सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और संवैधानिक राष्ट्रवाद में छिड़ा है संघर्ष : चौथी राम यादव

 पिछले  30-31 मार्च, 2016 को मोती लाल नेहरु कालेज, दिल्ली के नेशनल सेमिनार समिति द्वारा आयोजित ‘मानवाधिकार के सवाल और भारतीय समाज’ विषय  पर दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया। सेमिनार के तमाम वक्ताओं ने गंभीरता से यह दर्ज कराया कि देश के वर्तमान सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल के चलते न केवल सेमिनार का थीम महत्वपूर्ण है,  बल्कि सेमिनार का विमर्श  कालेज के छात्रों, अध्यापकों व अन्य कालेजों के प्रतिभागी अध्यापकों को भी देश की तात्कालीक परिस्थितियों को जानने-समझने, विश्लेषण  करने की मानवतावादी दृष्टि विकसित करने  में भरपूर मद्द कर रहा है ।

उद्घाटन सत्र में बीज भाषण के रुप में एनबीटी के अध्यक्ष श्री बलदेव शर्मा ने कहा कि ‘ भारतवर्ष में मानवाधिकार के सवालों को लेकर विमर्श  ऋषियों-मुनियों के समय होता आया है। आज के दौर में मानवाधिकार की व्याख्याएं लोग अपने-अपने तरीके से कर रहे है। इन्होनें कहा कि राम ने लोक की अराधना के रुप में मानवाधिकार की बहुत बड़ी परिभाषा हमारें सामने रखी थी और गांधी जी ने भारतवर्ष के लिए रामराज्य की संकल्पना दी थी। भरतवर्ष में मनुष्य को सबसे प्रमुख स्थान जाति से उपर उठकर दिया गया है। हमारे समाज में अग्रेंजी गुलामी के समय बहुत सी विकृतियां पैदा हुई थी,  जिनको हम आज तक दूर नहीं कर पाएं।’  सत्र की अध्यक्षता कर रहे  वरिष्ठ आलोचक प्रो चौथी राम यादव  ने बालदेव शर्मा से असहमति जताते हुए   कहा कि ‘ आज हम कौन से मानवाधिकारों की बात कर रहे हैं,  आज तो संविधान व कानूनों की सरेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। आज  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद व संवैधानिक राष्ट्रवाद में भंयकर प्रतियोगिता  छिड़ी नजर आ रही है और निरन्तर संवैधानिक राष्ट्रवाद की धज्जियां उड़ाई जा रही है। सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का खेमा मानवाधिकार हनन के मिसाल कायम कर रहा है .  इन्होनें कहा कि यदि आज हम मानवाधिकार की बात करें तो बिना डा. भीमराव अंबेडकर को याद किए बिना इस पर बात करनी बेमानी ही होगी। डा.  बाबा साहेब अंबेडकर ने न केवल महिलाओं, वंचितों, दलितों, श्रमिकों के अधिकारों की बात की बल्कि समस्त मानव समाज के कल्याण के लिए संविधान में अनेको प्रावधान रखे हैं । आज तमाम कवायदें लोकतंत्र को खत्म करने की हो रही हैं ।  आज हमारे प्रमुख अमेरिका में गांधी के सम्मान में बोलते हैं और देश  में आकर गोडसे के सम्मान में उसको देश भक्त कहते हुए कार्यक्रम करते हैं । वैसे हमारे यहां हर समय काल में परस्पर विरोधी चिंतन परम्पराए रही हैं ,  जैसे बुद्ध के समय में, भक्ति काल में व महात्मा फूले व डा अंबेडकर के समय में। ‘

