“सूरजमुखी अँधेरे के” की नायिका का आहत मनोविज्ञान

अभिलाषा सिंह

.शोध छात्रा , हिन्दी     विभाग , काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. सम्पर्क : singh.abhilasha39@gmail.com

हिंदी साहित्य में मनोविश्लेषणात्मक उपन्यासों की एक लम्बी धारा रही है जिसमे हम अज्ञेय, जैनेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी और देवराज का नाम प्रमुख रूप से लेते हैं परन्तु किसी भी स्त्री लेखिका के उपन्यास का नाम इस श्रेणी में नहीं आता जबकि स्त्री साहित्य का उत्स ही मनोविश्लेषण से उपजा है  है. स्त्री साहित्य में प्रमुखतः किसी स्त्री के अंतर्मन का ही चित्रण होता है, परिवेश और परिवार से प्रभावित होति उसकी भावनाएं और उसके लिए निर्णय को पूरी तरह से यदि हम मनोविश्लेषणात्मक  दृष्टिकोण से देखें तो तस्वीर और अधिक स्पष्ट होती है. इसी कड़ी में हम कृष्णा सोबती के सन 1972 में प्रकाशित बहुचर्चित उपन्यास “सूरज मुखी अँधेरे के” को देख सकते हैं जिसमे कथा एक ऐसी लड़की की है जो चाइल्ड एब्यु का शिकार हुई रहती है. बचपन में घटी इस इस घटना के कारण उसकी पूरी यौनावस्था प्रभावित होती है. एक भरी-पूरी लड़की अपनी चढ़ती किशोरावस्था से लेकर ढलती यौनावस्था तक खुद को अधूरा समझती है, खुद के शरीर को हर तरह से प्रयोग कर फेक दिए गए चिथड़े के समान समझने लगती है, जिसमे न कोई आकर्षण होता है, न जिसका कोई प्रयोग हो और न ही जिसकी कोई ज़रूरत महसूस करता है. पर यह सिर्फ उसका ही सोचना है बरक्स इसके उसके जीवन में कई पुरुष sआते हैं. पर सबके सन्दर्भ में वह खुद को खाली और ठंढी  मानने लगती है.

यह उपन्यास तीन भागों/सर्गों में विभाजित है – पुल, सुरंगे और आकाश. तीनों सर्ग रत्ती के जीवन में आयी घटनाओं को कभी फ्लेश बैक तो कभी वर्तमान में दिखाते हैं जैसा की अज्ञेय के उपन्यास “शेखर एक जीवनी” और जैनेन्द्र के उपन्यास “त्यागपत्र” में होता है.“पुल” सर्ग में रत्ती के जीवन में अकेलापन और कुंठा दिखती है. वह खुद को अपने दोस्त रीमा-और केशी के भरे-पुरे परिवार में अकेला और अधूरा महसूस करती है. “सुरंगे” सर्ग में जिस कारण उसकी यह मनोदशा हुई, वह रहस्य उजागर होता है. इसी सर्ग में हम देखते हैं कि पड़ाव की तरह पुरुष उसके जीवन में आते-जाते है पर “आकाश” सर्ग में रत्ती दिवाकर के सानिध्य में खुद को पूर्ण और श्राप से मुक्त पाती है .

