स्त्री और बौद्धिकता

अल्पना मिश्र
बौद्धिकता के साथ स्त्री को जोड़ कर देखने की कोई परम्परा हमारे देश में नहीं रही। इसकारण जन मानस का कोई अभ्यास भी बौद्धिक स्त्री की स्वीकार्यता को ले कर सहज भाव से तैयार नहीं हो सका। यहाॅ नवजागरण के समय उठाये गए तमाम स्त्री नाम याद आ सकते हैं और यह तर्क भी किया जा सकता है कि ‘फलां फलां तो थीं ही।’ लेकिन क्या वस्तुस्थिति ऐसी ही थी? सुदूर अतीत में विदुषी घोषा को अश्विनी कुमारों को संबोधित करके पहला वाक्य यही कहना पड़ा था कि ‘‘ हे अश्विनी कुमारों, मैं ज्ञान बुद्धिहीना नारी हॅू’’। अर्थात अपनी बौद्धिक क्षमता को स्वतः कमतर मान लेने पर ही आपको बौद्धिकों के समाज में शामिल होने की अनुमति मिलेगी। यदि स्त्रियाॅ ऐसा नहीं करतीं तो लगातार बौद्धिक कहा जाने वाला समाज उन्हें तरह तरह से बताता है कि वे बुद्धि के क्षेत्र में प्रवेश न करें और यदि प्रवेश करती हैं तो वहाॅ भी पितृसत्ता के द्वारा निर्धारित किए गए दायरे के भीतर ही रहें। दो बहुत प्रत्यक्ष स्थितियाॅ समाज ने बौद्धिक स्त्री के लिए बनाई हैं। एक तो – जब वह बौद्धिक क्षेत्र में समानता का दावा करती है और कई बार अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाती है, तब उसे छल बल से रोकने की हजार कोशिशें होती हैं। उसकी राह में सामंती मानसिकता के बहुतेरे कांटे बिछाए जाते हैं, उसे अपमानित और बहुधा दंडित किया जाता है। बुद्धि का प्रयोग करने और ज्ञानपिपासा की अभिव्यक्ति पर दंडित किए जाने की लम्बी परम्परा मौजूद रही है।


 यह आज मानसिकता आज भी हमारे समाज में बहुत गहरे जड़ जमाए बैठी है और लगातार स्त्री को अपनी बुद्धि का उपयोग करने के लिए अपमानित, उपेक्षित, प्रताड़ित और दंडित करती रहती है। यह अकादमिक जगत से लेकर लगभग सभी बौद्धिक क्षेत्रों में होता रहा है। दूसरा तरीका बेहद परम्परागत है, जहाॅ भारतीय मानस में स्त्री की दैवीय छवियाॅ बहुत मान्य और पूज्यनीय रही हैं और तब एक बौद्धिक स्त्री, विद्वान की श्रेणी में न आकर पूज्यनीया की श्रेणी में डाल दी जाती है। वह हाड़ मांस की मानवी होने की सहजता और जन जीवन में घुल मिल जाने की स्वाभाविकता से परे एक खास दुनिया की प्राणी मान ली जाती है, जो लगभग पराभौतिक छवि है। यह छवि कोई दिक्कत नहीं पैदा करती, कोई चुनौती नहीं रखती, उसका काम उसके दैवीय रूप से ढॅक दिया जाता है, इसलिए उसका नाम लेना आसान हो जाता है। अनुकूलन की ऐसी व्यवस्था एक तरफ स्त्री को उसके इतिहास से काट देती है, उसके रोल माॅडल से दूर कर देती है और दूसरी तरफ ज्ञान संधान के सब रास्ते बंद कर देती है। ज्ञान के लिए व्याकुलता और जिज्ञासा, स्त्री के लिए कुछ ऐसी बना दी जाती है, जैसे वह, उसकी विद्वता को कम कर देगी, रूप और लावण्य बिला जाएगा! सत्संगऔर बहसें उसके चरित्र को दूषित कर देगीं! तर्क करती, बहस करती स्त्री हमारे समाज की स्वीकृत स्त्री कभी नहीं रही है। जबकि यही व्याकुलता, जिज्ञासा, सत्संग, तर्क आदि ज्ञान के लिए आवश्यक शर्ते बताई गई हैं, पर किसके लिए? सिर्फ पुरूषों के लिए! नवजागरण के समय भी, नई शिक्षा के माध्यम से ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की आवश्यकता पुरूषों के लिए मानी गई थी, स्त्रियों के लिए बड़ी हिम्मत करके स्त्री धर्म शिक्षा की ही बात की जा रही थी। लम्बे समय तक गृहविज्ञान लड़कियों केलिए अनिवार्य विषय हुआ करता था। प्रगति और संघर्ष के इतने वर्षों बाद, आज भी कहीं कहीं यह अनिवार्य विषय बना हुआ है।

