया जाए। होता उल्टा है। उस पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते हैं। वैधव्य यदि नियति के संदर्भ में काल की क्रूरता का परिणाम है तो उसकी निरंतरता सामंती समाज बनाए रखेगा। अगर वैधव्य एक जीवन-स्थिति है तो उसे बदलना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक जीवन स्थिति कालांतर में बदल जाती है। काल की क्रूरता के बावजूद खुद को दीप-शिखा सी शांत और भाव में लीन बनाए रखने वाली विधवा स्त्री निराला को इष्टदेव के मन्दिर की पूजा सी लगती है। कवि समूचे समाज का ध्यान इस स्त्री की जीवन दशा की ओर खींचना चाहता है। ‘जागो फिर एक बार’ कविता में ‘कालचक्र’ में दबे भारतीय समाज को जाग्रत करते हुए मुक्त होने का संदेश निराला देते हैं।35 वैसे ही यहां वे क्रूर काल ताण्डव की शिकार विधवा स्त्री की मुक्ति की बात करते हैं। ‘दलित भारत’ वस्तुतः पराधीन भारत है। पराधीन भारत को मुक्त करवाने के लिए स्वाधीनता आंदोलन चाहिए। पराधीन स्त्री को मुक्त करवाने के लिए सामाजिक आंदोलन चाहिए। विधवा कविता इसी समाजिक आंदोलन की एक कड़ी है।
आइए दूसरे हिस्से पर बात करते हैंः-
षड्-ऋतुओं का श्रृंगार,
कुसमित कानन में नीरव-पद-संचार,
अमर कल्पना में स्वच्छंद विहार-
व्यथा की भूली हुई कथा है,
उसका एक स्वप्न अथवा है।36

इन पंक्तियों के माध्यम से निराला समाज को यह अहसास दिलाना चाहते हैं कि विधवा स्त्री का भी कोई स्वप्न हो सकता है। पति के न रहने का दुःख पत्नी के लिए निश्चित रूप में बहुत बड़ा होता होगा। एकबारगी लगता होगा कि जीवन समाप्त हो गया है। जीवन में अब कुछ नहीं बचा। लेकिन यह मनःस्थिति है -वस्तु स्थिति नहीं। पितृसत्तात्मक सामंती समाज इसी मनः स्थिति में स्त्री को हमेशा बने रहने के लिए बाध्य करता है। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि कोई भी मनःस्थिति हमेशा के लिए नहीं बनी रह सकती। कोई भी मनुष्य न तो हमेशा खुश रह सकता है और न ही परेशान या दुःखी। समय के अंतराल पर बड़े से बड़े दुःख भूल जाते हैं या उनकी तीव्रता कम हो जाती है। धनीभूत दुःख से उपजा भावावेग सहज जीवन व्यापार को खण्डित कर देता है। स्थगित कर देता है। भावावेग कम होते ही जीवन व्यापार फिर से अपनी पुरानी चाल में आ जाता है। हू-ब-हू वैसा न भी हो तो लगभग वैसा तो होता ही है। इस स्थिति को न समझने वाला समाज विधवा स्त्री-युवती-किशोरी को हर प्रकार के बंधन में बांधे रखना चाहता हैं। उसे जीवन की तमाम सुख सुविधाओं से वंचित रखना चाहता है। कपड़े-लत्ते,गहने-जेवर तो दूर खाने-पीने, हंसने-बोलने-बतियाने की भी मनाही रहती है। जीवन जगत से संबंध बनाने वाली ज्ञानेन्द्रियों पर भी सामंती समाज पहरा बिठा देता है। रूप-रस-गंध स्पर्श के बिना कोई कैसे जी सकता है। इनके आकर्षण से कोई कैसे बच सकता है। संभवतः इसलिए सामंती समाज का सौन्दर्य-बोध उपभोग मूलक और कुंठाग्रस्त होता है। स्त्री और पुरुष के लिए सामाजिक कायदे मुख़्तलिफ़ होते हैं। पुरुष समाज स्त्री की मनःस्थिति को समझ नहीं पाता। समझना नहीं चाहता। ऐसा समाज आचारण को संचालित करने वाले कायदों से मनोविकारों को भी नियंत्रित करने लगता है। मनोविकारों की स्वभाविकता, सहजता और स्वतः स्फूर्तता को नहीं समझ पाता। मनः स्थिति और वस्तुस्थिति के द्वैत अथवा विषमता से निर्मित आचरण को यह समाज अनैतिक मानता है। मनःस्थिति के अनुकूल वस्तुस्थिति यह समाज बनने नहीं देता। बेचैन इन्द्रियों के हाथों लाचार स्त्री के आचरण को ‘बदकाम’ कहेगा। उसे दूसरा विवाह नहीं करने देगा। बात यही तक नहीं है। अगर विधवा स्त्री ने मनमर्जी माफिक कपड़ा पहन लिया। हंस-बोल लिया। तब भी उसकी खैर नहीं। महादेवी वर्मा का एक रेखाचित्र-’भाभी’- इस मायने में बहुत महत्वूपर्ण है। उन्नीस वर्षीय विधवा मारवाड़ी युवती की मनःस्थिति और वस्तुस्थिति का अत्यंत मार्मिक और दिल दहला देने वाला वर्णन महादेवी वर्मा ने किया है। रंगों पर प्राण देने वाली विधवा युवती आठ वर्षीय बालिका के साथ गुड्डे-गुडि़या का खेल-खेलती है। गुड्डे-गुडि़या का श्रृंगार पिटार करती है। काला लहंगा और सफेद ओढ़नी पहनने को अभिशप्त युवती को वह एक रोज़ अनायास रंगीन ओढ़नी ओढ़ा देती है तो वह कितनी प्रसन्न होती है- देखिए… दबे पांव जाक़र मैंने उस ओढ़नी को खोलकर उसके सिर पर डाल दिया, वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। रंगों पर उसके प्राण जाते ही थे…. आश्चर्य नहीं कि वह क्षण भर के लिए अपनी उसी स्थिति को भूल गयी, जिसमें उसके लिए रंगीन वस्त्र वर्जित थे और नये खिलौने से प्रसन्न बालिका के समान, एक बेसुधपन में उसे ओढ़, मेरी ठुड्डी पकड़कर खिलाखिला पड़ी।37

