सुनीता की कविताएँ

सुनीता 

युवा कवयित्री. दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में शोधरत . संपर्क :sunitaws@gmail.com

1. हम लड़कियाँ
पहली बार जब मुझे आई थी माहवारी
अम्मा ने कहा
बच्चा रुकने का खतरा है
मन में एक सवाल आया था
माहवारी का बच्चा रुकने से क्या सम्बन्ध ?
उस वक़्त कुछ समझ में कहा आया था
अम्मा ने सबकी नजरों से बच के
टाटी का ढाई बन्हा कटवाया था
अब मेरे स्कूल जाने और आने का वक़्त
तय होने लगा था
और रास्ते लम्बे और लम्बे होते जा रहे थे
मेरी दुनिया से लड़के गायब कर दिए गये
और कुछ ‘मनचली’ लडकियां भी
मेरी सुबहें जल्दी और जल्दी होती जा रही थी
मैं अम्मा की जगह लेने लगी थी
मेरे गाँव की लड़कियाँ ब्याही जा चुकी थीं
और मैं स्कूल जाने लगी थी अकेली
उन दिनों मैं रास्ते में अकेली
एकदम अकेली होती जा रही थी
और गाँव वाले कहते थे कि
पढ़ने वाली लडकियां होती हैं रंडी
मेरी छठवीं कक्षा की दोस्त कनीज
कहा करती थी कि अच्छी लड़कियाँ
रास्ते में नजरे झुकाकर चलती हैं
और जोर जोर से हँसना भी ठीक नही
और मैं डरती और डरती चली जा रही थी
रास्ते के किनारे शौच को बैठा पुरुष
अपना लिंग हिलाता
हम सहेलियां अपने मन का प्रेम तो छुपा लेती थीं
पर माहवारी की तारीखें नहीं
हमें याद है उन दिनों एक-दूसरे को ढकते हुए चलना
मेरी सहेलियां जो सवर्ण थीं
नही होता था फर्क मेरे और उनके दर्द में
उन मुश्किल दिनों में वे भी
होती थीं एकदम अकेली
रसोई में तो सख्त मनाही थी
सर्दियों में भी चटाई पर सोती थीं
मुझे याद है कि उन दिनों
काम न करने के कारण
मैं कई बार पड़ती थी मार
आज भी हम डरते हैं उस दाग से
मेरे अन्दर से रिसता खून
उतर आया है मेरे चेहरे पर
मानो दाग न हुआ अपराध हो
और हम अपराधी !!

2. हमें डर लगता है
हमें डर लगता है किराये के कमरों में
आंबेडकर की फोटो लगाने से
घुलने मिलने में डर लगता है
पास पड़ोस के लोगों से
कहीं पूछ न लें हमारा पूरा नाम
गावों में डर लगता है
हिन्दुओं के खेतों में हगने से
खेत से सटी सड़कें भी होती हैं उन्हीं की
देखकर देते हैं
गालियाँ धड़ल्ले से
मेरे भैया जो अब नाम के आगे लगाते हैं सिंह
क्योंकि डरते हैं हमारे लोग
काम न मिलने से
आरक्षण को ख़त्म करने की
बहस हो चली है तेज
उनका  नाम पूछने पर
वे बताएँगे अपना नाम
पाण्डेय ,राव साहब ,पंडी जी चाय वाले
उत्तर और दक्षिण के भूगोल से
नहीं हैं बाहर हम अभी भी
यहाँ शहरों में भी हैं
गलियाँ बाल्मीकि और भंगियों की
हमें डर लगता है
जिन्दा जलाये जाने से
बलात्कार और फांसी पर चढ़ाये जाने से
हमें नहीं चाहिए ऐसा समाज
जो पीछा करता है हमारे नाम और काम से.

3. दिल्ली
पूरा का पूरा शहर भाग रहा है
गाड़ियाँ, मेट्रो, सड़कें और वक्त भी
नहीं भाग पाते सड़कों के किनारे
और सड़कों के बीचो-बीच खड़े पेड़-पौधे
वक्त नहीं भागता यौनकर्मियों का भी
जिनकी शामें ढलते ही
सदियों सी लम्बी हो जाती हैं रातें
वे ठूस दी गयी होती हैं
कोठों में प्रेम के नाम पर
बचपन निकल जाता है
भूख की आग मिटने में
वह बच्चा फेंक आता है अपनी उम्मीदें
कूड़े के ढेर पर
वह मोची अपने सपने गुथकर सिल देता है
ग्राहकों के जूतों में
हमें तेजी से पहुंचता रिक्शेवाला
नहीं जा पाता मेट्रो में भागकर भी.

4. मैं
मैं जातीय दीवार की वो ईंट हूँ
जिसके खिसक जाने से
पूरी दीवार ढह जाती है
हकीकत हूँ उस परिवार की
जहाँ हर ख्वाहिशें मिटा दी जाती हैं
मैं उस समाज का आइना हूँ
जिसमे जुल्म की सूरत बदलती रहती है.

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles