मैं हिजड़ा… मैं लक्ष्मी

डिसेंट कुमार साहू


उत्पीड़ित समूहों द्वारा लिखी जाने वाली आत्मकथाओं ने हाल के समय में ब्राम्हणवादी-पितृसत्तात्मक समाज के वर्चस्वकारी मूल्यों को उद्घाटित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इन आत्मकथाओं ने दमन, शोषण तथा वर्चस्व के अमानवीय पहलुओं को सामने रखा। आत्मकथा लेखक के जीवनानुभव होते हैं. जिसके माध्यम से वह अपनी जीवन, सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य तथा महत्वपूर्ण घटनाओं को रेखांकित करते हैं। इसी क्रम में यह आत्मकथा पितृसत्तात्मक दमन का शिकार हिजड़ा समूह के लक्ष्मी का है। जिस समूह को स्वयं के ‘मैं’ के पहचान में वर्षों लग जातेहैं, इस ‘मैं’ के प्रकट होने पर समाज बदले में सिर्फ अपमान, घृणा, तिरस्कार तथा कलंकित जीवन प्रदान करता है। उस ‘मैं’ का प्रकटीकरण हमारे सामने आत्मकथा के रूप में है। इस आत्मकथा के माध्यम से लक्ष्मी, हिजड़ा पहचान के साथ ही एक मानव होने तथा मानवीय क्षमताओं को बिना किसी भेद-भाव के स्वीकार करने का आग्रह करती है। हमारे समाज व्यवस्था में मुख्य रूप से द्विलिंगीय समाज है। जहां सिर्फ स्त्री-पुरुष को ही मान्यता प्राप्त है तथा इनके बीच होने वाले उत्पादक यौन संबंध ही कानूनी रूप से वैध हैं। नारीवादी विमर्श से पहले तक ‘शिश्न’ आधारित पहचान की बात की जाती थी अर्थात, ‘मैं’ का केंद्र ‘शिश्न’ रहा। इसलिए माना जाता रहा हैं कि बालिका ‘शिश्न अभाव’ के कारण अपने को बालकों की तुलना में हिन मानती है, इस तरह वह पुरुष सत्ता को स्वीकार कर लेती है। हालांकि फ्रायड के इन विचारों का व्यापक रूप से विरोध हुआ।

नवफ्रायडवादियों में कैरेन हर्नी फ्रायड के विचारों की आलोचना करती हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक लिंग(सेक्स) के व्यक्ति समान होते हैं, जरूरत उन्हें प्रोत्साहित करने की होती है। स्त्री-पुरुष के अलावा हमारे समाज में तीसरे लिंग के लोगों का भी अस्तित्व है.जिन्हें हिजड़ा, किन्नर तथा स्थानीय भाषाओं में विभिन्न नामों से जाना जाता है। थर्ड जेंडर लोगों का उल्लेख पौराणिक मिथकीय ग्रन्थों से लेकर कामसूत्र तथा बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। इसके बाद भी यह समूह समाज से बहिष्कृत होकर अमानवीय परिस्थितियों में जीवन गुजारने के लिए अभिशप्त है। लक्ष्मी की आत्मकथा इस देश में रहने वाले लाखों थर्ड जेंडर की दिन-प्रतिदिन के अनुभवों का प्रतिनिधित्व करती है। अपनी आत्मकथा के माध्यम से थर्ड जेंडर समूह के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक तथा संस्थानिक जीवनानुभव को साझा करने का प्रयास किया है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी एक समूह ऐसा है जो अपने इंसानी पहचान तथा मूलभूत मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है। अप्रैल 2014 में थर्ड जेंडर के रूप में कानूनी मान्यता मिलने के बाद भी आज तक अधिकतर सरकारी तथा गैर-सरकारी आवेदन पत्रों में दो ही जेंडर का उल्लेख मिलता है। क्या इस व्यवस्था में आज भी इस तरह की भिन्नता रखने वाले लोगों के लिए कोई जगह नहीं है?

