संवेदनशील नेतृत्वगुण : यही मेरा सत्व और स्वत्व

लीना बनसोड
महाराष्ट्र सरकार की अधिकारी लीना बंसोड से मेरी मुलाक़ात वर्धा में हुई थी, जिले में पत्रकारिता के दिनों में. कुशल नेतृत्व के गुणों से संपन्न , बेहद मिलनसार लीना अपने काम के प्रति समर्पित अधिकारी रही हैं.  जिले में स्वयं सहायता समूहों की महिलाओं के साथ मिलकर उन्होंने ‘ वर्धिनी’ नामक ब्रांड शुरू किया , जो ग्रामीण महिलाओं के द्वारा बनाये गये खाद्य उत्पादों , टेराकोटा जूलरी  और अन्य हस्तशिल्प उत्पादों का ब्रांड है. 


लीना इन दिनों  मुम्बई में नेशनल रूरल लाइवलीहुड्स मिशन की एडिशनल एम डी ( महाराष्ट्र सरकार ) के रूप में कार्यरत हैं.  स्त्रीकाल के पाठकों के लिए लीना बंसोड के ही शब्दों में उनकी शख्सियत की कथा 
                                                                                                                                         संजीव चंदन

मै मूलतः नागपुर की हूँ। मेरे पापा, चाचा और घर के अन्य रिश्तेदार प्रशासकीय सेवा में कार्यरत थे। इस कारण मेरे घर के वातावरण, होनेवाली चर्चाओं के कारण प्रशासकीय सेवा एवं उसमें अवसर और चुनौतियों  से संबन्धित एहसास मुझे बचपन से ही जाने-अनजाने  होता रहा है। साधारणतः दसवी बारहवी तक की शिक्षा लेते समय ही मुझे यह एहसास हो गया था कि मुझे प्रशासकीय सेवा में अपना करियर बनाना है । मेरे बड़े भाई संजय ने मेरा व्यक्तित्व और रुचि देखकर मुझे प्रशासकीय सेवा में जाने के लिए अधिक प्रोत्साहित किया। प्रतियोगी स्पर्धा परीक्षा की पढ़ाई करने के लिए वह हमेशा मुझे प्रोत्साहित करते रहे, इस दृष्टि से उन्होंने मुझे तैयार किया,  यह कहना जरा भी अनुचित नहीं होगा। प्रशासकीय सेवा में कार्यरत मेरे घर के अन्य सदस्यों से जाने-अनजाने में मिले हुए संस्कारों को मेरे भाई के रूप में एक मजबूत दिशा/राह मिल गई। बारहवीं के बाद मुझे इंजीनियरिंग  में प्रवेश मिलने के बावजूद  मैंने बी. एस. सी. में प्रवेश लिया। जानबूझकर लिए हुए इस निर्णय के पीछे मेरा यह विचार था कि यदि मैं इंजीनियर हो गई तो मुझे इसी के अनुसार कार्य करना पड़ता, जिसके कारण मेरे अंदर के नेतृत्वगुण और क्षमता का पूर्ण उपयोग करने के लिए मुझ पर कुछ सीमाएं आ सकती थी। विज्ञान शाखा में पढ़ने के कारण कार्यकारणभाव, तर्कशुद्ध विचार, विश्लेषण आदि कौशल का विकास हुआ जिसका उपयोग आज भी मेरे काम को आसान बनाता है, जीवन को भी.



उम्र के 22-23 साल में ( सन 1996-97 में ) महाराष्ट्र लोकसेवा आयोग की ओर से ‘विकास प्रशासन’ विभाग में नियुक्ति हुई। इसी समय में ग्रामीण भाग एवं ग्राम विकास विभाग का नजदीक से परिचय हुआ। ग्रामीण भागों की विशेषतः,  ग्रामीण महिलाओं के प्रश्नों का नजदीक से परिचय हुआ,   उनके ग्रामीण जीवन की गुणवत्ता  एवं  जटिलता का भी अनुभव हुआ।

सन 2000 गोंदिया में समूह विकास अधिकारी के रूप में
कार्य करते समय ध्यान में आया कि वहां के स्कूली विद्यार्थियों के  लेखन, पठन, अंकगणित आदि की मुलभूत  क्षमता बढ़ाने का  प्रयास करना जरुरी है। बड़ी मात्रा में प्रशासकीय तन्त्र , कर्मचारी, सहकारी साथ में थे,  जिनके अंदर की संवेदनशीलता को प्रोत्साहन देकर शिक्षण विषयक विविध उपाय -योजनाओं पर अंमल करना शुरू किया। स्कूल की चार दिवारों के भीतर मिलने वाली शिक्षा, चार दिवारों के बाहर की शिक्षा, विद्यार्थियों का स्वास्थ, अभिभावक -बैठक, शिक्षकों का सहभाग बढ़ाना ऐसे अनेक स्तरों पर कार्य किए गए,  जिसका उत्तम परिणाम कम समय  में ही दिखने लगा।

इस अनुभव से अहसास हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर आतंरिक उर्जा रहती है कि हम अच्छे कार्यों का भाग बनें, हमें समाज की प्रगति, विकास हेतु योगदान करने का मौका मिले,  जिसके लिए सिर्फ जरुरी होता है कि कोई सामने/आगे आकर, नेतृत्व करके आतंरिक उर्जा को दिशा दे।  प्रशासकीय तन्त्र  में कार्य  करते हुए आवश्यक रहनेवाला दबाव, कठोरता, व्यवस्थापकीय कौशल और विकास- कार्यकर्ताओं में अपेक्षित संवेदनशीलता, निष्ठा एवं तड़प  का संयोग  मेरे व्यक्तित्व में होने का अहसास मुझे कार्य करने के दौरान हुआ। मुझे लगता है कि इसी आत्म विश्वास के कारण ही आगे की कार्यप्रणाली को मैंने अधिक सक्षम बनाया।

वर्धा जिला  में ‘जिला  ग्रामीण विकास विभाग ’ के प्रकल्प संचालिका के रूप में कार्य करते समय  मुहीम चलाई कि स्वयं सहायता समूहों  की महिलाओं को अंगनवाडियों में खिचड़ी पकाने का काम दिया जाना चाहिए । समूहों  की महिलाओं  , बड़े व्यापारी, स्थानीय दुकानदार,  इन सबके साथ समन्वय रखकर केवल तीन महीनों में वर्धा जिले में,  जिन-जिन गांव में स्वयं-सहायता समूह  कार्यरत थे,  उन सभी गांवों की अंगनवाडियों में,  खिचड़ी पकाने का काम स्वयं-सहायता समूहों  को मिला। यह एक बड़ी उपलब्धि  थी, जिसके कारण गावं की महिलाओं को एक स्तर पर प्रगति करने का अनुभव मिला , जो उनके आगे के जीवन-यात्रा में काम आया।

