मंजरी श्रीवास्तव की कविताएं

हड़ताल

मैं सोच रही हूँ कि कुछ दिनों के लिए हड़ताल पर चली जाऊं
क़ायदे से बहुत पहले ही हड़ताल कर देनी चाहिए थी मुझे
क्योंकि
मुझे मेरे काम से कभी फ़ुर्सत नहीं दी गई
न मैंने ही लेने की कोशिश की.

जबसे होश संभाला
हमेशा काम ही करती रही
खाने के वक़्त और थिएटर में
बैठक में और शिकार के समय
कॉफ़ी पीते हुए और मातम मनाते हुए भी
शादी के मौक़े पर, मेज़ पर
सैर के समय पहाड़ी पगडंडियों पर
सफ़र के समय रेलगाड़ी, हवाई जहाज, ट्राम, मेट्रो, बस, ऑटो में
चौक-चौराहे, नुक्कड़, नदी के किनारे, समंदर तट पर
जंगल और किसी ए.सी. केबिन में भी
खेत में भी
अपने प्रियतम के लिए दोपहर का भोजन गठरी बाँधकर ले जाते समय भी
यहाँ तक कि नींद में भी करती रहती हूँ काम
नींद में भी जारी रहता है मेरा कार्य-दिवस
नींद में भी बनती रहती है कविता
कविता की पंक्तियाँ, उपमाएं और विचार तथा
कभी-कभी तो दिखाई देती है पूरी की पूरी तैयार कविताएँ
ऐसा लगता है
पृथ्वी पर हर पल, हर जगह मेरा ही कार्यक्षेत्र है.

बड़े मज़े से पक्षी गाते रहते हैं ज़िन्दगी भर वही गीत
जो सीखते हैं बचपन में एक ही बार अपने माँ-बाप से
नदी भी रहती है मस्त
एक ही धुन पर थिरकती हुई, गाती हुई
पर मैं…
मैं तो नहीं गा सकती न एक ही गीत बारम्बार
मुझे तो अपनी छोटी-सी ज़िन्दगी में रचने हैं इतने गीत
जो काफ़ी हों सालों-साल तक
और
मेरे मरने के बाद भी गाये जाते रहें बार-बार
पर मैं क्या रचूँ
कुछ भी तो नहीं बचा
न योग, न वियोग, न संयोग, न दुर्योग
न काम, न क्रोध, न लोभ, न मोह
न क्षमा, न दया, न ताप, न त्याग
न साम, न दाम, न दंड, न भेद
फिर भी
लम्बी और उनींदी रातों में
एक खेतिहर की तरह
शब्दों के सर्वोत्तम बीज चुनकर
काँटों और घास-पात से बचाते हुए
उनकी बुआई, निराई, गुड़ाई करती हूँ और
कोशिश करती हूँ
सभी हानिकारक जीव-जंतुओं, कीड़ों-मकोड़ों, टिड्डियों, चूहों और
अपने सबसे भयानक शत्रु ‘समय’ के भय से मुक्त
कविता और गीत की ऐसी फसलें पैदा करूं जो सदियों तक ज़िन्दा रहें.

रचना चाहती हूँ ऐसे गीत
जो उस शराब की तरह हो
जिसका ख़ुमार हमेशा बना रहे.

इसके लिए जागना ज़रूरी है
जागती रहती हूँ उन रातों में भी
जब बाहर बारिश पटापट का अपना राग अलापती होती है और
उन सर्द रातों में भी जब लम्बे गर्म लबादे में
अपने प्रियतम के साथ दुबककर मज़े की नींद ली जा सकती है.
उस सर्द रात के बाद ज़रूर सुबह होती है,
फिर दिन निकलता है और
दिन के बाद रात आती है…
जाड़े के बाद वसंत आता है और
वसंत के बाद प्यारी गर्मी
फिर छिन्न-भिन्न होते बादलों के पीछे से
सूरज कभी-कभार झाँकने लगता है
बुलबुल चाँदनी रात की निस्तब्धता में गाने लगती है
पर मुझे नींद नहीं आती
आराम करने का भी मन नहीं करता
इन चीज़ों को महसूस करती रहती हूँ
अपने दिल में एक न बुझनेवाली आग लिए
वे अलाव लिए
जिनसे मुझे बचपन में ही बहुत प्यार हो गया था
हरपाल सोचती रहती हूँ कि
ऐसा क्या लिखा जाए उस अलाव की रौशनी में
जो किसी को गरमाए बिना
अँधेरे में किसी का पथ रोशन किए बिना
बुझने न पाए

अब आप ही बताएं
हड़ताल पर जाने के बारे में मेरा सोचना
कितना उचित है….?