हमारे समाज में हिजड़ा समूह को लेकर सच्चाई कम और भ्रांतियाँ ज्यादा फैलाई गई हैं। शारीरिक-मानसिक संरचना से लेकर उनके सामाजिक संरचना के बारे में बहुत ही कम लोगों को पता है। यह पुस्तक लगभग उन सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए थर्ड जेंडर के लिए इस समाज में मानवीय गरिमा की मांग करता है। नारीवादी विमर्श ने पितृसत्ता का आधार स्त्री की प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण को माना। यही कारण है कि समाज में विवाहित स्त्री-पुरुष (स्वजाति, स्वधर्म में) जो प्रजनन कर सकें, ऐसे जोड़े पितृसत्तात्मक व्यवस्था के केंद्र में होते हैं। जबकि इस व्यवस्था को चुनौती देने वाले लोगों को हाशिये पर ढाकेल दिया जाता है। इस दृष्टिकोण से विचार करें तो तीसरे लिंग के व्यक्ति, जेंडर आइडेंटिटी तथा सेक्सुयलिटी दोनों ही स्तर पर पितृसत्ता के सामने चुनौती पेश करती हैं। यह पुस्तक एक खास तरह के नजरिए के साथ पढ़े जाने की मांग करती है. कि अगर थर्ड जेंडर के लोगों को पारिवारिक तथा सामाजिक सहयोग प्राप्त हो तो वे लोग भी स्त्री-पुरुष के साथ कंधा मिलाकर चल सकते हैं।

इस पुस्तक को पढ़ते हुए जेंडर तथा सेक्स का विभेद भी स्पष्ट होता है। जन्म के बाद जैविक सेक्स के साथ जेंडर भी निर्धारित कर दिया जाता है. लेकिन थर्ड जेंडर बच्चे समाज द्वारा निर्धारित जेंडर को स्वीकार्य नहीं करते हैं। ‘उचित व्यवहार’ के साँचे में ढालने के लिए समाज में गाली समझे जाने वाले शब्दों (हिजड़ा, छक्का, मामू, गांडु, नामर्द, मऊगा आदि) से चिढ़ाया जाता है, कई बार परिवार के लोगों द्वारा हिंसात्मक व्यवहार भी किया जाता है। थर्ड जेंडर होने वाले बच्चे को अधिकांशतः 13-14वर्ष की उम्र में अपने अलग होने का एहसास हो जाता है। लेकिन उनके लिए यह एक असमंजस की स्थिति होती है। “मैं अन्य लड़के/लड़कियों से अलग हूँ, इसका एहसास होने पर मन में बेचैनी होने लगती है.वह चिंतित होने लगते हैं,उन्हें खुद पर गुस्सा आने लगता है। वह लड़का इस एहसास को दबाकर पुरुषों जैसा बर्ताव करने की कोशिश करता है। लेकिन किशोरावस्था में अपने इस अंतर का एहसास उसे प्रखरता से होता है। उसे लड़कियों-जैसा जीने में खुशी मिलती है और लड़कों-जैसा व्यवहार करने में मुश्किल लगने लगता है।” इसी तरह का अनुभव कोलकाता की थर्ड जेंडर सामाजिक कार्यकर्ता राजर्षि चक्रवर्ती भी लिखती हैं- “चौदह साल की उम्र में मैं हस्तमैथुन करने लगा। मुझे लगा कि कोई बीमारी हो गई है। उसे बंद करने के ख्याल दिमाग में कौंधने लगे। मैं लिंग के ऊपर के बालों को साफ किया करता था। मैं पवित्र बनना चाहता था।” वास्तव में थर्ड जेंडरव्यक्ति बहुसंख्यक समाज (स्त्री-पुरुष की द्विलिंगी समाज) में अपने व्यवहार को घृणित तथा असामान्य मानने लगते हैं तथा इसे समाज में प्रचलित मानकों के अनुरूप ढालने का प्रयत्न भी करते हैं।

