सुनीता झाड़े मराठी और हिन्दी में कविताएँ लिखती हैं तीन मराठी कविता संग्रह प्रकाशित संपर्क: commonwomen@gmail.com
( पिछले दिनों हमारे मित्र और पत्रकार देवेंद्र वानखेड़े नहीं रहे . उनकी हमसफ़र और मराठी कवयित्री सुनीता झाड़े की कविताएँ उन्हें याद करते हुए )
तुम मेरे सारे मकाम को जानते थे
उस तक पहुचती हुई हर राह को
देखो तो वहां तक सफर कर रही हूँ मै
मुझे तुम्हे बताना है,
सहर होने तक अपने सफर की बातें
बताओं तो, कहां हो तुम
बाद तुम्हारे… तुम्हारे बाद
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आज,
तुम्हारे आवाज का नाम मिटा दिया
डिअर हबी
अब नंबर खुला है
तुम्हारी चाहत की तरह
बाद तुम्हारे… तुम्हारे बाद
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हर त्योहार के पीछे
कोई पौराणिक कहानी छपी होती है
ठीक वैसे ही हमारे सारे त्योहार
तुम्हारे प्रिस्कीपशन पर लिखे होते
डिस्चार्ज पेपर पर उसकी वास्तविक कहानी
कृष्ण गणेश राम हनुमान लक्ष्मी दुर्गा भोले शंकर
सभी अस्पताल में
नानक गुरु यशु साई पीर बाबा फकीर सारे
एक के पीछे एक वहीं…
याद आया अबकी बार कोई भगवान आयसीयु में था
गार्ड बाहर आकर पूछ रहा था, फिर चीख रहा था
भाई भगवान के साथ कोई है?
देर तक उस पॅसेज में सन्नाटा छाया रहता, एक दबी सी हंसी के साथ
देखो तो यहां भगवान के लिए कोई नही…??
तुम्हे कभी बताया नही
लेकिन तिज-त्योहारो में दिल दिमाग पर
अस्पताल की अधार्मिक बु सी बनी रहती थी
और तुम नाराज मेरे धार्मिक हस्तक्षेप को लेकर
कई कई दिनो तक…
पता है, इन सजे हुऎ बाजारों से खिजा सा रहाता मन
कुछ लेने में मन ही नही लगता…
हर बार पाक बनाते समय
समय समय पर दवाईंया याद दिलाना
जेहन में बस एक ही विषय…
बाजार में हर बार दुधिया, पत्ताकोबी, पमकीन
कितनी सारी चीजें, जिससे परहेज था तुम्हे
उन्हे परे रख वो सारी चीजें इकठ्ठे करना तकलीफ देह था,
उस पर तुम्हारा इन सारी चीजों से एतराज…खुन्नस भी
शुरु – शुरु में लगा पहली बार ही.. फिर अगली बार…
फिर जब बार बार अस्पताल जाना पडा तो… मायूस
मैं भूल गई अपना धर्म, धर्म के रक्षा हेतु के तीज-त्योहार
मेरे सामने बस एक ही धर्म, तुम्हारे प्राणो की रक्षा करना
और उसके लिए
हर दर, हर व्दार, हर चौकी, हर चौखट, हर दरगाह पर
पेड, पौधे, मिट्टी, पानी सब पर…
अपने आप को चढाकर कुबुल हो आई थी मैं, हां…
फिर भी तुम ना रहे
एक इन्सान का दूसरे इन्सान के लिए विश्वास रुक गया.
अब जब की तुम मिट्टी हो चुके हो साथी
मेरी जात भी माटी हो गई है…
तुम मानो ना मानो,
मै तुम्हारी परछाई ही हूं…
बाद तुम्हारे…तुम्हारे बाद
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पता नही तुम मेरे बारें में क्या सोचते हो
जबकी तुम कहीं नही हो
उच्चार से वाणी से
लेकिन मैं जब भी कुछ सोचना
समझना चाहती हूँ
वही दहशत सामने आ जाता है
पता नही तुम क्या सोचोगे
क्या कहोगे और कैसे
अभी भी सींचना है जहर
बाद तुम्हारे … तुम्हारे बाद
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कितना मुश्किल होता है कितना मुश्किल
वेंटिलेटर से किसी अपने को निकालना
ऎसे लिखकर
हम जानते इससे इसकी जान को खतरा हो सकता है
यह जानते हुऎ कि… हम सहमति देते है
नीचे दस्तखत, उसके नीचे नाम, उसके नीचे रिश्ता…
रिश्ता जो हमेशा के लिए खत्म होने जा रहा है…
चूकी इसके बाद तुम नहीं रहोगे शरीर से
मैं शरीर धर्म से तुम्हारी पत्नी…
कितने लडखडा रहे थे कदम
कलम हाथ से छूट रही थी
ऑंखो से कुछ भी नही दिख रहा था कुछ भी नही
इर्द-गिर्द अपनो का जमावडा था
और मेरे सामने तुम निष्प्राण
मैं तुम्हे कितना ढूंढ रही थी, कितनी आवाज दे रही थी
हाथों में हाथ लिए तुम्हारे दिल को सहलाते
माथे को सहलाते की कहीं से कोई आहट मिल जाए
कि तुम हो
कोई पीर बाबा का चमत्कार
कुछ तो हो, कोई तो कहे, कोई तो बताये
तुम यहां, तुम वहां, तुम इस इस रास्ते से…
तुम्हारे बगल में कितनी ही स्क्रीन लगी थी
उसपर कितनी ही रेखाऎ दौड रही थीं
एक शुरु होती जरा दूर जाके ठहरती
वापस दूसरी वही से वही तक…
मैं ढूंड रही थी इनमें से कौन- सी रेखा
ख्नीच कर लाऊ तुम्हारे हाथों की लकीरों के लिये…
कहते हैं हाथों की लकीरों में नसीब होता है
मैंने कई दिनो से तुम्हारे हाथों में कोई लकीर ही नही देखी थी
सफेद मुलायम नरम हाथ जैसे गुड्डों का हुआ करता है
बस वैसे ही…
आख़िरी समय में फूल गये थे दोनो हाथ
बाकी शरीर कोरा था मौन…
तुम्हारा यह मौन हो जाना मुझे दिखता था
इसलिए मैं चिखती थी, चिल्लाती थी
सुनो, सुनते क्यो नही हो तुम, सुनो तो
काश मेरे भितर के सन्नाटे को समझ पाते
काश कभी…
तुम्हारा धीरे धीरे चले जाना भांप रहा था दिल
और एक छटपटाहट कि कैसे…
मेरे सामने हो रहा था सब
ये फिर, ये फिर, ये फिर…
कही कुछ चुक रहा था फिर भी
वो समय ही था जो मुझे जबरन अपने साथ लिये जा रहा था
और मैं कठपुतली की तरह…
सबसे कह रही मैं, कभी सोचा न था ऎसा…
कभी सोचा न था
इतना साथ देने के बाद
ये वक्त मुझे अपना गुनहगार ठरहराएगा…
बाद तुम्हारे…तुम्हारे बाद
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