रंगीन कपड़ा और खिलखिलाहट ही उसके लिए ‘बदकाम’ बन जाते हैं। ससुर और ननद की क्रूरता का तांडव उस युवती को झेलना पड़ता है। अपनी विवाहिता बेटी के लिए रंगीन घाघरे-ओढ़नी लाने वाला पिता पुत्रवधू को रंगीन कपड़े पहने देख क्रोध से कांपने लगता है। लगभग हम उम्र ननद-भाभी की इच्छाएं भी एक होगी। इस ओर ससुर का ध्यान नहीं जाता। पितृसत्तात्मक समाज की व्यवहार बुद्धि इसी तरह मनःस्थिति और वस्तुस्थिति में द्वैत उत्पन्न करती है। विधवा होने मात्र से रंगों के प्रति आकर्षण अपने आप खत्म हो जाना चाहिए। जीवन के प्रति किसी तरह का आकर्षण नहीं होना चाहिए। निराला और महादेवी वर्मा, दोनों ही ऐसा नहीं मानते। निराला के कथा साहित्य में आए विधवा पात्र अपने मन की इच्छा व्यक्त करने का साहस करते हैं। निराला यह स्पष्ट करते हैं कि पितृसत्तात्मक सामंती समाज प्रदत मानसिकता में जीने वाले पात्र ऐसा नहीं कर पाते। ऐसे पात्र उनके कथा साहित्य में भी ‘बदकाम’ करते पाए जाते हैं। अधूरे उपन्यास चमेली के संदर्भ में ऊपर ऐसे पात्रों का जि़क्र आया है। दूसरी तरफ सामंती समाज को चुनौती देने वाले पात्र अपने जीवन केा नया रूप देते हैं। ‘ज्योतिर्मयी’ कहानी का उल्लेख हो चुका है। ‘अलका’ उपन्यास के एक पात्र वीणा के मन में उठने वाली भावनाओं पर ध्यान दीजिए । विधवा वीणा अजित के प्रति आकर्षित है। अजित पढ़ा-लिखा आधुनिक युवक है। सामंती समाज की रिवायतों को नहीं मानता है। भोग-सुखवाले संसार में भोग सुख से वंचित वीणा को मन की भावना को समझता है। वीणा का वैधव्य अजित के मन में उठने वाली कोमल भावनाओं के आड़े नहीं आता । यही स्थिति वीणा की भी है। ‘अलका’ उपन्यास की निम्न पंक्तियां इस संदर्भ में विशेष रूप से दृष्टव्य हंै – ’’कैसे दो परस्पर विरोधी संग्राम वीणा के जीवन में छिड़े हैं। एक ओर तो मरूस्थल के पथिक का सा चित्त सदैव व्याकुल है, दूसरी ओर उसके जीवन की अदृश अप्सरा अपनी सोलहों कलाओं से विकसित, उसके हृदय के तारों को खींच-खींचकर चढ़ा रही है, प्रति-जीवन की रंगभूमि में जैसे मृदु चरण उतरकर अपनी वासना-विह्वल नई रागिनी गाया करती है, गाना चाहती हैय यह ज्ञान नहीं कि यह विधवा है इसके उज्ज्वल वस्त्र पर काले छींटे पड़ेंगे-जीवों को साँस-साँस पर पैदा हुई प्राण-प्रियता में बांधकर चिर-अधीन कर रखने वाली प्रकृति देह की विटपी को वासन्तिक पृथुल पल्लव-भार, सुमनाभरण सौरभमद से भर रही है।38

