ऐ री मोलकी

सुनीता धारीवाल जागिंड


सामाजिक कार्यकर्ता . ब्लॉगर , कानाबाती ब्लॉग की और वीमेन टी वी इंडिया पोर्टल की मोडरेटर, संपर्क: suneetadhariwal68@gmail.com .

आज गांव जल बेहड़ा  की आबोहवा बदली-बदली सी है सारे गांव में चर्चा है रुल्दू जाट का छोरा  राममेहर मोल की बहु ल्याया है इसी बात को लेकर गांव में हंसीठठ्ठा व्यंग्य और कहीं-कहीं सन्जीदा बाते हो रही हैं। मतेरी चमारिन गांव में पानी की टून्टी पर बोल रही थी कि रूल्दू जाट की बहु लक्ष्मी ने मोल की बहु को घर में घुसने नहीं दिया और बाहर खेत में तूड़ी व भैंस वाले कोठड़े में ही रामेहर व उसकी मोल की बहु रहते हैं। सारा गांव आने-बहाने रुल्दू के खेत की तरफ आणा-जाणा कर रहा है। मोल की लुगाई की एक झलक पाने के लिए।
गांव के सरकारी स्कूल वाली गली में चार रान्डे (अविवाहित) रामफल, रामकेश, प्यारा और जोगिया भी अपने भीतर  की बात एक दूसरे पर उडेल रहे हैं। सुना है रामेहर 25 हजार मोल देकर बंगाली लुगाई ल्याया है, जोगिया ने अपना खबरी ज्ञान झाड़ा कि मैने पता किया है कि रामेहर ने पांच हजार खुद की कमाई के बचाए थे, बीस हजार मन्डी के आढ़ती लाला अमरनाथ से दो रूपए सैकड़ा पर उठा के ल्याया है। रामफल ने साथियों को समझाया कि देखो भाइयो यदि हम चारो पांच-पांच हजार रुपए रामेहर को देकर लाला के पैसे चुकते कर दे मोल की बहू हम ाी बांट ल्यागें। रामेहर दूर से ल्याया है उसके घरां रहेगी इसलिए वे तीन दिन बरत लेगा हम चारो ह ते में एक-एक दिन बरत ल्यागें। चारो सहमति बना कर उठ खड़े हुए और रामेहर से बात चलाने के उचित अवसर ढूंढने लग गए।

दिन के 20 चक्कर बारी-बारी रामेहर के कोठड़े के लगाए पर रामेहर दिखाई न दिया। रुल्दू जाट के  घर रामेहर की भाभियाँ,  कृष्णा और सुमन दोनों सगी बहने उम्र में रामेहर से छोटी और नेग में बड़ी। घर में कोहराम कर रही हैं, नासपीटा टीबी का मरीज, कुरड़ी का कूड़ा, काली काटड़ी लयाया, साल में एक लींगरा जाम देगी पांच किलटे जमीन के निगल के मानैगी। ऊत पै हारे सुख की रोटी न जरी गई बुढँय़ा के 15 किल्ले मैं ते साढ़े सात-सात बांटे आवे थे दोनों बेबेयां के हारे बालक सुख की खा लेते। फिर दोनों आपस में लडऩे लगी। सुमन बोली ऐ कृष्णा सब तेरा करया धरय है जै तू रोटी दवाई ढंग ते दिए जांदी तो या नौबत कोनी आवै थी। कृष्णा तडक़ कर बोली मेरा के या तो तेरा करया धरया है जवान दयोर था बखत तै बहलयो के बतचाएै जांदी। गात की चमड़ी का के बिगडय़ा करे। आखिरी बखत फूंकण के, काम आया करै, तेरे पै मौका नहीं समाल्या गया। इब रोण तै के जमीन बच ज्यागी। जाऐ रोई तेरे कान्ही तो लखया करदा वो महीना पन्द्रह दिना में उसकी भी राख लैन्दी तो न्यू गाम में घर की माट्टी कोनी उड़ै थी। सुमन बोली चिन्ता न करै बेबे मैं भी देसे न बरदार की बेटी सू इस मोलकी नै तो गाम मै तै निकलवा के दम ल्यूगी।

साभार गूगल

फुलमा बुआ भी तडक़े-तडक़े गांम में पहुंच ली थी और लक्ष्मी को समझाने लगी। भाभी तू भी किसी काम की ना निकली छोरा! मोल की बहू ले आया और सारे गुआन्डा मै रुक्का पड़ रया सै। बुढेया की इज्जत के बट्टा लाग लिया। हां री किसे गरीब की काणी, लडग़ी, लूली व आंन्धी कोई सी भी न थ्याही थम ने। पता नहीं रामेहर नकटा किस ने उठा ल्याया। जा जात न पता न गाम का, न बाप का पता। हारे करम में यू ऐ लि या था। सारे गाम के तानेया नै मेरा गात का छांलणा कर दिया। तेरा भतीजा मोल की ल्याया- मोल की ल्याया। फुलमा का यही रिकॉर्ड सारा दिन बजता रहा।