पतझड़ का एक गीत 

इन दिनों पतझड़ का शक्तिशाली, गहरा और मोहक जादू विलुप्त होने लगा है
खोने लगा है पतझड़ अपना सम्मोहन
पतझड़ का रंग भी उड़ रहा है धीरे-धीरे आजकल
फिर भी
जीवन का एक किनारा कहीं प्यार से भरा बचा है और
उस कोने से फूटती रोशनी से मैं रोशन रखने की कोशिश करती रहती हूँ अपना पूरा वजूद
आज भी वफ़ा का वह वादा थामे रहता है मेरी छोटी अंगुली
और दिलाए रखता है यह यक़ीन कि पतझड़ का तिलिस्म अभी बाक़ी है ज़रा-सा.

सिगरेट के जलते सिरे दूर तलक टिमटिमाते हैं तारों-से
जिनमें दिखाई पड़ता है अरसे से संचित जीवन
जलते-बुझते टिमटिमाते छोटे-छोटे रंगीन बल्बों की मानिंद
‘भक-भुक’, जल्दी-जल्दी जलती बुझती है आत्म-चेतना
ऊंचे पहाड़ों पर चढ़ती-दौड़ती साँसे
अनायास निकलकर गिरने लगी हैं दमघोंटू घाटियों में
जहाँ बबूल की कांटेदार झाड़ियों में ज़रा-से फूल खिले हैं.
सहसा याद आने लगती है उन दिनों की
जब जीवन ऊपर को उड़ता हुआ गोल-सा गुब्बारा था
और प्रेम था उन्मुक्त संगीत-सा
विरक्त स्वरों-सा
मेरे इतना पास जितनी मेरी साँसें
और मुझसे इतना दूर जितना मैं ख़ुद-से.

अब मेरी जलती-बुझती आत्म-चेतना दिखाती है मुझे मेरे कई-कई रूप
“एक मैं वो जो ख़ुद के लिए
एक मैं वो जो इस जहान के लिए
एक मैं वो जो न ख़ुद के लिए और न इस दुनिया के लिए”
इसी ‘मैं’ की तलाश में मैं फर्लांग आती हूँ
कई-कई संवत्सर, कई-कई युग.

फ्लैशबैक में
तुम्हारी बाहों के दायरे में बंधी मैं…और तुम…
तुम मुझे गेटे (मशहूर जर्मन कवि) और होरेस (प्राचीन रोम का मशहूर कवि) की कविताएँ सुना रहे हो
और वह फ्लैशबैक मुझमें आज भी जागृत रखे हुए है उस ताकत को कि
मैं पकड़ सकती हूँ कोई निडर यूनिकॉर्न (ग्रीक किम्वदंती के अनुसार यूनिकॉर्न घोड़े जैसा पंखों वाला एक जानवर है जिसे केवल कोई स्त्री ही पकड़ सकती है) किसी परीकथा का.
अचानक तुम्हारी बांहों से निकल जाता है मेरा मन और तैरने लगता है
सपनों में देखे,
पानी में डूबे, छोड़े हुए
और ज़रा-सा याद रह गए किसी शहर की सतह पर.
इस महाद्वीप के इस स्थिर महानगर की सतह पर तैरते मेरे चंचल मन में
बज उठती है बीथोवन और शॉपन की सिम्फ़नी
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी की स्वरलहरियों पर थिरकने लगता है पानी से अठखेलियाँ करता मेरा मन.
पंडित भीमसेन जोशी के हिन्दुस्तानी आलापों के मूक स्वरों में
हिन्दोस्तान की गूढ़ लिपियों में लिखा गया गुप्त संगीत
झनझना उठता है पंडित रविशंकर के सितार के तार-सा मेरी नस-नस में
धीरे-धीरे भारत की यह अजनबी सांगीतिक भाषा
शामिल करने लगती है पूरे संसार को ख़ुद में और
बनने लगती है किसी अनंत संगीत-संसार का अंग.