उपर्युक्त पंक्तियों में उल्लिखित वीणा के जीवन का परस्पर विरोध संग्राम दरअसल पितृसत्तात्मक सामंती समाज द्वारा निर्धारित जीवन आचारण तथा आलम्बनगत जीवन स्थितियों से उद्दीप्त मनोविकारों का द्वंद है। समाज विधवा वीणा को जीवनभर मरूस्थल में व्याकुल पथिक सा प्यासा रखना चाहता है। जबकि वीणा सामने बहते मीठे जल के सोते का ठंडा पानी छककर पीना चाहती है। ‘जीवन की अदृश्य अप्सरा’ मन के भीतर का सुंदर है, शुभ है, कल्पना है, इच्छा है। इसी अप्सरा को निराला ने कविता में ‘अमर कल्पना’ में ‘स्व्छंद विहार’ लिखा है। समाज आचरण-स्वभाव को कर्तव्यरूढ़ बनाना चाहता है। ‘अप्सरा’ आचरण-स्वभाव को आदिम प्रवृत्तियों के अनुकूल संचालित करना चाहती है। इसलिए निराला ने कविता में लिखा है- उसका एक स्वप्न अथवा है – यह अप्सरा सोलहों कला सम्पूर्ण है। कहने का तरीका अलग है, लेकिन बात निराला ‘सीमंतनी उपदेश’ की लेखिका जैसी ही कह रहे हैं। अप्सरा के सोलह कला सम्पूर्ण होने का अर्थ जीवन के प्रति भरपूर आकर्षण है। समाज धर्म होता है। मानव धर्म होता है। मन और देह का भी धर्म होता है। और धर्मों की तरह मन और देह धर्म को निभाना ज़रूरी होता है। सामंती समाज की यह ख़ास पहचान होती है कि वह स्त्री को मन और देह के धर्म से हमेशा विमुख रखना चाहता है। निराला स्पष्ट करते हैं कि मन और देह का स्वाभाविक धर्म तथाकथित सामाजिक धर्म को नहीं मानता। तभी तो विधवा वीणा के भीतर की ‘अदृश्य अप्सरा’ उसके लिए प्रति-जीवन का सृजन कर रही है। विधवा जीवन के समानान्तर इच्छित नया जीवन ही ‘प्रति-जीवन’ ह’ै। ‘अप्सरा’ वीणा को जीवन की ‘वासना विह्वल’ रागिनी सुनाना चाहती है। वह इस बात की परवाह नहीं करती कि वीणा विधवा है। उसका सामाजिक अपयश होगा। ‘वासना’ मायने उद्वाम-तीव्रतर इच्छा। ‘विह्वल’ मायने बैचैनी। अर्थात बेचैन कर देने वाली तीव्रतर इच्छाएँ। अब इसे ‘सीमंतनी उपदेश’ की इस पंक्ति से जोड़कर देखिए- दूसरी शादी हमको करने नहीं देते, उधर इन्द्रियां हमें चैन नहीं लेने देती। निराला लेखिका जैसी बेबाकी नहीं ला पाते। अलबत्ता उज्ज्वल वस्त्रों पर काले छींटे डालने वाले समाज की थोथी मानसिकता को उजागर कर देते हैं। यह समाज विधवा स्त्री की मनःस्थिति नहीं समझता इसलिए निराला ने कविता में लिखा है-‘व्यथा की भूली हुई कथा है’।

वीणा के संदर्भ में निराला जि़क्र करते हैं-प्रकृति अर्थात् अपने आकर्षण में बांधकर मनुष्य को चिर-अधीन रखने वाली आदिम प्रवृत्तियां ;(Basic
Instincts)  वीणा की देहलता को वासन्तिक पृथल-पल्लव-भार-सुमनाभरण-सौरभमद से भर रही है। कविता में उल्लिखित पंक्ति षड् ऋतुओं का श्रृंगार, कुसमित कानन में नीरव पद संचार का अर्थ यही है। आदिम प्रवृतियों को सामाजिक विकास से संस्कारित तो किया जा सकता है। सामाजिक नियमों से उन्हें संचालित नहीं किया जा सकता। निराला लिखते हैं- ‘‘मनुष्यों के कानून का कोई मूल्य होता, यदि वह पूर्ण के लिए पूर्ण कुछ होता, तो प्रकृति भी मार्यादा को मानकर उसके सामने आंखे झुकाकर चलती।39 पितृसत्तात्मक समाज में एकांगी दृष्टिकोण से बनायी गयी मर्यादाएं ‘पूर्ण’ नहीं हो सकती। स्त्री मन और देह धर्म के लिए वहां कोई स्वप्न नहीं है। हर प्रकार से कुंठित स्त्री इस समाज को मंजूर है। अपनी इच्छाओं के अनुरूप जीने वाली सहज मानवी स्वीकार नहीं। निराला की कविता ‘विधवा’ स्त्री की भुला दी गई व्यथा की कथा कहती है।

ज्योतिर्मयी के मन में विजय के लिए आकर्षण, वीण का अजित के प्रति कोमल भाव दिखा कर निराला दरअसल सामाजिक मर्यादा के बरक्स सहज  मानवीय भावनाओं को तरजीह देते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक विकास के दौरान अस्तित्व में आने वाले संस्थानों की भी पड़ताल करते हैं। धर्म, परिवार, विवाह जैसी संस्थाएं मनुष्य के जीवन में व्यवस्था तो लाते हैं लेकिन कहीं न कहीं उसके मन और भावनाओं की व्यवस्था को विश्रृंखल भी करते हैं। ‘ज्योतिर्मयी’ कहानी में विजय से तर्क करती हुई ज्योतिर्मयी को विजय कहता है-
‘‘मैं इतना ही कहता हूं, आपके विचार समाज के तिनके के लिए आग है’’।’ ज्योतिर्मयी का जवाब देखिए-
‘‘लेकिन मेरे भी हृदय के मोम के पुतले को गलाकर बहा देने, मुझसे जुदा कर देने के लिए समाज आग है, साथ-साथ यह भी कहिए।’’40

