एक थी कविता

अनुपमा तिवाड़ी


कविता संग्रह “आइना भीगता है“ 2011 में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित. संपर्क : anupamatiwari91@gmail.com

पूरी गुआड़ी में आज ख़ुशी की लहर बसंती बयार की तरह फ़ैल रही है. पिछला दिन तो चुप था, लेकिन रात बड़ी जगमग थी. पिछली रात ग्यारह बजे हाइवे के किनारे सड़क से उतरे ट्रक के पीछे एक सफ़ेद कार के ब्रेक लगे और उसमें से एक बावन वर्षीय, फक्क सफ़ेद कुरता – पाजामा और चमचमाती घड़ीपहने, लम्बा – चौड़ा, चेहरे पर कुछ कट के निशान का सख्त चेहरा लिए पत्थर व्यवसायी उतरा. कुछ चोर की तरह उसने धीमे से कार का दरवाज़ा डाला, लॉक किया, सिगरेट बुझाई औरफिरएक लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ- सावह मिटटी की दीवारों वाले कच्चे मकान की ओर बढ़ने लगा. गुआडी के कुत्ते भों – भों कर के बता रहे थे कि गुआडी में कोई अजनबी आया है.पर वह उनकी भों – भों को तवज्जो न दे कर जल्दी से जल्दी कविता के घर में घुस जाना चाहता था.
बारह बरस की कविता के बाप ने दो दिन पहले ही कविता को उसे दिखा दिया था और इसके लिए उनके बीच नगद एक लाख में सौदा तय हुआ था. बाप से कुछ खुसुर – पुसुर के बाद वह उस कच्चे कमरे में दाखिल हुआ जहाँ कविता एक खाट के पास पतली स्टेप का झीनाकुरता और पीला चमकनी बूटियों का शरारा पहने खडी थी.
कमरे में घुसते पत्थर व्यवसायी को देख, वह थोड़ी हडबडा गई और जल्दी से खाट पर से उठकर खडी हो गई. एक अनहोनी – सी उसके दिल में घर करने लगी जैसे कोई कसाई चाकू ले कर बकरे की ओर बढ़ रहा हो.
बैठ जा, खडी क्यों है ? तेरे बाप ने तुझेकुछ बताया नहीं?

अब से पहले उसने किसी मर्द के साथ ऐसा एकांत नहीं महसूसा था.उसकेलिपस्टिक लगे पतले होठ लाल से नीले से होने लगे और बड़ी हथेलियों में आ जाने वाला सांवला चेहरा फ़क्क- सा हो गया.एकझुरझुरी सी शरीर में दौड़ गईऔर कान में बुआ के बोल,गूंजने लगे “आज की रात बड़े बाबू आएंगे, उनका कहना मानना, बहुत प्यार करेंगे तुझे,रोना मत, चिल्लाना मत”. बड़े बाबू के कमरे में घुसने के कुछ देर बाद परदे की ओट से बुआ के हाथ दो गिलास शरबत के पकड़ा गए.

सुबहघर की उठापटक से कविता की कुछ आँख खुली. पर अभी वो बिस्तर पर कुछ होश, कुछ बेहोश-  सी चित्त पड़ी है. उसे बस इतना ही ख्याल है कि उसके घर की मिट्टी से बनी दीवारों के चौखट पर पिछली रात बुआ और माँ ने एक चद्दर का पर्दा खींच दिया था और फिर रात के अँधेरे में वो बड़ा बाबू उसके जिस्म से खेलता रहा था. आज की सुबह उसे एक नई जिंदगी मिली थी. जिसकी तैयारी पिछले कुछ सालों से हो रही थी. वह पहली बार वो अपने को, अपने से अलग महसूस कर रही थी.

कल की रातउ सकी नथ उतरवाई की रस्म हुई है. नथ उतारने वाला बावन साल का पत्थर व्यवसायी है. सुबह से नथ उतरवाई की खबर कानों -कान लड्डुओं के साथ गुआड़ी भर में जा रही है. पूरे एक लाख में उतरी है नथ. समाचार के साथ – साथ गुआड़ी भर की आँखें कविता के अंग – अंग का मुआयना कर रही हैं और अपनी बेटियों के अंगों को उससे तोल रही हैं. पत्थर व्यवसायी की मुंह दिखाई को गुआड़ी भर की आँखे लालायित हैंपर वह जल्दी ही मुंह अँधेरे गाड़ी से उड़न छू हो गया है.

