पलाश दहकने का मौसम

वन्दना गुप्ता  

कवयित्री, कहानीकार. एक कहानी संग्रह और एक काव्य संग्रह प्रकाशित. एक उपन्यास ‘अंधेरे का मध्य बिंदु’ प्रकाशित. संपर्क :rosered8flower@gmail.com

उपन्यास ‘ अँधेरे का मध्यबिंदु’ का एक अंश


सुबह के धुँधलके में रवि मन में ढेरो उठापटक लिए गाड़ी में बैठ चल पड़ा अपने घर की ओर. उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर से आगे अनूपशहर नाम की जगह जिसे गाँव और शहर के बीच की स्थिति में स्थित एक विकासशील कसबे के रूप में जाना जा सकता है. जिसके नाम के साथ तो शहर लगा था मगर उसका बुनियादी ढर्रा आज भी वही था जो आज से पच्चीस साल पहले था. वही अपनी लकीर पर कायम बेशक बदलाव की बयारें वहाँ भी पहुँच रही थीं मगर असर कम ही दिखाई देता था. बुलंदशहर से अनूपशहर के बीच का रास्ता आज भी वैसा ही था, जाने वाला जब तक उछले न तो उसे लगे कैसे कि वह अपना गाँव पहुँच गया. सड़क नयी बनाने के बावजूद गड्ढे और स्पीड ब्रेकर बचपन की याद ताजा कर देते हैं, जब कच्चे-पक्के रास्ते थे और ऐसे ही उछलते हुए घर पहुँचा करते थे, कुछ भी तो नहीं बदला आज भी धचके खाते उछलते हुए चार घंटे में रवि ये सब सोचता अपने गाँव की सीमा में पहुँच गया जहाँ अन्दर घुसते ही बाजार से सामना होता था. हर तरह के सामान से लबरेज बाजार तो दूसरी तरफ आढ़त का चैक. एक चहल-पहल से भरे बाजार से जैसे ही गली में घुसो तो पतली-पतली सँकरी गलियाँ स्वागत में खड़ी मिलतीं. कुछ दूर पर एक चैक पर रवि ने अपनी गाड़ी साइड में खड़ी कर दी और पैदल घर की ओर चल दिया तो रास्ते में कोई न कोई मिलता गया.

अरे, रवि भैया आ गए, रवि भैया आ गए का शोर मचाती सुमन चाची की बेटी ने घर की ओर दौड़ लगा दी तो रास्ते में ही रवि को अपना पुराना दोस्त मिल गया.
‘‘अरे रवि, कब आये?’’
‘‘बस आ ही रहा हूँ, तू बता कैसा है शेखर.’’
‘‘मजे में हूँ.’’
‘‘क्या कर रहा है आजकल?’’ साथ-साथ चलते हुए रवि ने पूछा.
‘‘हमने क्या करना है भाई, वही पिताजी की दुकान है न वहीं बैठते हैं’’, अब एक फीकी-सी मुस्कान के साथ शेखर ने जवाब दिया.
‘‘क्यों तू तो नौकरी करने की कह रहा था तो क्या हुआ’’ आश्चर्य में पड़ा रवि बोल उठा.
‘‘अरे भैया, नौकरी आसानी से मिलती कहाँ है और फिर जो मिल रही थीं तो उनमें तो अपना खर्चा ही पूरा नहीं पड़ रहा था…शहर के खर्चों से तू वाकिफ है ही इसलिए सोचा कि जब इतना ही कमाना है तो बाप की दुकान क्या बुरी है इसलिए वापसी की टिकट कटा ली’’, मुस्कुराते हुए शेखर ने कहा.
‘‘और शादी तो हो गयी तेरी…कैसी गुजर रही है।’’
‘‘हाँ भाई, बंध गयी गले में घंटी लेकिन एक शिकायत है तू आया नहीं?’’

‘‘क्या करता उस वक्त मैं बंगलौर गया हुआ था कंपनी के काम से तो बता कैसे आता…चल शिकवा मत कर अभी चलता हूँ और घर आकर मिलता हूँ भाभी से, तब कर लेना जितनी चाहे शिकायतें…अच्छा शेखर मिलता हूँ फिर’’, कह रवि आगे चल दिया क्योंकि सोच के बिखरे बादल उसके अंतस में हलचल मचाये थे तो उसका ध्यान बातों में कम और अपनी समस्या पर ज्यादा था. दिल-दिमाग में उथल-पुथल हो तो सामने से आता हाथी भी दिखाई नहीं देता और रवि अपनी ही धुन में आगे बढ़ रहा था कि तभी आगे से आती सीमा आंटी दिखाई दी मगर रवि अपने ही ख़्यालों में गुम था तो उन्हें देख नहीं पाया, ये देख सीमा ने खुद ही कहा, ‘‘ओह हो! लल्ला जी अब बड़े हो गए तो आंटी को भी भूल गए?’’
अचकचाकर जैसे ही रवि ने देखा तो अपनी भूल का उसे अहसास हुआ और एकदम आंटी के पैर छूते हुए बोला, ‘‘अरे नहीं आंटी, आपको भी भला कोई भुला सकता है. आप तो मेरी सबसे समझदार और पसंदीदा आंटी हो. एक आप ही तो हो जिन्हें मैं सबसे ज्यादा सम्मान देता हूँ क्योंकि आपकी सोच बाकियों की तरह नहीं है फिर कैसे हो सकता है कि आपको भूल जाऊँ’’ मक्खन लगाते हुए रवि ने जवाब दिया.