साभार गूगल

लेखिका ने उपन्यास में कहीं भी उस व्यक्ति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उजागर नहीं किया है जिसने रत्ती का यौन शोषण किया. यहाँ तक कि कोई संकेत भी नहीं दिया क्यों की लेखिका का ध्येय अपराधी को केन्द्रित करना या उसकी उपन्यास के अन्य पात्रों से भर्त्सना करवाना नहीं था बल्कि जो भुक्तभोगी रत्ती है उसके प्रति समाज के रवैये को दिखाना है कि किस प्रकार हमारे समाज में यौन शोषक के स्थान पर पीड़िता को अपराधी बना दिया जाता है , उसके साथ समाज ऐसा सौतेला व्यवहार करता है कि कह-कह कर बोल-बोल कर उसे वह दर्द भूलने नहीं दिया जाता जिससे उसकी पूरी जिन्दगी प्रभावित होती है और कई बार समाज का ऐसा रूप उस पीड़ित बच्चे में एकाकीपन, कुंठा, त्रास, भय, और भ्रम की स्थिति पैदा कर देता है जिस कारण वह आसानी से किसी पर भरोसा नहीं कर सकता. ऐसा ही कुछ उपन्यास की मुख्य पात्र “रत्ती” के साथ भी होता है. वह जीवन में खुद को अकेली महसूस करने लगती है और उसका ये अकेलापन एकालाप को जन्म देता है जो उपन्यास में कई स्थान पर देखने को मिलता है ऐसा ही कुछ “शेखर एक जीवनी” के मुख्य पात्र शेखर के साथ भी होता है. रत्ती का एकालाप कभी तो उसका मूल्यांकन करने में उसकी सहायता करता है तो अधिकांशतः उसे अवसाद की ओर ढकेलता है.

वह खुद से पूछती है कि इस लड़की को एक बार भी समूची औरत बनने क्यों नहीं दिया गया. वह मानती है कि वह खुद सिर्फ है, उसका तीखापन, कडुआपन सब मर गये हैं. वह फीकी है. एक फीकी औरत. एक लड़की जो कभी लड़की नहीं थी. एक औरत जो कभी औरत नहीं थी. उसके पास है हर बार कहीं पहुच सकने की न मरनेवाली चाह और हर बार वीरान वापसी अपनी ओर. हर बार .अक्सर देखा जाता है कि ऐसी मनोदशा का व्यक्ति अंतर्मुखी स्वाभाव का होता है और रत्ती भी निश्चय ही अंतर्मुखी व्यक्तित्व वाली है पर इसके विपरीत उसका बाह्य व्यक्तित्व गतिशील और आकर्षक है जिस कारण लोग उसकी ओर आकृष्ट होते हैं, खींचते आते हैं, नज़रें उस पर ठहर जाती हैं क्यों की मनोग्रन्थि उसके मन की है जो देखने वाले को तो नहीं ही दिखती है. तब उसे भी ये महसूस होता है कि अब भी इस मुखौटे पर कुछ ऐसा है की आँखे उठें और रुकें.

फ्रायड का सिद्धांत है कि ‘मानव-मन की दमित इच्छाएं ही अवचेतन मन में रहती है’ इस आलोक में रत्ती के जीवन को देखा जा सकता है, पर इस सन्दर्भ में नहीं कि उसकी काम इच्छा को नैतिकता या आदर्श के कारण दबाया गया हो, क्यों कि फ्रायड के इस सिद्धांत को आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी ख़ारिज कर दिया है और रत्ती के सन्दर्भ में यह सही भी नहीं बैठता. रत्ती उस एक घटना के बाद खुद को कभी शारीरिक पूर्णता के स्तर पर नहीं नाप सकी क्यों की उसे हमेशा ये भय बना रहा की वह अधूरी साबित होगी. उसके अवचेतन का डर उसके चेतन मन को सताता रहा. कई बार ऐसा देखने में आता है कि व्यक्ति की जिस चीज को बुरी तरह से रौंदा जाता है उसका वह चाहते हुए भी सामना नहीं करना चाहता. इसी कारण रत्ती ने खुद को सीमित कर लिया है उसे लगने लगा है कि वह एक ऐसी औरत है जिसने कभी किसी को नहीं पाया जिसको कभी किसी ने नहीं. वह आप ही अपनी सड़क का ‘आखिरी छोर’ है.

