रमाशंकर विद्रोही की कविताएं

(  जे एन यू आजकल आंदोलित है , जे एन यू आजकल उद्द्वेलित है .  आइये इस माहौल में ही जे एन यू के प्रतीक से बन गये रमाशंकर विद्रोही की कविताएं पढ़ें , प्रस्तुति युवा आलोचक रामनरेश राम की . ) 

दमन के इतिहास और इतिहास के दमन की पहचान करने वाले कवि रमाशंकर विद्रोही की कवितायेँ गुलामों के दमन और दुःख का उदात्तीकरण नहीं करती हैं. सभ्यता समीक्षा का कार्यभार बिना द्वंद्वात्मक पद्धति के मुकम्मल नहीं हो सकता. इसके लिए इतिहासबोध का होना अनिवार्य है. और यह इतिहास बोध उनकी कविताओं में हर जगह मौजूद है. विद्रोही की कवितायेँ वर्तमान में पसरे स्त्रियों और गुलामों के दमन की ही शिनाख्त नहीं करती हैं बल्कि अतीत में हुए अन्याय और अन्याय की पीठ पर खड़ी हुई सभ्यताओं की जाँच करती हैं. इसीलिए ये सभ्यता समीक्षा की कवितायेँ हो जाती हैं. अतीत में हुए अन्याय का बदला चुकाए बिना उनके बदलाव का अभियान पूरा नहीं होता, उनके सपनों की क्रांति पूरी नहीं होती. अगर उनकी कविताओं को ध्यान से पढ़ा जाय तो यह मिलता है कि प्रायः हर कविता में स्त्री को एक खास जगह हाशिल है. इसलिए विद्रोही का प्रवक्ता न्याय के कटघरे में खड़ा होकर मोहन जोदड़ो के तालाब की उस आखिरी सीढ़ी से बोल रहा है जिस पर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है.- 


मैं साइमन
न्याय के कटघरे में खड़ा हूँ
प्रकृति और मनुष्य मेरी गवाही दें!
मैं वहां से बोल रहा हूँ
जहाँ मोहन जोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी है
जिस पर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है
और तालाब में इंसानों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी है.
इसी तरह एक औरत की जली हुई लाश
आप को बेबिलोनिया में भी मिल जाएगी
और इसी तरह इंसानों की बिखरी हुई हड्डियाँ
मेसोपोटामिया में भी.
मैं सोचता हूँ और बारहा सोचता हूँ
कि आखिर क्या बात है कि
प्राचीन सभ्यताओं के मुहाने पर
एक औरत की जली हुई लाश मिलती है
और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियाँ मिलती हैं
जिनका सिलसिला
सिथिया की चट्टानों से लेकर बंगाल के मैंदानों तक
और सवाना के जंगलों से लेकर कान्हा के वनों तक चला जाता है.

विद्रोही की कविता में जो आग है जो बेचैनी है वह अपने पुरखों को भी मुक्ति दिलाने के उत्तरदायित्वबोध के कारण है. वह वर्तमान को सुन्दर बनाने के लिए अतीत को विस्मृत कर दिए जाने की पद्धति का निषेध करते हैं. अपने और अपने पुरखों के साथ हुए अन्याय की स्मृति की निरंतरता ही बदलाव के लिए अनिवार्य युद्ध की निरंतरता में बदल जाती है. वर्तमान का हाशिल उन्हें अराजक होने से बचा लेता है और और अधिक व्यवस्थित विद्रोह की तैयारी में बदल जाता है.-
एक औरत जो माँ हो सकती है
बहिन हो सकती है
बीवी हो सकती है
बेटी हो सकती है
मैं कहता हूँ
तुम हट जाओ मेरे सामने से
मेरा खून कलकला रहा है
मेरा कलेजा सुलग रहा है
मेरी देह जल रही है
मेरी माँ को, मेरी बहिन को, मेरी बीवी को
मेरी बेटी को मारा गया है
मेरी पुरखिने आसमान में आर्तनाद कर रही हैं.
मैं इस औरत की जली हुई लाश पर
सर पटक कर जान दे देता अगर
मेरे एक बेटी न होती तो…
और बेटी है
कि कहती है
कि पापा तुम बेवजह ही हम
लड़कियों के बारे में इतने भावुक होते हो!
हम लड़कियां तो लकड़ियाँ होती है
जो बड़ी होने पर चूल्हे में लगा दी जाती हैं.

