उग्रतारा: प्रेम-क्षेत्र में वैध -अवैध की निरर्थकता

मनीषा झा  

शोध छात्रा,
हिंदी एवं भारतीय भाषा विभाग,हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, संपर्क :manisha2012cuh@gmail.com

प्रेम का सवाल उठते ही समाज के कान खड़े हो जाते हैं और दृष्टि चैकन्नी। समाज में लाखों तरह के अनैतिक कार्यों की बैधता-अबैधता पर प्रश्नचिह्न लगे या न लगे, सामाजिक रूप से अनैतिक से अनैतिक व्यक्ति भी आपको प्रेम की वैधता- अवैधता पर घंटों प्रवचन देता मिल जाएगा। प्रेम के प्रति समाज के मठाधीशों का यह घृणित रवैया प्रेम को पल्लवित-पुष्पित ही नहीं होने देता। फलस्वरूप अधिकांश प्रेम की भ्रूण हत्या हो जाती है और इस तरह प्रेम विहीन समाज में मार-काट और हिंसा का होना लाजिमी है।प्रेम तो प्रकृति प्रदत्त और मनुष्य अर्जित अद्भुत विलक्षणताओं में एक है और प्रत्येक वयक्ति का नैसर्गिक-मौलिक अधिकार भी। जो समाज जितना प्रेम विरोधी होगा वह उतना ही अविकसित, क्रूर, और भयानक होगा। प्रेम के मामले में साहित्य और संस्कृतिकर्मियों के द्वारा जो जो राह बताए हैं, उसका अनुसरण कर हम एक स्वस्थ और प्रेमिल समाज का निर्माण कर सकते हैं।

हिंदी साहित्य में नागार्जुन की पहचान यद्यपि एक कवि के रूप में प्रख्यात है किंतु उनके उपन्यास उनकी कविता से थोड़ा भी कमतर नहीं हैं। कठिनाई यह हुई कि हिंदी में चूंकि अधिकांश आलोचक कविता के आलोचक हुए इसलिए नागार्जुन ही नहीं कई अच्छे उपन्यासों का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। नागार्जुन का प्रत्येक उपन्यास अपने समय और समाज की चुनौतियों से बेखौफ मुठभेड़ करतास्त्री विरोधी तमाम संहिताओं, आस्थाओं, मान्यताआ,ें और परंपराओं पर बज्र की तरह गिरता है।  स्त्रियों के लिए थोड़ी सी ही सही किंतु निर्विघ्न और सर्वथा निश्चिंत जगह की तलाश करता, अपनी मर्जी और अपनी ईच्छा से प्रेम पाने और प्रेम देने की अकुलाहट से लैस।उनका एक उपन्यास है उग्रतारा,जो हिंदी साहित्य में सर्वथा अचर्चित ही रह गया। रचनाकाल को देखते हुएकथावस्तु की नवीनता तथा स्त्री विमर्श की दृष्टि से यह उपन्यास हिंदी उपन्यास परंपरा में सर्वथा एक नया अध्याय जोड़ता है। उग्रतारा में नागार्जुन की प्रेम दृष्टि अद्भुत ही नहीं थी बल्कि समय से बहुत आगे और क्रांतिकारी थी। उनके एक उपन्यास ‘उग्रतारा’के हवाले हम उनकी अद्भुत प्रेम दृष्टि को समझने का प्रयास करेंगे। नागार्जुन ने स्वीकार किया है कि उग्रतारा की आरंभिक कहानी समाज से ली गई सच्ची कहानी है और आधी कहानी कल्पना के सहारे लिखी गई है।