इस उपन्यास में हम देखते हैं कि सेक्स/काम/राग जो शरीर की बाकी इन्द्रियों की तरह ही सामान्य क्रिया है और परिस्थिति विशेष में जिसकी खुराक अनिवार्य रूप से जरुरी हो जाती है, रत्ती उससे जबरन भागने लगती है, शरीर की स्वाभाविक आवश्यकता को दबाने लगती है, वह स्त्री-पुरुष के  इस प्राकृतिक संयोग से भय खाने लगी है, इस आदिम सम्बन्ध को झुठलाने लगी है. वह सोचती है कि रातों में किसी के पास न सोकर भी जीना अच्छा है. पर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि सेक्स की भावना को एक हद के बाद दबाना कई मामलो में घातक साबित होता है जिसका सम्बंध न सिर्फ भावनात्मक आवेगों के उच्छलन से है बल्कि हार्मोनल चेंज भी व्यवहार को निर्धारित करते हैं. समाज इसे कुछ भी कहे पर इसके पीछे नितांत जैविक कारण है. नैतिकता या आदर्श के जामें से इसे व्यवस्थित और मानकीकृत रूप दे सकते हैं पर दबा नहीं सकते, समाप्त नहीं कर सकतें हैं.
रत्ती अपने स्त्री निहित अंगो को छूती है और हर वक्त अपने अधूरेपन को महसूस करती है. लोगो की बाते खुद उसके अपने शब्द बन कर उसके कानो में घुलते हैं. वह मन में बार-बार दोहराती है कि;
 “रत्ती अच्छी लड़की नहीं. रत्ती कोई औरत नहीं. वह सिर्फ गीली लकड़ी है. जब भी जलेगी, धुआ  देगी. सिर्फ धुंआ .”

साभार गूगल

रत्ती के लिए यह लड़ाई दोहरे छोर पर है, एक तो उसे उस घटना से लड़ना है दूसरा उसे लोगो द्वारा खुद को एक सीमा में निर्धारित कर लिए जाने से. ऐसी स्थिति में व्यक्ति भीड़ में रहते हुए भी खुद को अकेला महसूस करने के लिए मजबूर हो जाता है. इससे आगे की मनोस्थिति यह होती है कि व्यक्ति को अकेलापन और अपना स्थाई दुःख ही अच्छा लगने लगता है रत्ती को भी ये अधूरापन अपना लगने लगा और वह इसमें आनंदित भी रहने लगी. वह फाटक पर पहुचना चाहती है पर अन्दर जाना नहीं. इस प्रकार की मनोग्रंथि में लिप्त व्यक्ति के लिए ऐसे साथी की बहुत जरुरत होती है जो उसे इस अवसाद से निकल सके और जीवन के सकारात्मक पक्ष से उसे जोड़ सके. उपन्यास के प्रारंभ में ही केशी और रीमा जो की पति-पत्नी है और रत्ती के दोस्त भी रत्ती के सन्दर्भ में ऐसी ही भूमिका का निर्वहन करते देखते हैं. केशी उसे समझता है. वह जानता है कि यह लड़ाई पुरुष के विरोध में नहीं बल्कि उसकी खुद से है. केशी उसे मानसिक रूप से सहारा देता है वह नहीं चाहता की रत्ती अपने अतीत में खोकर अपना वर्तमान और भविष्य खराब करे. वह उसे समझाता है कि;
“हमेशा अपने से अपने अन्दर लड़ते रहने का कोई फायदा नहीं. लड़ाई को अपने से बाहर रखकर लड़ना हमेशा अच्छा रहता है.”


रीमा पूरी कोशिश करती है कि रत्ती अपने अतीत से बाहर आये पर रत्ती है कि अपने अतीत को छोड़ना ही नहीं चाहती और झुंझला कर खुद को पढ़ लिए जाने के उत्तेजना से घबड़ा जाती है और उसे लगता है कि रीमा और केशी एक ढकी छिपी पुरानी औरत को धूप दिखाने के बहाने तार-तार हुए उसके कपड़ों पर हाथ फेरा करते हों. वह कहती है;
“मुझे जहाँ होना चाहिए मैं वहीँ हूँ. और मुझे कोई मलाल नहीं रीमा ….मेरा आगे है कहाँ! मुझे तो आँखों के सामने आगे-पीछे होती तस्वीरों को देखना भर है, बस….मेरा कोई भविष्य नहीं. मेरे आगे कुछ नहीं.”