‘‘कहाँ रहते हो आजकल जो हम सबकी याद ही नहीं आती तुम्हें’’ मुस्कुराते हुए सीमा ने कहा. ‘‘आंटी आप तो जानती ही हैं शहर की लाइफ कैसी होती है उस पर कंपनी को तो काम चाहिए वह भी अपनी डेडलाइन तक यदि समय पर काम करके न दो तो बाहर का रास्ता हमेशा खुला होता है. एक मशीन बन जाता है जीवन…खुद के लिए ही समय कहाँ मिल पाता है। कोई छुट्टी हो तभी आना होता है और अब जैसे ही समय मिला मिलने चला आया’’ सफाई सी देता हुआ रवि बोला. ‘‘चलो, तुम कहते हो तो मान लेती हूँ…अभी आये हो, जाओ घर जाकर आराम कर लो बाद में मिलती हूँ, कह सीमा चली गयी तो रवि आगे बढ़ा। अपने गाँव की गलियों में तो आँख मीचकर भी चला जाए तो भी अपने घर इंसान पहुँच जाता है मगर यहाँ की हवा और यहाँ की मिट्टी की खुशबू वह खुद में बसाता हुआ चल रहा था और सोच रहा था, ‘आज भी कुछ नहीं बदला यहाँ, वही कच्ची नालियाँ और उनमें बहती गंदगी है यहाँ, जाने कब सरकार सुध लेगी और यहाँ की दशा सुधरेगी. ढाँचों तक में कोई परिवर्तन नहीं आया और जो आये भी हैं तो इतने मामूली हैं, बदलाव महसूस ही नहीं होता.

क्योंकि अनूपशहर में गंगा मैया ने अपना डेरा लगाया हुआ था तो पवित्रपुरी के नाम से भी जाना जाता था और फिर रवि तो इतने दिनों बाद यहाँ आया था घर पहुँचने से पहले गंगा मैया के दर्शन करने पहुँच गया. गंगा की गोद तो किसी माँ की गोद से कम नहीं होती, वहाँ दूर तक बहती गंगा और ऊपर नीला आसमान जैसे अपने अक्स को गंगा के निर्मल जल में देख रहा हो, ठंडी बहती हवा ने उसके तन-मन को कुछ देर के लिए हर चिंता से मुक्त कर दिया और वह जूते उतार कर कुछ देर गंगा जी में खड़ा हो गया, जल के निर्मल शीतल स्पर्श से जैसे उसकी सारी शारीरिक और मानसिक थकान उतर गयी और वह वहाँ अविचल जाने कितनी देर खड़ा रहता कि अचानक से पीछे से आकर किसी ने उसकी आँखें बंद कर दीं और वह खुद का संतुलन बनाते हुए सोचने लगा आख़िर ये है कौन जो इस अधिकार से मेरी आँखें बंद कर सके तभी एक कच्ची सी, भीनी-सी गंध उसके नथुनों से जा टकराई जिससे वह अच्छी तरह वाकिफ था, जिसके लिए वह उसके पीछे-पीछे दौड़ पड़ता था, वही गंध उसे मतवाला बना देती थी और ख़्यालों में एक साँवला-सलोना अक्स उभरा, चेहरे का मुख्य आकर्षण चंचल आँखें और भरे लाल होंठ, गालों को चूमती बालों की एक लट हमेशा झूलती रहती, उस पर साँवला रंग उसके आकर्षण को ड्योढ़ा कर देता था,

याद आते ही उसका हाथ आँखों से हटा खिलखिलाते हुए रवि बोल उठा, ‘‘नहीं मानेगी न संध्या की बच्ची, तेरी शरारतें अब तक कम नहीं हुईं.’’ इठलाते हुए संध्या भी बोल पड़ी, ‘‘कैसे हो सकती हैं, शहरी बाबू तू बना है हम नहीं, हम तो आज भी वही हैं तेरी राह में दिल थाम के खड़ी हैं’’, छाती पर हाथ रख, मुख पर बेचारगी का भाव ला गहरी ऊँसाँस लेते हुए संध्या ने जवाब दिया. ‘‘हो गयी न वही तेरी बेकार की बातें शुरू’’, कहते हुए झुँझलाहट रवि के चेहरे पर उभर आई. ‘‘अरे काहे नाराज होते हो, ऐसा क्या कह दिया मैंने, जब दिल का सौदा किया तब तो निर्माेही कुछ न बोला और आज इस तरह नाराज हो रहे हो जैसे हमने कोई गुनाह कर दिया“ रुआँसी हो संध्या ने कहा. ‘‘हे, पागल हो गयी है क्या? कैसी बातें कर रही है संध्या? बता-बता कब तुझसे ऐसी कोई बात कही है, बेमतलब गले पड़ रही है. अकेला खाता कमाता लड़का देख तेरी भी राल टपक रही है मुझे तो ऐसा ही लगता है’’ रवि ने भी अब दिल्लगी करने की सोच ही ली. ‘‘अरे जा जा, तुझसे तो जाने कितने संध्या की ड्योढ़ी पर रोज पानी भरते हैं…ये तो संध्या ही किसी को भाव नहीं देती सिर्फ तेरे लिए…तुझे दिल दे दिया न…अब बता दूसरा दिल कहाँ से लाऊँ’’ दिल पर हाथ रख गहरी साँस लेती संध्या ने कहा तो रवि कौन-सा पीछे रहने वाला था बोल ही दिया।

‘‘तो जा न उन्हीं के पास यहाँ क्या करने आई है…और देख मेरा दिमाग खराब तो कर मत…वैसे ही परेशान हूँ और अब तू और परेशान कर रही है। माँ बाबा जहाँ कहें वहाँ रिश्ता कर और अपना घर बसा ले…तेरा मेरा मिलन तो सपने में भी नहीं हो सकता ये तू जानती है.’’ ‘‘हाँ रवि जानती हूँ…संध्या तो आती ही तब है, जब रवि अस्ताचल को गमन करता है…हमारे मिलन का कोई क्षितिज बना ही नहीं फिर भी तू कहे तो एक बार अपने घर में बात करूँ’’ उत्साहित हो संध्या ने कहा…”नहीं तो हम भाग जायेंगे इस दुनिया से दूर, बहुत दूर एक अपना जहान बनायेंगे. जहाँ तू होगा, मैं होऊँगी और हमारे दो प्यारे-प्यारे चाऊँ-माऊँ बच्चे होंगे, जो रोज तेरी कभी पीठ पर चढ़ेंगे तो कभी तुझे बाहर घुमाने ले जाने की जिद करेंगे…ओह रवि, कितना हसीन आलम होगा न जब मैं कहूँगी, रवि, बस बच्चों का ही ध्यान रखा करो, मुझे तो भूल ही गए हो और फिर तुम बच्चों को बहाने से बाहर भेज कर मुझे अपने अंक में भर लोगे और शरारत करने लगोगे’’ आह भरते हुए संध्या ने कहा.
‘‘ओये चुप कर संध्या वरना मार खाएगी…लगता है आज तूने कोई नशा किया है जो इतना बकबक करे जा रही है बिना सोचे समझे…ठहर जा, अभी जाकर चाचा-चाची को तेरी सारी हरकत बताता हूँ,

