लाजवन्ती

प्रो.परिमळा अंबेकर

हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका और विभागाध्यक्ष . आलोचना और कहानी लेखन  संपर्क:09480226677

लाजवन्ती….!!  हाॅं … उसका नाम लाजवन्ती था … । अपने नाम से कोसो दूर खडी , अपने ही नाम से ठिठोली करती हुई …लाजवन्ती !! यह लाज भी बडी अजीब चीज है … न जाने इस शब्द में  क्या जादू है…. बस बंध जाती है खूॅंटे से … दुपट्टे से, चुनरी से…. !! दुपट्टा या चुनरी के लहराते झालर से टंगे, गले का फंदा बनती बनने में देर नहीं   लगती… ! देह के पोर पोर से रिसती है… अंगराग की तरह … बंधा बंधा ढका ढका ….खुशबुदार… !! लेकिन जब खुला खुला….टूटा टूटा….तो… बदबूदार ..!! सब मन और आंख पर लगा अंजन कहिये !! लेकिन मेरी लाजवन्ती तो, अपने पालने के गद्दी के सात परतों के नीचे, उबले चने और पान सुपारी के साथ ही , लाज को भी तह कर रक्ख आयी थी । पालने के संस्कारों को पालने में ही रस्सी के संग झूलते छोड, उतर आयी थी नीचे…नीचे..स्वतंत्र और उन्मुक्त … !! उसकी चालाकी बचपन से ही चलने लगी थी.. !! माॅं,  दादी की मीठी घुट्टी की कडवाहट को, उनके अनदेखे, कै कर लिया होगा लाजवन्ती ने … !!

खैर अब मैं बताने जा रही हूॅं इसी लाजवंती के लाजभरे …   नहीं नहीं ….  लाजमारे किस्से .. !! जोर जोर से ठहाके मारकर हॅंसतीं और  अपने दोनो हथेलियों में होठ  और नाक को भरते , मुॅंह छुपाये… खिसियाहट की हॅंसी भी हॅंसती । ऐसी हॅसी उसकी फैली आॅंख की पुतलियों के मटकने से पता चलता । लाजवंती हमेशा, हमारे बीच होती, लेकिन उसका हॅंसना- बोलना जैसे हमारे बीच होते हुए भी हमारे साथ का नहीं लगता था मुझे। लगता, उसके बोलने की आवाज किसी और के ही कान से जा टकरा रही हैं । उसके चेहरे की मुस्कुराहट की महक किसी और के चेहरे पर, ठंडी सुकून बनकर पसर रही है । उसकी कनखियों के तीर के अहसास से, किसी और के ही शब्दों को अर्थ मिल रहे हैं !!

शायद छठी कक्षा में हम पढते थे । हम लडके और लडकियों के बीच, वह लाजवन्ती कुछ अलग- अलग ही लगती । हमसे भी उसके बडे होने के कोई  दैहिक प्रमाण तो नहीं थे , क्यूॅंकि कद -काठी से लगभग सामान्य थी । सुक्की, गोरी चिट्टी । सदा हॅंसी से खिंचे- खिंचे उसके मुॅंह के आख, कान नाक में सबसे विशिष्ठ रहे थे, उसके गुलाबी मॅसुडे और उनमें उग आयीं झक्क सफेद दाॅंत !! जो समय-बेसमय खिले मिलते। उम्र में हमसे उसका बडी होने का सच्चा – मुच्चा चिठ्ठा तब सामने आया जब वह सचमुच में बडी हो गयी थी । टीचर के पूछनेपर उसके मोहल्ले की लडकियाॅं , अस्फुट इशारों से आपस में ऐसे देखती जैसे किसी गहरे राज को छिपाने का जिम्मा ले रक्खी हों । उसके बाद लाजवन्ती का स्कूल आना बंद हो गया ।

