दलित स्त्रीवाद : स्त्रीवाद और दलितवाद का विकास

बजरंग बिहारी तिवारी

बजरंग बिहारी तिवारी हिंदी के प्रसिद्द आलोचक हैं।  दलित मुद्दों पर इनकी प्रतिबद्धता जगजाहिर है और यही इनके आलोचकीय व्यक्तिव की खासियत भी है। सम्पर्क  .९८६८२६१८९५

सुनने में अटपटा भले लगे, पर दलित स्त्रीवाद का आगमन कुछ अवधारणाओं के अंत की सूचना देता है. इस कथन को नरम और ग्राह्य बनाने के लिए ऐसे भी कहा जा सकता है कि दलित स्त्रीवाद उन अवधारणाओं के वर्तमान स्वरूप की समाप्ति का सूचक है. ये अवधारणाएं हैं दलितवाद और स्त्रीवाद. अब अगर स्त्रीवाद और दलितवाद को प्रासंगिक बने रहना है, तो उन्हें दलित स्त्रीवाद की वैचारिकी को स्वीकार कर उसके अनुरूप ढलना होगा. विषमता-पीड़ित दुनिया के लिए जो महत्त्व कम्युनिस्ट घोषणापत्र का है, कम से कम भारत के लिए कुछ वैसा ही महत्त्व दलित स्त्रीवाद का है. सूक्ष्म भाषिक अभिव्यक्तियों से लेकर स्थूल जीवन व्यवहार में हिंसा की जैसी व्याप्ति इस समाज में है उसकी माकूल चिकित्सा दलित स्त्रीवाद के पास है. इतिहास के परिप्रेक्ष्य में यह विचित्र किंतु सुखद संयोग है कि जिस वर्ष 1848 में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो आया उसी वर्ष महात्मा जोतीराव फुले ने प्रथम स्त्री विद्यालय खोला. स्त्री शिक्षा के इस प्रयास पर जिस तरह से हमले हुए, जितने सामाजिक कोनों से हमले हुए उससे वर्चस्व की प्रकृति और पकड़ का अनुमान किया जा सकता है. अपने उदय के साथ दलित स्त्रीवाद ने कुछ मिथकों को ध्वस्त किया है. ध्वस्त हुए मिथक मुख्यत: तीन वर्गों में रखे जा सकते है. एक, सभी स्त्रियों के दुख एक जैसे होते है. दो, सभी दलितों की पीड़ा एक-सी होती है. तीन, घर से बाहर निकलना, कामकाजी होना सशक्तीकरण का एकमात्र तरीका है. ‘सामान्य’ स्त्रीवादियों में जाति और वर्गबोध की जैसी जकड़बंदी है उसका ठीक से खुलासा मुश्किल था, अगर दलित स्त्रियों ने अपनी आवाज बुलंद न की होती.

दलितवाद समता के अपने दावे में पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों और मूल्यों को किस तरह संजोए हुए है इसका प्रत्यक्षीकरण कठिन था, अगर आंदोलन में दलित स्त्री की भागीदारी न हुई होती. दलित स्त्रियां तो पहले से घर से बाहर जाकर काम करती रही हैं, फिर भी उनकी हालत बदतर बनी रही है. इससे कुलीन विचारकों की यह मान्यता संदिग्ध हो जाती है कि घर से बाहर निकलना और काम करना बेहतर जीवन की अनिवार्य पूर्वशर्त है. जिस समय किस्म-किस्म  के अस्मितावादी चयनित मिथकों के उन्नयन और नए मिथकों के निर्माण में लगे हुए हैं, उस समय मिथक-मात्र के प्रति दलित स्त्रीवाद का रवैया बेरुखी भरा है. यह बात गौरतलब है कि अपने आंदोलन और आकांक्षित समाज के लिए दलित स्त्रीवाद मिथकों या मिथकीय चरित्रों को गैर-जरूरी मानता प्रतीत होता है. मिथकों से मुक्ति के लिए मिथकशास्त्र का अध्ययन आवश्यक है. इस अध्ययन में दलित स्त्रीवाद की बेशक दिलचस्पी है, लेकिन आगम-निगम स्रोतों से मिथकीय पात्र खोज कर लाने और उन्हें आदर्श की तरह या अभीप्सित ‘विक्टिम’ की तरह प्रस्तुत करने, तदनुरूप रणनीति बनाने से भरसक बचने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है. भविष्योन्मुखी आंदोलन के हामी जानते हैं कि मिथक-मार्ग स्निग्ध और इसलिए रपटीला होता है. निस्संदेह स्निग्धता आकर्षित करती है, पर यह प्रलोभन देर तक, दूर तक साथ नहीं देता. उदाहरण के लिए एकलव्य का मिथक ले. पतित गुरु द्रोण से शिष्य बनाने का अनुरोध करता एकलव्य बार-बार अपने को राजा का बेटा बताता है. अगर द्रोण के गुरुकुल में राजा के बेटे ही प्रवेश पा सकते हैं, तो वह भी यह अर्हता पूरी करता है. अब जो न तो राजपरिवार के हैं और न राजकुमार, वे भला इस मिथक को अन्यों के समान क्योंकर अपनाएंगे!