इसी के बरक्स लेखन की बौद्धिक गतिविधियों के बीच स्त्री हस्तक्षेप को भी देख सकते हैं। यहाॅ भी एक पूरा दौर स्त्री विमर्श केा स्त्री की यौन आजादी तक सीमित कर देने का रहा। शिक्षा, आर्थिक आत्मनिर्भरता, बुद्धि विवेक इससे दूर कर दिए गए। समाज में हो रहे अन्य स्त्री आन्दोलनों को नजरअंदाज किया गया। स्त्री के सामाजिक सरोकार परे ढकेल दिए गए। ऐसी यौन आजादी की बात की गई, जो कोई भविष्योन्मुखी रास्ता नहीं बनाती। यह पूरा पितृसत्तात्मक स्थितियों के अनुकूल और बाजार की आवश्यकतानुसार तैयार किया गया लगता है। जिसने नकली स्त्री विमर्शकार और सतही स्त्री विमर्श के लेखक तैयार किए। बिना पढ़े, बिना जाने स्त्री विमर्श पर खूब बात की गई। इसका विरोध करती एक कोशिश उसी दौर में स्त्रियों की तरफ से होती हुई भी दिखती है, जो स्त्री के सही यथार्थ की बात कर रही थी। उसके संघर्षेंा को और परिस्थितियों की आवाज बन रही थी। लेकिन ऐसी आवाजों को दबाया गया या उपेक्षित किया गया। प्रतिभाशाली की उपेक्षा करना लेखन तंत्र का भी एक बड़ा औजार है। जेंडर विभेद की स्थिति इतनी गहरी है कि जहाॅ जहाॅ स्त्रियों ने बड़ा काम किया या बड़ा दायरा बनाया, वहाॅ वहाॅ उनका नाम लेने का साहस ही प्रायः नहीं किया गया। साहस इतना भी नहीं दिखता कि यदि स्त्रियों ने साहित्य भाषा को नया आयाम दिया और उल्लेखनीय बदलाव किया तो उसे स्वीकार किया जाए। दरअसल इतने लम्बे समय तक स्त्री लेखन की उपेक्षा और साहित्येतिहास से उनकी जानबूझ कर बनाई गई अनुपस्थिति भी इसका एक आधार तैयार करती है।

सभी कलाओं में स्त्री के प्रवेश के साथ उसकी सरपरस्ती की स्थितियाॅ भी बनाई गई थीं। यह एक स्त्री आई है- गाने, अभिनय करने, लिखने आदि तो यह अकेले कैसे रह सकती है? इसका गाॅडफाॅदर कौन है? अकेले, अपने अस्तित्व के साथ खड़ी स्त्री हमारी समाज संरचना से गायब है। और यही उसका सबसे बड़ा संघर्ष है, अपनी जगह बनाना और वहाॅ मजबूती से खड़े होना। उसके अपने समाज यानी समाज के भीतर उसकी अपनी समाजिकता का प्रश्न, एक बड़ा प्रश्न है। लेकिन चूॅकि वह संरचना के भीतर नहीं है, इसलिए समस्यामूलक है और सबसे पहले इससे टकराना जरूरी हो जाता है। इसलिए ‘कब्जे की भूमि’ के सिंद्धांत केा कलाओं में भी लागू किया गया था। सरपरस्ती की कोशिशें और फिर उसके सरपरस्त के अनुसार उसका कद निर्धारित किया जाना भी इसी सिद्धांत से निकल कर आया था। इससे इंकार कर देने वाली स्त्रियों को पता है कि उनकी राह आसान नहीं रह जाती। जबकि स्त्री कला जगत में आती है कि उसे यहाॅ जेंडर बोध से उपर उठ कर दुनिया को जानने समझने का विकल्प दिखाई पड़ता है। वह यहाॅ आती है कि ज्ञान का संधान कर सके, वह अपने सहकर्मियों या बौद्धिकों से बतियाती है कि ज्ञान के नए आयाम से परिचित हो सके, लेकिन कहीं भी उसे बौद्धिक या विद्वान के रूप में आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता।

 देह की सीमा से आगे स्त्री को बुद्धि के स्तर पर समानता का स्थान दे देने में अभी भी हिचकिचाहट बनी हुई है। हमारे पास साहित्य इतिहास में ऐसी स्त्रियाॅ भी रही हैं, जिन्होंने इस तरह की सरपरस्ती से इंकार किया है और जाहिर है कि इसके कारण उनका संघर्ष कई गुणा बढा। मीरा को संप्रदाय निरपेक्ष कवि माना गया। उन्हें प्रायः फुटकर खाते में डाल कर पढ़ा पढ़ाया गया। आखिर मीरा ने एक इतनी आसान राह ; किसी संप्रदाय की सदस्यता द्ध क्यों नहीं चुनी? इस अपने निर्णय और अपनी ‘अनूठी चाल’ चलने के एवज में उन्हें अपने समय में क्या क्या न सहना सुनना पड़ा? और बौद्धिक जगत ने भी लम्बे समय तक उनका कोई स्वागत न किया। बहुत बाद में जा कर मीरा पर नए सिरे से और नए संदर्भों में बात होनी शुरू हुई। आज के संदर्भ में यदि देखें तो स्त्रियों ने संघर्ष के बाद अपनी जो जगह बनाई थी, बौद्धिक भागीदारी की अपनी दावेदारी दिखाई थी, एक बार फिर उन्हें उसी संघर्ष को दुरहाना पड़ रहा है। आज बड़े सम्मेलनों, सेमिनारों आदि में अध्यक्ष, मुख्य अतिथि, मुख्य वक्ता आदि के रूप में उनकी उपस्थिति कम होने लगी है। तमाम आयोजनों में उन्हें मुख्य भूमिकाओं से या तो हटा दिया जाता है या उनकी उपस्थिति को महत्व नहीं दिया जाता है। कभी कभी तो बड़े आयोजनों में एक भी स्त्री की भागीदारी नहीं दिखती। पत्र पत्रिकाओं के संपादक के रूप में भी स्त्रियों की संख्या नगण्य ही है। जब उसे विद्वान मानने में इतनी दिक्कत है तो भला पत्र पत्रिकाओं के संपादन की जिम्मेदारी जैसा काम उसे कैसे थमा दिया जाए! इसतरह बौद्धिक क्षेत्रों में उसकी गहरी भागीदारी भी लगातार उपेक्षित की जाती रही है।
जनसत्ता से साभार 
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली- 7
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