सेक्स मनोग्रंथी से जकड़े व्यक्ति को अपने खालीपन का आभास तो होता ही है पर एक स्त्री के स्तर पर यह पीड़ा दोहरी होती है क्यों कि स्त्री न सिर्फ पुरुष के संसर्ग से खुद को पूर्ण मानती है बल्कि वह अपनी सृजन की क्षमता से खुद के स्त्रीत्व  को तौलने लगती है. स्त्री के लिए यह कई बार सेक्स न कर पाने की तकलीफ से भी ज्यादा तकलीफ देह होता है कि वह सेक्स तो करने के लिए पूर्ण है पर उस सेक्स का कोई बीज उसमे ठहरने की योग्यता नहीं रखता. कृष्णा सोबती ने इस सन्दर्भ को भी कहानी में उठाया है. केशी और रीमा के बच्चे को सहलाते वक्त रत्ती ममत्व से भर जाती है और बच्चा भी उससे पर्याप्त स्नेह पाता है पर ये आभास होने पर की वह इस सुख से वंचित है खुद को सूखा मानने लगती है. जयनाथ से वह कहती है;
“अपने बच्चों के लिए तुम्हे कोई और माँ तलाशनी पड़ेगी. बेटे बनाने की कला तो इस औरत के पास है ही नहीं.”


रत्ती कई पुरुषों से होकर गुजरी पर हर बार उसके लिए वो सब मिटटी का ढेर हो गया. हर बार बीच में वही ढेर मिटटी हो गये वक्त का. उपन्यास पढ़ कर पाठक को ये भ्रम हो सकता है की रत्ती को अपराधबोध हो या वह घटना के लिए स्वयं को दोषी मान रही हो पर ऐसा नहीं है. एक सुधि पाठक यह रचना पढ़ कर यह जान सकते हैं कि रत्ती में यह मनोग्रन्थि उसके साथ हुए उस अपराध के कारण नहीं थी बल्कि उसके आस-पास के लोगो द्वारा रचे गए और जजमेंटल हो जाने के कारण है खास कर उसके बचपन के सहपाठियों द्वारा उसे चिढाया जाना उसमे इस मनोग्रंथि का बीज डालता है और जीवन में आये पुरुष और उन पुरुषों की कभी हड़बड़ी तो कभी रत्ती को न समझ पाने के कारण इस मनोग्रंथि का बीज अंकुरित हो परिपक्व धारणा के रूप में उसके अन्दर घर कर लेता है. रत्ती में अपने साथ हुए कुकृत्य का पछतावा नहीं था बल्कि लोगो के द्वारा बार-बार उसे बोले जाने का क्रोध था. असद भाई से अपनी सफाई देती हुई कहती है;
“जाने क्या-क्या कहा करते हैं ! रत्ती बुरी है. इसे लड़के पसंद हैं, इसे गिरजाघर के पीछे देखा था, मैं तो किसी से कुछ कहती नहीं हूँ असद भाई … पुरानी बात है, फिर भी…!”
वह तिलमिला जाती है जब अज्जू कहती है;
“किसी ने बुरा काम किया था न तुम्हारे साथ! खून निकला था न”

वह चिडचिडी होती जाती है क्यों कि उसके सहपाठी बार-बार उसे छेड़ते, उसका मजाक उड़ाते, उसे तिरस्कृत करते और उसकी उपेक्षा करते हैं. उस अबोध बच्ची का मन हिंसात्मक होता जा रहा था. श्यामली को भी वह पीट देती है जब वह कहती है;
“लड़कियों को पीटती हो और लड़कों से चॉकलेट खाती हो. उनके सामने अपना फ्रॉक उठाती हो”
बच्चे उसके विषय में मनगढ़ंत कहानियां बनाने लगे और पूरे क्लास भर में उसे लेकर गंदी बाते करने लगे;
“पासी ने चिढ़ाकर कर कहा –“कुछ खाओगी…खिलाऊं…?और अपनी निकर टटोलने लगा, रत्ती की छाती में कोई परनाला पिघलकर बाँहों की ओर बह आया और लोहा हो गया पाँव उठाया और पाशी को गले से पकड़ कर जमीन पर दे मारा. बार-बार पटकती गयी की पाशी न हो कोई पत्थर हो, नफरत हो नफरत … ”फिर कभी ऐसा हुआ तो फाड़ डालूंगी …”रत्ती हिली नहीं .खूंखार सी देखती गयी और खड़ी रही.”