उग्रतारा की कहानी कुछ इस प्रकार है। एक ब्राह्मण विधवा थी- उगनी। वह खूबसूरत भी बला की थी। एक नौजवान था राजपूत, वह भी सुंदर था, अविवाहित था।गांव में उन लोगों में आपस में स्नेह हो गया। यह पूरे गांव में चर्चा का विषय बन गया। लोगों ने कहा कि ‘साला बड़ा रंगबाज है, इसकी टांग तोड़ दो।’ उपन्यास में भाभी नाम की एक पा़त्र है। बहुत निर्भीक और बोल्ड। इस मामले में वह बहुत साहसिक कदम उठाती है। उसने दोनों को समझाया और कहा कि ‘देखो हम तुमको सौ रूपये देते हैं, तुम गांव छोड़ दो। यहां तो कभी तुम्हारा मनोरथ पूरा होगा नहीं। ज्यादा नहीं पांच-सात साल के लिए गांव छोड़ दो। जो लोग तत्काल विरोध कर रहे हैं, वो भी ठंडा पड़ जायेंगे।’ तो वे गांव छोड़कर निकल पड़े। पुलिसवाले गांव वाले से कौन कम थे। देखा एक लड़का और एक लड़की स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं, यहां से वहां। उनकी लाड़़ टपकने लगी। लगे उसे पाकिस्तानी सिद्ध करने। गिरफ्तारी के लिए कोई प्रबल कारण चाहिए। जिस धर्मशाला में वह रहता है, सोते समय उसकी चादर के नीचे उर्दू का एक अखबार डाल दिया जाता है और शोर मचाया जाता  है कि पाकिस्तानी है। अंततः वह गिरफ्तार हो जाता है। लड़का चिल्लाकर कहे किवह कामेश्वर सिंह है, कोई मानने को तैयार ही नहीं। लड़की को बदजनी में कि इसके साथ भागी हंै ये बदचलन है। इस तरह दोनों को गिरफ्तार कर लिया।  और अलग अलग जेल में डाल दिया। जेल में  एक हवलदार हैं भभीखन सिंह, उसकी शादी नहीं हुई थी। पचपन साल उम्र थी उनकी। जेल से निकलने के बाद कथा नायिका उगनी के पास कोई विकल्प नहीं था। अपने को दरिदों से बचाने के लिए उसने भभीखन सिंह से शादी कर लीं। कुछ वर्ष बाद एक मेले में अचानक उसकी मुलाकात कामेश्वर सिंह से हो जाती है। लेकिन वह कामेश्वर सिंह के साथ जाना नहीं चाहती है। उगनी रोती हुई कहती है, ‘‘कि अब मैं तुम्हारे काम की नहीं रही। पेट में गर्भ आ गया है। अब तुम हमको भूल जाओ। यह कहकर सिर झुका लेती है वो।

इस पर कामेश्वर सिंह जो स्टैंड लेता है, वह प्रेम का अद्भुत अर्जिस्वित रूप है। वगैर समय गंवाए फौरन कामेश्वर बोलता है, ‘‘ तुम तो हमारे काम की हमेशा रहोगी। जिस मतलब से तुम काम की बात कर रही हो वही काम काम नहीं होता। शरीर सुख पहुंचाने वाली बात सकेंडरी होती है। काम की तो बराबर रहोगी तुम। अपने मन से यह बात निकाल दो। साहस का संचार हुआ उगनी में। कामेश्वर ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा, ‘‘तुमको हम निकालेंगे यहां से , चाहे जैसे भी हो।महीना साल जो भी लगे, फिर अपना नए ढंग से जीवन शुरु करेंगे और तुम्हारे अंदर जो जीव आ गया है, जिसका भी है, समय पर उसी का नाम हम दर्ज करवायेंगे, समय पाकर हम उसको बुलवायेंगे।’’ प्रेम के इस रूप के लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए ।

जहां समाज मेें दुर्भाग्यवश बलत्कृत होते ही स्त्री की जिंदगी को समाप्त माना जाता है। और इस विषाक्त मानसिकता की वजह से या तो वह आत्महत्या कर लेती है या पूरी जिंदगी अपराध बोध में गुजारती है, इस उपन्यास  में प्रेम के आगे इसका मूल्य दो कौड़ी का भी नहीं माना गया  है। जिस समाज में किसी स्त्री का किसी के साथ संबंध का पता चलते ही भूचाल मच जाता है। संबंध की बैधता-अबैधता पर चर्चा होने लगती है। उसे परित्यक्ता की जिंदगी बिताने के लिए विवश  किया जाता है। यह उपन्यास इस बात की वकालत करता है कि संबंध संबंध होता है, वह बैध या  अबैध नहीं होता। इस उपन्यास में आप देखें कि किस तरह प्रेम के आगे देह को कितना अनावश्यक माना गया है।