तभी वे तुझे घर से धक्का देंगे किसी ऐसे के घर जो रोज सुबह-शाम तेरी अच्छे से खबर लेगा, तब करना याद ये सब बातें’’ चिढ़़ते हुए रवि ने कहा. ‘‘हाँ हाँ…कर ले शिकायत मैं भी कह दूँगी ये सब तेरे दिखाए स्वप्न थे फिर देखना किसकी शामत आती है“ अँगूठा दिखाते हुए संध्या बोली.  सुन रवि आपे से बाहर हो उसे जो मारने दौड़ा तो संध्या खिलखिलाकर हँसते हुए दौड़ी और पीछे से हँसी के फव्वारे जो फूटे तो रवि ने पीछे मुड़कर देखा तो क्या देखता है पीछे तो लड़कियों का झुण्ड खड़ा है जो उन्हें देख हँस रही हैं. असमंजस में रवि कभी संध्या को तो कभी उन लड़कियों को देखने लगा. ‘‘देखा, मैं न कहती थी ये आज भी वैसा ही साधु-सन्यासी है, इसके बस की नहीं है लड़की पटाना और उसका साथ निभाना…देखा एक मिनट में कैसे इसकी घिग्घी बँध गयी“ जीभ चिढ़ाते हुए संध्या ने कहा. ‘‘ए संध्या की बच्ची…क्या था ये सब? क्यों परेशान करने पर तुली है?’’ रवि झुँझलाकर बोला. ‘‘कुछ भी नहीं, मुझमें और इनमें शर्त लगी थी कि शहर में रहकर तू बदल गया होगा और मैंने कहा नहीं ये जीव बदलने वालों में से नहीं है और फिर क्या तुझसे थोड़ा-सा मजाक करने का भी हक़ नहीं रहा क्या अब हमारा’’, इठलाते हुए संध्या ने कहा. ‘‘ओह संध्या, तुझे पता है न ऐसी बातों से मुझे कितनी कोफ़्त होती है।’’
‘‘हाँ, हाँ, संन्यासी जी…सब पता है वह तो तुझे देखकर मुझे शरारत सूझ जाती है और मुझे अपने वही पहले वाले दिन याद आ जाते हैं तो मैं खुद को रोक नहीं पाती’’

 जैसे ही संध्या ने कहा रवि को ध्यान आया कि अभी तक वह घर तो पहुँचा ही नहीं है तो एकदम संध्या से बोला, ‘‘अरे संध्या तेरी बातों में मैं तो भूल ही गया कि अभी घर तो गया ही नहीं.’’
‘‘अरे तो जाओ न मैंने कब रोका है’’ कह संध्या मुँह चिढ़ा कर चल दी और रवि ने भी घर की तरफ कदम बढ़ा दिए. संध्या उसकी बचपन की दोस्त थी जो इसी तरह उसे अक्सर परेशान किया करती थी और हर बार वह न चाहते हुए भी उसकी बातों पर यकीन कर मज़ाक का शिकार बन जाता था। यहाँ आकर वह कुछ देर के लिए अपनी सारी उलझन भूल चुका था मगर जैसे ही घर की याद आई एकदम फिर उसी दुनिया में पहुँच गया और कशमकश के सागर में गोते लगाता हुआ अपने माता-पिता के पास पहुँच गया. उसे अचानक आया देख दोनों हक्का-बक्का रह गये, आख़िर बिना सूचित किए तो कभी आता ही नहीं। वैसे भी वही कहते रहते हैं कब आयेगा इतने दिन हो गए, तब जाकर आता था तो आज बिन मौसम बरसात की तरह उसका आना संदेहास्पद बना रहा था। ‘‘अरे रवि, अचानक कैसे आ गए? सब ठीक तो है न? तबियत वगैरह सही है न?’’
‘‘हाँ माँ, सब सही है, क्या मैं अचानक नहीं आ सकता.’’