उनकी एक कविता है- औरतें शीर्षक से. यह कविता सभ्ताओं में किये गए महिलाओं के खिलाफ हिंसा को चिन्हित करती है. यहाँ इस बात को देखा जा सकता है कि किस तरह उनकी वर्गीय दृष्टि महिलाओं के बहुस्तरीय दमन को रेखांकित करती है. स्थापित न्याय व्यवस्था के खिलाफ सच्ची न्याय व्यवस्था कायम कर अतीत में हुए हिंसक दमन का फैसला करने का साहस करती है. 

कुछ औरतों ने
अपनी इच्छा से
कुएं में कूदकर जान दी थीं,
ऐसा पुलिस के रिकार्डों में दर्ज है.
और कुछ औरतें
चिता में जलकर मरी थीं,
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा है.
मैं कवि हूँ
कर्ता हूँ
क्या जल्दी है मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित
दोनों को एक ही साथ
औरतों की अदालत में तलब कर दूंगा
और बीच की सारी अदालतों को
मंसूख कर दूंगा.
मैं उन दावों को भी मंसूखकर दूंगा
जिन्हें श्रीमानों ने
औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किया है.
मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा
जिन्हें लेकर फौजें और तुलबा चलते हैं.
मैं उन वसीयतों को ख़ारिज कर दूंगा,
जिन्हें दुर्बल ने भुजबल के नाम की होंगी.

मैं उन औरतों को
जो कुएं में कूदकर या चिता में जलकर मरी हैं,
फिर से जिन्दा करूँगा
और उनके बयानात को
दुबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छुट तो नहीं गया!
कि कहीं कुछ बाकी तो नहीं रह गया!
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई!
क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने एक बित्ते के आँगन में
अपनी सात बित्ते की देह को
ता-जिंदगी समोए रही और
कभी भूलकर बाहर की तरफ झाँका भी नहीं.
और जब वह बाहर निकली तो
औरत नहीं उसकी लाश निकली .
जो खुले में पसर गयी है,
माँ मेदिनी की तरह.
एक औरत की लाश धरती माता
की तरह होती है दोस्तों !
जो खुले में पसर जाती है,
थानों से लेकर अदालतों तक.
मैं देख रहा हूँ कि
जुल्म के सारे सुबूतों को मिटाया जा रहा है.
चन्दन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित,
और तमगों से लैस सीनों को फुलाए हुए सैनिक,
महाराज की जय बोल रहे हैं.
वे महाराज जो मर चुके हैं,
और महा रानियाँ सती होने की तैयारियां कर रही हैं.
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगीं,
तो नौकरानियां क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियां कर रही हैं.
मुझे महारानियों से ज्यादा चिंता
नौकरानियों की होती है,
जिनके पति जिन्दा हैं और
बेचारे रो रहे हैं.
कितना ख़राब लगता है एक औरत को
अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना,
जबकि मर्दों को
रोती हुई औरतों को मारना भी
ख़राब नहीं लगता.
औरतें रोती जाती हैं,
मरद मारते जाते हैं.
औरतें और जोर से रोती हैं,
मरद और जोर से मारते हैं.
औरतें खूब जोर से रोती हैं,
मरद इतने जोर से मारते हैं कि
वे मर जाती हैं.
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी,
जिसे सबसे पहले जलाया गया,
मैं नहीं जानता,
लेकिन जो भी रही होगी
मेरी माँ रही होगी.
लेकिन मेरी चिंता यह है कि
भविष्य में वह आखिरी औरत कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जायेगा,
मैं नहीं जानता,
लेकिन जो भी होगी
मेरी बेटी होगी,
और  मैं ये नहीं होने दूंगा.
सम्पर्क : naynishnaresh@gmail.com