सुबह उसकी आँखों के सामने दोनों छोटी बुआएं आ गईं. वो कैसे मुंबई से सजी – धजी आती हैं. मुंह मोड़ – मोड़ करसबसे, ठसके से बात करती हैं, मुंह में गुटका दबा कर जगह – जगह बेपरवाह थूकती रहती हैं. उनके जालीदार कपडे उनके शरीर का ऐसा खाका खींचते हैं, कि मर्द आँखों से ही शरीर भोग लेते हैं. उनके पर्स सेंट की तीखी गंध से महकते हैं, उनके पर्स में दो – दो मोबाइल रात – दिन घनघनाते रहते हैं. चहकती गुआड़ी भर की छोटी लड़कियों पर क्या रौब पड़ता है, उनका. गुआड़ी की बड़ी लड़कियों को देख, वो सारी छोटी लड़कियों की भी बुआएँ होने का सम्मान पा गईं हैं.

दो साल पहले उसने भी बुआओं के पास जाने की जिद पकडी थी, तब घर में सबने यही कहा था
“तू अभी छोटी है, बड़ी हो जाएगी तब भेज देंगे”जब भी वह बुआओं के घर का ज़िक्र करती तो उसे यहाँ वाली बुआ और माँ यही बतातीं कि वे मौसी केगई हैं, उसकी मौसी कौन हैं ? किसकी क्या लगती हैं ? रिश्तों का यह जाल तब उसके पल्ले नहीं पड़ा था. बस उसके बाद धीरे – धीरे अनाम रिश्ते वो कब नाम से जानने लगी पता नहीं. उसने इधर – उधर से अधकचरा सुना था कि मुंबई के कांग्रेस  हाल के पीछे उनकी बहुत बड़ी बस्ती है, एक कमाठीपुरा में है. वहां बहुत बड़े – बड़े लोग आते हैं, लड़कियों को बड़े – बड़े होटलों में ले जाते हैं, उनके साथ नाचते हैं, जब वो नाचती हैं तो कोई – कोई उनकी ब्रा में नोट ठूंस देते हैं. उन्हें गोद में उठा कर चूम लेते हैं. रात भर होटल चमचमाते हैं. मुंबई की जिंदगी की झलक का अंदाज़ा वह टेलीविज़न पर दिखने वाली चकाचौंध से ही लगाती रही थी अभी तक.

उसने पिछले दिनों कई बार साथ रहने वाली बड़ी बुआ को माँ – बाप पर झल्लाते देखा है. “मैं कब तक खिलाऊँगी तुमको ? भाई का ब्याह करो, पूरे कुनबे को खवाओ, तमाम गंदगी झेलते – झेलते उमर हो गई, अब मेरे बस की नहीं है, तेरी बेटी की क्यों नहीं कर देता अब नथ उतरवाई”बाप ने सेसू छोड़ रखे हैं, “कोई सही ग्राहक तो मिले.कोई चालीस हज़ार दे रहा है, कोई पचास. इतने में तो घर छह महीने भी न चले.मुंबई में तो यूँ ही भर – भर नोट दे जाते हैं बड़े – बड़े आदमी. नथ उतरवाई ही तो बड़ी कमाई का मौका होता है फिर तो फुटकर कमाई है, रोज़ कुआ खोदो, रोज़ पीओ”
“श्यामा की लड़की को तो कोई दुबई भी ले गया था, उसकी लड़की गोरी भूरी जो है. दुबई से क्या मालामाल हो के आई थी वो. उस पैसे से ही तो माँ बस्ती में शानदार मंदिर बनवा कर जाति समाज से वाहवाही लूट रही है”. श्यामा की बेटी का गुणगान करता गुआड़ी भर थकता नहीं है. वह आदर्श है, गुआड़ी भर की. सारी गुआड़ी को दरकार है, श्यामा की बेटी जैसी अपनी बेटी बनाने की.

छुटपन से ही उन्हें पतली स्ट्रेप के सितारों वाले कपड़ों और लिपस्टिक से प्यार करना बुआएं सिखाती हैं.“पगली यूँ रीझते हैं, मरद जितना मन से भोगने दो उतनी ही जेब गर्म होती है, मेरे एक बार ना – नुकुर करने पर ग्राहक कमीना ऐसा गुस्सा हुआ हुआ कि फिर पैसे ही नहीं दे के गया”माँ ये सब सुनती -देखती रही है, घूँघट की ओट से.महीना भर पहले कोई लखटकिया बाबू बाहर खटिया पर बैठा बेफिक्र धुआं उड़ा रहा था.
माँ के पैरों को देखते हुए उसने बाप से पूछा कि “ये काम तुम्हारे घर की बहुएं नहीं करती क्या” बाप ने जवाब दिया “बहुएं करें तो हम काट डालें उन्हें” जैसे दुनिया का सबसे बड़ा इज्ज़तदार पति वही हो. इस जवाब को सुनकर बाहर चबूतरे पर रोटी थेप रही माँ ने अपने हाथ – पाँव घूँघट में कछुए की तरह सिकोड़ लिए थे. तब वह दिन भर घूंघट में पिस रही माँ को देख कर भी, माँ ही बनना चाहती थी, बुआ नहीं!

छोटी लडकियों के लिए बुआ बनने की पहली सीढ़ी नथ उतरवाई से नए जीवन में प्रवेश करने की है. अब वो बुआ ही बन सकती हैं, किसी कि पत्नी बन कर माँ नहीं. कविता के पास कुछ दिन पत्थर व्यवसायी के रोज़ चक्कर लगते रहे, धीरे – धीरे चक्कर कम हो गए. यूँ तो नथ उतरवाई की रस्म के बाद से जिसकी जेब गर्म है, उसे चक्कर लगाने के लिए पर्दा हटा कर पर्दा खींच देने की इज़ाज़त घर और पूरा गुआड़ी दे देता है.
हर दिन ऐसे काम से जब उबकाई आती तब ये गुटका, मीठी सुपारी ही साथ देते उबकाई न आने के लिए, पर उबकाई है कि, आती ही ! सड़ांध मारते मर्दों की देह, पसीने से लथपथ, तोंदू और बूढ़े हाड़ों को तृप्त करना कोई आसान बात है ?

परसों बाप ने मोटू को चार गालियाँ दीं “साले, चूतिया समझते हैं हमको, सौ का नोट कोई दे तो फाड़ देना उसके सामने ही. पांच सौ से कम मत लेना”. हाइवे के किनारे लगती अपनी बस्ती के बाहर खड़ी कविता बारह साल से बीस साल की उम्र तक बड़े – बड़े गले का थोडी ऊपर से थोड़ी नीचे से देह दिखाता ब्लाऊज़ पहने, होठों पर लिपस्टिक रगड़े बुलाती है हर उम्र के आदमी को. उसका सांवला रंग कभी – कभी कीमत में भांजी मार देता है पर फिर भी वो सात जनों के परिवार को पाल पा रही है, जिसमें मुर्गे, शराब के दौर भी शामिल हैं.
थोड़े दिनों पहले जब उसके घर का पर्दा खिंचा हुआ था. उस समय रुक्मा के घर पुलिस आई और उसके घर का परदा हटा कर, ग्राहक लड़के और उसकी बेटी को ले गई. पूरे दो महीने में छूट कर आई थी रुक्मा की बेटी. एक रजिस्टर्ड अड्डा थाने में भी था.“साली हमसे नखरे करती है, रोज़ दस – दस को अपने ऊपर से उतारती है, चल उतार” डर के मारे रुक्मा की बेटी हो जाती हर रात, नंग – धडंग ! ऐसे ही कई बेटियाँ  जा चुकी थी,सुरक्षा के नाम पर बने रजिस्टर्ड अड्डे पर. वहां से आ कर सारी बेटियाँ आपस में गले लग – लग कर रोतीं. रामदेवरा महाराज हमने गलत काम किया है और फिर वे रामदेवरा के मेले में पदयात्रा करते हुए ढोक देने जातीं. ये कैसा पाप मिला था उन्हें, जिसे वे खुद ही चढ़ाती, खुद ही उतार लेतीं.

अब तो बहुत हुआ मैं बुआ बन रही हूँ, पत्नी नहीं ! किसी की पत्नी न सही, माँ तो बन सकती हूँ अनजान बाप के बच्चे, की माँ ! तीन महीने के बाद बुआ और बाप ने गर्भपात करवा दिया. क्या खाएंगे हम ? तू तो माँ बन के बैठ जाएगी. ऐसा पहले भी दो बार हो चुका है…..कविता देखती है उसकी गुआड़ी में कितनी सारी उसकी जैसी कविता हैं, पर कोई बबिता नहीं………..