पितृसत्तात्मक समाज स्त्री के हृदय को उससे अलग कर देता है। उसे शरीर मात्र रहने देते हैं। शरीर भी केवल अपने उपभोग के लिए बस। सम्वेदना-भावनाओं का संस्थानीकरण कर दिया जाता है। निराला की रचनाएं भावनाओं के संस्थानीकरण का विरोध करती है। मानव मन की सहज-स्वाभाविक प्रवृतियों का समर्थन-संस्थापन करती है। अजित के लिए वीणा के मन में उत्पन्न भावनाओं को निराला ने ’उत्सव’ कहा है। वीणा के मन को वे ’चिर अभ्यासी रुचिर मन’ कहते हैं। ’’चिर अभ्यास में बंधा वीणा का रुचिर मन भीतर के इस अपार उत्सव में इसलिए आप ही आप सम्मिलित हो जाता है, जब कि यह मन की ही एक स्वतंत्र रचना है, जहां वीणा को उसने संसार के यज्ञ में श्रेष्ठ भाग लेने के योग्य बना दिया।’’41 चिर अभ्यास में बंधा रुचिर मन’ सहजात आदिम प्रवृतियों की निरंतरता है। यह निरंतरता सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थानों की बाध्यताओं के बावजूद मौजूद रहती है। निराला अपने लेखन में स्त्री के इस ‘रुचिर मन’ को नज़रअंदाज नहीं करते। ‘विधवा’ कविता में ‘अमर कल्पना में स्वच्छंद विहार’ इसी तरह से संभव है। विधवा स्त्री के लिए षड्ऋतुओं का कोई अर्थ समाज भले ही न मानता हो। स्त्री के लिए तो उनका अर्थ होता ही है। षड्ऋतुओं से संबंध मनोविकार तो उदित होते ही हैं। मन अपने वांछित (कल्पना) लोक में स्वच्छंद विचरण करना चाहता ही है। नव अनुरागिनी राधा की तरह मन कोई बाधा नहीं मानना चाहता। कविता में इस स्थिति को स्पष्ट करने के बाद निराला समाज को इस ‘व्यथा’ पर विचार करने के लिए कहते हैं। यह ‘व्यथा’ समाज की देन है। इसका निराकरण भी समाज द्वारा संभव है। जब समाज इस व्यथा को समझ जाएगा। विधवा स्त्री की मनःस्थ्तिि को भाँप लेगा तो उसे समझ आयेगा कि इसका भी कोई स्वप्न है। इच्छा है। इसके भीतर भी कामनाएं हैं।

कविता के पहले दो हिस्सों में विधवा स्त्री की मनःस्थिति का सघन ब्योरा है। बाक़ी हिस्सों में निराला विधवा स्त्री की वस्तुस्थिति का मार्मिक उल्लेख करते हैं। तीसरा हिस्सा देखिए-
उसके मधु-सुहाग का दर्पण,
जिसमें देखा था उसने
बस एक बार बिम्बित अपना जीवन धन,
अबल हाथों का एक सहारा-
लक्ष्य जीवन का प्यारा वह धुव्रतारा।
दूर हुआ वह बहा रहा है
उस अनन्त पथ से करुणा की धारा।42

ऐसा लगता है कि निराला ने किसी विधवा युवती को ध्यान में रखकर यह कविता लिखी है। कविता में युवती के जीवन की समस्याओं का ट्रीटमेंट उसे किसी एक युवती तक सीमित नहीं रहने देता। इस युवती ने ‘मधु-सुहाग’ के दर्पण में अपने ‘जीवन-धन’ को मात्र एक बार ही बिम्बित होते देखा है। वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-हिन्दी कोश में ‘मधु’ शब्द के कई अर्थ दिए गए हैं-मध्ुार, सुखद, रूचिकर, आनन्दयुक्त43 इत्यादि। सुहाग शब्द का संबंध सौभाग्य से है। ‘मधु-सुहाग’ का अर्थ युवती की वैवाहिक जीवन की अवधि से जुड़ा है। वह अवधि युवती के लिए सुखद आनंददायक थी। जिसके कारण जीवन स्थितियां सुखद होती हैं- वह युवती के लिए ‘जीवन-धन’ हैं। ऐसा धन जो खर्च नहीं किया जाता। जीवन पर्यन्त सहेज कर रखा जाता है। जीवन के निर्वाह का आधार-धन है वह। उसके न रहने पर युवती के जीवन का निर्वाह संभव नहीं। उसके जीवन से सुख और आनंद जाता रहेगा। सामंती समाज में स्त्री के सुख और आनंद को इसी तरह पुरुष केन्द्रित कर दिया जाता है। स्त्री को स्वाभाविक रूप में कमज़ोर माना जाता है। इसलिए वह ‘जीवन-धन’ अबल हाथों का सहारा बन जाता है। ‘अबल’का शाब्दिक अर्थ निर्बल-दुर्बल, बलहीन होता है। सामाजिक अर्थ ज़्यादा गंभीर है। स्त्री को अबल समझने वाला समाज मानता है कि वह बिना सहारे के नहीं रह सकती। कविता का भाव-बोध, सहानुभूति मूलक है। इस क्रम में शब्द चयन भी सहानुभूति उत्पन्न करने वाला है। लेकिन यह शब्दावली स्त्री को सामंती दृष्टि से देखने वाली है।

