अत्याचार का ‘अस्वीकार’ है फूलन की क्रांति-गाथा

 गुलजार हुसैन 
 

आज फूलन देवी का जन्मदिन है. एक ऐसे देश में , जहां बलात्कार उसकी पीडिता के ही खिलाफ उसके दोष सिद्ध करने के तर्कों के साथ और वीभत्स हो जाता रहा है , जहां यौन हिंसा की शिकार आत्महीनता  के बोध से भर जाने की अनुकूलता में होती है , और अंततः मौत का चुनाव करती है , फूलन देवी साहस और शौर्य की प्रतीक के रूप में सामने आती हैं – एक जीवित किम्वदंती की तरह. दुनिया  की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘ टाइम’ ने मार्च , 2014 में जहां उन्हें 17 विद्रोही महिलाओं में सूचीबद्ध किया, वहीं इस देश की जनता ने 1996 में उन्हें  संसद में अपना प्रतिनिधि बनाया. आज उनके जन्मदिन पर कवि, चित्रकार और पत्रकार गुलजार हुसैन उन्हें याद कर रहे हैं. 

…लाल सूजी हुई आंखें यह कहना चाहती हैं कि स्थिति असह्य है। थरथराते होठों पर सारी शिकायतें केंद्रीभूत हो जाती हैं, किंतु स्थितियां नहीं बदलतीं। वास्तव में यह प्रतिक्रियात्मक और नकारात्मक शक्तियों का तूफान है। आंसू जब स्त्री के विद्रोह को व्यक्त करने में असफल होते हैं, तब वह असंगत हिंसा और उन्माद का सहारा लेती है।
( सीमोन द बोउवार के ‘सेकेंड सेक्स’से)

फूलन देवी के विद्रोह को अक्सर ‘हिंसक प्रतिशोध’ या ‘डाकू का बदला’ कह कर हल्का करने का ही प्रयास किया जाता रहा है, लेकिन इसके बावजूद उनकी क्रांति-गाथा नई पीढ़ी को झकझोरती है। दरअसल उनका पूरा संघर्ष ही स्त्री के अस्तित्व की रक्षा के लिए था। उनका सबसे महत्वपूर्ण काम यह था कि उन्होंने ताकतवर पुरुषवादी समूह के अत्याचार को सहते रहने से इनकार कर दिया था। अत्याचार का यह ‘अस्वीकार’ कोई मामूली घटना नहीं है, बल्कि इसे स्त्री की स्वतंत्रता, सुरक्षा और और आत्मसम्मान से जोड़ते हुए एक जरूरी घटनाक्रम के रूप में देखा जाना चाहिए।

फूलन देवी की क्रांति को समझने के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले और बाद के कई दशकों के दौरान कमजोर जाति समूहों की स्त्री की दशा को देखना होगा। विशेष रूप से उत्तर भारत में वंचित जाति समूहों की स्त्रियों की हालत कहीं से भी दबी -छुपी नहीं रही है। पिछड़ी, अत्यंत पिछड़ी, दलित और महादलित जातियों की स्त्रियां मेहनत-मशक्कत करने वाली मानी जाती रही हैं, लेकिन इसके बावजूद उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और कैरियर को लेकर कोई महत्वपूर्ण पहल कभी नहीं हुई है। वे ताकतवर जाति समूहों के पुरुषों से जितनी प्रताड़ित रही हैं, उतनी ही अपनी जाति के मर्दों से भी अपमानित और दमित रही हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी वंचित जाति समूहों की स्त्रियों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि स्थितियां और अधिक चिंताजनक होती चली गर्इं।  60 के दशक (1963) में जब फूलन का जन्म हुआ, तब समाज में वंचित जाति की स्त्रियों की दशा गुलामों की तरह ही थी। अधिकांश स्त्रियां अपने घर के लिए मजदूरी करती थीं, लेकिन इसके बावजूद उनके लिए कहीं से कोई राह फूटती नजर नहीं आती थी। ऐसे ही घुटन और दमन भरे माहौल में उत्तर प्रदेश के एक मल्लाह परिवार में फूलन का जन्म हुआ। उस समय मल्लाह जाति के पुरुष भी ताकतवर जाति समूहों के लोगों के सामने आंखें उठाकर नहीं चल सकते थे, तो भला स्त्रियों की क्या हालत रही होगी इसका अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है। फूलन देवी के बाल्यकाल से लेकर उनके युवा होने और 80 के दशक में चंबल के बीहड़ों में सबसे ऊंचे कद के डाकू होने तक के दौर को सवर्णवादी आक्रामकता का दौर भी कहा जा सकता है। लेकिन इस क्रूरतम दौर के फंदे से मुक्त होने की राह फूलन ने स्वयं ढूंढी थी।