‘क्यों नहीं, तुम्हारा घर है बस ऐसा पहली बार हुआ है इसलिए पूछ लिया कि सब सही तो है न’’
‘‘हाँ माँ, सब सही है बस तुम दोनों की याद आयी तो आ गया’’ कह रवि फ्रेश  होने चला गया. माँ उसकी मन पसन्द चीजें बनाने में व्यस्त हो गयी और पिता अभी भी असमंजस का दुशाला ओढे़ अपने ख़्यालों में खोए रहे कि कहीं न कहीं कुछ तो है जो अभी दिख नहीं रहा आख़िर ज़िन्दगी का अनुभव था इसलिए इंतज़ार करने लगे जब रवि खुद कुछ कहे. दो दिन हो गए रवि को मगर कहने की हिम्मत ही नहीं हुई और अब तो माता-पिता को भी लगा शायद इस बार वह सिर्फ़ हमसे ही मिलने आया है और सच कह रहा है तो थोडे़ से निश्चिंत हो गए.
रवि के पापा दीनानाथ जी एक सरकारी नौकर थे तो जब जहाँ ट्रान्सफर हो जाता बोरिया बिस्तर उठा चल देते. ऐसे में रवि और उसकी माँ भी उनके साथ कभी शहर तो कभी गाँव की धूल फाँकते हुए चलते. एक खानाबदोश-सा जीवन जीने के बाद उनकी इच्छा थी कि रिटायरमेंट के बाद बाकी का जीवन अपने गाँव की शांति में बिताएँ इसलिए काफी सालों से वे तो यहीं रह रहे थे मगर रवि पढ़ाई के सिलसिले में दसवीं के बाद तो बाहर ही रहा. आता भी था तो छुट्टियों में और फिर नौकरी भी दिल्ली में लगी थी तो अब उसका आना और भी कम हो चुका था।
वह चाहता था पापा और माँ उसके साथ रहें मगर वे मानते ही नहीं थे.  मगर दूरी होने से बच्चे दिल से दूर थोड़े न होते हैं, ये रवि जानता था और आज जब ज़िन्दगी का इतना बड़ा फैसला उसे लेना था तो चाहता था कि उस पर उनकी सहमति की मोहर लग जाये मगर ये सब इतना आसान नहीं लग रहा था. उसे मौका ही नहीं मिल रहा था, आखिर कैसे बात चलाये इसी उधेड़बुन में वह शाम को गंगा किनारे जाकर बैठ गया.  पहले भी जब कभी वह परेशान होता तो इसी तरह गंगा के किनारे आकर बैठ जाता था, तो कुछ सुकून महसूस किया करता था मगर अभी बैठकर जैसे ही इधर-उधर देखा तो क्या देखता है गंगा के घाट पर एक तख्त पर दो लोग बैठे हैं, जिन्हें वह जानता तो नहीं था मगर क्या देखा वहाँ बैठ कर शराब पी रहे हैं और आस-पास दो बोतलें पड़ी हैं, यह देख उसका खून खौल उठा. एक तरफ पवित्र माँ गंगा और उसी के तट पर कैसा घिनौना कृत्य ये लोग कर रहे हैं, क्या मूल्य और मर्यादायें बिल्कुल ही ख़त्म हो गयी हैं?…सोचता उनकी तरफ बढ़ चला और उन्हें टोका, ‘‘भाई जी, मैं नहीं जानता आप लोग कौन हैं मगर एक ही बात कहता हूँ कि क्या घर में जगह कम पड़ गयी थी जो अपना विष यहाँ उड़ेलने चले आये?’’

‘‘ओ भैये, तू है कौन हमें ये उपदेश देने वाला?’’ लड़खड़ाती जबान में एक बोला.  ‘‘मैं कोई भी होऊँ क्या फर्क पड़ता है, तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती, एक तरफ तो गंगा का पवित्रा किनारा और दूसरी तरफ तुम्हारा ये घिनौना रूप, माँ गंगा भी कितना व्यथित होती होंगी तुम्हें देखकर, कुछ तो शर्म कर लेते और अपना ये कृत्य कहीं और कर लेते’’ धिक्कारते हुए रवि ने कहा. ‘ओये गंगा के हमदर्द! तू है कौन हमें रोकने वाला? हमारी मर्ज़ी हम जहाँ चाहे बैठ कर पीयें’’ कहते हुए वह लड़खड़ाते हुए उठा और रवि को धक्का देने लगा। रवि ने भी उसे खुद से दूर करने की गरज से जैसे ही पीछे धकेला वह नशे में होने की वजह से गिर पड़ा तो दूसरा रवि पर झपटा और फिर तीनों में खींचतान होने लगी, ये कुछ दूर पर जाते रवि के दोस्तों ने जब देखा तो छुड़ाते हुए बोले.
‘‘रवि तू दूर रह इनसे, इन्हीं लोगों के कारण आज गंगा दूषित हो रही है, हम लोग इनके मुँह नहीं लगते, इन्हें और कोई काम नहीं है बस दिन भर पीते हैं और लड़ते हैं.’’ ‘‘इसी वजह से अब यहाँ कोई स्नान करने भी नहीं आता और औरतें तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि इन जैसे कुछ  गुंडों ने यहाँ कब्ज़ा कर लिया है और उन पर गन्दी-गन्दी फब्तियाँ कसते हैं इसलिए उन्होंने भी आना छोड़ दिया,

तू चल यहाँ से’’, रवि का हाथ पकड़ कर खींचते हुए उसे उसके घर पर घरवालों को सारी बात बताकर चले गए मगर रवि का मन बहुत खराब हो चुका था इसलिए चुप होकर अपने कमरे में चला गया और पिता दीनानाथ चुपचाप उसे देखते रहे, वैसे भी उन्हें ज्यादा बोलने की आदत नहीं थी. वह चुप रहकर सामने वाले को ज्यादा सुना करते थे इसलिए संवाद होने का सवाल ही नहीं उठता था और इसी परेशानी में लेटे-लेटे रवि की आँख लग गयी. शाम को पड़ोस की सीमा आंटी आयीं. रवि के रिश्ते के लिए एक लड़की की फोटो लेकर रवि को दिखाने तो रवि को मौका मिल गया. जो बात वह दो दिनों से कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था. अब कहने की सोची जब उनके जाने के बाद माता-पिता ने उसे फोटो दिखाकर बात करनी चाही.
‘‘नहीं माँ, मैं पहले भी कह चुका हूँ मैं शादी नहीं करूँगा.’’
‘‘तो क्या करोगे? कोई साथ तो चाहिए आखिर जीने के लिए’’ हारकर पिता ने पूछ ही लिया.
‘‘पापा, सही कहा आपने कोई साथ चाहिए और वह साथ मुझे मिल गया है।’’
‘‘ओह! तो ये कहो तुमने दूसरी लड़की पसन्द की है अपने मन की तो पहले क्यों नहीं कहा, हम तो हमेशा से तैयार रहे हैं तुम्हें पता ही है’’ खुश होते हुए दीनानाथ बोले।