निराला सामंती प्रकृति के पोषक नहीं थे। कविता का विषय भले ही बहुत यथार्थपरक है, छायावादी भावुकता शब्दावली को बहुत यथार्थ परक नहीं बनने देती। स्त्री जीवन की त्रासदी को अलबता ज़रूर प्रकट कर देती है। कविता में उल्लिखित युवती ’मधु-सुहाग’ के दर्पण में अपने ’जीवन-धन’ को एक बार ही ‘बिम्बित’ होते देख पाई है। कविता में ‘एक बार’ का अर्थ एक बार ही है। कवि प्रतीक रुप में एक बार का प्रयोग नहीं कर रहा। एक बार को अभिधात्मक बनाने के लिए कवि उससे पहले बस शब्द का प्रयोग करता है। ‘बस’ का अर्थ यहां केवल है। केवल एक बार अपने जीवन धन के दर्शन करने वाली युवती अब विधवा है। उसके जीवन का लक्ष्य अब धु्रवतारा बन कर दूर आकाश में चमक रहा है। युवती के जीवनाकाश में धु्रवतारा बनकर वह अटल हो गया है। यह स्नेह संबंध अटल रह सकता है यदि जैविकता इसमें बाधा न उत्पन्न करें। समाज जैविकता को नज़रअंदाज करके संबंध को अटल बनाये रखने में यकीन रखता है। इसका परिणाम यह है वह ‘जीवन-धन’ लौट कर न आने वाले अनंत पथ पर बढ़ जाने के बाद भी स्त्री के जीवन में ‘करुणा की धारा’ ही प्रवाहित कर पाता है। करुणा का अर्थ यहां दया, अनुकंपा अथवा दयालुता नहीं है। करुणा का अर्थ यहां शोक, रंज अथवा दुख है। अगले हिस्से का आरंभ इस शोक की स्थिति से होता है। बस एक बार देखे जाने वाले इस अल्पावधि ने इस नेह नाते से उपजने वाला शोक दीर्घावधि है। आजीवन बना रहने वाला शोक। पितृसत्तात्मक समाज इस शोक को जस का तस बनाये रखना चाहता है। निराला इस शोक का उपचार चाहते हैं। स्त्री की कारुणिक दशा को देखकर भी अकरुण बने रहने वाले समाज में कवि के मन मधुकर की पांखे भीग जाती हैं। पंक्तियां देखिए-
हैं करुणा-रस से पुलकित इसकी आँखें
देखा, तो भीगी मन-मधुकर की पाँखें
मृदु-रसावेश में निकला जो गुन्जार
यह और न था कुछ, था बस हाहाकार!44

इस विधवा युवती की आँखें करुणा-रस से पुलकित हैं। स्नेह का भौतिक आधार न रहने से उपजने वाली करुणा तो समझ में आती है। इससे विधवा स्त्री की सामाजिक स्थिति कारुणिक नहीं बनती। सामाजिक स्थिति का जि़म्मेदार समाज है। क्यों? क्योंकि यह समाज करुणा रस से पुलकित आँखों की पीड़ा को महसूस नहीं कर पाता। ‘पुलकित’ शब्द का कोशगत अर्थ यहां काम न देगा। आंखंे करुण रस से रोमांचित नहीं है। करुणा के रस में डूबी हुई हैं। इस युवती की आँखें उसकी मनःस्थिति की परिचायक हैं। मन में रोमांच नहीं सिहरन है। अपार दुख से उपजने वाली सिहरन। इस सिहरन का प्रतिबिम्ब आंखों में दिखता है। प्रतिबिम्ब के माध्यम से बिम्ब तक पहुंचना। बिम्ब के माध्यम से हृदयावस्था को महसूस करने वाली दृष्टि उसकी विभीषिका को देखकर स्वंय रोमांचित होती हैं। आंखों की पुलक हर्ष से नहीं विषाद से जुड़ी है।विषादग्रस्त मनःस्थिति वाली युवती की आँखों में करुण-रस है। उससे कहीं ज़्यादा करुणा उन आँखों को देखने वाले में उपजनी चाहिए। सिर्फ देखना नहीं, वास्तव में देखना। महसूस करते हुए देखना। महसूस करते हुए देखें तो ‘मन-मधुकर’ ठिठक जायेगा। उसके लिए आगे बढ़ना संभव न होगा। जिस भंवरे के पंख करुणा के रस में भीग गए हों, उसके लिए उड़ना मुश्किल हो जाता है। यह भंवरा साधारण नहीं है। मन-मधुकर है। मनरूपी भंवरा। यह कवि का मन है। विधवा युवती की कारुणिक अवस्था – उसके विषादग्रस्त हृदय तक कवि ‘करुण-रस में पुलकित’ आँखों के माध्यम से पहुंच जाता है। कवि का मन विधवा युवती की स्थिति से खुद को अलग नहीं कर पाता। पहले जि़क्र किया गया है वह युवती के शोक का उपचार चाहता है। उसके मन की पीड़ा को आत्मसात करने पर ‘मृदु रसावेश’ की स्थिति में कवि-मन जो गुंजार करता है वह और कुछ नहीं होता बस हाहाकार ही होता है। यह हाहाकार दरअसल विधवा युवती के हृदय का है। समाज इस हाहाकार की गूंज नहीं सुन पाता जबकि निराला सुन लेते हैं। कवि मन पीडि़त मन के दुख-पीड़ा को अपनी वाणी इसी प्रकार देता है। ‘मृदु रसावेश’ का अर्थ भी यही है। मृदु रस में प्रवेश करना। कोमल रस के अधिकार में अथवा प्रभाव में आ जाना। यह कोमल रस करुण रस है, जो विधवा युवती की आँखों से उतरकर कवि के हृदय में प्रवेश करता है। अगली पंक्तियां देखिए-
उस करुणा की सरिता के मलिन पुलिन पर,
लघु टूटी हुई कुटी का मौन बढ़ाकर
अति छिन्न हुए भीगे अंचल में मन को
दुख रूखे-सूखे अधर-त्रस्त चितवन को-
वह दुनिया की नज़रों से दूर बचाकर
रोती है अस्फुट स्वर में,
दुख सुनता है आकाश धीर-
निश्चल समीर,
सरिता की वे लहरें भी ठहर-ठहर कर।45