इस अनुभव से,  विविध पदों पर काम करते हुए,  अलग-अलग स्तर पर मिले हुए दायित्व को सँभालते हुए,  यह महसूस किया  कि हमें दिए गए कार्यक्षेत्र और कार्यकक्षा में भी बहुत अच्छा बदलाव हमें करना आता है। सहकर्मियों के अच्छे गुण पहचानकर उनके गुणों को और विकसित करने के लिए उन्हें अवसर  देना, उनके साथ होना, यह नेतृत्व करनेवाले व्यक्ति में विशेष गुण होता है। एक महिला के रूप में आतंरिक संवेदनशीलता के कारण मैं यह कर सकी,  जिसका अच्छा परिणाम सभीं की कार्यक्षमता बढ़ने में हुआ। इसमें एक और महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें कोई भी गैर क़ानूनी काम या नियमबाह्य कार्य नहीं किया गया,  जिसके कारण किसी के भी दबाव में न रहकर कार्य किया गया। इसी तरह किसी दूसरी जगह मेरी नियुक्ति हो ऐसी मेरी प्राथमिकता नहीं थी। पारदर्शी, स्वच्छ प्रशासन और सातत्यपूर्ण/निरंतर कार्यक्षमता के कारण मेरी अपने आप ही एक अलग पहचान निर्माण हुई। अर्थात यह यात्रा सामान्य एवं सरल नहीं थी। कुछ निर्णयों का विरोध भी हुआ, कुछ बातों को अंमल करने के लिए अपेक्षा के अनुरूप ज्यादा समय भी लगा,  परंतु समय-समय पर लिए गए निर्णयों के परिणामों का साहस के साथ सामना करने के कारण आत्म विशवास बढ़ा । विचारों की बैठक और उसकी स्थिरता बढ़ने में मदद हुई।

 इन सभी सफलताओं  में महिला के रूप में होनेवाली संवेदनशीलता, विवरणों की छोटी-छोटी चीजों की तरफ ध्यान देने की आदत, संयम या सहनशीलता आदि  गुणों की महत्वपूर्ण भूमिका रही । मुझे लगता है कि यह गुण स्त्री-पुरुष दोनों में कम या अधिक मात्रा में रहते है , किंतु महिलाओं में एक समग्र विचार करने की वृत्ति रहती है,  साथ ही एक अलग स्तर पर संवेदनशीलता और समझ रहती है। महिला के रूप में जीते समय, बढ़ते समय जो खतरा (व्हलनरेबिलिटी) तथा अनुभव होते है,  या जो दिखाई देते हैं ,  इसके कारण यह विशिष्ट समझ महिलाओं में विकसित होती होगी।        

सन 2007 वर्धा में  ‘जिला ग्रामीण विकास विभाग ’ की प्रकल्प संचालिका के रूप में कार्य करते हुए ‘  स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना’  को अंमल करते समय मेरे कार्यों और सामाजिक विकास के प्रति समझ और दृष्टिकोण को और एक अलग आयाम मिला। वह आयाम था,  व्यापक स्तर पर अंमल करने का और स्थानीय महिला कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षक के रूप में तैयार करके उनके माध्यम से ग्राम विकास के कार्यों को समाज में उतारने का। गाँव की, वहां की समस्याओं की और महिलाओं का समाज में स्थान आदि की मुझे पूरी समझ हो गई थी। ‘ स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना’  को अंमल करने की जिम्मेदारी महिला स्वयं सहायता समूहों पर थी। स्वयं सहायता संकल्पना पर मैंने जब गहराई से विचार किया तब मुझे अनुभव हुआ कि इन संघटनाओं की ताकत क्या है। जब महिलाएं अपनी  जीविका के प्रश्नों को लेकर एकत्रित होती हैं,  तब उनके भीतर उपस्थित सामूहिक शक्ति और एकत्रित हो जाती है। वर्धा की स्थानीय महिलाएं जिन्हें , ‘संघटिका’ कहा गया है,  उनका इस योजना को यशस्वी करने में सफल बनाने में,  महत्त्वपूर्ण योगदान रहा. कुछ ही समय में  संघटिका का संस्थात्मक स्वरूप ही नहीं टिक पाया,  बल्कि ‘वर्धिनी’ के रूप में इसकी वृद्धि भी हुई। सन 2007 में लोकसहभाग  का महत्त्व पहचानकर ग्रामीण महिलाओं के सर्वांगीन विकास के लिए उन्हीं के गाँव में रहनेवाली महिला कार्यकर्ता प्रशिक्षकों,  जो उनके साथ सहज संपर्क बना सकती थीं  , की टीम बनाने का प्रयोग,  राज्य में ही नहीं अपितु देश में प्रथम बार किया गया। संघटिकाओं को विविध प्रकार का प्रशिक्षण देकर उनकी टीम बनाने का सोचा-समझा प्रयास किया गया। ग्रामीण महिलाओं के सक्रिय सहभाग से ही सामूहिक स्तर तक का विस्तार गाँव – गाँव में  हुआ। सशक्तिकरण का प्रारूप, जो सरकारी तन्त्र  के द्वारा खड़ा किया गया,  इसी में इसका अलगाव निहित है । बचत, कर्ज एवं व्यवसाय , इस परिधि से बाहर न जा सकने वाले बचत समूह की महिलाओं की वैयक्तिक, सामूहिक, सामाजिक सशक्तिकरण इस कारण घटित हुआ। स्वयं स्फूर्ति से, जी जान लगाकर काम करने की मेरी पद्धति ने और गाँव- खेड़ों की महिलाओं के प्रश्नों के साथ, उनके रोज के जीवन संघर्षो से एक महिला होने के नाते वैचारिक एवं भावनिक रिश्ता जुड़ने के कारण ही मैं यह सब कर सकी।