उन्होंने कहा कि ‘ रामराज्य का जातिवाद पर सवार होकर चलना कतई भी सराहनीय व सहनीय नहीं हो सकता है। आज तमाम हाशिये  के लोगों के अधिकारों का हनन हो रहा है। हमें दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर ज्यादा बात करनी होगी। आज पुरुषवादी मानसिकता को बदलने की जरुरत है , स्त्री विमर्श  से पूर्व पुरुष विमर्श  अत्यंत आवश्यक है। संम्पूर्ण सेमिनार का संचालन करते हुए कालेज की असिस्टेंट  प्रो.  डा. कौशल पंवार ने कहा  कि ‘ भारतीय समाज बहु-स्तरों पर असमानता और गैर बराबरी पर आधारित है। जहां जाति, धर्म, समुदाय, लिंग, वर्ग, शारिरिक गैरबराबरी, रंग, भाषा, बोली, क्षेत्र, इंसानी अस्मिता में असमानता भरपूर व्याप्त है। वर्तमान समय में जब पूरा देश  और सरकारे भी डा अम्बेडकर की 125वीं जयंती मना रहे हैं,  ऐसे समय में इस विषय पर सेमिनार का आयोजन होना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। आज चहुओर मानवाधिकार का मामला चरमरा गया है। कोई भी किसी को भी देश द्रोही कह देता है और जाति व धर्म के नाम पर किसी की भी हत्या कर देना जायज भी ठहराया जा रहा है। दलित का संघर्ष आज अपनी अस्मिता को बचाने और एक इंसान के तौर पर अपनी पहचान को बचाये  रखने की जद्दोजहद का संघर्ष बन रहा है। यह अचानक से घटित नहीं हो रहा है कि एक धर्म के उन्मादी लोग दूसरे धर्म के के लोगों को व इनकी बस्तियों को तथा एक जाति के लोग दूसरी दलित जाति की बस्तियों व लोगों को बर्बर तरिके से जिंदा जलाने एवं सामूहिक कत्लेआम तक पर उतारु हो रहे है। यह सुनियोजित फलसफा आखिर कब तक? ‘

कार्यक्रम में प्रसिद्ध साहित्यकार रमणिका जी ने  से कहा कि ‘ हमें आज रामराज्य नहीं चाहिए हमें इंसानों का राज्य चाहिए। आज देश  में तमाम मुद्दे है जिन पर सकारात्मक बहस की जानी चाहिए फिर वो चाहे आदिवासियों का मामला या फिर दलितों व महिलाओं के शोषण के पहलू हों। हमें पड़ताल करनी होगी कि क्यों आखिर एक इंसान नक्सली व माओवादी बन रहा है? कही इसकी जड़ में भी तो इन लोगों के मानवाधिकारों से वंचना का मामला तो नहीं है? यहां बाल विवाह है, दहेज हत्याएं है, भ्रूण हत्याएं की जा रही है पर स्टेट कहीं और ही व्यस्त रहता दिखता है। यहां कानून तो सब है पर लागू कुछ भी नहीं है!

कार्यक्रम में श्री पवन सिन्हा , डा हेमलता महेश्वर,   जामिया विश्वविद्यालय, सुजाता पारमिता,  महाराष्ट्र से सुधा अरोड़ा मुम्बई से,प्रो. श्यो राज सिंह बेचैन,  डा. अंजू गोरवा डीयू, प्रसिद्ध बाल साहित्यकार प्रो रमेश  शर्मा, पत्रकार भाषा सिंह, स्त्रीकाल पत्रिका के संपादक व पत्रकार संजीव चंदन, , प्रो पंकज मिश्रा,  आदि लोगों ने भी  मानवाधिकार के सवाल पर स्त्री, साहित्य, मीडिया, दलित वंचित व अल्पसंख्यकों की नजर से अपने-अपने विचार सांझा किए।  प्रो हेमलता माहिश्वर ने कहा कि हमारी संस्कृति व परम्परा में हंसना रोना को भी बांट रखा है। लड़की के लिए रोना उसका अधिकार व कर्तव्य है,  लेकिन जब वह हंसती है तो कहते है कि क्यों लड़कों की तरह हंस रही है? इन्होनें कहा कि दलित स्त्री व सवर्ण स्त्री के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन होना चाहिए।