रामेहर को बहुत  बुरी खांसी थी। खांसी के  साथ खून भी आता था। तूड़ी के  कोठड़े में गरमी का बुरा  हाल था। लगातार खांसना असहनीय था।  थोड़ा आराम मिलते ही रामेहर टूटी खाट पर लेट गया। रामेहर का चार दिन का रेल का सफर कल्पनाओं में बीता था बगल में मोल की दुल्हन को लिए रामेहर ने कितने रंगीन सपने बुने थे जो गांव में कदम रखते ही बदरंग उलझे धांगो में परिवर्तित हो गए थे। रामेहर सोच रहा था उसका घर होगा, बच्चे होंगे,  सच्चाई तो यह थी कि बिन बयाहे उसकी कोई इज्जत न थी। मां के राज में चूल्हे के पास बैठकर घी मक्खन चटनी के साथ बाजरे की रोटी मिलती थी। पिता का दुलार व भाइयों की थपकी भी रामेहर के नसीब में थी। सब कुछ तो समान्य था। जवानी की दहलीज पर रोग से सामना हो गया था। बहुत इलाज करवाया देसी, अंग्रेजी, ओपरी पराई, झाड़ फूंक बाबा ओझा सब किया पर मर्ज बढ़ता गया। ज्यूं-ज्यूं दवा की। अब कुछ भी सामान्य नहीं था। चुल्हे चौके पर बड़ी भाभी  कृष्णा का राज था, खेत क्यार डांगर डोर पर छोटी भाभी सुमन का। अब उसे घर के अंदर जाने की इजाजत नहीं थी। क्योंकि उसकी गिनती गांव के मलंग रान्डों में थी। उसकी रोटी बाहर ही भेजी जाती थी। चूल्हे तक पहुंच पाना अब केवल एक सपना था। बिना बयाहे मरद की नजर में खोट होता है और रान्डे मलंग होते हैं यहीं समाज का स्थापित सत्य था। जवान होती बेटियों का वास्ता देकर कृष्णा व सुमन ने घर के दरवाजे रामेहर के लिए बन्द करवा दिए थे। रामेहर को मां की रसोई देखे दस साल बीत चुके थे और उस रसोई तक जाने का दरवाजा सिर्फ उसकी अपनी विवाहित पत्नी ही उसे दिखा सकती थी। रामेहर की खुद की शादी के बाद ही उसे घर में जगह मिल सकती थी। रामेहर अच्छी तरह जान गया था कि स मान पाने व सामाजिक रूप से इज्जतदार कहलाऐ जाने के लिए बहु का होना जरूरी था। उसका अनुभव बता रहा था कि शरीर की भूख की व्यवस्था पैसे से गांव में ही उपलब्ध थी और शहर में तो पैसे शारिरिक सुख की उपलब्धता की बहुलता थी। परंतु सामाजिक स्वीकार्यता हेतु उसे उसे घर बार वाला बनना था, जो केवल विवाह से ही संभव था।

बीमारी के कारण उसका कंही से रिश्ता नहीं आता था। उसकी इस समाजिक स्थापना के  लिए बहु बहुत जरूरी थी। चाहे मोल की ही क्यों न हो।  बयाह के गीत, बहु के स्वागत के लोकगीत, आंखों में मां की रसोई  के बर्तन, चुल्हा, हारा, टोकणी, बिलौणी, कढौणी शक्कर व गुड़ के माट सब तैरते रहे। सफर का रामेहर को पता भी न चला था। रामेहर के गांव में पहुंचने से पहले गांव वालों को भनक लग चुकी थी कि रामेहर मोल की बहु ला रहा है। सारे गांव में मोल की बहु का कौतुहल था लोकल बस से उतरते ही रामेहर अपनी नई नवेली बहु को लेकर अपने घर चला दिया। रास्ते में गांव के बच्चों की फौज रामेहर के पीछे लग गई और मोलकी-मोलकी के नारों से गांव की गलियों को गुजांयमान कर दिया। जैसे-तैसे घर पहुंचते ही रामेहर ने मां को आवाज दी, भाभियों की गालियों, तानों, उलाहनों में मां की आवाज सुनाई ही नहीं दी। मां ने गांव व समाज के दबाव में घर में पैर नहीं रखने दिया। रामेहर मां पांव में गिर कर रोया पर सब बेअसर रहा। रुल्दू बैठक में सब देख रहा था बाप की आंखों में तरस का पानी तैर गया पर गांव की चौधराहट के कबच से आर्शिवाद के बोल नहीं निकले। परन्तु रामेहर को गांव के बाहर खेत के तूड़ी वाले कोठड़े में रहने की इजाजत दी गई इस शर्त के साथ कि वह गांव से कोई वास्ता नहीं रखेगा। यह कैसा इज्जतदार बहिष्कृ त जीवन था रामेहर को समझ नहीं आया। रामेहर की बहु का नाम मोलकी पड़ गया था सभी गांव वाले इसी नाम से उसकी बात करते थे। गांव की इज्जत के ठेकेदार भी मोलकी की एक झलक पाने को आतुर रहते थे। आने बहाने रूल्दू के खेत की तरफ हो आते थे कि शायद मोलकी के दीदार हो जाएं। मोलकी का मोल लगा था इसलिए गांव वाले सांझे खाते की बहु कहकर अपनी दबी वासनात्मक इच्छाओं को हवा देते रहते थे। इज्जतदार कहलाऐ जाने वाले लोग भी सरेआम भद्दे अश्लील  मजाक में मोलकी का नाम लेकर ही-ही-ही करते थे।