यात्री ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जहां केवल प्रेम हो,घृणा नहीं।  वैध -अवैध  का अनावश्यक विवाद नहीं। इस संदर्भ में नागार्जुन अपने एक साक्षात्कार में एक अत्यंत रोचक किंतु मार्मिक घटना का वर्णन करते हुए कहते हैं, ‘‘मुझे जापान का संदर्भ याद आता है। जापान में जब लड़कियां नौकरी करने लगीं तो इस प्रकार के कांड संभावित हुए। जापान सरकार ने तब गर्भपात को वैध कर दिया। अब अपने यहां करे सरकार?ये सब घोंचू लोग बैठै हैं, सरकार में। एक ही बहादुर मिला। बड़े दिल का आदमी है। फौज से रिटायर होकर आया था। हमको कहा कि कल हमारी नाती जो है उसका एक वर्ष पूरा होता है, खुशी में चाय पिलायेंगे। ये नाती अबैध है। उसने आगे बतलाया कि जिसने वायदा किया था शादी का वो भाग गया अमेरिका, तब पांच महीने का गर्भ था। उस समय वो स्कूल में पढ़ाती थी। स्कूल वालों ने निकाल दिया। मां बनने के लिए मर्टिनिटी में यह होता है कि पिता की जगह किसी का नाम होता है तो उसके नाना जो होते थे, उन्होंने इंकार कर दिया तो इस रिटायर फौजी चतुर्वेदी ने कहा- मैं नाना हूं। मैं जिम्मा लेता हूं इसका मैं इसका नाना हूं। नाम नोट करो मेरा। अब वह लड़का साल भर का हो गया है। हमको कुल लिखित-अलिखित साहित्य में यह अनोखी घटना लगी।’’

आलोचक सुरेश सलिल के अनुसार, ‘‘उग्रतारा मंे नागार्जुन ने स्त्री के अंतर्द्वंद्व  को अत्यंत सजग कवि-चेतना से उभारा है। एक तरफ है कामेश्वर, उगनी के सपनों का साकार रूप और दूसरी तरफ है उसके बाप की उम्र का एक सीधा-साधा पुलिस हवलदार, जिसका गर्भ, नियति की विडंबना से, उसके पेट में पल रहा है।‘‘ उपन्यास के अंत में उगनी भभीखन सिंह के नाम एक मार्मिक पत्र लिखती हैं। और वस्तुतः यह पत्र ही उग्रतारा का ‘क्लाइमेक्स’ है, जिससे नागार्जुन के रचनाकार के सामाजिक धरातल का पता चलता है। उस पत्र में उगनी भभीखन को ‘आदरणीय सिपाही जी’ के रूप में संबोधित करके  लिखती है, ‘‘ मेरे अपराधों को आप कभी माफ नहीं करेंगे, यह मैं अच्छी तरह जानती हूं…आपकी संतान समय पर बाहर आएगी। असाढ़ में उसका जन्म जरूर होगा। आप रत्ती भर चिंता न करें। मैं उसको कहीं फेंक नहीं आऊंगी। पाल पोसकर उसे सयाना बनाऊंगी। …बड़ा होगा, तो मैं खुद ही उसे आपके पास भेजूंगी। अपने पिता से मिल आएगा। आप विश्वास रखें सिपाही जी। आपकी छाया में आठ महीने रही हूं। मन ही मन आपको पिता और चाचा मानती रही हूं और आगे भी मानती रहूंगी। मैं मजबूर थी, इसी से आपको धोखा दिया। सिपाही जी, आप मुझे सारा जीवन याद रहेंगे।’’ यह है नागार्जुन की स्त्री दृष्टि जहां धोखा भी निष्पाप हो जाता है और तथाकथित अवैध संबंध भी निष्कलुष और वैध ।
अगर प्रेम में वैध -अवैध को नागार्जुन के प्रतिमान पर आंके तो भारत की अनेक स्त्रियां गर्भपात करवाने से बच जायेंगी साथ ही उन्हें आत्महत्या करने की नौबत भी नहीं आयेगी। यदि ऐसा संभव होता तो नागार्जुन के अन्य उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची’ की नायिका गौरी को अपनी जान जोखिम में डालकर न तो गर्भपात करवाना पड़ता और न ही ‘पारो’ उपन्यास  की पारो की असमय मृत्यु होती।

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ISSN 2394-093X
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