महिला आरक्षण विधेयक को पारित करो [अपील पर हस्ताक्षर करें ]

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महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में पहली बार १२ सितम्बर, १९९६ को प्रस्त्तुत किया गया था. उसके बाद से इसे कई बार संसद में प्रस्तुत किया जा चुका है परन्तु न तो इस पर विचार हुआ और ना ही मतदान. सन १९९५ में ७३वें व ७४वें संवैधानिक संशोधनों द्वारा पंचायतों व स्थानीय संस्थाओं में महिलाओं को ३३ प्रतिशत आरक्षण दिया गया दिया था, जिसके नतीजे में लाखों महिलाओं ने राजनीति के क्षेत्र में पदार्पण किया. कुछ राज्यों ने इस आरक्षण को बढ़ाकर ५० प्रतिशत कर दिया है. विरोध और समस्याओं का दृढ़ता से मुकाबला करते हुए, समाज के संभी वर्गों की महिलाओं ने पंचायतों और स्थानीय संस्थाओं के सञ्चालन में महत्वपूर्ण योगदान दिया और इससे दुनिया में हमारे देश की प्रतिष्ठा बढ़ी. परन्तु संसद व राज्य विधानसभाओं में महिलाओं की उपस्थिति १० प्रतिशत से भी कम बनी हुयी है. इस कारण संसद में होने वाली चर्चाओं और बहसों और वहां बनाई जाने वाली नीतियों में लैंगिक परिप्रेक्ष्य का अभाव स्पष्ट दिखलाई देता है. कहने की आवश्यकता नहीं कि यह दुर्भाग्यपूर्ण और अवांछनीय है.

इस विधेयक पर दो संसदीय समितियां गहन विचार कर चुकी हैं. दूसरी समिति ने दिसंबर २००९ में प्रस्तुत अपनी रपट में इसे जस का तस पारित करने की सिफारिश की थी. राज्यसभा द्वारा ९ मार्च २०१० को महिला आरक्षण विधेयक को स्वीकृति दिए जाने से देश की महिलाओं को यह आशा बंधी थी कि इसे जल्द ही लोकसभा की स्वीकृति प्राप्त हो जाएगी और यह विधेयक, कानून बन जायेगा. परन्तु दुर्भाग्यवश, १५वीं लोकसभा के २०१४ में विघटन के साथ ही यह विधेयक लैप्स हो गया.

संसद में विधि निर्माण और बजट प्रावधानों में लैंगिक परिप्रेक्ष्य को नज़रंदाज़ किया जाता रहा है. हम इस बात पर अपनी गंभीर चिंता व्यक्त करते हैं कि वर्तमान एनडीए सरकार के एजेंडे से ३३ प्रतिशत महिला आरक्षण विधेयक पूरी तरह से गायब हो गया है. यह इसके बावजूद कि एनडीए ने चुनाव अभियान के दौरान यह वादा किया था कि सरकार में आने पर वह महिलाओं को ३३ नहीं बल्कि ५० प्रतिशत आरक्षण देगा. सरकार ने “सर्वसम्मति के अभाव” के नाम पर इस विधेयक को ठन्डे बस्ते में डाल दिया.

संसद द्वारा महिला आरक्षण को मंज़ूरी दिए जाने की मांग को मजबूती देने कि लिए यह आवश्यक है कि सभी राज्यों में ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले संगठन इस मुद्दे पर एक स्वर से आवाज़ उठायें. विभिन्न संगठनों व आम जनता, विशेषकर महिलाओं, के संयुक्त प्रयासों से ही वर्षों से संसद में लटका यह विधेयक पारित हो सकेगा. हम देश के सभी राज्यों में ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे संगठनों से यह अनुरोध करते हैं कि वे इस मांग को आगे बढ़ाने और संसद के अगले सत्र में इस विधेयक को पारित करवाने में हमारा साथ दें. हम सभी संगठनों से अपील करते हैं कि वे इस सिलसिले में भविष्य में की जाने वाली कार्यवाहियों में सक्रिय भागीदारी करें.

केंद्रीय विधि मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने 7 अगस्त, २०१५ को संसद में स्वीकार किया कि सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक पर “किसी राजनैतिक दल या अन्यों से विचार-विमर्श प्रारंभ नहीं किया है”. उन्होंने कहा कि “संसद के समक्ष संविधान में संशोधन के लिए विधेयक प्रस्तुत करने से पहले सभी राजनैतिक दलों के बीच इस विधेयक पर सघन विचार-विमर्श और सर्वसम्मति का निर्माण आवश्यक होगा”. केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री ने संसद में १४ सितम्बर २०१५ को कहा कि उन्हें “निकट भविष्य में संसद द्वारा इस पर विचार किये जाने की कोई सम्भावना नहीं दिखती”

राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति दोनो ने महिला प्रतिनिधियों की सभा में महिला आरक्षण बिल पारित किये जाने की जरूरत पर बल दिया, परन्तु प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुप रहे. बल्कि उन्होंने  अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर सिर्फ महिला सांसदों के बोलने का प्रतीकात्मक आहवान जरूर किया , लेकिन उनकी रुचि महिला प्रतिनिधित्व के ठोस उपायों में नहीं दिख रही है.

ऐसा कोई नियम नहीं है कि संसद किसी विधेयक को तभी अपनी मंज़ूरी दे सकती है जब उस पर सर्वसम्मति बन जाये. हमें तो ऐसा प्रतीत होता है सभी राजनैतिक दलों में इस आशय की सर्वसम्मति बन गयी है कि इस विधेयक को किसी भी हालत में कानून न बनने दिया जाये.

हम एक बार फिर समान प्रतिनिधित्व की अपनी मांग को दोहराते हैं और यह मांग करते हैं कि संसद इस विधेयक को अगले सत्र में पारित करे.

हमारी मांग है कि देश के संसदीय इतिहास में एक युग कि शुरुआत के लिए, लोकसभा के अगले सत्र में महिला आरक्षण विधेयक प्रस्तुत किया जाये और बहस तथा मतदान के बाद उसे पारित किया जाये .

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