यहां स्वतंत्रता की परिभाषा व आरक्षण पर डा. अम्बेडकर की सोच को भी विश्लेषित  किया गया। पत्रकार भाषा ने कहा कि भारतीय राजनीति में यह विषय एक जबरदस्त चिंगारी है। इन्होनें डा. अम्बेडकर को कोट करते हुए कहा कि हमारी लड़ाई सम्पत्ति व सत्ता के लिए नहीं बल्कि गरीमा की लड़ाई है। इन्होनें देश भर में मैला प्रथा के खिलाफ चल रही ‘भीम यात्रा’ को रेखांकित करते हुए कहा कि हमारा संविधान सही मायनों में मानवाधिकारों की गारंटी है। परन्तु भारत में जातिप्रथा व पितृसत्ता मानवाधिकारों के रास्ते मे सबसे बड़ी बाधा है। रजनीतिलक ने दिल्ली के सफाई मजदूरों, एमसीडी कर्मचारियों की जीवन दशाओं  इनके परिवारों व बच्चों के र्मािर्मक पहलूओं को सांझा किया कि हमारी स्टेट कहां है कौन और कब इनकी सुध लेगा? सुजाता पारमिता  ने डा. अम्बेडकर के जीवन संघर्षो, श्रमिकों, महिलाओं ,मजदूरों के कल्याण के लिए बनाए श्रम कानूनों पर प्रकाश  डाला कि वह  आज किस रुप में प्रासंगिक है। बैजवाड़ा विल्सन ने देश  भर में दलित, मजदूर आबादियों के बीच काम करते हुए अपने अनुभवों को सांझा किया। इन्होनें 21वीं सदी में मानव मल  उठाने वाले लोगों, हर रोज सीवर में मरते मनुष्यों के मानवाधिकारों की बात कही कि देश  के तमाम विमर्श ो से ऐसे इंसानों का जीवन गायब ही रहता है। इन आबादियों पर बात किए बिना हम कौन से राष्ट्र का निर्माण करना चाहते है?

 सुधा अरोड़ा ने भी महिलाओं के शोषण  के विभिद आयामों को सामने रखा  और हाशिये  के तमाम समाजों को संगठित होने का मुद्दा उठाया। दिल्ली विश ्वविद्यालय के प्रोफेसर श ्योराज बेचैन ने साहित्य की नजर से मानवाधिकार  के विभिन्न मसलों पर अपने अनुभवों को जोड़ते हुए विमर्श  को और ज्यादा प्रबुद्ध किया। स्त्रीकाल पत्रिका के संपादक संजीव चंदन ने कहा कि’  डा. आम्बेडकर स्टेट की भूमिका को वंचितों दृदलितों और स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा के लिए  महत्वपूर्ण मानते थे और इसके लिए उन्होंने संविधान में व्यवस्थाएं की.  साथ ही मानवाधिकार हासिल करने के लिए वंचितों को ‘अनुकूलन मुक्त’ करने का प्रयास भी करते रहे.