यह कौन सी करुणा की सरिता नदी है जिसका पुलिन-रेतीला किनारा मलिन– कलंकित -मैला, घिनौना है। समूची कविता में तीन बार करुण शब्द का  उल्लेख आया है। पहला, करुणा की वह धारा जो युवती का जीवन धन अनंतपथ से बहा रहा है। दूसरा करुणा का वह रस जिसमें युवती की आँखें पुलकित हैं। तीसरा उल्लेख उपर्युक्त हिस्से में है। इस हिस्से में कवि विधवा युवती की जीवन स्थिति का वर्णन करता है। युवती की जीवन स्थिति अत्यंत दयनीय है। युवती की विषादग्रस्त अवस्था से उपजी करुणा के बावजूद उसकी स्थिति दयनीय है। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था। इसलिए करुणा की इस नदी का किनारा कलंकित है। मैला है। यह कलंक उस समाज के लिए विशेष रूप में है, जिसके सामने सबकुछ घट रहा है। हालांकि करुणा की लहरें महसूस करने वाले के हृदय में उठ रही है। करुणा की नदी के तट पर रहती उस युवती के उपेक्षित जीवन की दशा देखिए। उसे लघु टूटी हुई कुटी में रखा जाता है। उसकी सुविधा का किसी को ख़याल नहीं है। ‘कुटी’ शब्द उसके साधारण रहन-सहन का प्रतीक है। उसके एकाकीपन का परिचायक है। इसी शब्द से उसके तपस्विनी रूप का बोध होता है। इस कुटी का मौन भी वह निरंतर बढ़ाती रहती है। मौन का अर्थ यहां चुप रहने से कम और निश्चेष्ट रहने से ज़्यादा है। उसका जीवन ठहर गया है। दीपशिखा सी शांत, भाव में लीन का एक अर्थ यह भी है। इस मौन की अभिव्यंजना को समझने वाला कोई नहीं है।

उस युवती का आंचल ‘अति छिन्न’ है, भीगा हुआ है। सूरदास ने उर में बहने वाले पनारों का जि़क्र किया है। इन पनारों की वजह से ’कंचुकि पट’ सूखता नहीं था। युवती का आंचल भी गीला है। स्थिति में लेकिन फर्क है। कृष्ण अनंत पथ पर नहीं गए थे। युवती का ‘जीवन-धन’ अनंत पथ पर चला गया है। विरह में मिलन की संभावना होती है। कृष्ण अनुपस्थित है अनुपलब्ध नहीं। उनसे मथुरा जाकर मिला जा सकता है। युवती के ‘जीवन का लक्ष्य’ अनुपस्थित भी है और अनुपलब्ध भी। कंचुँकि पट के सूखने की संभावना है। आंचल का भीगे रहना युवती की नियति है। यह स्थिति उसके आंचल को अतिछिन्न-विदीर्ण-खण्डित-फटा हुआ बनाती है। इसी छिन्न आंचल में युवती अपने मन-रुचिर-मन को जो स्थिति विशेष में संतप्त हो गया है और कालांतर में फिर रुचिर हो जायेगा को दुनिया से छिपाकर रखती है। निज मन की व्यथा वह छुपाकर रखती है। दुख रूखे-सूखे अधर और त्रस्त चितवन को भी वह दुनिया की नज़रों से दूर बचाकर रखती है। होंठ दुख के कारण रूखे-सूखे हैं। दुःख न हो तो! चित्तवन सामाजिक दबाव से त्रस्त भयभीत डरा हुआ है। सामाजिक दबाव न हो तो! चित्तवन का स्वभाव चंचलता होता है। कम से कम सरस तो होता ही है।

उस युवती ने अपनी मनःस्थिति को दुनिया की नज़रों से बचाकर-छिपाकर रखा हुआ है। वह अपनी स्थिति पर अस्फुट स्वर में रोती है। अस्फुट दुर्बोध-अस्पष्ट। रोना तो सामान्यतः प्रत्यक्ष होता है। यहां रोने का स्वर अस्फुट है। किसके लिए? उनके लिए जो इस युवती के रोने के कारण को समझना नहीं चाहते। विधवा युवती की व्यथा को सुनने वाला कोई नहीं है। उसका दुख महसूस करने वाला कोई नहीं है। विधवा युवती के दुख को सुनने के लिए आकाश जैसी धीरता चाहिए। आकाश जैसा धैर्यवान्-स्वस्थचित्त व्यक्ति ही उसका दुःख सुन सकता है। समीर हालांकि निश्चल नहीं होती। बहती हुई हवा को उसके दुख को महसूसने के लिए रुकना होगा। सरिता की लहरों को भी रुक-रुक कर उस युवती की व्यथा जाननी होगी। यह सरिता करुणा की ही है। जिसका जि़क्र पहले हो चुका है। उस युवती के प्रति केवल करुणा प्रकट करके नहीं रह जाना होगा। सकर्मक होकर उसके दुःख को दूर भी करना होगा। ऐसा करने पर करुणा की सरिता का पुलिन मलिन नहीं रह जाएगा। इसके मूल में यह विचार है कि परम्परागत भावबोध से विधवा युवती के दःुख को नहीं समझा जा सकता।
इसके बाद कवि चुनौती देते हुए जैसे दो पंक्तियां लिखता है-
कौन इसको धीरज दे सके?
दुःख का भार कौन ले सके?46