फूलन देवी को एक डाकू कह कर हिंसक मानते हुए उनके महत्व को कम करने  वालों को सबसे पहले तो यह जान लेना चाहिए कि कोई भी लड़की कभी भी डाकू बनने का सपना नहीं देखती, बल्कि अन्य बच्चों की तरह बड़े-बड़े काम करने का सपना देखती है। फूलन को डाकू बना देने वाले उस क्रूर  समाज की ओर पहले देखिए और सवाल कीजिए, तो बहुत सारे सवालों का जवाब स्वत: मिल जाता है। जो व्यवस्था पहले फूलन के हाथों में हथियार सौंपती है, बाद में वही उसे हिंसक कहकर विलेन भी करार देना चाहती है। सवर्णवादी और पुरुषवादी समाज द्वारा, उसी के हित के लिए बनाई गई क्रूर सामाजिक व्यवस्था को ठीक से समझने की जरूरत है,जो कई दशकों से वंचित समुदायों में अशिक्षित और अस्वस्थ गरीब लड़कियों की स्थिति को बदलने के लिए किसी भी रूप में सक्रिय नहीं दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश के जालौन जिले में पूरवा गांव, जो फूलन का गांव था, में मल्लाह जाति की लड़कियां पढ़े या अनपढ़ रहे,  इससे किसी भी कथित सभ्य लोगों को मतलब नहीं था। ये लोग अपने आलीशान विवाह समारोहों, लाखों रुपए के दहेज वाली परंपराओं और अपार भूसंपत्ति के गर्व में चूर होकर गरीबों को अपने पैर के नीचे रौंदने को तैयार रहते थे। वे मल्लाह पुरुषों को अपना मजदूर मानते थे और स्त्रियों को चुपचाप काम करते रहने वाली गुलाम। हां, मल्लाह – लड़कियां उनके लिए सॉफ्ट  टारगेट थीं। वे उनपर ऐसे झपटते थे, जैसे कोई चालाक शिकारी मुर्गियों पर झपटता है। इस यथास्थिति को तोड़ने के लिए कोई कहां आगे बढ़ रहा था। ऐसे में किसी को तो इस जुल्म सहने से इनकार करना ही था।