वर्धा जिला के जिला परिषद की अध्यक्ष महिला थी, मुख्य कार्यकारी अधिकारी भी महिला थी, और मै भी, ऐसी हमारी महिलाओं की अच्छी टीम,  ऊँचे स्तर की निर्णय प्रक्रिया में सहभागी थी। ग्रामीण महिलाओं का विश्वास एवं आधार देना इस मॉडल के सफलता की गुरुकिल्ली थी। एक महिला होने के नाते मैं उसे अच्छे प्रकार से समझ सकी और उनका नेतृत्व निभा सकी। अपने  स्वास्थ के प्रश्न, बच्चों की शिक्षा, पारिवारिक नाते-संबंध, गाँव के प्रश्न,  इन सभी के सन्दर्भ में महिला अधिक खुलकर बोलनी लगी। आत्मसम्मान  के लिए उनकी लड़ाई को आर्थिक स्वावलंबन की, नैतिक सहयोग एवं सामूहिक शक्ति की सहायता मिलने कारण अनेक महिला एवं पर्यायी रूप से उनके परिवार स्थिर हो गए और उनका विकास हो सका। वर्धा के इस काम की, संघटिका मॉडल की राष्ट्रीय स्तर पर दखल ली गई।

संघटिकाओं की टीम स्थापित होने के बाद दूसरा भाग था ‘वर्धिनी’ ब्रांड  निर्माण करने का। जीविका, आरोग्य/स्वास्थ, शिक्षण, आदि मुलभूत त आवश्यकताओं की पूर्ति का यशस्वी रूप से निराकरण करने के पश्चात यही महिला अब ‘उद्योजक’ बन गई। ‘वर्धिनी’ ब्रांड  द्वारा विविध स्वयंसहायता समूहों  के उत्पादन को एक छत के नीचे लाकर सामूहिक वितरण  व्यवस्था स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया। इस ब्रांड के अंतर्गत अठारह प्रकार के खाद्यपदार्थ, खादी एवं जूट  से निर्माण किये गये बैग  एवं अन्य वस्तु और विशेष रूप से विशिष्ट प्रकार की मिट्टी पर प्रक्रिया कर निर्माण किए गए गहने (टेराकोटा ज्वेलरी),  इन सब का ‘वर्धिनी’ नाम से ब्रांडिंग की गई। इस ब्रांड  के लिए ‘लोगो’  बनाना, उसकी टैगलाईन, सूचनापत्र के एवं इतर प्रसार साहित्य आदि के  निर्माण के लिए इस क्षेत्र से संबंधित विद्वान व्यक्तियों की मदद  ली गई। ग्रामीण महिलाओं के  बनाये हुए उत्पाद शहरी ग्राहकों को भी पसंद आये,  इसके लिए जो कार्य किया गया वह प्रसिद्ध  हुआ। शहरी बाजार में यह उत्पादन प्रसिद्ध  हुआ ,  बल्कि उनकी विशिष्ट पहचान भी बनी। वर्धा एवं विदर्भ में भी इसके पहले इतने वैचारिक रूप से, नियमबद्ध पद्धति से और व्यावसायिक दृष्टि से यशस्वी होनेवाली इस प्रकार की योजना किसीने भी नहीं बनाई थी । आज वर्धा में अनेक महिलायें ‘वर्धिनी’  उत्पादन बनाती हैं  और उपलब्ध रहनेवाली विक्रीव्यवस्था का उपयोग करती हैं । एक ‘वर्धिनी’ आउटलेट वर्धा में भी है। ‘वर्धिनी सेवा संघ’ के रूप में बैकवर्ड लिंकेज और वर्धिनी ब्रांड  के रूप से फ़ॉरवर्ड लिंकेज – अनोखा मेल जम गया है। संघटिका एवं वर्धिनी योजना का यह कार्य करते समय मेरे अंदर के नेतृत्वगुण एवं स्फूर्ति के साथ किसी भी काम में झोंककर काम करने की प्रवृत्ति दिखी । विशेषतः मेरे व्यक्तित्व में समाहित ‘अनुभवी प्रशासक’ और ‘विकास कार्यक्रम की जानकार’ दोनों रूपों का मैं उपयोग कर सकी । इस कारण मेरे लिए यह संपूर्ण अनुभव केवल यश प्राप्ति तक सीमित नहीं था,  बल्कि अनेक आवश्यक परिवारों के जीवन में होनेवाले बदलाव में अपना योगदान देते हुए स्वयः समृद्ध होने का था। महिला सक्षमीकरणों की विविध छटा  मैं दूसरी महिलाओं में भी देख रही थी और स्वयं में होनेवाले परिवर्तन की तरफ भी साक्षी भाव से देखते हुए मैं वैचारिक दृष्टि से समृद्ध होती रही।

शायद मेरे अब तक के किए गए कार्यों की रसीद के रूप  एक अनोखा अवसर मेरे सामने आया जो ’ नेशनल रूरल लाइवलीहुड्स मिशन  ( महाराष्ट्र )  का था। इस मुहीम  का नामकरण ‘उमेद’ के नाम से किया गया। ‘उमेद’ नेशनल रूरल लाइवलीहुड्स मिशन  को  महाराष्ट्र राज्य के लिए अंमल करने वाला विभाग है । ग्रामीण गरीबों के जीवनोन्नती के लिए ‘उमेद’  कटिबद्ध है, जिसका आधार महिला स्वयं सहायता समूह का संस्थात्मक स्वरूप है। फिर से एक बार बड़े स्तर पर विकास कार्यक्रम पर अंमल करने के लिए मैं प्रतिबद्ध  हूँ। बढ़े हुए अहसास और विविध प्रकार के अनुभव के आधार पर मेरी यह यात्रा शुरू है। महाराष्ट्र राज्य के सभी जिलों में जिसका विस्तार होनेवाला है,  ऐसी मोहिम के लिए मेरी नियुक्ति चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर पद पर होकर अभी ढाई साल बीत चुका  है। ग्रामीण गरीबों की संस्था बना कर उनका सर्व समावेशक विकास करना ही  उमेद का उद्देश्य है। इसके लिए समाज को प्रेरित करना, वित्तीय  एवं आर्थिक समावेशन, शास्वत उपजीविकाओं ( Livelihoods) का अवसर एवं मार्ग की उपलब्धता,  आदि विविध साधनों के मेल के ‘  उमेद’ में अवसर है।  गरीब व्यक्ति विकास योजनाओं का  केवल लाभार्थी न होकर,  सक्रिय  भागीदार हो , यह  भूमिका ही ‘ उमेद’  का और एक महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य है।’ उमेद’  ने  सोसाईटी फॉर एलिमिनेशन ऑफ़ रूरल पावर्टी  (सर्प-आंध्रप्रदेश), कुडुंबश्री (केरल), महिला आर्थिक विकास महामंडल (माविम),  टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल सायन्सेस आदि  प्रतिष्ठित संस्थाओं के साथ भागीदारी की है। इतनी जटिल (Complex) , इतने बड़े स्तर पर चलने वाली और ग्रामीण उपजीविका के सन्दर्भ में अलग-अलग पहलुओं को ध्यान में रखकर उस पर अंमल करने वाली उमेद मुहीम की  सफलता में मानव संसाधन  की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण  है,  जिसकी ओर मेरा ध्यान शुरुआत से ही रहा है.