लाजवन्ती का स्कूल न आना… सबसे ज्यादा मुझे अखरने लगा । ठुड्डी को हथेलियों में धरे, हर हमेशा , खिडकी के पार देखते, बेंच पर मेरे बगल में बैठी  लाजवन्ती का चेहरा अचानक खिल जाता । झट सर  घुमाकर मेरी ओर देखती । उस समय , उसका चेहरा मुझे अजीब अजीब सा लगता ….!! खिडकी और मेरे बीच पंेडुलम की तरह उसकी सर तब तक सटकता अटकता रहती, जब तक की बाहर दोपहर के खाने की घंटी न बजती। छठी क्लास के लगभग पंद्रह सोलह लडकियों में उसने मेरे चेहरे पर ऐसा क्या पढ लिया था पता नहीं !! बिना ना नुकर किये मैं भी कबीर की मुतिया की तरह बस हो लेती उसके पीछे….‘‘गले राम  की जेवडी, जिथ खैंचे तित जाउॅं ‘‘। जैसे ही घंटी बजती, यह लाजवंती मेरे दोनों हथेलियों को अपनी मुठियों में कसकर भींचती और मुझे लिये तब तक दौडते रहती जब तक कि, दूर… किसी निश्चित जगह पर वह….खडा नहीं दीख पडता…!  लंबा ,  काले बालों वाला आशिकाना डील -डौल का लडका, चलते हीरो की फैंशन का क्राफ काढे, मुंडी तिरछी किये हुये…., लाजवन्ती के आने के मार्ग को  निहारता हुआ !!

पता नहीं अपने स्कर्ट की जेब में वह कागज का टुकडा कब रक्खे रखती ।  क्षण में, अपने जेब से कागज के टुकडे को मुठ्ठी में भींचकर, मुझे वहीं छोड उसकी ओर दौडते जाती…कागज का गोला बनाती और उसकी हथेली में यह खुद रखती या वही अपना हथेली आगे बढाता, दूर खडे मुझे पता नहीं चलता था … !! पढे बेपढे सभी ढंग के बच्चों की लिखावट जांच जांचकर धारखायी मेरी बुजद्धी आज तक इस सवाल का उत्तर खोज नहीं सकी… आखिर किसी भी लजैग्वेज की एबीसीडी न लिख सकने वाली मेरी लाजवंती , रोज उस लडके को थमाने वाले कागज के टुकडों में लिखा क्या होगा.. ? और लिखा कैसे होगा….? लेकिन बात इतनी तो पक्की होती, दूसरे दिन वह लाजवंती के कागज में उधृत कोडवर्ड का सिरा पकडे पकडे निर्दिष्ट जगह पर रास्ता ताकता जरूर मिल जाता … !!

आज मुझे लगता है….लाजवंती के हाथों से गुदे वे कागज के टुकडे , कोरे कागज के टुकडे नहीं बल्कि, बिना राजमद्रा के वे राजपत्र थे , जिनका किसी भी ढंग से दुरूपयोग होने की गुजाइश ही नहीं । भला उन अलिखित, लिखे पत्रो का शिनाख्त कौन करें … उनका मजमून की जानकारी आये भी तो कैसे आये ? किसे आये …? कागज का हस्तांतर होने की देरी ही नहीं थी, उसी रफ्तार मे मुझे लेकर दौडती,  मुझे लिये लिये स्कूल की ओर लौट पडती । अपना डब्बा खोले खाने बैठे लडकियों की बंदगोले में , ठूॅंसते ठूॅंसाते, जगह बना लेती और मुझे भी लेकर खाने बैठ जाती । चेहरे पर कोई  भाव नहीं कोयी रेशा नहीं … जैसे कुछ हुआ ही नहीं । यह सारा काम अंजाम पर ऐसे पहुॅंचता , जैसे कोई खुफिया मिशन का डेमो चलपडा हो । कभी कागज का गोला, कभी रंगीन पन्नी चढा कवर, कभी यह -कभी वह… चीजों के साथ साथ उनके मिलने की जगह भी  बदलती रही । कभी किले के भीतर का फाटक, कभी किले का बीचों बीचवाला मस्जिद, कभी किले मे भीतरी दीवाले से सटेखडे, घरों की ढिबरियों का आड…. । लाजवंती की दोस्ती का फायदा आज मुझे दो ढंग से दिखता है । एक है अपने स्कूल के सामने सदियों से सीना ताने मौन खडे बहमनी किले के हर पत्थर और सूरत की ऐतिहासिक जानकारी  …. और दूसरा पढते-पढाते समय, अपने सामने खडे हर अपढ बच्चों में लाजवंती के चेहरे का झलक जाना ।  लाजवंती के दिग्दर्शन में चलने वाला वह ड्रामा जैसे भव्य संकलत्रय के सिद्धांत को याद दिला जाता । नाटक के पात्र, काल और घटना के बंदोबस्त की तरह । वही पात्र, वही घटना और वही समय.. ।  इनके मध्य गिट्टी पिट्टी सी घूमती … गले राम की जेबडी पहनी … मैं !

