केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण, बैंगलोर पीठ में हिंदी अनुवादक संपर्क-ई-मेल : aditisharmamystery@gmail.com
अदिति शर्मा
स्त्री मुक्ति चेतना व स्त्रीवादी दृष्टिकोण पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और बहुत कुछ लिखा जा रहा है, किन्तु बुनियादी सवाल अभी तक क़ायम हैं। सूक्ष्म रेशे से अटके इन सवालों की सामाजिक सन्दर्भों में बारीकी से की गयी जाँच-पड़ताल ही नारी अस्मिता की खोज कर सकती है। वर्तमान समय में जब स्त्रियाँ घरों की चारदीवारी से बाहर निकलकर संघर्षरत हैं, नियमों, मर्यादाओं और वर्जनाओं से अपने स्त्रीत्व व अस्मिता की टकराहट को अपने अनुभवों से महसूस रही हैं तब ये अनुभव उन्हें झकझोरते हैं और एहसास कराते हैं उस जकड़नावस्था का जिसमें वे फँसी हैं। जहाँ उनके चुनाव और निर्णय लेने के अधिकार को हिक़ारत की नज़र से देखा जाता है। यदि स्त्री को मनुष्य ही ना समझा जा रहा हो तो उसके वरण की स्वतंत्रता का सम्मान भी संभव नहीं। यहीं से समानता की अवधारणा का प्रारम्भ होता है और यहीं से उन सभी प्रश्नों के उत्तर ढूँढने का प्रयास शुरू होता है जो इस समाज ने खड़े किये हैं।
बीसवीं सदी तक आते-आते स्त्रियों ने अपने कदम उन क्षेत्रों की ओर बढ़ा दिए थे जहाँ अभी तक केवल पुरुषों का एकाधिकार था। स्त्रियाँ स्वयं को सक्षम सिद्ध कर रही थी किन्तु उपभोक्तावादी संस्कृति तथा विज्ञापन-व्यवसाय ने उसे एक अलग ही छवि में प्रस्तुत करना चाहा। विज्ञापनों में अधिकांशतः स्त्रियों की दो तरह की छवियाँ परोसी जाती है, पहली में सुबह से दौड़ती-भागती पति को ऑफिस और बच्चों को स्कूल भेजती स्त्री जो 5 रुपये के साबुन से बर्तन चमकाती है 3 रुपये सस्ते डिटर्जेंट से पति की पीली पड़ गयी कमीज़ को चकाचक सफ़ेद कर देती है और कमर दर्द होने पर शिकायत भी नहीं करती (वो तो भला हो उस ‘महापुरुष’का जो ‘मूव’ या ‘आयोडेक्स’ लगाकर उसे दर्दमुक्त कर देता है) फिर श्रृंगार कर ‘आशीर्वाद आटा’ ‘बासमती चावल’ और ‘एम डी एच मसालों’ से पति का मनपसंद खाना बनाकर शाम को उसका इंतज़ार करती है। दूसरी छवि एकदम भिन्न है जहाँ स्त्री मोटर बाइक पर सवार या डीयोड्रेट लगाते यहाँ तक कि टूथपेस्ट करते और दाढ़ी बनाते पुरुष को देखकर भी कामुक हो जाती है।
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तस्वीर सौजन्य : गूगल से साभार |
अब विचारणीय यह है कि जिस स्त्री को ये मीडिया प्रस्तुत कर रहा है वह वास्तव में उपभोक्ता है या उपभोग्य ! अपने स्त्रीत्व और अस्मिता से जुड़े सवालों से हर दिन जूझती स्त्री को लम्बे संघर्ष के बाद जो थोड़ी सी आज़ादी मिली है उसके प्रति और भी सतर्क होने की जरूरत है। इस पूरी बाज़ारवादी संस्कृति को संचालित करने वाली षड्यंत्रकारी पुरुषसत्ता के इरादों को समझना होगा। यह भी ध्यातव्य है कि यह वही पुरुषवादी मानसिकता है जिसने सदियों तक स्त्रियों को ‘पर्दे’ में रखा और अपनी सुविधा के लिए ‘पर्दे’पर ले आई। स्त्री पात्रों की भूमिका पुरुषों द्वारा निभाई जाती थी क्योंकि उस समय स्त्रियों के लिए अभिनय, संगीत, नृत्य व कला से जुड़ना लज्जा का विषय था। फिर क्या कारण रहे कि उसी स्त्री को ‘प्रोडक्ट’ की तरह पेश करते हुए विचार नहीं किया गया। संभवतः यहाँ सारा खेल धन और बाज़ार की ताक़त का है।
विज्ञापन संस्कृति में पुरुष मानसिकता और स्त्री की बदलती मानसिकता के विषय में प्रभा खेतान लिखती है, ‘…..पृष्ठभूमि में व्यापक स्तर पर स्त्री-देह का, उसके कपडों एवं सौंदर्य प्रसाधन का विज्ञापन इस पूर्वानुमति तथ्य पर आधारित है कि वास्तव जगत् की स्त्री देह में ही कोई कमी है, इसलिए इन प्रसाधनों, कपडों एवं डाइटिंग से इसे भोग के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।
चूंकि दुनिया और समाज में , पुरुष की नजरों में वह सुन्दर लगे, यह जरूरी माना जाता है। यहां स्त्री व्यक्ति के रूप में भी बार-बार अदृश्य पितृ-सत्तात्मकता के प्रभाव में दूसरे व्यक्ति के संदर्भ में स्वयं को प्रस्तुत करती है। इसमें शायद कुछ सच्चाई और तथ्य भी है, कारण, स्त्री जानती है कि आधी लडाई, वह अपनी देह के स्तर पर जीत ही जाएगी….।’ (उपनिवेश में स्त्री)
नई व आधुनिक स्त्री की जो परिभाषा मीडिया गढ़ रहा है वह वास्तव में भ्रमित करती है,उसी का परिणाम है कि आज स्त्रीविषयक समस्याएँ तो बढती जा रही हैं किन्तु उनका सुनिश्चित समाधान नहीं मिल पा रहा है। मीडिया वर्तमान में एक ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में उभरकर सामने आया है जो युवा पीढ़ी में जीवन मूल्यों, आदर्शों एवं नैतिक गुणों को गहराई से प्रभावित कर रहा है। उसके पास ऐसी ताकत है जो समाज में व्याप्त बुराइयों और कुरीतियों को नकारात्मक परिणाम के साथ प्रस्तुत कर सजगता बनाए रख सकता है। किन्तु स्थिति यह है कि मीडिया ख़ालिस बाज़ारवाद के रंग में रंगा हुआ है और यह समझ पाना कठिन हो गया है कि यदि मीडिया बाज़ार है तो विचारणीय है कि बेचा क्या जा रहा है।
मीडिया व स्त्री-समाज दोनों को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी। सतर्क होना होगा कि यदि स्त्री इस चमक-दमक व उपभोक्तावादी संस्कृति में खो गई तो नारी-मुक्ति स्वप्न अधूरा ही रह जाएगा। उसे तय करना होगा कि वह वस्तु या उत्पाद बने रहना चाहती है या सृजनशील मनुष्य ! यही निर्णय उसका भविष्य तय करेगा।