पितृसत्तात्मक समाज में विधवा युवती को धीरज देना जोखिम का काम है। धीरज देने का अर्थ साधारण नहीं है। धीरज देना मायने युवती के मन में छिपे स्वप्न को साकार करने का प्रयत्न करना। मनःस्थिति को वस्तुस्थिति के यथार्थ तक लाने के लिए सामाजिक परिवर्तन करना। समाज के विरोध का मुकाबला करने का साहस अपने भतीर पैदा करना। ऐसा करने पर ही कोई उसके दुःख का भार ले सकेगा। निराला विधवा युवती की मुक्ति का आह्वान करते हैं। दुःख का उल्टा यहाँ सुख नहीं है। दुःख का कारण-जीवन स्थिति को बदलना है। स्थिति बदलने पर दुःख स्वयं समाप्त हो जायेगा। ’ज्योतिर्मयी’ कहानी का विजय यह नहीं कर पाता। ’अलका’ उपन्यास का अजित ऐसा करने में सक्षम होता है। वीण के स्वप्न को वह साकार कर देता है। 1923 में लिखी इस कविता में उठाएं इस प्रश्नों का हल निराला अपने परवर्ती साहित्य विशेषतः कथा साहित्य, में करते दीख पड़ते हैं।
कविता का अंतिम हिस्सा देखिए-
यह दुःख वह जिसका नहीं कुछ छोर है
दैव अत्याचार कैसा घोर और कठोर है
क्या कभी पोंछे किसी ने अश्रु -जल?
या किया करते रहे सबको विकल?
ओंस-कण सा पल्लवों से झर गया।
जो अश्रु, भारत का उसी से सर गया।47

विधवा युवती का दःुख असहनीय है। अनवरत है। उसके दुःख का कोई ओर-छोर नहीं है। कवि ‘दैव’ शब्द का इस्तेमाल इस हिस्से में करता है। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि कविता समाप्त करते-करते कवि नियतिवादी हो जाता है। ‘दैव शब्द’ को संबोधन की शैली के रूप में लेना चाहिए। कविता में आध्यात्मिकता का संस्पर्श तो कई जगह पर है। नियतिवाद कवि के भाव बोध का हिस्सा नहीं है। दैव शब्द उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण उसके सामने रखा गया प्रश्न है। युवती पर घोर और कठोर अत्याचार हो रहा है। यह अत्याचार कौन कर रहा है? वैधव्य दैविक ताप नहीं है। भौतिक दशा है। इसका परिणाम मानसिक-दैहिक ताप है। विधवा पर अत्याचार करने वाला समाज कठोर है। पूरी कविता में कवि विधवा की दीन दशा को समाज के सामने रखता है। समाज की उसके प्रति जि़म्मेदारी तय करता है। अपनी जि़म्मेदारी न निभाहने वाले समाज को वह कठघरे में भी खड़ा करता है। संकट में पड़े मुनष्य को सांत्वना देने के बजाय उसे और विकल कर देने वाले समाज की अमानवीयता को कवि उजागर करता है। ऐसा समाज विधवा युवती के ‘अश्रु-जल’ क्यों पोंछने लगा। ‘अश्रु-जल’ पोंछने का अर्थ भी धीरज देने अथवा दुःख का भार लेने से ही है। इसका जि़क्र पहले हो चुका है। कविता की अंतिम पंक्ति का अर्थ डाॅ विश्वनाथ कुछ इस प्रकार करते हैंः-‘‘विधवा की आँखों का करुणाजल किसी ने नहीं पोंछा। वह पल्लवों से ओस जैसा झड़ गया। (पल्लव आँखे हैं, ओस करुणा जल) उस अश्रु (विधवा की करुण स्थिति के कारण) से भारत (का) सर गया।48

विधवा युवती के आँसुओं को न पोंछने वाले भारत का सर चला गया है। सर’ यहां सिर है। सिर का प्रतिकार्थ सम्मान से लेना चाहिए। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना रखने वाला मानवीय करुणायुक्त भारत का सम्मान अपने देश की दीन-हीन मलिन बना दी गई विधवा युवती की उपेक्षा करने के कारण नहीं रहा।कविता से एक बार गुज़र जाने के बाद यह समझ में आता है कि निराला विधवा युवती को इष्टदेव के मन्दिर की पूजा-सी क्यों कहते हैं। निराला ने स्त्री के विधवा जीवन पर सहानुभूति से विचार नहीं किया है। वे उसकी त्रासद जीवन स्थिति से वाकिफ थे। विधवा स्त्री की मनोदशा को बारीकी से समझते हैं। ‘सीमन्तनी-उपदेश’ की लेखिका अथवा महादेवी वर्मा के स्तर पर वे भले ही न पहुंच पाए हों, अलबत्ता उनके आस-पास ज़रूर रहते हैं। हालांकि दोनों लेखिकाओं ने अपनी भावनाओं को गद्य में व्यक्त किया है। निराला अपनी बात गद्य और पद्य दोनों में कह सके हैं। विधवा स्त्री के मन की भावदशाओं की अचूक पकड़ उनके यहां मिलती है। स्त्री यौनिकता का जैसा उल्लेख ’एक अज्ञात हिन्दू औरत’ ने किया है। निराला भले ही वैसा न कर पाए हों। कविता में जिस स्वप्न का जि़क्र आया है उसमें स्त्री यौनिकता भी निहित है। वीणा के संदर्भ में ’जीवन की अदृश्य अप्सरा’ में भी यह भाव सम्मिलित है। कुल्लीभाट से बातचीत और कुल्लीभाट रचना के प्रकाशन में तकरीबन डेढ़ दशक का अंतर है। विधवाओं को व्यभिचारी मानने वाले कुल्ली को जवाब निराला ज्योतिर्मयी जैसी कहानी और अलका जैसे उपन्यास में देते हैं। वैधव्य को नियति न मान कर जीवन स्थिति मानने वाली है ‘विधवा’ कविता भी इसका सशक्त प्रमाण है। इस कविता को स्त्री-मुक्ति के आह्वान के रूप में देखना चाहिए।