साभार गूगल

गांव का बुजुर्ग रामदिया माली पंचायत घर का चौकीदार संन्जीदा बुजुर्गों व युवाओं की पंचायत लगा कर रखता था व वहां गांव की महिलाओं को पानी पी-पीकर कोस रहा था। बुरा हो इन बीर बान्तियों का छोरीयां ने पेट में मरवा देती हैं बेडा डूबे इन डाकटरां का,  जिनकी मशीन छोरा-छोरी बतावे। हारी आंखों के आगे ही गाम में मोल की आण लाग ग्यी और बैरा नी के के देख कै मरणा पड़ेगा। आधे गांव मलंगा के होग्ये। छोरीयां का घर तै निकलना मुश्किल हो गया। न्यूऐ छोरियां ने कूख में मरवाओगे तो नरक पाओगे। सन्जीदा युवक भी रामदिया माली की गहराई को समझते थे और आने वाले समय की आहट सुन रहे थे। उधर मोलकी को सिर्फ संकेतों  की व आखों की भाषा समझ आती थी। यहां सब कुछ उसके लिए नया था। मोलकी उस कोठड़े के कोने में बैठी सोच रही थी कि बाबा ने कहा था जब तक पेट में बच्चा न आए घर पर फोन नहीं करना,  न चिट्ठी  लिखवाना। बच्चा पैदा करने के बाद ही गांव में वापिस आना सिर्फ मिलने। मोलकी की पांच बहने उससे छोटी थी दो बड़ी बहने व एक भाई था। बड़ी बहनों को ट्रक वाले 25-25 हजार रुपए में ले गए थे। बाप व भाई खेतों में काम करते थे। बाढ़ का पानी हर साल तबाही लाता था व पानी उतरते ही करजा चढ़ जाता था। दस-दस दिन तक भूखा रहने का अ यास मोलकी को थो इसलिए तीन दिन तक तुड़ी के कोठड़े में पानी पर निर्भर रह कर उसने कोई शिकायत नहीं की थी। मोलकी का बाप जानता था कि बच्चा होने पर ही मोलकी को जमीन जायदाद का हक और घर में जगह मिलेगी, इसलिए कड़े नियम से भेजा था अपनी बच्ची को। मोलकी जल्द से जल्द अपने भाई बहनों के पास जाना चाहती थी इसलिए वह अपने बच्चे के बारे में ही सोचती रहती थी। रामेहर ग भीर रूप से बीमार था मोलकी अब केवल उसके स्वस्थ होने की चिन्ता करती थी और इलाज का ही उपाय करना चाहती थी। पांचवे दिन मोलकी ने अपनी मां के दिए चावल के आटे के लड्डू अपनी पोटली से निकाल कर रामेहर को दिए जैसे-तैसे दो दिन और निकल गए।

सातवें दिन रामेहर को बुलाने ारतु नाई खेत में आया और कहा कि रामेहर को मां ने घर बुलाया है। मोलकी झट से दुप्ट्टïा ओढक़र चप्पल पहनकर रामेहर के पीछे चल दी। भरतु ने रोका कि मां ने अकेले रामेहर को बुलाया है। मोलकी ठहर गई उसे अब खेत के कोठड़े में डर लगने लगा था। वह वहीं सिमट कर बैठ गई और रामेहर का इन्तजार करने लगी। घर पहुंचते ही मां ने रामेहर को चाय पिलाई और कहा बेटे मुझे पता नहीं था तू बहू का इतना शौकीन है। हम तेरे मां-बाप हैं कहीं न कहीं तो तेरा बयाह करते। मैं करमो जली न्यू सोची तेरा रोग लाईलाज है,  किसी की बेटी की विराम माटी हो ज्यागी। पर तू न मान्या पर इब भी देर नहीं हुई है। तेरी बुआ फुलमा तेरा रिश्ता ल्यायी है,  जीन्द के पास गाम की छोरी है, विधवा है। बस तेरे तै चार-पांच बरस ही बड़ी होगी। छोरी के बाप भाई ना है। तेरे सहारे टैम काट लैगी। अपरेशन भी  बण रहया है तेरी सध ज्यागी तेरे पै  कोई जि मेदारी का बोझ भी नहीं पडैगा। दस तोले सोना मै चढा दयूगी। आगलै 25 हजार नकद टीके में देवेंगे और धनदाज सारा दे देंगे। एक भैंस भी देवेंगे और बेटा मोलकी की चिन्ता ना करिए मनै तेरे टोहाना वालो मौसे ते बात कर रखी है वो इस मोलकी ने तीस हजार मै ले ज्यागा। सत्तर  साल का होरया सै चौधरी उसके बुढ़ापे के बचदे दस-पंद्रह साल सुख तै काढ़ लेगा। इस मोलकी की जात न पात इनका तो काम न्यू होया करे। खानदानी टाबरा में इसी बहु ना वै ल्याया करते, मैंने साई पकड़ राखी है मोलकी की। आज रात ने ऐ तेरा मौस इसने ले ज्यागा। गाड़ी लै के आयैगा।

 रामेहर सन्न  रह गया और उसे कुछ समझ  नहीं आया दिमाग सुन्न हो  गया। रामेहर बिना कोई जवाब  दिए खेत की ओर चल दिया।  राह में रामफल, प्यारा, जोगी और रामकेश ने टोक दिया अपनी मंशा जाहिर कर दी। चार कदम आगे गाम के बदमाश छोरेयां ने फिकरा कसया एक बार हमने भी दिखा दे मोलकी तेरा हिसाब तै हो लिया होगा। राममेहर पीछे मुडक़र देखता तो बोले काली गाजर ले रहया सै मेरे बटे थोड़ी सी कांजी हमनै भी प्या दे। रामेहर ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। उसके सोचने समझने की शक्ति को, विचारों ने हर लिया था। वह सोच रहा था कि बहु-बहु में फर्क होता है क्या। बहु तो बहु ही होती है चाहे मोल चुकता कर के फेरे लिए हैं चाहे दहेज लेकर फेरे लिए हों। दर्जा तो बहु का ही है और होना चाहिए भी। दहेज की बहु का इतना स मान! यदि कोई देख भी ले तो मरने मारने को उतारु हो जाते हैं औरत के कारण तो कत्ल होते आए। मेरे विवाह को कोई विवाह नहीं मानता। मुझे गांव निकाला मिला सामाजिक उपहास पीड़ा और बहिष्कार मिला। आखिर क्यों मैंने तो विवाह जैसी संस्था को अपनाया है। असहाय व नीरीह मन: स्थिति के साथ रामेहर मोलकी के पास लौट आया। मोलकी ने एक पल में इशारों में अनेक सवाल कर डाले मां ने मुझे भी बुलाया है  क्या-क्या कहा कब हम गांव में जाएंगे आदि-आदि पर रामेहर चुप रहा।
रामेहर मोलकी  की सेवा व प्रेम का कायल हो चुका था। रामेहर किसी भी  कीमत पर उसे छोडऩा नहीं चाहता था, उसने सारी बात मोलकी को बताई और दोनों ने उसी रात गांव छाड़ शहर की राह पकड़ ली। शहर में छोटे से प्रॉपर्टी डीलर का एक कमरा किराए पर ले लिया। पॉपर्टी डीलर की पत्नी दयालु महिला थी। उसने उन्हें दरी, थाली, गिलास, चूल्हा, बल्ब सब दिया और रामेहर ने मिट्टी ढोने वाले ट्रैक्टर ट्राले पर ड्राईवर की नौकरी करनी शुरू कर दी। सौ रुपए दिहाड़ी के पैसों में से नबबे रुपए रामेहर के इलाज के लिए खर्च कर मोलकी खुश थी। मोलकी के लिए अपने पेट की भूख से भी जरूरी उसको कोख की भूख थी जो जल्द से जल्द बच्चा चाहती थी। इसलिए रामेहर के स्वास्थ्य पर वह सब कुछ खर्चना चाहती थी। पंद्रह दिनों में सब सामान्य होने लगा था कि अचानक मकान मालिक की पत्नी के पिता मृत्यु हो गई व अपने बच्चों सहित मायके चली गई। मोलकी की हैसियत समाज में मोलकी ही थी। मकान मालिक आपनी वासना का दास हुआ और भीतर के वहशी ने अकेली मोलकी को तहस-नहस कर दिया। उसकी इज्जत के  चीथड़ों की गवाह हर दीवार थी। उसके शोर शराबे की किसी को भनक तक नहीं मिली। रामेहर रात वापिस आया तो मोलकी लुट चुकी थी। उसके कमजोर शरीर में ताकत नहीं थी कि वह प्रतिकार कर पाता। दोनों ने ही रात को अपने ट्रेक्टर मालिक के घर शरण ली। मालिक की मां दयालु थी दया कर उसने  एक बिस्तर बर्तन, चुल्हा इत्यादि दिया और स्थानाभाव में उन्हें भैंस के कमरे में एक तरफ कोने में स्थान दिया। मोलकी सारा दिन उस महिला के घर का सारा काम करती बदले में उसे एक पाव दूध मिलता जिस मोलकी रामेहर को पिता देती थी।

साभार गूगल

लगभग एक माह बाद मालकिन के बेटों की  बहुए उस घर में आ गई, उन्होंने मोलकी की उपस्थिति को नहीं स्वीकारा उन्हें मोलकी की मुस्कान और चंचल आंखों ने डरा दिया। उन्हें लगा उनके पति बहक जाएंगे यह काला जादू जानती है। उन्हें फंसा लेगी बहुओं ने मोलकी व रामेहर को घर से चले जाने का हुकम सुना दिया। बेबेस मालकिन कुछ न कर सकी वह महिला मेरे घर का पता जानती थी। एक दिन सुबह-सुबह मोलकी को लेकर वह मेरे घर पहुंची। मैंने सिर से पांव तक मोलकी को देखा वह मात्र तेरह वर्षीय बच्ची थी। जिसका अभी तक शरीर भी विकसित नहीं हो पाया था। एक ऐसा पौधा जो खिलने का मतलब भी नहीं जानता था। उसने कातर आंखों से मुझे देखा था। वह मुझ से बहुत कुछ कहना चाहती थी परंतु मेरे पास समय की उपलब्धता बहुत कम थी। उस महिला ने कहा कि इसे काम पर रख लो मेरे पास पहले से ही दो घरेलू नौकर थी इसलिए मुझे जरूरत नहीं थी परन्तु उसे मेरी जरूरत थी, मैंने रखने की इजाजत दे दी। वह मेरे सुबह उठने से पहले ही मेरे घर पहुंच जाती थी। तीनों वक्त का भरपेट खाना उसे अरसे बाद नसीब हो रहा था मैंने उसे उसके पति के लिए खाना भी मेरे घर से ही ले जाने की इजाजत दे दी थी।

वह जब भी मेरे सामने  पड़ती बहुत कुछ कहने की कोशिश  करती थी परन्तु मुझे समय नहीं मिलता था चुनाव नजदीक आते जा रहे थे। लोगों की गहमा-गहमी भीड़ बढऩे लगी थी। मैं सुबह 6 बजे से रात 12 एक बजे तक जन सभाओं को स बोधित करती। रात को आकर सारे दिन का आंकलन करती रात दो बजे सो जाती और वह दिन भर मेरी तलाश में रहती। एक दिन सुबह घर से निकलते ही उसने मेरा हाथ पकड़ लिया, मैंने पूछा क्या चाहिए बोली आप मेरी मां बन जाओ मेरी बात सुन लो। उस सुबह की वह  मेरी पहली याचक थी मैंने उसकी बात सुनने का अगले दिन का समय दे दिया। अगले दिन की मेरी सारी जन सभाएं कैन्सिल कर दी गई मेरी गर्दन व कमर में बेहद पीड़ा थी मैं उठने से भी लाचार थी। मैंने झट से मोलकी की बुलाया और अपनी बात कहने का मौका दिया। मैंने पूछा क्या नाम है वह बोली मोलकी, मैंने पूछा क्या तु हारे पिता ने यही नाम रखा था, बोली नहीं,  यह नाम तो ससुराल का है मेरा नाम तो रिन्की है। पिता का नाम- बोली सईद, गांव का नाम- पता नहीं, जिला- पता नहीं, प्रदेश- पता नहीं, बस देस का पता है वह बांग्ला है, मैंने पूछा नदी पार वाला या इधर वाला वह बोली हिन्दुस्तान वाला। मैंने पूछा चिट्ठी  कैसे जाएगी- बोली पता नहीं बस टेलीफोन नंबर है, बाबा ने कहा है जब बच्चा हो जाए तो ही फोन करना। मैंने न बर मिलाया तो जवाब में न बर उपलब्ध नहीं था।
वह मेरे पैरों  में गिर कर रो रही थी आप मुझे  रख लो हमेशा के लिए बस मुझे रोटी देना मेरे पति को दवाई देना और कुछ नहीं। उसने  जो कुछ घटा मुझे सब बताया। मैंने बहुत तेज दवाईयां ली और अगले ही दिन फिर से अभियान में जुट गई। वह रोज मेरी ओर देखती जैसे  अभी भी कुछ बताना रह गया। उसकी आंखें अभी भी कहती थी मेरी सुनो। एक दिन भीड़ में से वह मुझे ाींच कर अन्दर ले गई और कहने लगी तुम मेरी मां हो सुनो- मेरा जे पति है रामेहर मुझै उसे घिन्न आती है। उसके पास आते ही मेरा जी मिचलाता है, मैं उसकी गन्दगी व बलगम साफ नहीं कर पाती हूं। वह बहुत गन्दा दिखता है। उसके दांत मुंह से बदबू आती है। मैं क्या करूं बताओ मां मैं क्या करूं। मैं मच्छी खाना चाहती हूं। मैं अपने छोटे भाई बहन के पास जाना चाहती हूं पर बाबा ने कहा बिना बच्चे के नहीं आना। बताओ मां मैं क्या करूं। मैं निरन्तर थी। शाश्वत सत्य यह था कि एक बेटी ही अपनी मां से कह सकती थी यह सब।

मेरे पास कोई जवाब नहीं था उसके पास घर का पता नहीं था वह बालिग नहीं थी। सामाजिक रुप से स्वीकार्य भी नहीं थी। मेरे कानूनन हस्त्क्षेप का मतलब उसका बालिग होने तक नारी निकेतन में रहना था। मेरी मसरुनफियत ने उसके फैसले को कुछ समय के लिए टाल दिया था। चुनाव के थमने पर मैंने रिन्की के बारे में घरेलू नौकरों से पूछा तो उन्होंने कहा कि वह तो पिछले 20 दिनों से नहीं आ रही। अपना वेतन ले गई है और आपसे मिलना चाहती थी उसे उसका पति जबरदस्ती अपने साथ ले गया है। नई जगह जिसका किसी को पता नहीं। आज भी मरे जहन में उसके प्रश्न हैं जिनका उत्तर मुझे केवल रिन्की को ही नहीं बल्कि सभी मोल की बहुओं को देना है। कम से कम महिला प्रतिनिधि होने के नाते हमारी जवाबदेही इस उपजते वर्ग के प्रति ाी उतनी ही बनती है जितनी अन्य मुद्दों के प्रति कन्या भु्रण हत्या से उपजी इस समस्या का सामना ाी समाज को करना है। ऐसी महिलाओं का सर्वेक्षण करना उनकी सामाजिक स्थापना हेतू उचित माहौल व सुरक्षा प्रदान करना उनके शिक्षा, संपत्ति  का हक सुनिश्चित करना जैसे मुद्दों पर ध्यान देना ही होगा और खासतौर पर मेरा आहवान है कि या तो कन्या भ्रुण हत्या बन्द करें अनयथा सांस्कृतिक विविधताओं भरे समाज के लिए तैयार रहें क्योंकि हर गरीब का देश, समाज, जात-पात नहीं केवल मोल होता है और मोलकी किसी ाी प्रदेश की हो सकती है मिल एक दिन जाएगी आपके अपने ही परिवार में!  आपके ही आस पास। विभिन्न भाषाओं को बोलती हुई हास्यपद हरियाणवी या पंजाबी भाषा का प्रयास करती हुई एक और मोलकी।

बेबस मालकिन मोहिनी कुछ न कर सकी। वही भली औरत शहर की लोकप्रिय समाज सेवी महिला नेता प्रियवंदा को जानती थी जो अकसर महिलाओं के बीच उनकी मदद के लिए चली जाती थी। प्रियवंदा स्वयं भी राजनीतिक संघर्षों से जूझ रही थी फिर भी वह आने वाली हर महिला का स मान करना जानती थी।
अगली सुबह मकान मालकिन मोहिनी मोलकी को साथ लेकर प्रियवंदा के घर पहुंच गई। प्रियवंदा ने मोहिनी को देख आवाज दी और अपने दफ्तर  में बुलाया। मोहिनी के साथ एक अबोध लडक़ी को देख प्रियबंदा ने उस लडक़ी के बारे में पूछा तो मोहिनी ने बताया कि आप इसे घरेलू काम के लिए रख लो इसका नाम मोलकी है और यह यहां पर सुरक्षित रहेगी। प्रियवंदा ने मोलकी को एक बारगी सिर से पांव तक देखा यह पक्के काले वर्ण की मात्र 13 वर्षीय बालिका थी जिसका शरीर भी अभी तक विकसित नहीं हुआ था। मोलकी ने भी बड़ी कातर नजरों से प्रियवंदा की ओर देखा था। उसकी आंखे प्रियवंदा से बहुत कुछ कहना चाहती थी, आंखों के इस क्षणिक संवाद से एक अनजाना रिश्ता जन्म ले गया था मोलकी और प्रियवंदा के बीच। प्रियवंदा के पास समय का अधिक आभाव था इत्मिनान से बात करने के लिए वह तो बस दौड़ रही थी उड़ रही थी तुफान के पत्तों की तरह। सियासत के दलदल से बेदाग निकलन चाहती थी कामयाबी के छोर तक। हाथ काट कर शक्ति की कलम पकड़ा देना ही उसके दल की सच्चाई थी, जिसे प्रियवंदा ने त्याग दिया था। वह हवाओं के विपरीत बह रही थी। इसलिए दिन रात एक किए हुए थी। दिनभर जन स पर्क और रात देर तक जरूरी फाईलें व कागजात लिखने व डाक देखने व जवाब बनाने, प्रैस नोट बनाने में और कार्यक्रम बनाने में लग जाती। सुबह जल्दी उठ जनता से मिलना शुरू करती फिर हलके के गांवों गलियों को नापती। जन स पर्क बढ़ाती।

साभार गूगल

प्रियवंदा ने आवश्यकता न होते हुए भी मोलकी को काम पर रख लिया। मोलकी सभी नौकरों से पहले सुबह ही काम पर आ जाती उसने कई महीनों बाद भरपेट खाना खाया था। उसकी खुशी का कोई ठिकाना न था। वह जाते वक्त अपने पति रामेहर के लिए रोटी छुपा कर ले जाती। सभी नौकर ऐतराज करते मैडम जी यह औरत ठीक नहीं है, इसका चाल चलन ठीक नहीं है यह तो बेशर्म मरदों की आंखों में झाकती है और हंसती है। प्रियवंदा मोलकी का सच जानती थी कि उसे हरियाणवी या हिन्दी कुछ भी सपष्ट बोलना नहीं आता था। प्रियवंदा स्वयं भी उसके टूटे-फूटे बिना सिर पैर के बंगाली उच्चारण वाले हरियाणवी शब्दों को मुश्किल ही समझ पाती थी। मोलकी को तो आंखों की भाषा सरल लगती थी। वह तो बस आंखों से कहने और जानने का प्रयास करती थी। कुछ न समझ आए तो हंस दिया करती थी। दिन बीतते रहे मोलकी यूं ही अपनी हर बात प्रियवंदा को बताने के अवसर तलाशती रहती।

प्रियवंदा के सामने हर दिन नई-नई चुनौतियां आ खड़ी होगी। कभी राजनैतिक कभी सामाजिक कभी पारिवारिक। जिनका प्रियवंदा डट कर सामना करती। दुर्भाङ्गय से प्रियवंदा चुनावी समर में एक अपरिपक्व सेना की कमांडर थी जिसे भर्ती होते ही युद्ध के मोर्चे पर खड़ा कर दिया गया था। जब राजनैतिक दल को छोड़ा तो अपना संगठन बनाना पड़ा। अभी संगठन में कार्यकर्ताओं को जोड़ा ही था कि समय से पहले चुनावों का बिगुल बज गया। कम समय में जितना भी क्षमता वर्घन प्रशिक्षण दे सकी। उतने से ही सन्तोष करना पड़ा। वह जानती थी जो बल और छल कपट अनुभवी संगठनों में होता है उसके संगठन में कही नहीं था। उसका आत्मबल दे िाए वह अपरिवक्त सेना से ही वह समर में अपने योद्धा होने का प्रमाण देना चाहती थी दुनिया को। खासकर उन स्थपित दलों के नेताओं को यह सन्देश देना तो चाहती थी कि उसका वजूद मिटा नहीं है। प्रियवंदा दिन रात एक किए हुए थे, उसे किसी भी चीज की फुरसत नहीं थी न खाने-पीने की न बच्चों की न घर की। बस उसकी धुन में देश धर्म छाया रहता था।

प्रियवंदा एक जरूरी जलसे में जाने के लिए अभी गाड़ी में बैठने ही वाली थी कि मोलकी ने कसकर प्रियवंदा का हाथ पकड़ लिया और कहा कि अभी मेरी बात सुनो। मोलकी उसे दिन की पहली याचक थी इसलिए प्रियवंदा भीतर लौट आई और मोलकी से कहा जल्दी से बताओ मोलकी ने कहा तुम मेरी मां हो तो सुनो यह जो मेरा आदमी है न रामेहर मुझे उस से घिन्न आती है उसके पास आते ही मेरा जी मिचलाता है और मूंह से दांतों से बदबू आती है वह बहुत गन्दा दिखता है। मैं उसकी बलगम व गन्दगी साफ नहीं कर पाती मुझे उबकाई और उल्टी आती है। बताओं मां मैं क्या करूं, कहां जाऊं मोलकी एक सांस में सब बोल गई और रोने लगी मुझे अपनी मां के पास जाना है अपने छोटे भाई बहनों के पास जाना है और वह जोर-जोर से रोने लगी। प्रियवंदा उसकी बात सुनकर जड़ सी हो गई। शास्वत सत्य तो यही था कि एक बेटी ही अपनी मां से कह सकती यह सब जो मोलकी ने प्रियवंदा से कहा था। प्रियवंदा के पास कोई जवाब नहीं था। प्रियवंदा ने उसे ढाढस बंधाया चुप करवाया और उसकी मां के घर भेजने का वादा कर उससे उसका विवरण जानने लगी।
तुम्हारा  नाम – मोलकी, यही है ससुराल का नाम। मेरे बाबा ने तो मेरा नाम रिंकी  रखा था।
मां का नाम – असरफी
पिता का नाम – सईद अली
गांव का नाम – पता नहीं
तालुका तहसील कोई – पता नहीं
फिर क्या पता है- बस देस का नाम पता है बांगला। प्रियवंदा ने फिर पूछा क्या हिन्दुस्तान वाला, मोलकी ने कहा नहीं नदी पार वाला। तो चिट्ठी  कैसे पहुंचेगी-पता नहीं मेरे पास तो बस बाबा का टोलीफोन न बर है। मोलकी ने अपनी मुठ्ठियों में मिंचे मुझे-तुड़े कागज को प्रियवंदा की ओर कर दिया। प्रियवंदा ने तुरन्त फोन मिलाया जिसके जवाब में वह न बर उपलब्ध नहीं था और मोलकी ने आप बीती सारी घटनाएं प्रियवंदा को बता दी थी। मोलकी प्रियवंदा के पैरों में गिर कर रो रही थी और उसके मां-बाप को ढूंढने की गुहार लगा रही थी। प्रियवंदा ने मोलकी से एक ह ते की मोल्लत मांगी कि वह कोशिश जरूर करेगी। प्रियवंदा बेशक दिन भर व्यस्त रहती परन्तु रात को उसे नींद न आती। मोलकी का चेहरा दिन-रात उसके आगे रहता। प्रियवंदा को रास्ता नहीं सूझ रहा था। पुलिस की मदद लेने का मतलब मोलकी को नारी निकेतन में भेज देना था क्योंकि वह अभी नाबालिग थी और वह रामेहर को भी छोडऩा नहीं चाहती थी, क्योंकि वह बीमार था और उसकी सेवा कर रही थी कितनी भी गलानि होती फिर भी वह उसे स्वास्थ करना चाहती थी और बच्चा चाहती थी, क्योंकि उसके बाबा की शर्त थी कि वह बिना बच्चा जने कभी वापिस नहीं आएगी। उसका बाबा यह जानता था कि बच्चा होने पर मोलकी को रामेहर के घर और जमीन की हकदारी मिल जी जाएगी और उसकी बेटी का गुजारा हो जाएगा।

चुनाव में विरोधी प्रत्याशियों द्वारा इस्तेमाल घटिया हथकंडों  ने प्रियवंदा को दिन रात काम करते रहने पर मजबूर कर दिया और प्रियवंदा ने मोलकी के फैसले को कुछ दिन के लिए टाल दिया था। कुटिल व आधारहीन अफवाहों ने कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ दिया था। अश्लील अफसानों की अफवाहों ने कार्यकर्ताओं को उपहास का केन्द्र बना दिया और एक-एक करके सब घर बैठ गए। प्रियवंदा अकेले ही मोर्चे पर डटी रही। अफवाहों का सामना करती व जवाब देती। स्थितियां हाथ में से रेत की तरह फिसलती चली जा रही थी। बस अब गिनती के चार लोग ही रह गए थे प्रियवंदा के साथ। चुनाव हाथ से निकल चुका था प्रियवंदा के लिए कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था। प्रियवंदा आशानुरुप बुरी तरह से पराजित हुई थी। जब वह वापिस घर जाने को मुड़ी तो विजयी प्रत्याशी का विजयी जुलूस  उसके आगे से गुजरा अट्टाहस करते हुए। कुछ मनचले बेहुदा ईशारे कर निकल गए।

प्रियवंदा अपने पुतले को जुलुस में देखकर चौक गई। कुछ गैर जि मेदार लोग प्रियवंदा का पुतला बनाकर जलील कर रहे थे। कभी अलिंगन कर रहे थे कभी उस पुतले को किसी की गोद में कभी किसी की गोद में बैठाकर अश्लीलता की हदें पार कर रहे थे। उसी जुलुस में एक महिला सांसद भी जीप पर सवार थी। उसे महिला होने के नाते यह सब नागवार गुजरा तो उसने इस बेहुदगी को बन्द करने का आग्रह किया परन्तु विजयी नेता नहीं माने। उन्होंने उक्त महिला सांसद से कहा कि यदी उसे नागवार है यह सब तो वह घर चली जाए। वह सांसद जीप से उतरकर घर जाने की ओर मुड़ी और उसके नजरें गाड़ी में बैठी प्रियवंदा की नजरों से मिल गई। प्रियवंदा की आंखे शून्य थी तो उस सांसद की करूणा शून्य कुल मिलाकर शून्य जमा शून्य कुल शून्य ही था। बिना बात किए दोनों अपनी राह चल दी थी। उसे हार का कतई दुख नहीं था क्योंकि उसे तो बस एक योद्धा होना था और योद्धा तो वह हो ही चुकी थी। जिसने अन्तिम सांस तक प्रयास किए थे।

घर पहुंची तो पता चला कि रामेहर मोलकी को एक सप्ताह पहले ही यहां से किसी अनजान शहर ले गया था। उसे भनक लग गई थी कि प्रियवंदा उसे वापिस बंगाल भेज देगी। परन्तु प्रियवंदा का मन नहीं माना उसने मोलकी को खोजने की कोशिश की, पर नाकाम रही। अचानक छह महीने बाद प्रियवंदा को खबर मिली कि मोलकी का पति रामेहर दो दिन पहले ही मर गया है और जलबेहड़ा गांव में उसकी अन्त्येष्टी  की गई है। प्रियवंदा फौरन गांव के लिए निकल पड़ी। रामेहर के घर पहुंचते ही फुलमा बुआ मिली उसी ने बताया कि मोलकी तो काली चुड़ैल थी। छोरे नै खा गी यह तो भला हुआ ग्राम आलैया ने गाम मै न बडऩ देई नहीं तो बैरा न कितने छौरे खा जांदी। रामेहर की मां तो पाछले ह ते ही रामेहर नै गाम मै उठा ल्यायी थी मरणासन्न पडय़ा था रान्ड के धौरे।
मोलकी को रामेहर की मां वहीं शहर में बिलखता छोड़ आई थी जहां वह किसी बनिए के गोदाम के पीछे बने झोंपड़े में रहती थी रामेहर के साथ। प्रियवंदा तुरन्त उस पास के शहर की ओर चल दी। पहुंचकर पता चला कि बनिए ने कुछ दिन अपने घर रोटी दी और फिर एक दिन कुरूक्षेत्र के मेले में उसने फाजिल्का शहर के कश्मीरा सिंह नाम के ट्रक ड्राईवर के हाथ मोलकी को ३० हजार रुपए में बेच दिया। रामेहर के इलाज के लिए मोलकी ने बनिए से पैसे ले लिए थे थोड़े-थोड़े करके। दस हजार की रकम अब ब्याज से तीस हजार बन गई थी। प्रियवंदा कश्मीरा सिंह का पता लगाते-लगाते फाजिल्का ट्रक यूनियन पहुंच गई। पन्द्रह दिनों तक कश्मीरा सिंह के ट्रक का इन्तजार करती रही। आखिकर कश्मीरा सिंह से भेंट हुई तो प्रियवंदा ने मोलकी के बारे में पूछताछ की तो कश्मीरा सिंह बोला बीबी जी किन्हू-किन्हू लबोगे जी ऐत्थे ता दर्जनों मोलकीयां ने जिना दी जवानी ट्रकां ते बीत जांदी है जी, ते बुढापा सडक़ किनारे रूल जांदा है। प्रियवंदा ने याद दिलाया कि वह उस लडक़ी को ढूंढ रही है,  जिसे वह कुरूक्षेत्र मेले से खरीद कर लाया था। कश्मीरा सिंह जोर से हंसा और बोला कि बीबी ओह काली कुड़ी ता अपणे अमली यार बिन्दर वास्ते लै के आया सी सौरे नूं जनानी दा बड़ा चाव सी। मेरे मगर पिया रैंहदा सी। ऊंहनूं तां मैं मुकसर कोल पिन्ड बाजीगरां दे डेरे विच छॅड आया सी। प्रियवंदा को आस बन्धी की मोलकी अब मिल जाएगी।

प्रियवंदा को अंजाम से पहले किसी भी काम को छोडऩा नहीं आता था वह मुक्तसर के रास्ते चल दी और उस बिन्दर अमली के गांव में पहुंच गई। बिन्दर के घर पूछ-पूछ कर पहुंची तो बिन्दर की मां ने बताया कि ओह काली कुड़ी तो पिछले हफ्ते ही न_ गई सारे गहणे ते पैसे लै के। असी ता ओहदी रिपोर्ट वी लिखवाई है। बीबी जी तुहानूं किते मिले ता सानू जरूर दस दैयो असीं उस चुडैल दा मूंह भन्न के और नंगा करके पिन्ड विच घुमा दियांगे। इहो जेही चोरी ठगी करण वालीयां जनानियां तों ता रब ब शे जी। उस दिन पहली बार प्रियवंदा जाने क्यों फूट-फूट कर रोई थी और पांच वर्ष बाद भी प्रियवंदा की आंखे उसी को ढूंढ रही होती हैं, क्योंकि उसे मोलकी के सवालों का जवाब देना है और शायद उन सभी मोलकीयों का , जिन्हें कन्या भ्रूण हत्या जैसे जुर्म ने जन्म दिया है।