साभार गूगल

अपने ही बाल-साथियों द्वारा की गयी ऐसी भद्दी टिप्पणियों  से रत्ती का बाल-सुलभ मन समय से पहले ही अपना बचपन खो देता है और यही बाते उसके अचेतन मन में धीरे-धीरे घर करने लगती है रत्ती कठोर होती जा रही थी. वह कुंठा मनोग्रंथि से ग्रसित होती जा रही थी. उस बाल-सुलभ मन को शांति असद की बातों और सानिध्य से मिलती है. असद ने उसके कठोर हो चुके बाल मनोभाव को सहारा देते हुए कहा था कि;
“रत्ती हमेशा याद रखेगी, वह एक अच्छी लड़की है. प्यारी और बहादुर .”

और यह बात रत्ती को हमेशा याद रहती है जो उसकी अच्छाई को बनाये रखती है. इसे इस सन्दर्भ में भी देख सकते हैं कि रत्ती के जीवन में जो पुरुष आते हैं उनमे कुछ की प्रेमिकायें रहती हैं और कुछ शादीशुदा पर रत्ती किसी के भी अधिकार को छीनने की बजाय खुद ही हट जाती है. एक व्यक्ति जिसके अंदर इतनी नफरत और इतनी कटुता भरी हो वह उसे दूसरे पे उड़ेलने के बजाय खुद ही उसमे जलती रहती है जबकि ऐसा कम ही देखने को मिलता है. ऐसे में लेखिका ने एक आदर्श चरित्र का भी निर्माण किया है. जबकि आम जीवन में ऐसी मनोदशा वाले व्यक्ति दूसरे के प्रति और कठोर और अपने पसंद की चीज के लिए व्यवहारिक स्तर पर और भी जिद्दी देखने को मिलते हैं जो कभी-कभी आपराधिक रूप भी ले लेता है. उस बच्ची को असद के प्रति खिचाव होता है पर उसकी बदनसीबी कि असद असमय ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है और एक बार फिर रत्ती का बचपन मर जाता है.

रतिका (रत्ती) के साथ जो हादसा हुआ रहता है वह इसे चाइल्ड एब्यूज समझ कर समय के साथ भूल भी सकती थी जैसा कि अधिकांशतः बच्चों के साथ होता है पर ऐसा नहीं हुआ, उसे याद था पर जैसा कि पहले ही बता दिया है कि उसे बार-बार याद कराया जाता है. अपने ही साथियों अपने ही लोगों द्वारा. ऐसे में बहुत हद तक संभव है की या तो पीड़ित व्यक्ति का मन सेक्स से हट जाये या अपने विपरीत लिंग के प्रति जिसने उसका शोषण किया हो, उसका मन घृणा और वितृष्णा से भर जाये. पर इस सन्दर्भ में भी सोबती ने रत्ती के रूप में एक अनूठे पात्र का सृजन किया है. रत्ती इस घटना और घटना को बार-बार कुरेदे जाने पर भी सभी पुरुषों से घृणा नहीं करने लगती और न ही उनसे जुड़ने में डरती है बल्कि इस उपन्यास में हम देखते हैं कि हिंदी साहित्य और विशेषकर स्त्री साहित्य के अन्य स्त्री पात्रों की तुलना में रत्ती पुरुषों के साथ कहीं अधिक सहज है. शायद इसी कारण लेखिका ने 19-20 के करीब पुरुष–पात्रों को नायिका के इर्द—गिर्द रचा है. इनमे से कुछ उसे स्वयं को देखने की दृष्टि देते है, कुछ उसे दूर से देखते हैं, कुछ उस तक पहुँचते है पर उसे पा लेने में सिर्फ दिवाकर ही कामयाब रहा.

समय और घटनाओं ने रत्ती को भले एक स्तर पर कमजोर किया हो पर अन्य स्तरों पर उतनी ही मजबूती के साथ एक सशक्त नारी के रूप में पाठक के सामने आती है. वह किसी भी पल पुरुष से डरने वाली या उसपर आश्रित न रहने वाली हिदी की सशक्त नारी पात्र है. ऐसा नहीं की सभी पुरुषों को वह एक जैसा ही व्यवहृत करती है. जगतधर जिसके जीवन में मीता है पर वह चाहता रत्ती को है उसके साथ रत्ती सौम्य है पर वहीँ रोहित जो जबरी उसे पाना चाहता है उसे वह झटकार देती है. वहीँ वह एक आत्मनिर्णय लेने वाली स्त्री भी है वह रोहित से कहती है;
“मुझे किसके साथ कहाँ जाना चाहिए, यह मेरे सोचने की बात है, किसी और की नहीं … सिर्फ अपने चाहने से किसी को पा नहीं लिया जाता.”
रत्ती के अपने सिद्धांत अपने उसूल हैं. सुमेर से वह कहती है;
“जो आँख रहते गलत को रहने दे सिर्फ इसलिए कि कोई सही मानने से इनकार करता है. किसी की बेवकूफी और अपनी बेबसी का विज्ञापन किया जाये…”
रत्ती में सेक्स को लेकर और सिर्फ सेक्स को लेकर ही मनोग्रन्थि है न कि वह कोई मनोरोगी है. रत्ती के इन वक्तव्यों से पाठक उसे मनोरोगी समझने की भूल नहीं कर सकते. पर अपनी इस मनोग्रंथि से लाचार होकर ऐसा भी नही कि वह किसी से किसी स्तर पर समझौता करे. भानु से वह कहती है;
“जब जब कोई नम्बर मिलाया है, कभी सही जगह घंटी नहीं बजी. बजी तो इंगेज मिली. कभी नंबर मिला तो उस ओर उठानेवाला कोई न था. था तो उस ओर से ऐसी आवाज नहीं आई जो मुझ तक पहुँच सके.”
सुब्रामनियम से वह कहती है;
“सुब्बा, ऐसा कुछ नहीं जो मैं चाहने पर चुन सकूँ और न चाहने पर न चुन सकूँ.”
वह ऐसी महिला पात्र है जो अपने मन के अनुकूल ही किसी के साथ राम सकती है न कि सिर्फ काम की इच्छा रखने वाली कोई रोगी. जिस तरह उसके अवचेतन में बचपन की काली परछाई बैठी है उसी तरह स्त्री स्वातंत्र्य और स्वाभिमान को भी उसके पूरे व्यक्तित्व में सभी प्रसंगों में अप्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है.
बड़े अन्तराल के बाद लेखिका अपना कुछ कहती हैं रत्ती के लिए;
“एक लम्बी लड़ाई. हर बार बाजी हार जाने वाली और हर बार हार न मानने वाली.
हर बार अकेले जूझना. हर बार सिर उठा आगे देखना.हर मोड़ एक मोड़ भर. भविष्य नहीं.
भविष्य वह अंधी आँखों वाला वक्त बना रहा जिससे रत्ती ने कभी साक्षात्कार नहीं किया.
वक्त के पंजो तले जितनी बार छटपटाई, उतनी बार तिलमिलाई. उतनी बार हाँथ-पाँव पटके.
बार-बार सर उठा आगे देखा –
कुछ तो होगा जिसका मुझे इंतजार है !
कोई तो होगा जिसे मेरा इंतजार है !
पर नहीं … रत्ती को सिर्फ रत्ती का इंतजार था.
रत्ती कितनी बार सोचती
“वह ताप कहाँ है, वह आग जो इस जमे हुए को पिघला सके … लेकिन यह पथरीली अहल्या अड़ी कड़ी चट्टान की तरह, हर बार की टकराहट से न पिघलती है, न टूटती है! न छोटी होती है, न बड़ी !… आँख में जितने आकार दिखे अपने भीतरी खोल पर उतने ही रफू और पेबन्द.”
राजन जिससे बरस भर का परिचय था उसे भी वह मना करते हुए कहती है;
“मुझे तुमसे माफ़ी मांगनी है राजन … वह एक काला जहरीला क्षण हर बार मुझे झपट लेता है और मैं काठ हो जाती हूँ”और एक साल के आत्मीय परिचय के बाद जब राजन को वो नहीं मिलता जो एक स्त्री से पुरुष चाहता है तो वह भी अपनी कुंठा उसपे यह कह के निकल देता है कि;
“मुझे हमेशा शक था, तुम औरत हो भी कि नहीं!”