‘पापा पहले पूरी बात तो सुन लो’’ जैसे ही रवि ने कहा. असमंजस के बादल एक बार फिर पिता के मुख पर लहराने लगे. ‘‘पापा, यह सही है कि एक लड़की मुझे पसन्द है और उसे मैं क्योंकि हम दोनों की विचारधारा एक जैसी है. यह कोई जवानी का जोश ही नहीं है इसलिए हम दोनों एक साथ रहना चाहते हैं, बिना किसी बंधन में बँधे ताकि एक-दूसरे पर अपनी चाहतें, अपेक्षायें न थोपें और बेवजह ज़िन्दगी बोझ बन जाए, फिर हम ज़िन्दगी भर उस रिश्ते की लाश को ढोते रहें. ऐसे जीने से अच्छा है खुलकर निश्चिंत होकर जीया जाए, कम से कम अपनी-अपनी स्वतंत्राता के साथ खुश होकर तो जीयेंगे. ‘‘रवि, यह कैसी बात कर रहे हो, क्या तुम समाज से अलग हो?’’ ‘‘तो क्या समाज के लिए मैं अपनी ज़िन्दगी को आग में झोंक दूँ पापा?’’
‘‘शादी-ब्याह को तुम आग समझते हो?’’
‘‘पापा, मैं पहले भी बता चुका हूँ मुझे बंधन स्वीकार नहीं.’’
‘‘इसका मतलब तुम समाज के बनाये नियम कानून तोड़ना चाहते हो, अपनी मर्ज़ी से जीना चाहते हो तो एक बात बताना तुममें और उन शराबियों में क्या फर्क रह गया जिनसे आज तुम लड़ रहे थे? बता सकते हो किसलिए लड़ रहे थे?

तुम्हें भी लगा वह मर्यादा का हनन कर रहे हैं इसलिए न, मर्यादा कोई भी तोड़े उसका कानून सभी पर लागू होता है और तुम भी रिश्तों की मर्यादा तोड़ अपनी मर्ज़ी से एक नयी लकीर खींचना चाहते हो तो क्या फर्क है तुममें और उनमें?’’ पिता के प्रश्न ने रवि को झंझोड़ डाला. ‘‘पापा, आप भी किस बात को किससे जोड़ने लगे. अरे गंगा को हम माँ मानते हैं, वह एक पवित्र नदी है जिसकी हम पूजा करते हैं, उसमें हमारी श्रद्धा है, आस्था है, विश्वास है पापा, लेकिन शादी जैसे बंधन में नहीं है फिर आप कैसे दो बातों को एक चश्मे से देख सकते हो. फिर मैं कौन-सा अपने संस्कारों को भूला हूँ. मैं आपके सिखाये आदर्शों और संस्कारों को जीता हूँ पापा लेकिन इस तरह के बंधन स्वीकार्य नहीं क्योंकि इसमें कोई गारंटी नहीं हम निभा भी पायेंगे या नहीं और फिर न निभा सको तो उम्र भर पिसते रहो एक अनपेक्षित रिश्ते में, यह तो मानो उम्र कैद हो गयी और मैं ऐसा जीवन नहीं जी सकता आपको पहले भी बता चुका हूँ.’’ ‘‘अच्छा तुम करो तो सब जायज और दूसरा करे तो मर्यादा का हनन…ये कैसी दोहरी मानसिकता है तुम्हारी रवि? जैसे तुम कह रहे हो मेरा शादी में विश्वास नहीं वैसे ही उन शराबियों का गंगा के अस्तित्व पर विश्वास नहीं, वे भी कह सकते हैं न…है क्या एक नदी ही…लेकिन तुम आहत हुए तो उनसे भिड़ गये तो यही बात हमारी सोच पर भी तो लागू होती है…हमें भी लगता है तुम समाज की बनायी परम्पराओं को तोड़ रहे हो तो कैसे उचित हो गया’’, उत्तेजित हो दीनानाथ बोले.

‘‘पापा फर्क है,…वे नशे में थे और मैं किसी नशे में नहीं हूँ, सोचने समझने की शक्ति रखता हूँ. उनकी तरह नहीं कि नशे की हालत में जो चाहे बकवास करूँ. ये फैसला मैंने खूब सोच समझकर ही लिया है.’’
‘‘मैंने फैसला कर लिया है मैं शीना के साथ रहूँगा’’, जैसे ही अपना यह निर्णय रवि ने सुनाया दीनानाथ उसका मुख देखते रह गए. अनपेक्षित शब्दों के बाण जैसे किसी ने सीने में घोंप दिए हों यूँ लगा रवि के माता-पिता को, सुन्न हो गए. सोच को मानो लकवा मार गया हो इस तरह मूक हो बैठ गए.  आखिर ये कैसी सोच है रवि की? क्या उस पर अपने निर्णय न थोपने के उनके विचार गलत थे, उनकी सोच गलत थी कि बच्चे का खुद विकास होना चाहिए, जीवन में उसे अपने निर्णय स्वयं लेने चाहिए? क्या स्वतंत्राता का ये मतलब रह गया कि अब हमें बच्चे को एक अंधे कुएँ में उतरते भी देखना होगा क्योंकि जानते थे कि अब तीर कमान से निकल चुका है. यदि कुछ कहा तो जो रहा सहा है वह भी हाथ से निकल जाएगा. शायद रवि न माने और उनसे भी रिश्ता न रखे इसलिए अब सख्ती या प्रतिकार का उन्हें कोई औचित्य ही नज़र नहीं आया इसलिए गुमसुम हो गए. न हाँ कहते बना और न ही ना…रवि ने अपनी तरफ़ से काफी समझाने की कोशिश की मगर उनके तो सारे अरमान धराशायी हो चुके थे,

