संसद और राज्य विधानसभाओं में महिला आरक्षण पर ज्ञापन

महिला संगठनों ने भाजपा सरकार को उसके महिला आरक्षण के वायदे की याद दिलाते हुए सक्षम प्राधिकारों को ज्ञापन दिये हैं. ये संगठन संसद के आगामी सत्र में भी सरकार के विभिन्न एजेंसियों, निर्णय को प्रभावित करने वाले राजनेताओं को ज्ञापन देंगी.

ज्ञापन 

हम अधोहस्ताक्षरी संस्थान और सचेत नागरिक जो वर्षों से देश में महिलाओं के समान अधिकारों के लिए काम कर रहे हैं, इस बात के प्रति अपनी चिंता जाहिर करना चाहते हैं कि महिला आरक्षण विधेयक मौजूदा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के एजेंडे से पूरी तरह गायब नजर आ रहा है। यह तब हो रहा है जबकि उसने अपने चुनावी वादे में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत नहीं बल्कि 50 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही थी।

महिला आरक्षण की मांग देखें स्त्रीकाल यू ट्यूब चैनल : 

आपको यह पता ही होगा कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय  स्तर की एजेंसियों द्वारा महिलाओं की स्थिति की समीक्षाओं में निरंतर यह जोर दिया गया है कि महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में इजाफा करना समान विकास की सुविधा मुहैया कराने की दृष्टि से कितना मायने रखता है।संविधान के 73वें और 74वें संशोधन ने सन 1993 से यह सुनिश्चित किया कि पंचायतों और स्थानीय निकायों में गांवों, छोटे कस्बों और शहरों की लाखों महिलाएं राजनीतिक परिदृश्य में शामिल हो सकें।

स्त्रीकाल यू ट्यूब चैनल से भारतीय महिला मोर्चा की अध्यक्ष की बातचीत : 



कुछ राज्यों में यह हिस्सेदारी बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दी गई है। एक ओर जहां पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी स्वागतयोग्य थी वहीं भारतीय महिलाएं अभी भी संसद  और विधानसभाओं में इतनी ही भागीदारी हासिल करने के लिए संघर्ष कर रही हैं। इन जगहों पर कुल सदस्यों में महिलाओं की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत के आसपास है। यह बात दर्शाती है कि सत्ता में बैठे लोगों में इस मुद्दे को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति किस कदर कम है।

समाज के तमाम वर्गों की महिलाओं हर प्रतिकूल परिस्थितियों और विरोध के बावजूद विभिन्न पदों पर रहते हुए महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। निस्संदेह उन्होंने अपनी शासन क्षमता भी दर्शाई है और इस प्रकार संसद और विधानसभाओं में आरक्षण का अपना दावा मजबूत किया है। महिला आरक्षण बिल सबसे पहले 12 सितंबर 1996 को लोकसभा में पेश किया गया था। हालांकि तब से अब तक इसे कई बार संसद में पेश किया जा चुका है लेकिन न तो इस पर विचार हुआ है और न ही मतदान। एक के बाद एक सरकारों ने राजनीतिक सहमति की कमी का हवाला देकर इसे टाला है। संसद का कोई नियम नहीं कहता है कि किसी विधेयक के पारित होने के लिए आम सहमति आवश्यक है। प्रश्न यह उठता है कि फिर वह कौन सी बात है जो विधि निर्माताओं को इस विधेयक का भाग्य निर्धारण करने से रोक रही है? दो समितियों ने इस विधेयक पर व्यापक विमर्श किया और दूसरी समिति ने दिसंबर 2009 में अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी। रिपोर्ट में विधेयक को मौजूदा स्वरूप में ही प्रवर्तित करने की बात कही गई थी। 9 मार्च 2010 को राज्य सभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण विधेयक पारित हो गया। वह एक ऐतिहासिक अवसर था जब देश की महिलाओं के मन में यह उम्मीद पैदा हुई थी कि यह विधेयक जल्द ही लोकसभा में पारित होकर कानून बन जाएगा। दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। वर्ष 2014 में 15वीं लोकसभा के अवसान के साथ भी विधेयक भी स्वत: समाप्त हो गया।
महिला आरक्षण पर बातचीत : 

हम यह उल्लेख करना चाहेंगे कि भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में यह आश्वस्ति दी थी कि महिला विधेयक को पारित किया जाएगा। उसने महिलाओं से यह वादा किया था कि देश की सर्वोच्च संस्था में महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकारों की पर्याप्त उपस्थिति सुनिश्चित की जाएगी, उसे मान्यता दी जाएगी। बहरहाल, मौजूदा सरकार मई 2014 में सत्ता में आई और तब से अब तक इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। इस बीच 22 महीने और संसद के पांच सत्र बीत चुके हैं लेकिन हकीकत यही है कि इस मुद्दे को कभी संसद में नहीं उठाया गया। केंद्रीय विधि मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने 7 अगस्त, 2015  को राज्य सभा को एक लिखित उत्तर में कहा कि ‘सरकार ने इस विधेयक को लेकर किसी राजनीतिक दल या अन्य अंशधारक से चर्चा आरंभ नहीं की है।’ उन्होंने यह भी कहा ‘संविधान संशोधन के लिए संबंधित विधेयक को सदन में पेश करने के पहले इस विषय पर सभी राजनीतिक दलों के बीच विचार विमर्श कर सहमति निर्मित करने की आवश्यकता है।’

एक बार फिर ऐसा लगता है कि यह विधेयक पितृसत्तात्मक मानसिकता का शिकार हो जाएगा और वे लोग इसकी राह रोक देंगे जो यह नहीं समझ पा रहे हैं एक मजबूत और जीवंत लोकतांत्र वही होगा जहां सरकार के सभी स्तरों पर महिलाओं की समान भागीदारी होगी। महिला एवं बाल विकास मंत्री ने भी 14 सिंतबर 2015 को एक लिखित उत्तर में कहा कि विधेयक महत्त्वूपर्ण है लेकिन इसमें कुछ संशोधनों की आवश्यकता है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि वह निकट भविष्य में इसे संसद में पेश होता नहीं देखतीं।
देश की महिलाओं ने शांतिपूर्ण संघर्ष किया है और उन्होंने महिला आरक्षण विधेयक के पारित होने के लिए 19 वर्ष लंबी प्रतीक्षा की है। नेतागण सार्वजनिक मंचों पर तो महिला आरक्षण की हिमायत करते हैं लेकिन प्रधानमंत्री की महिलाआधारित विकास और महिला प्रतिनिधियों के लिए ई-मंच जैसी बातों को तब तक केवल प्रतीकात्मक माना जाएगा जब तक इस गतिरोध को दूर करने के लिए ठोस और गंभीर प्रयास नहीं किए जाते। संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं की बेहतर भागीदारी की कमी और उनको इन स्थानों से दूर रखने का सिलसिला बिना किसी देरी के तत्काल समाप्त होना चाहिए।
इसलिए हम अधोहस्ताक्षरी मांग करते हैं कि
महिला आरक्षण विधेयक को तत्काल विचारार्थ सदन में पेश किया जाए और संसद के आगामी सत्र में उस पर मतदान कराया जाए। ताकि देश के विधयी इतिहासत में एक नए युग की शुरुआत हो।
अनुवाद : पूजा सिंह 

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