हमारे लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहे जाने मीडिया को भी बीच में रखते हुए सेमिनार में मीडिया और मानवाधिकार विषय पर भी चोथे स्तंभ से कुछ हस्तियों को बुलाया गया था जिनमें सतीश  सिंह ( लाइव इंडिया), अंजना ओम कश्यप (आजतक)  अरफा खानम  (राज्यसभा टी वी )  व विकास पाठक (हिन्दू )  शामिल हुए । यह सत्र विशेष रूप से रोचक रहा। असलियत में मीडिया हाउस में लोकतंत्र है कि नहीं यह सवाल संदेह के घेरे में हो सकता है परन्तु महाविद्यालय में सेमिनार के इस  समंच पर चार लोगों के बीच सत्र  में लोकतंत्र दिखाई दे रहा था! कोई आरक्षण के पक्ष में था तो कोई विरोध में तो कोई बीच बचाव सा भी करता दीख रहा था। एक तरफ अरफा खानम रही थी कि’  आज टीवी मीडिया में दलितों, आदिवासियों, की भागीदारी 1 फीसद से भी कम है। न्यूज रुम में लगता है इन लोगों की इन्ट्री बैन की हुई है! और वर्तमान वातावरण के चलते लगता नही कि अगले 10 सालों में भी इन स्थितियों में कोई सुधार हो सकेगा? ‘ वहीं दूसरी तरफ अंजना व सतीश लगभग इनके विरोधी विचार दे रहे थे। अंजना ओम कश्यप ने  मीडिया में गुणवत्ता की दुहाई दी, कैलिबर की बात की पर दूसरे ही पल अरफा ने कहा कि दलितों, महिलाओं, आदिवासियों में कैलिबर, क्षमता की कहां कमी है,  एक बार हम इनको अंदर तो घूसने दे फिर देखे गुणवत्ता! टीवी पत्रकारिता में गलेमर, सुंदरता जैसे पैमाने डोमिनेट करते है यह बात भी दर्ज हुई। संवैधानिक अधिकार और मानवाधिकार विषय पर प्रो विवेक कुमार, सिद्धार्थ मिश्रा, अरविंद जैन और अनिल चामड़िया ने विमर्श  को ज्यादा खोलने का काम किया। अरविंद जैन ने कहा कि ‘ कानूनों में बदलाव जिस अलगाव के साथ किया जाता है , वह उनके ही खिलाफ हो जाता है ,, जिनके लिए क़ानून बदले जा रहे हैं . निर्भया काण्ड के बाद ‘ बलात्कार ‘ की परिभाषा के विस्तार के बाद यही हुआ .’ इन्होनें नैचूरल राईटस की बात कही,  जिनके बिना आदमी जी नही सकता है। दलितों की वर्तमान दशा  व दिशा  पर विवेक जी ने गहराई से पड़ताल की। डा. अम्बेडकर के समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व शब्दों के अर्थो व भावों को विस्तार दिया गया। उन्होंने कहा ‘ हम कानूनी रुप में समता के लिए व स्वतंत्रता के लिए प्रावधान व कानून बना सकते है परन्तु बंधुत्व के लिए कोई कानून नहीं बनाया जा सकता है? आज समता के नाम पर, स्वतंत्रता के नाम, अधिकारों व कानूनों के लिए तो आंदोलन हो रहे है परन्तु बंधुत्व के लिए कोई आंदोलन नही कर रहा है? बाबा साहेब ने भी इसी पर जोर दिया था और कहा था कि सच मे राष्ट्र का निर्माण तभी होगा! बबा साहब ने उस समय संवैधानिक नैतिकता का भी सवाल उठाया था,  परन्तु आज आजादी के 68 साल गुजरने के बाद भी नैतिकता का आलम ये है कि एक आदमी 9000 करोड़ रुपए लेकर दूसरे देश  में भाग जाता है और हम बस तमाश बीन बनकर रह जाते है! हम संवैधानिक नैतिकता की, भाईचारे की बात कहां कर रहे है? आज हमें राष्ट्र निर्माण के लिए भाईचारे के आंदोलन करने होगें।’

उन्होंने कहा कि ‘ सार रुप में यह कहा जा सकता है कि आज मानवाधिकार  के रास्तें में जातिप्रथा, पितृसत्ता, सांमती सोच सबसे बड़ी बाधा है जिनके खिलाफ हमें खड़ा होना होगा। लाजिमी है कि हम साम्प्रदायिकता, उदारीकरण व वैश ्वीकरण जैसे मामलातों से भी अवश्य ही रुबरु होगें। हम सब जानते है कि डा अम्बेडकर समानता, स्वतंत्रता व बंधुत्व की बात करते थे, हर तरह की बराबरी की बात करते थे। आज तमाम न्यायवादी, समतावादी, मानवतावादी लोगों को शोषण , भेदभाव, अत्याचारों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ना होगा तभी सही मायने में इंसान के अधिकारों को हासिल किया जा सकेगा। पर इसके लिए हमें ’मै, मेरा पार्टनर, घर, गाड़ी और मेरा सुंदर कुत्ता’ की फिलोसोफी से बाहर आना होगा!’

इस अवसर पर कौशल पंवार द्वारा संपादित किताब ‘ मानवाधिकार के सवाल और भारतीय समाज का लोकार्पण भी किया गया . 

प्रस्तुति : डा. कौशल  पंवार,   असिस्टेंट प्रोफ़ेसर  , संस्कृत विभाग , मोतीलाल नेहरू कॉलेज , दिल्ली, संपर्क : panwar.kaushal@gmail.com