फूलन जब बहुत कम उम्र की थी, तब उसके गांव के ऊंची जाति के लोगों  ने उससे सामूहिक बलात्कार किया। यह क्षण फूलन के तंगहाल बचपन के दौर का सबसे बड़ा घाव था। इसने उसके मन में विद्रोह की चिनगारियां भर दीं। उसने मूंछे एेंठते ऐसे लोगों के समूह को देखा, जो जाति के आधार पर स्वयं को सबका निर्णायक और मालिक मानता है, लेकिन एक गरीब बच्ची पर भेड़ियों की तरह टूट पड़ता है। फूलन बचपन से ही टूटती और बिखरती लड़की के रूप में बड़ी होती रही। एक ओर लंपट भेड़ियों का समूह था तो दूसरी ओर उसकी उपेक्षा करने वालों का भी समूह था। उसने देखा कि एक साधारण स्त्री होकर जीना उसके लिए आसान नहीं होगा। उसने चुपचाप अन्याय सहने की परंपरा को अपने पैरों से ठोकर मारकर आगे बढ़ने की ठान ली। उसने अन्याय को सहने से इनकार कर दिया। इसी अस्वीकार ने फूलन को विद्रोही बना दिया। उसके विद्रोह की आग में जब गरीब लड़की को मुर्दा तितली समझकर मसलने वाले 22 लोग झुलस गए, तब उसे अत्याचार के विरोध में उभरे प्रतीक के रूप में देखा जाने लगा। टाईम मैगजीन ने विश्व की प्रसिद्ध विद्रोही महिलाओं की सूची में जॉन आॅफ आर्क के साथ उन्हें भी शीर्ष पर जगह दी। टाईम मैगजीन ने ऐसे ही उन्हें बड़ी विद्रोही महिला नहीं माना, बल्कि भारत में जटिल जातीय परिस्थितियों और यहां के ताकतवर समूहों में स्त्री विरोधी मानसिकता को समझते हुए उन्हें एक प्रतीक के तौर पर उभारा। स्त्री विरोधी हिंसा के मामले में अधिक बदनाम देश के लिए फूलन की क्रांति-गाथा को अत्याचार के खिलाफ एक प्रतीक के तौर पर उभारे जाने की यह महत्वपूर्ण कोशिश कही जा सकती है। फूलन के कारण देश के बाहर के बुद्धिजीवियों का ध्यान यहां के ताकतवर लोगों के अन्याय और उनकी पुरुषवादी घृणा की ओर गया। दरअसल, वंचित स्त्रियों की क्रांति का बिगुल फूलन ने बजा दिया था।

एक गरीब मल्लाह की बेटी, जो शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं से कोसों दूर रही और बचपन से ही जिस पर यौन आक्रमण और अत्याचार होते रहे उसके विद्रोही बनने को भारत के इतिहास में एक क्रांतिकारी मोड़ के रूप में दर्ज किया जाएगा। आप ही बताइए, फूलन देवी के विद्रोह को अत्याचार और बलात्कार के खिलाफ एक प्रतीक के तौर पर क्यों नहीं प्रस्तुत किया जाना चाहिए? फूलन के हथियार थाम लेने को केवल उसके जीवन में हुए अत्याचार से ही जोड़ कर मत देखिए। यह सच है कि उसने अपने गांव की गरीब लड़कियों पर टूट पड़ने वाले भेड़ियों का झुंड देखा था। उसने खेलने-पढ़ने की उम्र में तकलीफ और घुटन में तिल -तिल कर नजरें झुकाए लड़कियों को चुपचाप अन्याय सहते देखा था। उसके अंदर पूरे समाज के दबाए गए सपनों का ज्वालामुखी छुपा था, जो अत्याचार की हद के बाद फूट पड़ा। यह अकाट्य सच है कि वंचित जाति समूहों की स्त्रियों पर सर्वणवादियों के अत्याचार की घटनाएं छुपाने की साजिश के बाद भी जाहिर होती रही हैं। बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है, हरियाणा में पिछले एक दशक के दौरान दलित स्त्रियों पर अत्याचार की बहुत अधिक घटनाएं हुई हैं। गोहाना, मिर्चपुर और झज्जर में दलित स्त्रियों पर अत्याचार के कई मामले सामने आए हैं। इनमें एक  झकझोरने का मामला हिसार जिले के भगाणा का रहा है। यहां चार लड़कियों से सामूहिक बलात्कार का मामला सामने आने के बाद लोगों में आक्रोश भड़क उठा था। क्या इस आक्रोश में आपने फूलन के उस ‘अस्वीकार’ की अनुगूंज नहीं सुनी? वर्तमान में जब देश में स्त्री विरोधी हिंसा सबसे बड़ी समस्या बनकर सामने खड़ी है, तो यह जरूरी है कि फूलन देवी की क्रांति-गाथा को पाठ्य पुस्तकों में शामिल किया जाए। 
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