मैं कभी बड़ी आसानी से
कभी एक नामालूम-सी हूक के साथ
कभी एक अनजानी तड़प में सिमटी
अलग-अलग भावनाओं में लिपटी
थिरकती हूँ इन धुनों पर, इन स्वरलहरियों और अपनी कविताओं पर
अपने गीतों के रागों पर
रोते हुए वाद्ययंत्र अनायास गाने लगते हैं
पतझड़ के काले जादू की एक फूंक से
हौले-हौले रात आकाश में बिखरने लगती है
और मैं अपनी हर रचना,  हर जादू से रचती हूँ
एक नया तिलिस्म.
इतिहास नहीं
एक नयी इतिहास दृष्टि
जिसकी ज़रूरत मेरे बाद भी युग-युगांतर तक पड़नेवाली है.

अचानक पोस्ते के लाल फूल से भी हल्की लगने लगती है मौत की सांस
वक्ष पर हाथ रखकर बुझती हुई सांस की ज़रा-सी आहट महसूसने की कोशिश करती हूँ तो सुनाई पड़ता है एक मौन
जो गा रहा है.
वक्ष और हाथ दोनों स्थिर हो गए हैं.
मैं और तुम साथ-साथ
नींद की एक अंतहीन, अँधेरी, गहरी गुफ़ा में उतरने लगते हैं
लेकिन अलग-अलग
और मुझे यहाँ भी (जहाँ सिर्फ़ मैं और तुम हैं)
इस घुप्प अंधियारे में भी
यह याद रखना पड़ता है कि तुम्हारा प्रेम मेरे लिए एक सपना है
एक सुखद स्वप्न
जबकि तुम भी जानते हो यह हक़ीक़त कि
तुम्हारे साथ सुना हुआ संगीत
संगीत नहीं है सिर्फ़
तुम्हारे साथ महसूसी गई ख़ुशी
ख़ुशी नहीं है केवल
तुम्हारे साथ जिए गए पल
पल नहीं हैं मात्र
उससे बहुत अधिक है कुछ
और हमारी शिराओं और मज्जा में बहता हुआ रक्त
रक्त नहीं है केवल
प्रेम की तरल तरंगें हैं ये रक्तकण.

अचानक दिखाई देती हैं
सूखी स्टार फिशेज़ जो समुद्र तट पर मरी पड़ी हैं.
फिर सुनाई देता है एक विद्रूप-सा अट्टहास
क़यामत के तूर-सा
(तूर – ईसाई विश्वास के अनुसार वह तुरही जो क़यामत के दिन इस्त्राफ़ील बजाएगा)
समुद्र बन जाता है बहर-ए-अहमर
(ईसाई विश्वास के अनुसार बहर-ए-अहमर वह समुद्र है जो मूसा पैग़म्बर के सामने दो हिस्सों में बंट गया था ताकि वह और उसके साथवाले फ़राओ की सेना से भाग सकें)
सूरज के सिन्दूरी धागों से हम बांध जाते हैं पतंगों की तरह
और ज़िन्दगी की आंधी हमें तेज़ी और अधीरता के साथ
कभी ऊंचे आसमान में उड़ाती है
तो कभी तंग घाटियों में भी ला पटकती है
और मैं ‘अंतिगोन’ सी भटक रही हूँ
(अंतिगोन प्राचीन यूनानी त्रासदी नाटक ‘अंतिगोन’ की नायिका है)
वह जलमग्न नगर हमारे साथ सफ़र करता है
हम इस शहर के साथ ख़ानाबदोश-से भटकते हैं
दरअसल हमलोग हैं कौन – ख़ानाबदोश ही तो न …?

तुम्हारे जाने के बाद का हर बीतता लम्हा
सुलझाने की ज़द्दोजहद में और उलझता रहा
उघड़े हुए ऊन-सा
यादों के उघड़े हुए वरक से झांकती हैं गीली पहाड़ियां
और हमारी यात्राएं
कच्चे धागे के टाँके-से उघड़ी हुई सफ़ेद सिलाइयों से झांकते हैं सफ़ेद बादल के टुकड़े
या बादल की एक पतली रेखा
पृथ्वी की गोलाई के साथ हम भी नाचते हैं गोल-गोल
और अलग होने के बावजूद मिल ही जाते हैं किसी न किसी ध्रुव पर
हवा के कुनकुने और ठन्डे बहावों के साथ
हमारी आत्माएं आहिस्ता-आहिस्ता तैरती हैं पंडुक-सी
जिसकी ‘डब-डुब’
पानी के निगलने की एक घूँट-सी
हम दोनों को ही सुनाई पड़ती रहती है यदा-कदा.

हमारे पास बचा ही क्या है
सिवाय कुछ गूढ़ लिपियों, मूक स्वरों, जलरंग चित्रों, भाषा, शब्दों और कुछ बिम्बों के अतिरिक्त.

सपने में फिर-फिर उभर ही आता है वह शहर
जिसने बतौर ज़मानत रख लीं तुम्हारी यादें और मेरा उल्लास.

तुम न जाने कहाँ हो
और मैं न जाने कहाँ
आसमान की आँखों में हम
और हमपर हैं आसमान की जासूसी निगाहें
वह देख रहा है पल-पल धूप भरी ख़ामोशी में
किसी नदी की सतह पर
बेपरवाह बहता हमारा प्यार
हमारी यादें
हमारा उल्लास
हमारा एक-एक एहसास.

खुली आँखों का स्वप्न

आजकल खुली आँखों से कुछ गड्ड-मड्ड होती-सी आकृतियाँ मुझे अक्सर दिखाई देने लगी हैं
सबसे पहले आँखों के आगे उभरता है

बिना आँखों वाला
लम्बे बालों वाला
या यूं कहें कि घोड़े की अयालों-सी बालों वाला
एक धुंधला-सा चेहरा
फिर वह दो बंजारा आकृतियों में बदल जाता है
पर गौरतलब यह है कि आँखें उन आकृतियों की भी नहीं हैं
पर शायद यह प्रेमी-प्रेमिका हैं
एक-दूसरे को गुलाब भेंट करते हुए
फिर वे घोड़े पर सवार होकर सूरज की तरफ निकल जाते हैं.

अब सूरज है ,मेरी आँखों के आगे चमचमाता हुआ
अपने प्रचंड ताप से मुस्कुराता हुआ
जग को जलाता हुआ
पर इसका ताप प्रेमी-प्रेमिका को डरा नहीं पाता
वह असंख्य पत्तियों वाला एक पेड़ तलाश ही लेते हैं.
प्रेमी, प्रेमिका को वृक्ष की छाँव के नीचे ले जाता है
फिर एक बांसगाड़ी में बिठाकर
उसे ले जाने की कोशिश कर रहा है किसी अँधेरी, शीतल जगह पर
बांसगाड़ी पालकी में तब्दील हो जाती है
उसके सिरे प्रेमी से छूटकर कहारों के हाथ में जा पहुँचते हैं.
पालकी चल रही है और भाग रहा है उसके पीछे-पीछे प्रेमी
पेड़ों की पत्तियां सिकुड़ने लगती हैं धीमे-धीमे
अचानक वहां प्रकट हो जाते हैं पंखोंवाले कई श्रृगाल
वे अपने पंख फड़फड़ा-फड़फड़ाकर
पालकी और प्रेमी के चारों ओर नाच रहे हैं
और न जाने किस बात का जश्न मना रहे हैं
तपते सूरज को थाम लिया है दो श्रृगालों ने
पालकी एक विचित्र पशु में तब्दील हो गई है
और श्रृगालों के पंख नाव में
कुछ श्रृगाल नाव में बैठकर नदी पार कर रहे हैं
नाव खेते समय वे न जाने किस बात का जश्न मना रहे हैं
सूरज की एकाध रश्मियों को तोड़कर उन्होंने पतवार बना लिया है
पानी बिच्छुओं में बदल गया है
और श्रृगालों द्वारा तोड़ी गई रश्मियाँ एक दीपक की लौ में तब्दील हो गई हैं.

मेरी नज़रों के आगे फिर एक चेहरा है
शंक्वाकार-सा
जिसकी आँखें तो हैं लेकिन बंद
नाक भी बंद है और
होंठों की जगह पर सील किया हुआ-सा कुछ है
ध्यान से देखती हूँ तो पता चलता है कि
अरे…! यह तो सूरज का चेहरा है
बग़ैर रश्मियों के
बिना ताप के
बुझा-बुझा सा
श्रृगाल रश्मियों का एक-एक टुकड़ा लेकर फिर से जश्न मनाते नज़र आते हैं
उसी पेड़ के नीचे
जिसे तलाशा था उस प्रेमी-प्रेमिका ने
अब प्रेमी का दूर-दूर तक कोई नामोनिशान नहीं
प्रेमिका ख़ुश है
बेहद ख़ुश
पेड़ फिर पत्तियों से लहलहा उठा है और
प्रेमिका श्रृगालों के साथ मदमस्त होकर नाच रही है
उसके चेहरे पर अजीब-सी ख़ुशी है
जिसे व्यक्त कर पाना मेरे बस की बात नहीं
शब्द चुक गए हैं मेरे.

संपर्क : manj.sriv@gmail.com

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