आज से लगभग बयालीस चालीस बरस के पहले की बात है । गुलबर्गा, शहाबाजार नाके के पास का अपना स्कूल , कब्रीस्तान के बगल में खडा-खडा सामने के बहमनी किले के बियाबान को सदा निहारते रहता । शहाबजार नाका, चुंगी नाका भी कहलाता है। जिस स्कूल मे हम पढते थे उस स्कूल की हस्ती बस इतनी सी थी कि वह अपने नाम से कम लेकिन, चुंगीनाका के परिचय से अधिक पहचाना जाता रहा।  सामने के चौरस्ते की सडकें, लोगो को जिन अलग अलग दिशाओं में ले जातीं, बाई  दिशा में जाने वाली उन्हीं सडको के दायें फैलाव में राजपूतो की घनी बस्ती थी । वहीं था लाजवंती का घर । अपने स्कूल के लगभग सारी लडकियाॅं या तो इन राजपूत बस्तियों से थी या, आगे जाकर खुलनेवाले , लकडी का सामिल लगाये बैठे गुजरातियों के घरों से थीं । इन सारी लडकियों का इस स्कूल में पढने के पीछे एक मात्र कारण था कि  वह उनके बस्तियों के अधिक पास बना था ।

 मैं ही ऐसी थी,  जिसका नाता स्कूल के आसपास के किसी बस्ती या इलाके से नहीं था । कोसों दूर से आधे बस के रास्ते , आधे पैर के रास्ते चलकर मुझे हरदिन स्कूल आना पडता था । खैर लाजवन्ती को मेरा, अपने जातीय बंद इलाके से बाहर का होना , अधिक सेक्योर और सहायक लगा होगा । साथ ही उसने मेरे चेहरे पर की लकीरों में बनते एक दो और वाक्यों को पढ भी लिया था शायद-यानी, इन तमाम मामलों में की मेरी सामाजिक , बौद्धिक नासमझी , और हो न हो… सुआमन तोते जैसी मेरा दिले -खुशी सा जिगर का  रखना । जब किसी दिन , किले के भीतरी गली के मोडपर, या किले के गुंबज के पास , या किले के भीतरी डिबरियों के छोर के नीम के पेड के तले……. निश्चित जगह पर वह दिखाई नहीं पडता तो, लाजवंती से अधिक सुआ तोते की तरह पस्त मैं हो जाती । लाजवन्ती का चेहरा ? सपाट, भाव रहित । लेकिन इस सपाटपन को चेहरे पर टंगाये वह मस्त रहती भीतर से । मिलन के नये- नये पैतरें खोजने के जश्न में डूबी डूबी !!

न फोन न मोबाइल, मिलने के प्लान लाजवंती के खुफिया दिमाग में ऐसे आकार लेते जाते जैसे चोरगुंबज के किस्से… !!  कभी कभी जान बूझकर, निश्चित गली के  मोड को छोडकर पिछली गली के छोरपर मुझे लेकर खडी हरती। झांक- झांक कर उस लडके की परेशानी भरे हरकतों को देखते जाती, और अपने गुलाबी मसूडे खिलाते जाती । अपने समय के यारों की सिनमेटि छौंक के स्टीरियो टाइप प्रेम से दूर लाजवन्ती के लिये तो प्रेम….? बस… मुहम्मद बाजी प्रेम का ज्यूॅं भावै त्यॅूं खेल !!

आजकल, केवल लाजवन्ती ही नहीं, वह लडका भी मेरे चेहरे की लकीरों को पढने लग गया था । उस दिन, पंद्रह अगस्त… !! स्कूल के कार्यक्रम के बाद हमें  सीधे पुलिस ग्राडंड जाना था । स्कूल के सामने के स्टैंड से हमें स्टेशन की ओर जानेवाली बस पकडनी थी ।  ताकि पुराने अस्पताल के स्टाॅप पर उतरकर , दो कोस की दूरी पर के पुलिस ग्राउंड चलते जा सकें । बस की पिछली डोर से सटी सीटपर कब्जा जमा लिया था लाजवन्ती  ने । खिडकी के सीट पर बैठे उसके गुलाबी मसूडे अचानक फिर उजागर हो गये । बगल की सीट से मैने देखा, बस के आगे की दरवाजे की रेलिंग पकडे वह लडका बाहर की ओर हवा में झूल रहा है । इस अंदाज में कि उसका लंबा छरहरा सांवला देह, हवा के बहाव के साथ पीछे की खिडकी से बहकर आ जाय, जहाॅं लाजवन्ती बैठी थी । हरेक स्टाॅप पर जब बस रूकती, नीचे उतरकर वह, हवा के झोंके से बिखरे बालों को और बेलबाॅटम पैंट के क्रीज को एकसाथ संवारता । बस सुपर मार्केट स्टाॅप पार कर जगत तक पहुॅंची ही न थी, उसकी निरीह आॅंखें मेरी ओर पलटीं । मैने देखा, लाजवन्ती खिडकी की सीट से उठकर कहीं और चली गयी थी। आये दिन ये घटनाएं नाटक के रिहर्सल की गलतियों की तरह गाहे – बगाहे  दुहराये जाने  लग गये थे । और मैं पिंजर में कैद सुये सी फडफडाकर रह जाती ।