सन्दर्भ ग्रन्थ : 

1. निराला की साहित्य सामना – भाग-1 पृ0 33
2. निराला रचनावली – भाग – 1 पृ0 318-19
3. वही भाग-4 पृ0 59
4. वही – पृ0 22
5. वही भाग-1 पृ073
6. वही पृ0 72
7. सम्पादक डाॅ धर्मवीर, लेखिका ‘एक अज्ञात हिन्दू औरत-सीमन्तनी उपदेश, पृ071
8. सम्पादक कमेन्द्र शिशिर, भारतेंदु मंडल के प्रमुख रचनाकार-राधाचरण गोस्वामी की प्रमुख रचनाएं पृ0 127
9. दृष्टव्य-भाग्यवती-श्रद्धाराम फिल्लौरी
10. ;पद्ध निराला रचनावली, भाग 1 पृ0 72
;पपद्ध भाभी-अतीत के चलचित्र, महादेवी वर्मा पृ0 24-31
11. चाँद पत्रिका वर्ष 1, खं 17 संख्या 6, अप्रैल , 1923, पृ0 45
12. वही पृ0 545
13. दृष्टव्य The
High Caste Hindu Women 82
14. चांद पत्रिका वर्ष 1, खं 1, संख्या 3, जनवरी, 1923, पृ0 176
15. चांद पत्रिका, वर्ष 1, सं0 17 संख्या 6, अप्रैल 1923
16. प्रस्तुति प्रज्ञा पाठक, दृष्टव्य-सरला एक विधवा की आत्म जीवनी- लेखिका दुखिनी बाला-प्रकाशन परमेश्वरी प्रकाशन, दिल्ली-110092
17. सम्पादक डाॅ0 धर्मवीर, लेखिका एक अज्ञात हिन्दू औरत, सीमन्तनी उपदेश- पृ084
18. वही
19. वही, पृ0 88
20. नीरजा माधव, दृष्टव्य- स्त्री लेखनः नये क्षितिज से परिचय-हिन्दी साहित्य का ओझल नारी इतिहास (1857-1947)।
21. निराला रचनावली भाग-1, पृ0 46
22. निराला रचनावली, भाग – 4, पृ0 356
23. स्फुरणा देवी, दृष्टव्य-कृष्णा, भानमती, सुशीला इत्यादि के बयान, अबलाओं का इंसाफ
24. डाॅ0 धर्मवीर, लेखिका एक अज्ञात हिन्दू औरत, सीमन्तनी उपदेश, पृ0 94
25. निराला रचनावली, भाग-1 पृ046
26. दृष्टव्य-स्त्री उपेक्षिता-सिमोन द बोउवा
27. निराला रचनावली, भाग-3, पृ0175
28. निराला रचनावली, भाग-4, पृ0289
29. निराला रचनावली, भाग-3, पृ0 197
30. चमेली-अधूरा उपन्यास-निराला रचनावली भाग-4 पृ0 258
31. दृष्टव्य रामचरित मानस
32. निराला रचनावली भाग-1 पृ0 72
33. प्रस्तुति प्रज्ञा पाठक- लेखिका दुखिनीबाला, सरला एक विधवा की आत्मजीवनी, पृ0-39
34. सम्पादक नामवर सिंह- प्रतिनिधि कविताएं- शमशेर बहादुर सिंह पृ0 43
35. दृष्टव्य – जागो फिर एक बार, भाग-2, निराला रचनावली भाग-1, पृ0 154
36. निराला रचनावली भाग-1 पृ0 72
37. अतीत के चलचित्र – महादेवी वर्मा पृ0 29
38. निराला रचनावली भाग-3, पृ0 197
39. वही
40. निराला रचनावली, भाग-4, पृ0 289
41. निराला रचनावली, भाग-3, पृ0 197
42. निराला रचनावली, भाग-1, पृ0 73
43. वामन शिवराम आप्टे- संस्कृत हिन्दी कोश, पृ0 767
44. निराला रचनावली-भाग-1, पृ0 73
45. वही
46. वही
47. वही
48. तद्भव में प्रकाशित-विश्वनाथ त्रिपाठी का लेख-आँखें वे देखी हैं जबसे – सं॰ अखिलेश वर्ष-3, अंक-1, अक्टूबर 2014, पृ0 14

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