लक्ष्मी थर्ड जेंडर होने के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं. उन्होंने जीवन के वे तमाम पहलूओं कोइस पुस्तक के माध्यम से सामने रखने की कोशिश की है, जो सभ्य कहें जाने वाले समाज में सामाजिक बदनामी के डर से छिपा दिऐजाते हैं । उनकी कोशिश है कि समाज थर्ड जेंडर लोगों को जाने, उनसे बात करें, उनके साथ किसी परग्रही (एलियन) की तरह व्यवहार न किया जाए, इस तरह वह पब्लिक स्पेस में थर्ड जेंडर लोगों की उपस्थिती चाहती हैं। एक थर्ड जेंडर के सामने अपनी पहचान स्थापित करने से पहले खुद भी उस पहचान को स्वीकार करने की चुनौती होती है। इस तरह पहचान का संघर्ष पहले व्यक्तिगत फिर पारिवारिक और बाद में सामाजिक होता है। किसी भी थर्ड जेंडर के लिए अपने जेंडर की पहचान (आइडेंटिटी) निर्धारित करना सबसे बड़ी चुनौती होती है। क्योंकि आस-पास स्वयं (थर्ड जेंडर) जो महसूस कर रहा है. ऐसे लोग दिखायी नहीं देते. ऐसे में खुद को कई बार असामान्य भी मान लिया जाता है। यही कारण है कि जब लक्ष्मी अपने जैसे अन्य लोगों से मिलती है तो उसे बहुत अच्छा लगता है। लक्ष्मी के परिवार वालों ने थोड़ी-बहुत समस्याओं के बाद उसकी पहचान को स्वीकार कर लिया। लक्ष्मी के पापा कहते हैं- “अपने ही बेटे को मैं घर से बाहर क्यों निकालु? मैं बाप हूँ उसका, मुझ पर ज़िम्मेदारी है उसकी। और ऐसा किसी के भी घर में हो सकता है। ऐसे लड़कों को घर से बाहर निकालकर क्या मिलेगा? उनके सामने हम भीख मांगने के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं छोड़ते हैं।” अधिकांश थर्ड जेंडर बच्चों के सामने आजीविका का ही प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण होता है। परिवार तथा समाज में किए जा रहे भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण ऐसे बच्चे अपने पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। लक्ष्मी इसे थर्ड जेंडर समूह के पिछड़ेपन का मुख्य कारण मानती हैं। वह कहती हैं कि “मुझे प्रोग्रेसिव हिजड़ा होना है…और सिर्फ मैं ही नहीं अपनी पूरी कम्यूनिटी को मुझे प्रोग्रेसिव बनाना है…”

लक्ष्मी, हिजड़ा पहचान स्वीकार करते हुए, गुरु-चेला परंपरा में रहते के बाद भी उन नियमों तो चुनौती देती है जो उसके सम्पूर्ण विकास में बाधा के रूप में सामने आती हैं। ऐसे कई वाकये हैं जब लक्ष्मी अपने समुदाय के हितों के लिए कदम उठाती है। ऐसी ही एक घटना है जब एचआईवी एड्स की स्थिति को लेकर मीटिंग में शामिल होने के लिए लक्ष्मी को बुलाया जाता है तो उनकी गुरु कहती है-“क्यों जाना चाहिए वहाँ…क्या जरूरत है इतना सामने आने की? हम भले, हमारा समाज भला और अपना काम भला। लेकिन मुझे (लक्ष्मी) ऐसा नहीं लगता था। बाकी समाज में हम जितना घुल-मिल जाएंगे, समाज हमें और भी उतना जानने लगेगा, ऐसा मुझे लगता था।” इस पुस्तक में गुरु-चेला परंपरा का विस्तृत वर्णन पढ़ने को मिलता है। वास्तव में परिवार से निकाले गए थर्ड जेंडर बालक के लिए गुरु-चेला संबंधों का जाल सुरक्षा, अपनेपन तथा आजीविका के दृष्टि से एकमात्र स्थान होता है। हिजड़ा समूह स्वीकार कर लेने के बाद परिवार वालों तथा पिछली ज़िंदगी से संबंध समाप्त करताहै। समूह के नियमानुसार बधाई मांगना या नाचना ही उनकी जीविका का साधन होता है, लेकिन लक्ष्मी अपने परिवार वालो के साथ संबंध रखते हुए सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करती है। इस तरह उसकी लड़ाई समाज तथा अपने ही समूह के नियमों के विरुद्ध दोनों ही स्तर पर जारी रहती है। थर्ड जेंडर सामाजिक कार्यकर्ता होने के कारण लक्ष्मी की आत्मकथा से तत्कालीन हिजड़ा समाज की स्थिति, उनके प्रति तथाकथित मुख्यधारा के समाज का नजरिया तथा हिजड़ा समुदाय की स्थिति में परिवर्तन के लिए किए जा रहे कार्यों का पता चलता है। ये कार्य व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर पर काउन्सलिन्ग, संस्थानिक स्तर पर स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस प्रशासन के लोगों के साथ बातचीत आदि शामिल है। नीति निर्माण के लिए भी संवैधानिक स्तर पर हस्तक्षेप किया जाना भी आवश्यक है।