अच्छे विचारों से प्रेरित, कार्यक्षम और जिनके पूर्व अनुभव का लाभ ‘उमेद’ को होगा , ऐसे प्रतिभाशाली  व्यक्तियों को,  उनकी क्षमता का पूर्ण उपयोग करने के लिए  वातावरण का निर्माण करते हुए  हमने ‘ उमेद’ से जोड़ा.  कार्यों के परिणाम हेतु, कर्मचारी, सहकारियों की मानसिकता बनाए रखने के लिए जो सुख सुविधा आवश्यक है,  उसकी तरफ तत्परता से ध्यान दिया जाए। वैसी ही कार्य संस्कृति अपनाई जा रही है। सभी सहकारियों को अलग-अलग प्रशिक्षण दिया जा रहा है। लिंग – समभाव या समानता के विचारों को उनकें मन में स्थापित करने के लिए प्रयास किया जा रहा है। जो बदलाव हमारे समाज में होने चाहिए,  ऐसा जिनको लगता है,  क्या सबसे पहले हमारे अंदर आ सकते है,  इस विषय पर हम सब मिलकर सोचते है। अलग-अलग सामाजिक विषय,  इसमें आनेवाली चुनौतियों , चुनौतियों  का हल निकलने के लिए पहले किए गए  प्रयत्न इस संबंध में परस्पर समझते है।नियमित बैठक, नियमित बचत, अंतर्गत कर्ज, नियमित वापसी एवं समूहों  के अहवाल रखना इन पांच सूत्र के सामने ‘उमेद’  ने और पांच सूत्र जोड़ दिए। शिक्षण-साक्षरता, आरोग्य/स्वास्थय, सरकारी योजनाओं का लाभ, पंचायती राज व्यवस्था में सक्रीय सहभाग और शाश्वत उपजीविका  पांच सूत्र हैं ।   

महिलाओं में  निर्णय-क्षमता  स्वतंत्र रूप से बढ़े, उनकी आवाज और मजबूत हो , इसके लिए मैं प्रयत्नशील रही  परंतु यह सब करते समय मैं उक्ति एवं कृति में  लिंग समभाव के मूल्य का पालन करते आ रही हूँ। महिला होने का फायदा मैं नहीं लेती या वैसी अपेक्षा भी नहीं रखती। कार्यालय में देर तक रुकने की जरुरत होने पर मै रूकती हूँ और ग्रामीण इलाकों में नियमित रूप से दौरे करती हूँ। महिला-पुरुष इन दोनों के समान सहभाग के माध्यम से, एक-दूसरे के प्रति सम्मान , आदर रखकर और महिलाओं को समान अवसर देकर ग्रामीण जीवनोन्नति का यह उद्देश्य सफल होगा,  ऐसा मेरा विश्वास है।

शब्दांकन : श्रीनिवास महाबल
अनुवाद : प्रफुल्ल भगवान मेश्राम,  शोध छात्र – पी.एच-डी हिंदी (भाषा प्रौद्योगिकी) महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र, संपर्क : pmeshram87@gmail.com, मोबाईल : 9922694337

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ISSN 2394-093X
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