सोनी पांडेय की कविताएं

सोनी पांडेय

कवयित्री सोनी पांडेय साहित्यिक पत्रिका गाथांतर की संपादक हैं. संपर्क :dr.antimasoni@gmail.com

1. छोटे शहर की लड़की

छोटे शहर की लड़की
पारुल
जा रही है ब्याह कर
मुखौटों  के शहर दिल्ली
पति दिल्ली में  लाखों  के पैकेज पर कार्यरत है
गाड़ी . फ्लैट . और सुख सुविधाओँ से भरा जीवन होगा
बेटी का
इस लिए पिता ने लाखोँ खर्च कर भेज दिया
बेटी को बड़े शहर दिल्ली
अभी आऐ हुए
ज़ुमा – ज़ुमा चार दिन ही हुए थे कि पति ने फरमान जारी किया
ये गवारु परिधान
सिन्दूर . बिन्दी उतारो और
ठीक वैसे रहो
जैसे रहती हैं  बिल्डिंग  की औरतें
पारुल ने छोड़ दिए
पिहर के परिधान
अब वह पहनती है ठीक वही कपडे जो पहनता है
बड़ा शहर दिल्ली
अभी ज़ुमा -ज़ुमा आए चार माह ही गुजरे हैं  कि पति चाहता है
पारुल नौकरी करे ठीक वैसे
जैसे करती हैँ बिल्डिंग की  अन्य औरतें
फरमान जारी किया
पूरे दिन घर मेँ बैठी रहती हो गवारोँ की तरह
नौकरी करो
एम0ए0. बी0एड0
पारुल अब पढाती है पब्लिक स्कूल मेँ ठीक वैसे
जैसे पढाती हैं  औरतें छोटे शहरों  की
जैसे पढ़ाता है बड़ा शहर दिल्ली
सुबह आठ बजे से रात बारह तक
पति करता है काम बड़े पैकेज पर
बैंक  भर रहा है रुपयों  से
पति पारुल को पहनाता है मँहगे कपड़े . क्रेडिट कार्ड से कराता है खरीददारी
लेकिन नहीँ जानना चाहता पारुल की पसन्द
नही सुनना चाहता उसकी भावुक फरियाद
तुम औरतें सेण्टीमेण्टल होती हो
थोड़ी क्रेजी भी
जिन्दगी मेँ प्रेम एक जरुरत है फिजिकल
ठीक वैसे . जैसे भागती हुई मैट्रो मेँ जीता है
बड़ा शहर दिल्ली
पारुल तलाशती है मैट्रो में  बैठी
हम उम्र औरतों की आँखों  में
अपना छोटा शहर
अनगिन आँखोँ में  पाती है
प्यास अपनी सखियों  के सपनों की
भूख उड़ान की . मन भर अपने मन की
तलाश अपने पसन्द के कपड़ों  की
ख्वाहिशें  अपनी . अपना जीवन
अपनी शर्तों  पर जीना
लेकिन पिता चाहते हैं  बेटी राज करे पति के बड़े पैकेज की नौकरी मेँ
ठीक वैसे ही , जैसे करती हैं  छोटे शहर की लड़कियाँ
जीता है बड़ा शहर दिल्ली
लगा कर मुखौटा आधुनिकता का पारुल जीती है पति के शर्तोँ पर समेट कर आँखों
मेँ छोटे शहर के सपने .अपना जीवन
और तलाशती है हर एक मेँ अपना छोटा शहर ।

2. मुनिया अपना गाँव छोड़ आई 

कुल तेरह की थी
मुनिया
जब ठेकेदार संग अपने टोले की लड़कियों  और जवान औरतों संग
आई थी शहर
ईँट के भट्ठे पर
कमाने
विधवा माँ के लिए
थोड़ा सा धन जुटाने
कि .छुड़ाई जा सके
बनिये से चार बिस्से रेहन की ज़मीन ।
इसी माह जाना था उसने माहवारी का दर्द
माँ थोडी सहमी थी
बेटी सयानी हो गयी
फिर भी भेजना जरुरी था
कोई चारा नहीँ
ज़मीन छुड़ानी है ।

मस्त . मासूम मुनिया
पूरे दिन चालती है . फोडती है मिट्टी के ढेले
सानती है . माढती है
थापती है ईँटे और जल्दी – जल्दी समेट कर छोटे .
पुराने बक्से मेँ रुपये
भाग जाना चाहती है
वापस अपने गाँव , सिवान
बस इतना जानती है कि दुनिया
बिहार और उसका देस
सिवान है
बाकी सब परदेस ।

मुनिया की सुकोमल उँगलियों
बलिष्ठ माँसपेशियों
और सुडौल उभारों  को देख कर
ठेकेदार मुस्कुराता है
पुरानी मजुरनियों  को कनखी से समझाता है
आए दिन रात को शराब परोसने की  ऐवज में  पचास की नोट पकडाता है
मुनिया फँसती गयी वैसे ही जैसे चारे के लालच मेँ फँसती है मछली और अन्ततः
बिक जाती है मनुष्यों  के बाजार में  ।

मुनिया के बक्से मेँ रुपया है
नये कपड़े हैँ
कुछ चाँदी के गहने है
बरसात मेँ ट्रैक्टर पर बैठकर लौट रही है अपने देस सिवान
पूरे एक साल में  बन गयी है सुडौल . सुगढ औरत ।

खेत छूट गया
अब टोले भर के लडके उसे रण्डी पुकारते हैं
माँ आँखे चुरा कर चलती है
जीना मुहाल है
रात मेँ खटकता है अक्सर दरवाजा
माँ दस साल की छोटी बेटी को छाती से साट कर
चमईनिया माई को गुहराती है ।
अब मुनिया माँ के लिए बोझ है कोई ब्याह को तैयार नहीँ
कोई रास्ता नहीँ
एक बार फिर मुनिया . टोले की कुछ लड़कियों  और औरतों  संग आ गयी है भट्ठे पर
ठेकेदार अब कोई नयी लड़की चाहता है ,मुनिया को कनखियाता है
मुनिया जानती है कि नहीं  लौट पाएगी भोगी हुई लडकी
वापस अपने देस
इस लिए . बार – बार परोसती है खुद को
बचा कर कुछ लड़कियों  को पाती है सुकून
भेज कर बरसात मेँ वापस उन्हेँ अपने देस
लौट आती है इंटों  के बीच
सुलगती भट्ठी को देखर रोती है
और उँगलियों  से बनाकर
दुनिया का गोला
खोजती है अपना देस सिवान ।

3. अपनी जड़ें  तलाशती सन्नो 

पिता ने तलाश ली है
नई उर्वरा ज़मीन
खूब विस्तार है
पास ही नदी बहती है
दरवाजे पर राजा की सवारी है
परजा है
पसारी हैं
दूर तक फैला है ठाट
पिता की इकलौती सन्तान सन्नों
खोदी जा रही है जड़ समेत
धूम – धडाके . गाजे – बाजे
सहनाईयों  की धुन  पर चल रहा है कुदाल
हल्दी . मटमंगरा .
बारात . द्वारपूजा
और अन्ततः सिन्दूरदान
उखड़ गयी सन्नों
कराहते . रोते . चित्कारते पहुँची
नई ज़मीन मेँ
गाड़ी जारही है सन्नो
भर रहे हैँ घाव
निकल रही हैं  शाखाएँ
लेकिन जड़ों से उखाड़ी गयी सन्नों  जानती हैं
उखडना उसकी विवशता है
उखाडी जा सकती है एक बार फिर से बेटों के हाथों
और बीच से काटकर
बांटी भी जा सकती है
इस लिए अपनी जड़ोँ की तलाश मेँ गढना चाहती बेटी के लिए
एक ऐसा गमला जिसे आसानी से जड़ समेत आयात – निर्यात किया जा सके . बिना उखाडे ।