उस दिन लाजवन्ती स्कूल आयी थी । आखिरी बार । मैने सोचा था , बडी होने के बाद उसने स्कूल छोड ही दिया है । खाने की छुट्टी में लाजवन्ती मुझे  बजाय कहीं और ले जाये , अपने घर ले गयी थी । बाहर बैठक में कुर्सी पर बैठी मैं एक साथ घर के बाहर का और भीतर का नजारा देख रही थी । घर का आंतरिक सजावट और भीतरी गंध कुछ और ही कहानी कह रहे थे । लाजवंती की तय की गयी ब्याह की कहानी । माॅं के दिये लड्डू और चूरमे का खाने की ही देरी थी , ताक में बैठी लाजवन्ती मौका पाकर, मेरा हाथ थामें दौडते हुए, दरवाजे के बाहर निकल पडी । अगली गली के उस सुनसान मोड पर ले गयी ,जहाॅं वह खडा था, उसी अंदाज में …तिरछा सिर किये उसके आने के इंतजार में । आज वह अपने कान से मर्फी  रेडियों सटाये खडा था ।  जिससे फिल्म का गीत बजता सुनायी पड रहा था ‘‘ तेरी गलियों में ना रक्खेंगे कदम… आ…ज के बाद… तेरे मिलने को न आयेंगे सनम… आ….ज के बाद …‘‘ मै…दूर खडी थी, वही कागज का गोला, उसकी  हथेली पर … इस बार भी मुझे पता नहीं चल सका कि कागज के गोले को लाजवन्ती ने ही उसके हथेली पर रक्खा, या उसने अपना हाथ आगे बढाया था ….!! लौटते लाजवन्ती के चेहरे पर वही गुलाबी मसूडे खिले हुये थे… उन मसूडों को आदत जो पडी हुई  थी मौके बेमौके खिलने की !! लेकिन… फर्क जरूर मैने महसूस किया । उसदिन उसका चेहरा , अजीब -अजीब सा नहीं लगा मुझे !!
2
इत्तेफाक से लाजवन्ती मुझे फिर मिली चालीस बयालीस साल बाद…. !! शाहबजार के दुर्गामंदिर की पूजा में । दशहरे की झाॅंकी देखने आयी थी लाजवन्ती । वही हॅंसी । वही अंदाज ..!! उम्र की ढलान पर खडी… पर खिली खिली ! उसे पहेचानने की ही देरी थी… अबकी बार उसका हाथ पकडे , मैं दौड पडी, भीड से बाहर … ! मेरी आॅंखों में गहराते -उछलते भाव को लाजवन्ती ने भाप लिया । आदतन , हथेलियों से होंठ और नाक को ओट दिया , और खिसयाकर हॅंसने लगी ।  पुतलियों को बरबस फैलाया और एक अजीब कोण में सिर को उठाते हुए मुझसे पूछा ‘‘ पम्मो…तुझे वो सब याद है.. ? ‘‘ उसने… इस अंदाज में पूछा, जैसे कि वह सब कुछ मेरा किया कराया हो !! इस बार मैने भी अचूक वार किया । अपनी आवाज को एक विशेष अंदाज में दबाते पूछा ‘‘ लाज्जो ….. तेरे वो कागज के गोलों का क्या हुआ… ? सुनकर छूट पडी लाजवंती के ठहाके का स्केल , आवाज में तो बहुत ऊंचा था  लेकिन….. उसके भीतर जमी पडी सीलन की ठंडाई को हमने  महेसूस किया, आपस में महेसूस किया ।
और…. और क्या था ? मेरी हथेलियाॅं उसकी मुठ्ठी में, उसी विशेष अंदाज में दबने लगीं… उसका चेहरा पूरा गुलाबी मसूडों की आभा से भरने लगा …उसके झक्क सफेद दाॅंत..! मैने देखा, अबकी बार, उसमें मिस्सी की गहरी कलई  चढी थी । और भीतर मंदिर में , दुर्गा पूजा की घंटियाॅं बजने लगीं ….  !!

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ISSN 2394-093X
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