‘परमाणु ऊर्जा का नकार’ स्त्रियों के लिये इतना मह्त्वपूर्ण क्यों है ?

 भार्गवी दिलीप कुमार

शीतयुद्ध के दौरान शान्ति और परमाणु विरोधी आंदोलन स्त्री-अधिकार समूहों ने शुरू किए थे। सैद्धांतिक तौर पर युद्ध और ‘मर्दानगी’ के ताने-बाने पर चोट करना एवं व्यवहार में यद्ध तथा परमाणु बम/ऊर्जा के औरतों पर पड़ने वाले विशिष्ट दुष्प्रभावों को मुद्दा बनाना एक बेहतर और समतामूलक दुनिया के लिए ज़रूरी है। ये सिर्फ संयोग नहीं है कि फुकुशिमा से लेकर कूडनकुलम और जैतापुर तक औरतें परमाणु-विरोधी आंदोलन की अगली कतारों में हैं। स्त्रीवाद और परमाणु ऊर्जा  के मुद्दों  को व्य्ख्यायित  करता  यह  लेख
          कुमार सुंदरम 

विश्व की  भयंकरतम त्रासदियों में से एक,  यानि फुकुशिमा दाइची परमाणु सयंत्र दुर्घटना और उसके  बाद अन्य देशों के नागरिकों में परमाणु ऊर्जा को लेकर ब‌ढ़ते डर के मद्देनजर हमारे सीखने को कई सबक हैं, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हम कुछ सीखने की  पर्याप्त कोशिश कर रहे हैं ?

फुकुशिमा त्रासदी ने भारत के तमिलनाडु राज्य के एक सुदूर समुद्र-तटीय गांव ‘इन्दिंथकरई’ के निवासियों में अभूतपूर्व भय का बीज डाल दिया. त्रासदी के समय टेलीविजन पर दिखाई जा रही फुटेज में वहां के लोगों को मास्क पहने हुए,  सफ़ेद वस्त्रों में ,  एक जगह से दूसरी जगह भागते हुए,संदूकों में बंद होकर अकेले जीने  की कोशिश करते  हुए , विकिरण के खतरे को मापने वाली कई जांचों से गुजरते हुए और अपने रिहाइशी इलाकों को हमेशा के लिए छोड़ते हुए दिखाया गया था. इन खबरों ने तमिलनाड़ु के इस गांव के निवासियों पर इतना गहरा असर इसलिए डाला कि गांव की एक दीवार परमाणु संयंत्र से लगी  है वहीँ दूसरी ओर  समुद्र उसकी सीमा बनाता है. 2004 में आई सुनामी के बाद राज्य सरकार द्वारा बसाई गई सुनामी पुनर्वास कॉलोनी के रहवासी हर सुबह जागते ही कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र के विशाल गुंबदों को देखकर नई आशंकाओं से भर जाते हैं. आगे कुंआं पीछे खाई के बीच फंसे होने का खतरा ही वह शक्तिशाली उत्प्रेरक है , जो ‘इंदिन्थकर’  के लोगों के जमीनी संघर्ष को अब तक गतिशील रखे हुए है, वरना इस आंदोलन को कुचलने की कई कोशिशें, दायर किये गये हजारों झूठ मामले, पुलिस की गोलीबारी, तट-रक्षकों के छापे, गांव में बम रखने की कोशिशें, संघर्षरत दलों को पैसों से खरीदकर उन्हें बाँटने की की चालें, मुख्य नेताओं की गिरफ्तारियाँ और कई अमानवीय यातनाएं इस आंदोलन को कभी का ख़त्म कर देतीं .

हम अक्सर परमाणु ऊर्जा के विरोध में चले  इन आंदोलनों  के बारे में पढ़ते हैं, इन्हें कोसते हैं या कभी-कभार इनके समर्थन में कुछ कह देते हैं. लेकिन यह सच है कि परमाणु ऊर्जा के विरोध में चल रहे आंदोलनों और अन्य सामाजिक आंदोलनों के बीच एक बड़ा फासला है, संवाद की  कमी दिखाई देती है. 8 नवमबर, 2013  को ‘कोलिशन फॉर न्यूक्लियर डिसआर्मामेंट एंड पीस’ तथा पाकिस्तान-इंडिया पीपुल्स फोरम द्वारा संयुक्त रूप से दिल्ली में आयोजित ‘परमाणु शस्त्रों का खात्मा’ विषय पर हुए चर्चा सत्र में सुश्री अरुणा रॉय ने कहा , “परमाणु उर्जा के विरोध में हो रहे आंदोलनों को अपनी नीतियों में पुनर्विचार की जरूरत है. इसके  संवाद की भाषा व तेवर में भी बदलाव आना चाहिए. इस मुद्दे पर व्यापक जनचर्चा व बहस हो, जिससे सामान्य जन का पक्ष उभरकर सामने आ सके. इससे दूसरे सामाजिक आंदोलनों को भी यह भान  हो सकेगा कि ‘परमाणु ऊर्जा-करण किस तरह उनके आंदोलनों से जुड़ा है.’ या भूमि-अधिकारों, सूचना व स्त्री-अधिकारों के लिए चल रहे आन्दोलनों के लिए यह मुद्दा अपना क्यों नहीं बना सका है ? परमाण्विक मुद्दों से जुड़े जेंडर सम्बन्धी मामलों पर भी चर्चा व बहस की जरूरत है.”