पिछले साल से एक मधु मैडम बस्ती के चबूतरे पर कुछ बच्चों को घेर कर पढाती है. पहले गुआड़ी के कुछ बच्चे पास के स्कूल में जाते थे. वहाँ दूसरे बच्चे उन पर पत्थर फेंकते थे. कहते हुए, ओ रंडी के. ये लड़के बड़े हो कर गुटका खा कर थूकेंगे, शादी करेंगे, उनकी बहनें कमाकर बेटी वालों को पैसा देंगी, घर बहू आएगी,फिर वो कविता पैदा करेगी. वो मधु मैडम गुआड़ी को बहुत खटकती है. कहीं ये मैडम हमारी बेटियों को कोई पट्टी न पढ़ा दे कि,ये काम गन्दा है. सो सारी गुआड़ी उसे कभी आँखों से तो कभी उसे मुंह से भगाती रहती है. गुआड़ी के बाप और बुआएं उसे उसकी भूमिका समझाते रहते हैं कि तुम्हारा काम है, बच्चों को पढाना, तुम पढाओ, हमारी लड़कियों से क्या मतलब है ? हमारे ऊपर बहुत कर्जा है इसलिए ये काम करवाते हैं.

घर का कोई काम नहीं था, इस कमाऊ पूत के पास ! सो जब भी वह बिना ग्राहक के होती तो उस चबूतरे के पास खाट डाल कर गुटका चबाते हुए मधु मैडम को आँख भर – भरदेखती. “ये कैसी मैडम है,सादा सी धोती पहनती है, पर कितनी आज़ाद ख्याल की लगती है”मेरे पास चमकने,सितारोंलगे और सुनहरीपट्टी केकपडे हैं, दो – दो तरह की लिपस्टिक है, आसमानी और लाल रंग की नाखुनी है पर….पर….मुझे अच्छा नहीं लगता…..उफ्फ,मुझे नहीं चाहिए ये सब !नहीं चाहिए मुझे नाखुनी ! हीक आती है मुझे !!मुझे तो इस मैडम के जैसेसफ़ेद नाखुन ही अच्छे लगते हैं. इस चमचम के पीछे कितना अँधेरा है…….कितना अँधेरा !इस मैडम की तरह मैं रहूँ तो ? पर, फिर कोई ग्राहक नहीं आएगा मेरे पास. नहींआए, मुझे नहीं चाहिए कोईग्राहक,भाड़ में जाएँ, कमीने होते हैं साले,सब के सब ! मधु मैडम से बिना बात किए हीवहआँखों ही आँखों में उसने मधु मैडम का समर्थन पा रही थी. पत्थर कायाओं के उसके पास आने से उसका शरीर तो पत्थर बनने लगा था पर दिल मोम बन पिघल – पिघल जाता था.
मैं भी मैडम की तरहबच्चों को पढाऊँ तो ? इस मैडम को तो हमारी तरह काम नहीं करना पड़ता होगा न ! शारदा की छोटी बेटी को एडस हो गया है पर उससे बात करो तो वह बताती है कि उसे मोतीझरा हुआ है, बम्बई की दवा लगती है उसे. उम्ह ! पता है मुझे, कैसा मोतीझरा हुआ है उसे !!

घर में तीसरी बार कविता के माँ बनने की जिद चल रही है….. सो बाप, एक डंडा उठा रहा है, एक रख रहा है, एक रख रहा है, एक उठा रहा है. ये तमाशा घर में दो दिन से चल रहा है “साली नशा करती है, नशा करेगी तो मारेंगे ही …..”कविता ने उन दिनों नशाकरनाचुन लिया था,  जिससे ग्राहकों से मुक्ति मिले. उस दिन डंडों और रोने की आवाज़ मधु मैडम को उसके दरवाजे खींच लाई. बाप गरजा “जाओ मैडम कर लो, जो करना है, नशा करेगी तो मारेंगे ही”