साभार गूगल

जब रत्ती को श्रीपत से लगता है कि वह भी कुछ है और उसकी भी देहरी पर से कुछ उठाया जा सकता है तो वह उसकी और खिचती है पर यह भान होने पर की श्रीपत पर ‘उना’ का अधिकार है तब वह स्वयम ही हट जाती है पर उसका मन फिर उसके खालीपन को धिक्कारता है वह आत्मालाप करती है;
 “रत्ती, तुम्हारे पास अपना कोई पुण्य नहीं. तुम जमे हुए अँधेरे की वह परत हो जो कभी उजागर नहीं होगी. हो सकती तो श्रीपत क्या ऐसी चाहत को रख कर तुम्ही पर छिड़क सकते ?”
अपने अकेले क्षणों में वह खुद की ही आलोचना करती रहती है दिवाकर से वह कहती है;
“जिसके पास मीलों लम्बा एकांत हो, वह अकेले में अपने लिए अपने को क्यों न पढता रहेगा. दिवाकर अकेले में कोई क्या से क्या हो जाता है यह सिर्फ देखकर पता नहीं पाया जा सकता है” 
पर दिवाकर ने उसके अन्तरंग का टेलीफोन नम्बर तलाश लिया था. रत्ती को जब ये लगता है की वह उतरती बरखा है तब उसे दिवाकर विश्वास दिलाता है कि;
 “जो कहना चाहता हूँ नही कहूँगा रत्ती! इसलिए की मैं उसे सच करना चाहता हूँ”
दिवाकर के सानिध्य में रतिका खुद को पढ़ती है. जिसने इतना अकाल जाना, इतना रुखा और अंधेरा भी, फिर भी उसमें कुछ बाकी है. उसका आत्मालाप;
 “रतिका तुमने सर उठा अपने लिए अपनी लड़ाई लड़ी है. कड़वाहट के ज़हर से अपने को अपना दुश्मन नहीं बनाया. दोस्त नहीं मिला तो भी दोस्ती को दुश्मनी नहीं समझा .तुम एक अच्छी लड़की. प्यारी और बहादुर.”
उसे असद की बात याद हो आयी पर ‘प्रीति’ का सोच कर दिवाकर से यह कह कर दूर हो जाती है कि;
   “मैं जुड़े हुए को नहीं तोडूंगी.विभाजन नहीं करुँगी. मेरी देह अब तुम्हारी प्रार्थना है.”  और वह फिर अकेली है पर बिना श्राप के, बिना अधूरेपन के, बिना खालीपन के पर वह अकेली है क्यों की आकाश में न घरौंदे बनते है न धरती के फुल खिलते है.

कृष्णा सोबती ने रत्ती जैसे पात्र की सर्जना कर के हिंदी साहित्य को एक ऐसी नायिका दी है जो सेक्स मनोग्रंथि से ग्रस्त होते हुए भी आत्मिक रूप से सशक्त है. पुरुष जिसके लिए अवरोधक के सामान नहीं बल्कि आलोचक के रूप में आते हैं , जो सिर्फ उसके दोष ही नहीं, उसके गुण भी देखते हैं और जिन गुणों को वह स्वयं भूल गयी है उसे याद भी दिलाते हैं. रत्ती ने बहुत  कुछ बर्दास्त किया  है पर फिर भी उसने अपनी अच्छाई बनाये रखी है. रत्ती कभी कोई गलत कदम नहीं उठाती, वह अपने आत्म विश्लेषण से ही स्थिति के अनुरूप कार्य का चुनाव करती है और इस रूप में वह हिंदी साहित्य की सशक्त नारी पात्र है.