अब तो सिर्फ़ उसकी सहमति पर मोहर लगानी बाकी रह गयी है. ये वह जानते थे इसलिए अब रवि कुछ कहे क्या असर होना था…एक चुप की खाई उन तीनों के बीच खिंच चुकी थी और रवि भी समझ चुका था उनके मौन का मुखर अर्थ इसलिए अगले ही दिन वापस आ गया और सीधा शीना से मिला ताकि उसे बता सके उसका क्या निर्णय है. इस तरह रवि और शीना ने लिव-इन में ज़िन्दगी का एक नया अध्याय शुरू किया जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ वे दोनों थे और उनकी दुनिया जिसमें वे विचरना चाहते थे, जिसमें वे साँस लेना चाहते थे, जिसमें वे उड़ान भरना चाहते थे और दोनों पंछी उड़ने लगे अपने आकाश में अलग अस्तित्व के साथ मगर साथ-साथ. एक दिन रवि ने कहा, ‘‘शीना मुझे लगता है हमें एक फ्लैट लेना चाहिए जहाँ हम खुलकर अपनी ज़िन्दगी जी सकें, ये वन बेडरूम सैट अब सही नहीं है। कम से कम अब जब हम दोनों रहते हैं तुम्हारे और मेरे दोनों के दोस्त आते रहेंगे तो जरूरी है थोड़ी-सी स्पेस भी.’’ ‘‘हाँ, रवि, कह तो सही रहे हो तो ऐसा करो तुम भी अपने जानकारों से कह दो और मैं भी कह देती हूँ फिर जहाँ अच्छा लगेगा ले लेंगे.’’ ‘‘ठीक है, बात करता हूँ.’’
कुछ दिन बाद दोनों रोहिणी में एक सोसाइटी में फ्लैट देखने जाते हैं जो उन्हें पसन्द आ जाता है और वे उसे किराये पर ले लेते हैं. ‘‘रवि देखो, किराये का पैसा हो या बिजली पानी, राशन आदि दोनों आधा-आधा देंगे.’’
‘‘ठीक है शीना मुझे ऐतराज नहीं.’’

दो दिन बाद ही दोनों फ्लैट में शिफ़्ट कर जाते हैं और फ्लैट को शीना अपनी और रवि की रुचि का ध्यान रखते हुए सजाती है. इसके साथ-साथ अपनी शॉप पर भी ध्यान देती है साथ ही उसने अब आस-पास की महिलाओं से भी संबंध बनाने शुरू कर दिए. किसी को मौसी तो किसी को चाची बना लिया। उनके बच्चों के दिल में भी अपने व्यवहार से दोनों ने एक खास जगह बना ली, फिर बच्चे छोटे हों या हम उम्र जब तक उन दोनों से आकर अपने सारे दिन का हाल न कह लेते चैन न मिलता। नीचे के फ्लोर में रहने वाली कुसुम आंटी का बेटा अंशुल और बेटी प्रियंका तो मानो शीना और रवि के व्यवहार से इतने प्रभावित हुए कि जब तक एक बार उनसे मिल न लें उन्हें चैन न पड़ता. अंशुल इंजीनियरिंग कर रहा था और प्रियंका सी.ए. की तैयारी तो हमउम्र होने के नाते उनका उठना-बैठना शुरू हो गया था. अपनी दैनिक दिनचर्या उनसे शेयर करना उन्हें अच्छा लगता था और कुसुम आंटी और अंकल भी हमेशा खुलकर मिलते हाल-चाल पूछते. बराबर में रहने वाली सुधा आंटी और अंकल ज्यादा तो नहीं बोलते थे बस नमस्ते आदि का जवाब दे दिया करते थे. उनकी एक ही बेटी थी सुरभि जो जब भी अंशुल, प्रियंका, शीना और रवि के कहकहे सुनती तो खुद भी उनकी महफ़िल में शामिल होने चली आती. इस तरह घर आने के बाद शाम को लगभग एक डेढ़ घंटे ये महफ़िल सजती और उसके बाद सब अपने-अपने घर चले जाते. इस तरह शीना और रवि ने वहाँ हर किसी से बेहद आत्मीय सम्बन्ध बना लिए थे।

दिन पखेरु अपनी रफ़्तार से उड़ने लगे और दो दिल धीरे-धीरे एक दूजे की तरफ़ बढ़ने लगे. रवि की कुछ अदायें, कुछ बातें शीना को अपनी सी लगतीं तो शीना की शालीनता और रिश्ते की मर्यादा रवि को अपने निर्णय लेने पर गौरवान्वित करती. बेशक दोनों साथ रह रहे थे मगर एक मर्यादा अब तक दोनों के बीच कायम थी जो उनके रिश्ते को मजबूत आधार प्रदान कर रही थी.  उस दिन सुबह शीना जल्दी में थी और रवि को थोड़ा देर से जाना था क्योंकि एक क्लाइंट से मिलना था इसलिए वह अभी सो रहा था। शीना जल्दी-जल्दी अपने लिए नाश्ता बनाने में लगी थी कि सेब काटते-काटते अचानक जल्दबाजी में उसकी उँगली कट गयी और एक जोर की चीख उसके मुँह से निकली रवि सोता हुआ उठ बैठा और शीना की उँगली से खून बहता देख लपककर उसके पास पहुँचा और उसकी उँगली मुँह में ले ली ताकि खून रुक सके मगर खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था, फिर पानी की धार में हाथ को रख फ़स्र्ट एड का बाॅक्स निकाल कर लाया और पट्टी करने लगा.