जेंडर-अधिकार आंदोलनों में परमाण्विक मुद्दों के महत्व का बोध न होना एक मुद्दा हो सकता है, पितृसत्तात्मक परमाणु लॉबी के जेंडर के प्रति समस्यापूर्ण रवैये से निपटने में इन आंदोलनों की असफलता भी मुद्दा है. और परमाणु-विरोधी आंदोलनों द्वारा जेंडर-अधिकारों को अपने संघर्ष के मुद्दों में शामिल न किये जाने की गलती भी इस संवादहीनता का एक और भी पहलू है.असल में यह संकेत है कि हम मुद्दों को समग्र रूप  में नहीं देख पा  रहे हैं. इस मामले में जेंडर भिन्नताओं और लैंगिक भूमिकाओं का गहराई से अध्ययन करना जरूरी है ताकि ‘परमाणु ऊर्जा विभाग’ जैसी धुर तानाशाह , पूंजीवादी उपनिवेशी संस्था से लोहा लिया जा सके. होमी भाभा (1948-1966) से रतन कुमार सिन्हा (2012  से वर्तमान ) तक पिछले 66 वर्षों में इस विभाग के प्रमुखों की सूची पर नजर डालें तो मूल प्रश्न यही उभर कर आता है कि यह पद अभी तक किसी महिला को नहीं मिला. क्या  यह एक सोची-समझी योजना का हिस्सा नहीं लगता ?

1987  में किये गए एक अध्ययन ‘परमाणु मुक्त व निशस्त्रीकरण के प्रति नजरिये में जेंडर की वजह से भिन्नता’ से इस अनुमान की पुष्टि होती है. अध्ययन के परिणाम साफ तौर पर बताते हैं “पिछले 30 वर्षों में पुरुषों की तुलना में स्त्रियाँ सैन्य अभियानों व सेना पर खर्च के ज्यादा खिलाफ थीं तथा शांति व समता की बड़ी समर्थक. वहीँ पुरुष सामान्यतः बल प्रयोग, मृत्युदंड व सैनिक अभियानों के पक्ष में थे और उन्हें बंदूकों व युद्धों पर नियंत्रण से सख्त ऐतराज था. अधिकांश स्त्रीवादी सिद्धांत भी इस धारणा पर बल देते हैं. जैसे कि सामाजिक स्त्रीवादी सिद्धांत यह दावा करता है कि “स्त्रियों की कमजोर आर्थिक स्थिति उन्हें विश्व को पुरुषों से भिन्न नजरिये से देखने के लिए प्रेरित करती है” और अधिक निश्चितता वाला जैविक सिद्धांत कहता है कि “स्त्रियाँ अपनी जैविक क्षमता के कारण मानव जाति के धरती पर बने रह्ने में एक अलग तरह की भूमिका निभाती हैं और इसलिए दुनिया को देखने का उनका नजरिया मूलभूत रूप से ही  अलग होता है”
परमाणु ऊर्जा-करण का जेंडर मुद्दों से सीधा संबंध है, इस सचाई को देखने की या तो कोशिश ही नहीं की जाती या फिर सावधानी से इस तथ्य को नजरअंदाज किया जाता है. युद्ध के परिप्रेक्ष्य में ‘स्त्रियों का जीवन’ सिर्फ हाशिये की चीज होता है, केंद्रीय कभी नहीं.