चूंकि दलित स्त्रीवाद दलितवाद और स्त्रीवाद दोनों के लिए असुविधाजनक था, इसलिए इनमें से किसी ने उसका इस्तकबाल नहीं किया. स्त्रीवाद ने मुख्यतया खामोशी अख्तियार कर और दलितवाद ने मुखर विरोध कर अपनी मंशा जाहिर की. जितनी उग्रता से हिंदी में दलित स्त्रीवाद पर आक्रमण हुए उसकी मिसाल किसी दूसरी भारतीय भाषा में नजर नहीं आती. अपनी विकासयात्रा में दलितवाद फुले-आंबेडकर से दूर चला गया था. दलित स्त्रीवाद ने फिर उनकी वैचारिकी से सीधा और सार्थक संवाद कायम किया. आंबेडकरी आंदोलन में कार्यकर्त्ता रहीं मराठीभाषी कौशल्या बैसंत्री ने हिंदी में आत्मकथा लिख कर युगांतकारी दायित्व निभाया, तो उसी पृष्ठभूमि की विमल थोरात ने दलित स्त्री की चिंतनशील धारा को मजबूती दी. अपने ‘पदचाप’ काव्य संग्रह से रजनी तिलक ने दलित साहित्य में वृहद् संस्थागत विमर्श से आगे जाकर बुनियादी सामाजिक ईकाइयों पर पुनर्विचार का सूत्रपात किया और सामान्य स्त्रीवाद की विकट सीमाएं रेखांकित करते हुए अनिता भारती ने शिद्दत से अहसास कराया कि आंतरिक असहमतियों पर परदा डालने से समस्याएं जटिलतर होती जाएंगी. उन्हीं के प्रयास से प्रथम दलित शिक्षिका सावित्रीबाई फुले की रचनाएं हिंदीभाषियों को उपलब्ध हो सकी. फुले-आंबेडकर के आंदोलन और बौद्धिक संपदा की उत्तराधिकारी इन संघर्षचेता लेखिकाओं ने दलित स्त्री आंदोलन की बुनियाद मजबूत की और ऊर्जा और दिशा के मूल स्रोत से उसका जुड़ाव सुनिश्चित किया.

पिकासो की पेंटिंग

अकारण नहीं है कि दोनों तरफ के वर्चस्ववादियों के निशाने पर यही लेखिकाएं है. दलित साहित्य की पहचान उसकी कथ्य केंद्रीयता है. यहां अंतर्वस्तु ही मुख्य है, शिल्प नही. समस्त जोर इस पर रहता है कि क्या कहना है, कैसे कहना है यह मुद्दा पीछे पड़ जाता है. दलित स्त्रीवाद ने इसे बदल दिया. अंतर्वस्तु मूल्यवान है, इसलिए उसके संप्रेषण की प्रक्रिया पर भी उतना ही ध्यान दिया जाना चाहिए. दलित स्त्रीवाद इसीलिए ‘क्या कहा जा रहा है’ के साथ ‘कैसे कहा जा रहा है’ को भी बराबर का महत्त्व देता है. दलित अनुभव वैयक्तिक संपत्ति नहीं है. वह सामुदायिक पूंजी है. उसे बरतने में गहन दायित्वबोध का होना अपेक्षित है. इस भेद को समझने के कारण ही दलित स्त्रीवाद अनुभवपूरित अंतर्वस्तु को लेकर बेहद संवेदनशील है. शिल्प, शैली, भाव, भाषा, भंगिमा सब उसके लिए कथ्य जितना वजन रखते है. दलित साहित्य का स्वर आक्रामक है. आक्रोश उसकी पहचान है. यह आक्रामकता भीतरी और बाहरी दबावों से उपजी है. अटूट सामाजिक हिंसा से टकराती कलम स्वाभाविक रूप से आक्रामक हो जाएगी. दलित स्त्रीवाद ने इस ‘स्वाभाविकता’ में परिवर्तन किया. आक्रोश की धार कुंद किए बगैर अपने लेखन को संवादधर्मी बनाया. संवादधर्मिता की गुंजाइश रचने के लिए विषयवस्तु में विस्तार किया गया, अंदाजे-बयां में किंचित तब्दीली की गई और धीरज का अनुपात बढ़ाया गया. लेखन की एक थीम के तौर पर प्रेम का पहली बार प्रवेश हुआ. जो कथ्य कभी विचलन के रूप में देखा जाता था उसे स्वीकार करने के निहितार्थों और नतीजों पर अभी ठीक से विचार नहीं किया गया है.

प्रतिरोधी धाराओं में अक्सर घालमेल कर दिया जाता है. एक से दूसरी धारा का फर्क समझना कई कारणों से जरूरी है. जाति-वर्ण विरोधी चेतना, दलित चेतना और दलित जीवनानुभव में पगी चेतना भिन्न-भिन्न है. साहित्य से उदाहरण दें तो कबीर पहले वर्ग में आएंगे. ध्यान न रहने से अक्सर उन्हें दलित चेतना का कवि बता दिया जाता है.दलित चेतना में पैंथर और उससे निसृत धाराओं के रचनाकार आएंगे. तीसरे वर्ग में दलित स्त्रीवादी रचनाकार है. इस वर्ग के आदि कवि संत रविदास है. दलित स्त्रीवाद कबीर के भाव-जगत से संबद्ध होने में दिक्कत का अनुभव करता है, जबकि रविदास को वह सहज ही अपना सकता है. इसकी कुछ तो वजह होगी कि कबीर को अपने गुरुओं की सूची में रखने के बावजूद डॉ. आंबेडकर ने उन पर शायद ही कभी लिखा, जबकि बुद्ध और फुले को उन्होंने कभी विस्मृत नहीं किया. फुले को अपनी महत्त्वपूर्ण किताब समर्पित की और जीवन का आखिरी वृहद् ग्रंथ बुद्ध और उनके धम्म पर लिखा.

जनसत्ता से साभार 

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