‘‘शीना, तुम ध्यान से काम नहीं कर सकती? देखो कितना ज्यादा कट लगा है, चलो अभी तो टैम्परेरी काम मैंने कर दिया है डाॅक्टर से सही ढंग से पट्टी करवा लो और टिटनैस का इंजैक्शन लगवा लो कहीं कोई और मुसीबत न आ जाए’’ ‘‘अरे रवि, ये तो रोज का काम है, क्यों परेशान होते हो, तुमने बैंडेज कर दी न अब देखो ठीक हो जाएगा.’’ ‘‘नहीं, किसी भी चोट को हल्के नहीं लेना चाहिए और फिर सारा दिन काम कैसे करोगी’’
‘‘अरे, मैंने कौन-सा काम करना है काम के लिए हैं न कर्मचारी।’’
फिर भी चिंतित होते हुए रवि ने कहा, ‘‘एक बार मेरे कहे पर दिखा लो.’’
‘‘अच्छा बाबा! दिखा लूँगी.’’
कुछ निश्चिंत होते हुए रवि शीना के लिए नाश्ते और लंच की तैयारी करने लगा क्योंकि उसे पता था कि शीना यदि लंच लेकर नहीं जायेगी तो शाम तक कुछ नहीं खायेगी, न मँगवायेगी क्योंकि उसकी आदत है सिर्फ़ अपने अकेली के लिए कुछ नहीं करती इसलिए शीना को हिदायत दे खुद उसके लिए लंच और नाश्ता बनाने लगा। यह देख शीना के दिल में रवि के लिए जगह और बढ़ गयी.

रवि और शीना अपनी आज़ाद ज़िन्दगी को अपनी मर्जी से जी रहे थे. पूरे हफ़्ते काम करना और वीकेंड पर कभी मूवी तो कभी शाॅपिंग तो कभी लॉन्ग ड्राइव पर निकल जाना. कभी घर में बनाना तो कभी बाहर से खाना मँगवा लेना. पूरी मस्ती पूरी आज़ादी, कोई रोक-टोक नहीं और यही तो उनका मकसद था पर फिर भी कुछ कमी थी जिसे दोनों शिद्दत से महसूसते थे बेशक साथ रहते थे मगर अपने अंदर की उस कमी को नज़र अंदाज़ करते शायद अभी परखने जानने और समझने को दोनों को वक्त की जरूरत थी. वक्त अपनी रफ़्तार से कुलाँचे भरता रहा. कभी उड़ान भरता तो कभी किसी मुंडेर पर ठहर जाता ये देखने पंछी कब दाना चुगेंगे और एक नए जीवन की शुरुआत करेंगे. एक दिन रवि बेहद उदास घर आया, उसे देख शीना घबरा गयी आखिर रवि को कभी ऐसे उदास नहीं देखा था वह तो जैसे ही घर में घुसता बच्चा बन जाता था, मस्ती के मूड में रहता तो आज क्या हुआ सोच पहले उसे चाय और कुछ खाने के लिए लेकर आई और फिर पूछा. ‘‘रवि क्या बात है, आज इतने उदास किसलिए?’’ ‘‘शीना तुम तो जानती हो मेरे माता-पिता ने कभी मुझ पर कोई बंदिश नहीं लगायी. मुझे ज़िन्दगी मेरी मर्जी से जीने दी और मैं हमेशा अपने फैसले खुद करने लगा.

तुम्हारे साथ रहने का फैसला भी मेरा खुद का था जिसमें मेरे माता-पिता की सहमति नहीं थी तो अस्वीकार्यता भी नहीं थी क्योंकि वे अपने फैसले दूसरों पर थोपने के पक्षधर नहीं रहे.  इसलिए चुप हो गए थे मगर आज पता चला कि पापा को फ्रैक्चर हो गया है और अकेली मम्मी बहुत परेशान हैं. घर बाहर ऊपर से पापा की देखभाल सब उन्हें अकेले करना पड़ रहा है, जिस वजह से उनकी हालत भी ख़राब होती जा रही है तो मैंने कहा मेरे पास आ जाओ तो मना कर दिया. ‘कुछ समझ नहीं आ रहा क्या करूँ?’’
‘‘ओह, इतनी सी बात है।’’
‘‘तुम्हें इतनी सी बात लग रही है?’’ आश्चर्य से शीना की ओर देखते हुए रवि बोला।
‘‘हाँ, देखो रवि वे नहीं आ सकते तो क्या हम तो उनके पास जा सकते हैं.’’
‘‘हम…मतलब?’’
‘‘यानी तुम और मैं दोनों.’’
‘‘मगर वे शायद तुम्हारा आना बर्दाश्त न कर पायें’’
‘‘तो कोई नहीं ऐसा करो कुछ दिन की छुट्टी ले लो और उनकी सेवा कर आओ. उनकी तो सही ढंग से देखभाल होगी ही और तुम्हारी आत्मग्लानि भी कम होगी’’ बिना उनकी सोच पर कोई टीका-टिप्पणी किये शीना ने जैसे ही कहा झूम उठा रवि उसकी बात सुन और फ़ौरन कम्पनी में छुट्टी की अर्जी लगा निकल गया.