पिछले कई वर्षों का हमरा अनुभव कहता है कि अधिकांश सामाजिक आन्दोलन जमीनी स्तर पर स्त्रीवादी नजरिया अपनाने से सुदृढ़ व सफल हुए हैं और अपना अस्तित्व बनाये रख पाये हैं. यह साफ है कि ‘परमाणु अस्त्रीकरण या परमाणु ऊर्जाकरण के सामाजिक प्रभावों’ का मुद्दा स्त्रियों द्वारा ही सफलतापूर्वक उठाया जा सकता है, क्योंकि एक ऐसे देश में जहाँ आवास , भोजन, पानी, बिजली, स्वास्थ्य व शिक्षण जैसी मूलभूत आवश्यकतायें भी अब तक पूरी आबादी तक न पहुँच पाई हों, वहां संसाधनों की कमी स्त्रियों पर ही सबसे बड़ी आपदा बनकर टूटती है क्योंकि इन संसाधनों का बहुत छोटा हिस्सा ही उन तक पहुँचता है. बहुत छोटी लगने वाली चीजें जैसे पानी की कमी का मतलब एक स्त्री के लिए मेहनत में अतिरिक्त बढ़ावा है क्योंकि अब उसे अधिक दूर से पानी लाने  में ज्यादा समय व ऊर्जा व्यय करनी होगी और वह भी दिन के असुविधाजनक समय में. यह तो मात्र पानी की कमी की बात हुई, परमाणु आपदा के स्त्री पर अन्य अनगिन प्रभावों के बारे में विचार किया जाये तो ? जेंडर अधिकारों तथा और अन्य मुद्दों पर जमीनी लड़ाई लड़ रहे आंदोलनों को एक मंच पर लाने के इस विचार के पीछे मंशा यही है की परमाणु नीति पर एक सहमति बनाई  जा सके और परमाणु-विरोध को सबका सार्थान  मिल सके. साथ ही परमाण्विक संस्थानों के घोर पितृसत्तात्मक रवैये को स्त्रीवादी पक्ष की  चुनौती मिल सके. भारतीय परमाणु-नीति के इस अजीबोगरीब चरित्र या लापरवाही को ध्यान से देखें तो पायेंगे कि सारी  नीतियाँ न सिर्फ नैतिक प्रश्नों को दरकिनार करती चलतीं हैं बल्कि उनका जेंडरीकरण करके समस्या और बढ़ा देती हैं. यह कुलीन तबका अपने आपको तार्किक, वैज्ञानिक, आधुनिक और हाँ, सबल भी सिद्ध करना चाहता है; जबकि समाज व पर्यावरण की बलि चढ़ाकर नैतिक प्रश्न विकास-विरोधी, अनाधुनिक व थोथे भावात्मक कह कर परे ढकेल दिए गये हैं. सोच विचार का यह मार्ग सुझाता है कि मानवजीवन और कल्याण के प्रश्न, न जाने क्यों, न तो आधुनिक हैं और न ही पर्याप्त सफलता के सूचक. दरअसल यही सिद्ध हो रहा है कि चाहे मनुष्य में शांति व नैतिकता लाने की न तो कूवत हो और न उसे इनकी परवाह हो लेकिन वह पुरुष-स्त्रियों दोनों के लिए भयंकर परिणाम वाले निर्णय लेने की स्वतंत्रता जरूर चाहता है.

इन चौखटों को तोड़ना आज के वक़्त की जरूरत है और इदिन्थकरई या भोपाल की स्त्रियों के अकेले नेतृत्व सँभालने मात्र से यह लक्ष्य नहीं पाया जा सकेगा. बल्कि हम सबको साथ मिलकर अपनी-अपनी भूमिकायें तय करनी होंगी और परमाणु ऊर्जा पर बहसों को स्त्रीवादी नजरिये से देखना शुरू करना पड़ेगा. इदिन्थकरई की स्त्रियों ने अपने संघर्ष को मात्र अपनी जिंदगी से जुड़ा एक छोटा मुद्दा नहीं बनाया बल्कि उसे पृथ्वी माँ को बचाने जैसे व्यापक लक्ष्य से जोड़ लिया है और इस तरह एक अच्छा उदहारण हमारे सामने पेश किया है. इस जमीनी संघर्ष का अध्ययन गहराई से व जल्द ही होना चाहिये.
1980 के दशक में विश्व भर  में हुए परमाणु-विरोधी आंदोलनों में स्त्रियों ने महती भूमिका निभायी थी. यहाँ तक की उन्होंने एक वीमेंस फोरम की स्थापना थी, जिसका लक्ष्य परमाणु-अस्त्रों  से मानव जाति को मुक्त करना था. और जिसने यूरोप, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया व जापान की स्त्रियों की अगुवाई में सेना की छावनियों  में कैंप किये थे. इसकी गतिविधियों से यह स्पष्ट हो गया था कि परमाणु-संस्थानों से संघर्ष में स्त्रीवादी तरीकों का क्या महत्व है. वक़्त आ गया है कि सच्चाई  को हम विश्व के इस भारतीय भूभाग में भी अनुभव करें.

भार्गवी ‘प्रोग्राम फॉर सोशल एक्शन’ से जुड़ी हुई हैं, सम्पर्क :bhargavi.dilipkumar@gmail.com
अनुवाद- आकांक्षा, पीएच.डी. शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली.