रक्तरंजित कहानी महिला प्रतिनिधित्व की

उपेन्द्र कश्यप 


(आज बिहार विधान सभा के लिए चुनाव का प्रथम चरण शुरू हुआ है. इस अवसर 2001 में मारी गई महिला मुखिया की कहानी बता रहे हैं युवा पत्रकार उपेन्द्र कश्यप. यह कहानी महिलाओं की  राजनीतिक भागीदारी के  खिलाफ पितृसत्तात्मक समाज के द्वारा पैदा की जाने वाले बाधाओं की है , उसकी घबराहट की भी है कि सत्ता में यह भागीदारी उसके अभेद्य किले को ध्वस्त कर देगी. यह कहानी महिला मुखिया के संघर्ष के साथ -साथ सत्ता पर हाशिये के लोगों की दावेदारी की भी बानगी है.  )

चन्दन की उम्र अब करीब 23 साल हो गयी है। उस दिन की याद अब भी उसे रुला देती है,  जब उसकी मां ‘चिंता देवी’ की रणबीर सेना के कथित समर्थकों ने 16 मई 2001 को गोली मार कर हत्या कर दी थी। यह हत्या की मात्र एक घटना भर नहीं थी। इसके पीछे के विचार महत्वपूर्ण है। यह अब तक की एकलौती घटना इस मामले में है कि वह बिहार की पहली ऐसी महिला थीं, जो मुखिया बनने की औपचारिक घोषणा सुनने जा रही थी, और उनकी हत्या सामंती सोच के कारण भूपतियों ने कर दी थी। पिछडी जाति (कुर्मी) की ‘चिंता देवी’ अपने घर ओबरा के चंदा गांव से सज धज कर पूर्वाहन को औरंगाबाद जिला समाहरणालय जा रही थीं । गांव से कुछ ही दूरी पर बधार में हत्यारों ने गोलियों से उन्हें भून  दिया। इन्हें सही अनुमान था कि भूमिहार जाति के पिसाय निवासी सत्येन्द्र पांडेय की पत्नी प्रतिमा देवी का चुनाव हारना तय है। हुआ भी ऐसा ही, किंतु जीत की खबर सुनने से पहले ही चिंता की हत्या कर दी गयी। तब बिहार में त्रीस्तरीय पंचायत चुनाव में महिलाओं के लिए आरक्षण लागू नहीं था। यह व्यव्स्था एनडीए के सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2006 के पंचायत चुनाव से लागू की थी – देश में पहली  बार किसी राज्य में स्थानीय इकाइयों में महिलाओं को आरक्षण मिला. इसके पहले बिहार में किसी महिला का मुखिया प्रत्याशी होना आश्चर्य हुआ करता था।

चन्दन को आज भी यह खटकता है कि उसके पंचायत की मुखिया उसकी मां शपथ ग्रहण तक नहीं कर सकी और पिता राम चंद्र सिंह उप चुनाव में मुखिया बनने के बाद 2006 के चुनाव में हार गये और फिर उनकी भी हत्या कर दी गयी। हालांकि इस बात का उसे ही नहीं तमाम पिछडा, अति पिछडा, दलित और महादलितवाद की राजनीति करने वालों को संतोष भी है कि इस पंचायत से कभी सवर्ण मुखिया नहीं बन सका। चिंता की हत्या विशुद्ध तौर पर अगडे बनाम पिछडे की लडाई का परिणाम थी। भूमिहार नहीं चाहते कि इस पंचायत का मुखिया पिछडा बनें और पिछडे नहीं चाहते कि सवर्ण बने। चिंता की हत्या के बाद इस संवाददाता से रामचन्द्र ने तब साफ कहा था कि मेरे जीते जी भूपति अपनी जाति का मुखिया नहीं बना सकते। खुद रामचन्द्र एमसीसी के जोनल कमांडर थे। भूपतियों से होने वाले संघर्ष के कारण ही उन्होंने हथियार उठाया था। उन्होंने तब कहा था कि -“इस क्षेत्र के पिछडे, दलितों एवं हरिजनों का कोई कद्र नहीं रह गया है। पहले पिसाय पुलिस पिकेट (अब नहीं) के सहयोग से हरिजनों, दलितों को वोट नहीं देने दिया गया, फिर उसी के सहयोग से चिंता की हत्या कर दी गयी।“ पिसाय के ही सुशील पांडेय को रणबीर सेना का सरगना कहा जाता था। इस गांव पर भी एमसीसी ने अगडा बनाम पिछडा की लडाई के कारण किया था। इनकी हत्या भी पिछडों ने ही किया। हत्या के बाद पहुंचे केन्द्र में मंत्री गिरिनाथ सिंह ने उसे शांतिवादी कहा था। इस पंचायत में अगडा बनाम पिछडा की लडाई जबरदस्त चलती है। आज भी स्थिति बदली नहीं है। रामचन्द्र सिंह को उन्हीं के गुट का माने जाने वाला रामनगर निवासी रंजीत राजवंशी ने 2006 के चुनाव में हराया और फिर 2011 में भी वही मुखिया बना। अपने भाई की हत्या के मामले में वह गत कई महीने से जेल में है। इलाके के लोग आज भी यह तय मानते हैं कि इस लडाई में कभी भी अगडा को इस पंचायत का मुखिया नहीं बनने दिया जायेगा, भले ही कम पसन्द पिछडे दलित किसी व्यक्ति को ही क्यों न मुखिया बनाना पडे।

बिहार में जून 2012 में पटना जिला की गोरखारी की मुखिया बेबी देवी की हत्या की गयी थी। उसे पद छोडने की धमकी उसी से पराजित संगीता देवी के पति , अपराधी से राजनीतिक मुनाफाखोर बने रणविजय प्रताप उर्फ बबलू ,  ने दी थी। मारे जाने के डर से ही अपने पंचायत से 28 किलोमीटर दूर कुरथौल में वह रह रही थी किंतु तब भी जीवन नहीं बचा सकीं। 15 दिसंबर 2013 की रात को भोजपुर जिले के उदवंतनगर थाना क्षेत्र में अज्ञात अपराधियों ने महिला मुखिया चंपा देवी की गला दबाकर हत्या कर दी। राज्य में अभी तक कुल 33 मुखिया की हत्या की गयी है। राज्य में 2011 के अनुसार कुल 8,463 ग्राम पंचायतों में से 3,784 ग्राम पंचायतों में मुखिया का पद महिलाओं के लिए आरक्षित है। अगले साल 2016 में फिर चुनाव होन है तब भी यह संघर्ष चलेगा किंतु स्तर क्या होगा, तनाव कितना  होगा, यह देखना दिलचस्प हो सकता है।

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