रवि चला गया तो शीना को घर का अकेलापन काटने को दौड़ता…शाम को घर आती तो रवि की उपस्थिति से सारा घर महक उठता था, उसकी ज़िंदादिली अल्हड़ स्वभाव ज़िन्दगी को खुल कर जीने का जज़्बा और उसकी बातें शीना को बेचैन किए रहती और वह उसके ख्यालों में डूब जाती. शीना, तुम पर नीला रंग बहुत सुन्दर लगता है मन करता है कहकर आँख दबाते हुए चूमने का इशारा भर कर देता मगर कभी अपनी सीमा न लाँघता और उस पल यूँ लगता रवि तुम सिर्फ कह क्यों रहे हो, आगे बढ़ो न, तोड़ दो ये बीच की दीवार लेकिन सिर्फ अंतर्मन से उठती कसक सिर्फ कसक बन कर ही रह जाती, दोनों में से कोई भी पहल न करता…जब भी रवि ऐसा कोई इशारा करता शीना के दिल की धड़कनें इतनी तेज़ हो जाती कि उसे लगता दिल अभी उछलकर बाहर आ जायेगा. उस दिन जब वह अपने बाल सुखा रही थी, तभी रवि पीछे से आया और उसके हाथ पकड़ कर रोक दिया, ‘‘शीना गिरने दो इन बूँदों को इसी तरह तुम्हारे चेहरे पर, जानती हो जब ये एक-एक बूँद तुम्हारे चेहरे का स्पर्श करती है जाने कितने सितार बज उठते हैं मेरे मन में मानो ये गिरती हुई बूँद मैं ही हूँ जो पल-पल तुम्हारा स्पर्श कर रहा है।’’
‘‘धत् रवि…क्या बात है आज शायर बन रहे हो’’ ‘‘नहीं शीना सच कह रहा हूँ…तुम उस पल और भी सुन्दर हो जाती हो…जी करता है.’’ निगाह नीचे झुकाये धड़कते दिल से शीना बोल उठी, ‘‘रवि, क्या जी करता है.’’
‘‘कुछ नहीं शीना…तुम नहीं समझोगी’’ कहकर रवि उसके माथे को चूमकर चला गया और एक बार फिर गुलाबी मौसम उसकी देहरी पर दस्तक देने से पहले ही वापस मुड़ गया और प्यास का दामन प्यासा ही रह गया. मगर शीना जो जानती थी रवि के दिल की बात, समझती है उसके जज़्बात, सब बिना कहे ही समझ जाती थी मगर फिर वही एक अजनबियत बीच में पसरी रहती, रवि के ख्याल शीना के आस-पास मँडराते रहते और एक-एक पल उसके बिना युगों समान लग रहा था. कब रवि आये और वह उसे बाँहों में कस ले और कहे शीना तुम्हारे बिना अधूरा हूँ मैं…उफ़! ख्यालों की जुम्बिश भी कैसी होती है सोच शीना मुस्कुरा दी.  दूरी में कितनी निकटता समायी होती है ये शीना ने अब जाना, हर पल सिर्फ रवि का ख्याल, उसकी बातें और उन बातों से खुद बतियाती शीना. एक अजीब सम्मोहन में बंधती जा रही थी और रवि की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगी.

उधर रवि शीना की दूरदर्शिता से बहुत खुश हुआ कि वह नाहक परेशान हो रहा था और शीना ने चुटकी में उसकी एक समस्या सुलझा दी. अपने माता-पिता की अच्छे से देखभाल करके जब रवि वापस आ रहा था तो सिर्फ शीना के ख्यालों में ही गुम था. कैसे शीना हर काम को कितनी सहजता से कर लेती है, कभी कोई शिकन नहीं आती न केवल अपने बल्कि उसके भी, उसकी कार्यकुशलता और शीघ निर्णय लेने की क्षमता का तो कायल था ही रवि मगर उसके सौंदर्य से भी प्रभावित था क्योंकि शीना की सादगी ही उसका सौंदर्य थी जो उसे हमेशा अपनी ओर आकर्षित करती. जी करता उसे बाँहों में भर लूँ और कभी न छोड़ूँ, शीना का हया की बदली में खुद को छुपा लेना, शर्म से लाल होते उसके गाल और झुकी निगाहें एक मदहोशी को जन्म देतीं और मन करता बस ये निगाहें यूँ ही झुकी रहे और वह उन्हें बस देखता रहे…काश वह शायर होता तो लिख देता एक ग़ज़ल सोच मन ही मन मुस्कुरा दिया रवि क्योंकि ख्यालों की लड़ियाँ यहाँ भी उसी शिद्दत से दस्तक दे रही थीं जिस शिद्दत से शीना को। इस दूरी ने दोनों के सुप्त तारों को न केवल जगा दिया था बल्कि अब तो बेचैनी में दोनों इतने उत्कंठित थे जैसे ही रवि ने बेल दबायी और शीना ने दरवाज़ा खोला तो दोनों ने हर मर्यादा को आज तोड़ दिया और एकदम एक-दूसरे के गले लग गए मानो जन्मों के बिछड़े प्रेमी आज अचानक मिले हों,


यूँ दोनों एक दूसरे में समाहित होने को आतुर हो उठे.  ‘‘रवि, कहाँ चले गए थे“ बेचैन हो अधीरता से शीना ने फुसफुसाते हुए कहा. ‘‘शीना, तुम्हारे बिना मैं कितना अकेला हूँ अब जाना“ उसी शिद्दत से रवि ने जवाब दिया और चुम्बनों की बौछार एक-दूसरे पर करते रहे इस तरह एक-दूसरे के गले लगे कि एक-दूसरे में समा जाएँ और फिर कभी न बिछड़े, यूँ एक-दूसरे को पकड़ा मानो छोड़ा तो कहीं हमेशा के लिए न अलग होना पड़े. दूरियाँ ही नजदीकियों का अहसास कराती हैं. ‘‘ओह शीना! तुम्हारे बिना हर पल खुद को अधूरा महसूस किया, जाने क्या जादू कर दिया है तुमने’’ बाहों के घेरे को और कसते हुए रवि शीना की आँखों में आँखें डाले बोला.
‘‘रवि, मुझे ऐसा लगा मानो मेरा कोई अंग ही मुझसे जुदा हो गया है, मैं खुद को अपंग महसूस करती रही इतने दिन। कहीं मन नहीं लगता था, शाम घर आने का दिल ही नहीं करता था तो माँ-पापा के पास चली जाती मगर वहाँ भी अन्दर एक अकेलापन कचोटता रहता और फिर मैं वहाँ से भी जल्दी आ जाती. पता नहीं रवि मुझे क्या हो गया था तुम्हारे बिना एक-एक पल जैसे जन्मों का इंतज़ार बन गया था.’’ रवि के गालों पर हाथ फेरती हुई शीना ने जवाब दिया और यूँ जकड़ लिया मानो अब के बिछड़े तो जाने कब और कहाँ मिलें. आज वर्जनायें टूटनी शुरू हो गयी थीं.  दोनों अपनी-अपनी कहते रहे. थोड़ा संयत हुए तो अंदर आकर बैठे. शीना ने सबसे पहले रवि के पिता का हाल जाना जिसे सुन रवि को अच्छा लगा कि शीना की यही वह अदा है जिसने उसे उसके साथ रहने को प्रेरित किया. वह अपने सिवा अपने आस-पास वालों का भी उसी शिद्दत से ध्यान रखती है जैसे अपना.