4. हम पूरब मेँ सूर्य को निहार लेते हैं 

अल सुबह
पूरब मेँ उगते सूर्य को निहारना
वस्तुतः एक ऐसी क्रिया है
जो जोड़ती है हमेँ जड़ोँ से ।
हम औरते
सभ्यता के गमले मेँ
उगा हुआ बोनजाई हैँ
जिसे आसानी से हस्तानान्तरित किया जा सकता है ।
संवेदना की ज़मीन से उखाड़कर
पैदा होते ही रोप दिया जाता है आँगन मेँ एक किनारे
गमले मेँ
खाद .पानी देकर इस तरह तैयार किया जाता है कि
एक तय समय सीमा मेँ
दान किया जा सके दूसरे के आँगन मेँ ।
दूसरे आँगन मेँ जगह बदलती जरुर है
किनारे से हटा कर आँगन के मध्य तुलसी की तरह सजा दिया जाता है और जरुरत भर
खाद . पानी समय – समय पर मिलता है
सम्मान थोड़ा बढाकर ।
हम औरतेँ जड़ोँ की तलाश मेँ पूजतीँ हैँ तुलसी
भोरे निहार आती हैँ सूरज
कि . उनकी जडोँ से इनका उतना ही गहरा नाता है
जितना शिशु का गर्भनाल से और
मन ही मन कर लेती हैँ सन्तोष की सूरज आज भी माँ के गर्भनाल से जुड़ा
जोड़ता है उन्हेँ जड़ोँ से ।

5. हत्याओं  के इस दौर में
हत्याओं  के इस दौर मेँ
हत्यायें बिना किसी धारदार हथियार के वार के होती हैं  ।

ये हत्यायें समूह में  घेर कर की जाती हैं तोड कर मनोबल
और  जीते जी बना दिया जाता है जिन्दा लाश ,
मार कर व्यक्ति की पहचान ।

ये हत्यायें अनैतिकता की पराकाष्ठा पर पहुँच  सुखा  देती हैं  मनुष्यता के
जड़ मेँ बचे जीवन के अन्तिम अवशेष को और शेष बचता है केवल बंजर उजाड़ ज़मीन
.
जहाँ हत्याओँ का औजार संवेदनाओं की रेत में दबाकर सहेजा जाता है ।

ये हत्यायें गवाह हैं अपने समय की साजिशों के, जिन्हें  लिखते समय काँप
जाती है इतिहास की कलम
और न जाने कितनी कोशिशें रक्तरंजित चित्कारती मिलती हैं  भग्नावशेषों पर ।

हाँ  मैँ जानती हूँ हत्यायें होती रही हैं  हर युग में  मनुष्यता के
विरुद्ध और मरता रहा है इमान
संसार की सबसे भयंकर त्रासदी की तरह ,
जिसकी समाधि पर लेते हैं  शपथ आज भी लोग जन क्रान्ति की
शायद इनकी समाधि के वजूद ने बचा रक्खा है थोड़ा सा नैतिक पक्ष जीवन का ।

ये हत्यायें कभी राजनीतिक
कभी सामाजिक और कभी
साहित्यिक हत्यायें होती हैँ
जिसके निशान मिल जाते हैँ
गली . कूचे . कारखानों और थोडा सा गोदान मेँ ।
जहाँ होरी और धनिया का लोक संघर्ष अपनी  सै मेँ जिन्दा है
गाँधी और लेनिन की समाधियोँ मेँ गाता है
निराला के बादल राग सा दहाडता है
ओढकर हत्याओँ का कफन अपने पूरे वजूद के साथ ।

हत्यायें सिद्ध करती हैं अपने नुकिले नाखुनोँ का पैनापन
धारदार दाँतोँ का आघात
पीठ में  घोपे जाने वाले खंजरों  का वज्र आघात ।

इन हत्याओँ की नीव पर रखी गयीँ है हर दौर मेँ निमार्ण की बुलन्द इमारतेँ
और उसकी इबारत मेँ लिखी मिलती है चुटकी भर मनुष्यता
और बचा रह जाता है हर दौर मेँ मनुष्य ।

तुम हत्याओँ के प्रणेता बन भले चमको अपने दौर मेँ किन्तु इतिहास के पास
तुम्हारे लिए काली स्याही के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं  होगा .
जिसे याद कर थूकेगी मनुष्यता और याद करेगी हत्यारों  की साजिशें ।

हत्यायें थमी नहीं थीं  हत्याऐँ होती रही हैं
हत्यायें जारी हैं  इस दौर में  अपने चरम पर चित्कारते हुए
बेचैन है मनुष्यता ।

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ISSN 2394-093X
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