उस समय दादी, बुआ और बाप सब एक तरफ थे और माँ घूंघट में एक तरफ. मधु मैडम ने बड़ी दीदी को फोन किया “मैडम कविता को उसका बाप दो दिन से बुरी तरह मार रहा है. कह रहा है कि नशा करेगी तो मारूंगा. जबकि कविता इसलिए नशा कर रही है कि उसके पास कोई ग्राहक नहीं आए” कविता ने दाएं – बाएं देखकर कुछ दिन पहले मधु मैडम से कहा था दीदी, मैं ये काम नहीं करना चाहती, कोई और काम दिलवा दो.
मीटिंग के बहाने बड़ी दीदी आईं, कविता को बुलाया, उसे बताया कि “तुम हमारे बच्चों के होम में खाना बनाने का काम कर सकती हो इसके एवज़ में तुम्हें अठारह सौ रूपये मिलेंगे और रहना – खाना फ्री. मैं वहां जाती रहती हूँ, हमारे साथ लडकियां भी काम करती हैं, इसलिए सुरक्षा की तो तुम गारंटी समझो”. पर दीदी, बच्चे क्या सोचेंगे मेरे बारे में ? “देखो कविता, इस काम के साथ ही तुम पर लगा ये बिल्ला भीतो छूट जाएगा न ! बच्चे तुम्हें दीदी ही कहेंगे. मैं अपने ऑफिस में मैडम हूँ, अपने घर पर तो बच्चों की माँ ही हूँ न ! अपने बच्चों के लिए मैडम थोड़े ही हूँ.” तुमको भी बच्चे दीदी ही कहेंगे !
ये सबसुन कर कविता ख़ुशी – ख़ुशी घर गई और जा कर बड़ी दीदी और उनके बताए काम को बता कर  कहने लगी “मैं भी ये दीदी जैसा काम करूँ तो”
क्या पढी तू, जो ये दीदी जैसा काम करेगी बाप ने आँख निकाल कर धमकाने के लहजे में कहा !
सप्ताह भर से काम आ रहे तरह – तरह के डंडे और पाईप उसकी आँखों के सामने घूम गए!
घरवालों ने तो इस मैडम से कविता को खूब बचा – बचा कर रखा पर तेज धूप की छाया, आदमी के सारे नैन – नक्शबता देती है. कविता ने मैडम की छाया पहचान ली थी.

ये कमाऊ पूत हाथ से न निकल जाए सो बाप तुरंत हरकत में आया. वह तमतमाता हुआ अपने गुस्से को पीतामैडम के पास आया “मैडम आप तो सही कह रही हो, पर आप नहीं जानती, हमारा समाज हमें जात बाहर कर देगा ………….दीदी के पास समझाने के सारे शब्द ख़त्म हो गए बस उनके मुंह से हम्म ………की आवाज़ ही निकलती रही और अन्दर न जाने कितने सारे शब्द तूफ़ान की तरह पत्थर से भडबेड़े खाने लगे …….
ये क्या दस मिनिट बाद ही कविता आगे – आगे और माँ पीछे – पीछे आ रही हैं, दीदी मैं ये काम नहीं छोड़ सकती, दिसंबर में मेरे भाई विजय की शादी करनी है………..दीदी के होठ सिल गए, उनके मुंह से बस निकलता रहा हम्म ………

यह काम नहीं करूंगी, नहीं करुँगी, नहीं करुँगी……..और करना पड़ेगा, करना पड़ेगा, करना पड़ेगा……..दस दिन तक घर में गूंजता रहा.कई हाथ उसके बाल पकड़ घसीटते, तो कोई डंडे संभालता, घर पुलिस थाना बन गया.
उसकी जिद के आगे थक हार कर दादी और बुआ ने अड़ोसियों – पड़ोसियों से समर्थन जुटाना शुरू कर दिया. कैसे नहीं करेगी ? तुम्हारी बेटी नहीं कर रही है क्या ? ये बन रही है अंग्रेज की चोदी ! हमने नहीं किया क्या ? हाड तोड़ – तोड़ के इसके बाप को खवाया अब ये हमें नहीं खवाएगी तो हम कहाँ जाएँगे ? क्यों? आस – पड़ोस भीकविता से अपनी बेटियों को बचाने में ही अपनी भलाई समझने में लगा. आज इनकी बेटी सिर उठा रही है, कल हमारी उठाएगी ? घर में बड़े दिनों तक रस्साकसी चलती रही, पर रस्सा कब तक दोनो तरफखिंचता ? ग्यारहवें दिन की सुबह खटिया पर कविता नहीं लिखा, कागज़ मिला जिस पर लिखा था, मुझे मत ढूंढना!

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ISSN 2394-093X
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