बहुत सारे पहलू ऐसे होते हैं जिनसे प्रत्येक थर्ड जेंडर को गुजरना पड़ता है, लक्ष्मी उन पहलुओं को पाठक के सामने रखती है। “पहले पुरुषों के शरीर के अंदर की औरत के मन का दम घुटना… बाद में हिजड़ा होने पर परिवार का सहारा छुटना… करीबी कोई नहीं था… समाज द्वारा किया हुआ क्रूर व्यवहार, उसकी वजह से होने वाली तकलीफ… उत्पादन का साधन नहीं… कोई नौकरी नहीं देता था… पर जीने के लिए पैसा तो चाहिए था… फिर उसके लिए किया गया सेक्स वर्क… मन में हमेशा डर… तनाव… हमेशा उपस्थित होने वाला सवाल… ‘मैं कौन हूँ?’… उसके जवाब तो मिलते ही नहीं थे, उल्टा आनेवाले नाना तरह के अनुभवों से मन की उलझनें बढ़ती जाती थी। उससे आने वाला नैराश्य, संभ्रम… ज़िंदगी की कोई कीमत ही नहीं… ना परिवार में, ना समाज में… और फिर खुद की ही नजरों से खुद गिर जाना… साला क्या लाइफ है?” वास्तव में ये विवरण प्रत्येक थर्ड जेंडर व्यक्ति के जीवन की कहानी है, शायद ही कोई ऐसाथर्ड जेंडर हो जो इस तरह के अनुभव से न गुजरा हो।
हिजड़ा समूह तथा उनके जीवन संघर्षों के बारे में बहुत शुरुआती लेखन होने के बाद भी लगभग सभी पक्षों को इसमें शामिल करने की कोशिश की गई है। बिना किसी औपचारिक अध्यायीकरण के यह आत्मकथा पाठकों के सामने 176 पृष्ठों में है। यह आत्मकथा मराठी में लिखी गई आत्मकथा का हिन्दी अनुवाद है इसलिए वाक्य संरचना के स्तर पर मराठी वाक्य संरचना का प्रभाव दिखायी देता है। आत्मकथा की शुरुआत लक्ष्मी के बचपन से होती है और उम्र के अलग-अलग पड़ाओं को रेखांकित करते हुए आगे बढ़ती है। इसके बावजूद घटनाओं में क्रमबद्धता नहीं है, घटनाओं को सुविधानुसार लिया गया है। इससे पहले भी हिन्दी में कुछ उपन्यास हिजड़ा समुदाय तथा उनकी ज़िंदगी के बारे में लिखेगएहैं लेकिन यह आत्मकथा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि स्वयं उस समूह के व्यक्ति के द्वारा लिखा गया है। जो इस दंभ को झेल रहा है. हिन्दी के पाठकों के लिए बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो नयी होंगी, लेकिन वह इस बात को समझने की कोशिश करेंगे कि हिजड़ा व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक संरचना किस तरह की होती है।

लक्ष्मीनारायण  त्रिपाठी की आत्मकथा हिन्दी में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है . 

लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के समाजकार्य विभाग में शोधार्थी हैं . संपर्क : dksahu171@gmail.com  

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ISSN 2394-093X
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